शनिवार, 25 फ़रवरी 2012

स्वप्नदर्शी नेहरु ने कांग्रेस में शामिल होने के लिये मुख्यमंत्री पद देने की बात कही थी


राष्ट्रपति भवन में थोड़ी देर बाद मैंने उन्हें अपनी टेबल की ओर आता देखा। मई घबरा गयी और कुछ नर्वस हो गयी। तब तक नेहरूजी मेरे पास आ पहुंचे। इतने नजदीक देखकर मुझे कुछ सूझ नही रहा था। मैं खड़ी हो गयी। वे काफी वरिष्ठ थे लेकिन उनकी उम्र से उनके व्यक्तित्व पर तब तक कोई असर नहीं पड़ा था। उनके साथ उनका कोई असिस्टेंट भी चल रहा था। मेरी ओर देखने के बाद प्रश्नवाचक दृष्टि से उसकी ओर देखा। उसने जल्दी से अंग्रेजी में उन्हें कहा, "शी इज एन एमपी"ज वाइफ फ्रॉम एम.पी।" मुझे आज तक नहीं पता कि उस व्यक्ति को ये कैसे पता था। पर ये सुनकर नेहरूजी ने कुछ क्षण मुझे अपलक देखा और फिर आँखों में प्रश्न लाकर पूछा, "होमी दाजी?" मैंने "हाँ" में सर हिलाया लेकिन मैं क्या बताऊँ कि मेरी हालत क्या हो रही थी। नेहरूजी द्वारा पहचान लिये जाने से बहुत ख़ुशी तो हो ही रही थी लेकिन पता नहीं क्यों, शर्म भी बहुत आ रही थी।
मेरा सर हिलाना था कि नेहरूजी ने मुझे कन्धों से पकड़ लिया और बोले, "ही इज ए ब्रिलियंट बॉय।" उस वक्त दाजी सबसे काम उम्र के सांसद थे। फिर नेहरु जी बोले, "पता नहीं ये लड़का कहाँ-कहाँ से चीजें ढूंढ कर लाता है और हमसे पार्लियामेंट में इतने सवाल करता है कि हमें मुश्किल हो जाती है। तुम जरा उसकी लगाम खींचकर उसे घर में ही रखा करो ताकि हमें थोडा आराम रहे। हम रोज ये सोचकर सदन में जाते हैं कि पता नहीं आज दाजी क्या पूछेगा।" नेहरु जी के मजाकिया लहजे ने मेरी घबराहट कुछ कम कर दी। मैंने भी सम्मान से जवाब दिया, "सर, संसद बेलगाम न हो जाए, इसके लिये मैंने उनकी लगाम छोड़ दी है।" यह सुनते ही नेहरूजी ठहाका मारकर हँसे और मेरी पीठ थपथपाकर अपने साथ वाले व्यक्ति से बोले, "देखो, ये तो दाजी से भी दो कदम आगे है।" कहकर वे आगे बढ़ने लगे। मैंने उन्हें नमस्कार किया। वे तीन-चार कदम आगे चलकर रुके और वापस आकर बोले, " अगर वह मेरी पार्टी में जाए तो मैं उसे चीफ मिनिस्टर बना सकता हूँ" मैं एकदम हडबडा गयी। फिर मुंह से निकला, "सर , एक ईमानदार और समर्पित कम्युनिस्ट वहां कांग्रेस में कैसे काम कर सकता है? वह जहाँ है, वहीँ ठीक है। उसे वहीँ रहने दीजिये।" कह तो दिया लेकिन मन में बहुत घबराहट भी हुई। इतने महान, विद्वान और देशभक्त व्यक्ति को उसकी पार्टी के बारे में ऐसा कहना मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा था। पर अब क्या। अब तो बात निकल गयी। लेकिन नेहरूजी की बात ही कुछ और थी। उन्होंने हँसते हुए मेरी पीठ पर एक बुजुर्ग की तरह हाथ फेरा और चले गए।
यह बात पेरिन दाजी की किताब "यादों की रौशनी में" संपादक विनीत तिवारी से साभार लिया गया है

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