एक ओर रोज़गार तथा व्यावसायिक शिक्षा के अवसरों का बड़े नगरों तक केन्द्रित होते जाना, विपुल सम्पदा तथा आधुनिकता की चकाचैंध का बढ़ना, दूसरी ओर सामाजिक पिछड़पन, शिक्षा व रोज़गार के अवसरों का सीमित होना, आधुनिकता के अवदानों की वंचना। फलस्वरूप ग्रामीण अंचलों, छोटे शहरों तथा अन्य पिछड़े क्षेत्रों से युवा वर्ग तथा दूसरे आयुवर्ग के लोगों का बड़े नगरों की ओर पलायन। ऐसे में युवाओं पर जीवन शैली को बदलने का दबाव बनना लाज़मी है। खुली हवा में साँस लेने के लिये बेचैन बेटियाँ जबरन थोपी गयी वर्जनाएं तोड़ती हैं, अपनी साहसिकता में कुछ ख़तरे भी उठाती हैं। मुक्ति के चिन्तन के साथ आगे बढ़ना है तो ख़तरे उठाना ही होंगे, मुक्तिबोध को याद कीजिये-
तोड़ने होंगे गढ़ और मठ सब
जाना होगा दुर्गम पहाड़ो के उस पार
यही वह मक़ाम है जहाँ बदलती सोच और जीवन पद्धति तथा जड़ संस्कारों के साथ होने वाले टकराव से पैदा हुए अन्तर्विरोध सामने आते है। रिश्तों की स्वाभाविकता तथा पवित्रता पर सन्देह करने वाले मुखर होते हैं। इस स्वाभाविकता व पवित्रता पर छापा मारने के लिये वह व्याकुल हो उठते हैं।
जि़म्मेदार व सभ्य नागरिक का विवेक व संस्कार न दे सकने वाला शिक्षा तंत्र तथा परिवार संस्था की कमज़ोरी के कारण भी हालात बिगड़े हैं। नशे के ख़तरों को जानते हुए भी सरकारों द्वारा शराब की सुलभता को नित नया विस्तार देने की नीतियों ने भी सामाजिक अराजकता को नयी उठान दी है। यह उपनिवेशवादी प्रवृत्ति है, जो संकेत करती है कि सरकारें जानता को अपना उपनिवेश बना कर रखना चाहती है। आर्थिक लाभ तथा युवा पीढ़ी में संघर्षशीलता की धार को कुन्द करने की मंशा से शराब माफि़याओं से सरकारों की साँठ-गाँठ किसी से छिपी नहीं है। जनविरोधी सत्ताएँ हमेशा ही से अपने विरुद्ध प्रतिरोध की संभावना को कुन्द करने के लिये नशाखोरी का इस्तेमाल करती आयी हैं। समूचे शिक्षा तंत्र, आबकारी नीति, की क़ानून, पुलिस व्यवस्था तथा न्याय प्रणाली की सघन समीक्षा के साथ समानुपातिक सामाजिक विकास को सिद्धान्त लागू किए बिना हालात में अपेक्षित तब्दीली संभव नहीं है। स्त्री के सम्मान को, उसकी प्रगति की समस्त संभावनाओं को सुनिश्चित कर सकने वाले सांस्कृतिक दृष्टिकोण की भी उतनी ही ज़रूरत है। उल्लेखनीय है कि सरकारें अपने कार्यक्रमों में सजी-धजी महिलाओं को सज्जा की वस्तु के रूप में प्रस्तुत करती हैं। ऐसी सुन्दरियाँ उन्हें सम्मोहित करती हैं, जिनके अधरों पर मादक मुस्कान हो, शब्द नहीं, चेहरे पर मृदुलता हो तनाव नहीं। आंखों में चमक हो, प्रश्न नहीं।
इसे बाज़ार वादी दृष्टिकोण ही कहा जायेगा। रोजे़ रौशन की तरह यह सब पर अयाँ (प्रकट) है कि आक्रामक होते बाज़ार तथा बाज़ारवादी दृष्टिकोण ने स्त्री का संकट बढ़ाया है। उसे माल बेचने का साधन, कई बार तो स्वयं उसे माल बना दिया। उपभोक्ता को ललचाने के उपक्रम मे वो स्वयं उपभोक्ता सामग्री में बदलते हुए यौन वस्तु बन गयी है। सभी तरह के विज्ञापनों के स्त्री विरोधी चरित्र पर फ़ौरी तौर पर अंकुश लगाने की आवश्यकता तो है ही।
विज्ञापनदाताओं को आकर्षित करने के उद्देश्य से टी0वी0 सीरीयल्स बनाने वालों ने बाज़ारवादी शक्तियों से धृणित समझौते किए हैं। जिस प्रकार भारतीय सिनेमा ने स्त्री के साथ विराटता ग्रहण करता आघातक़ारी विश्वासघात किया ठीक उसी तरह चैनल्स भी आमतौर पर स्त्री को अवमूल्यित करने के षड्यन्त्रों का हिस्सा बने हुए हैं। इन सीरियल्स में स्त्रियाँ या तो एक दूसरे के विरुद्ध षड्यन्त्र कर रही होती हैं अथवा अपना गर्भ किराये पर उठा रही होती है। उनकी दिलचस्पी प्रायः ग़ैर वैवाहिक, इतर पति सम्बन्धांे में होती है, धार्मिक परम्पराओं, आरोपित सामाजिक मूल्यों को बचाने या फिर स्त्री की रुढि़वादी छवि को सुरक्षित रखने में। चैनल्स ने फि़ल्मों के समान ही धार्मिक अन्ध विश्वास कर्मकाण्ड तथा रुढि़वाद के महिमामण्डन से स्त्री की कठिनाई को जटिल बनाया है। उसकी सामाजिक गतिविधि को बाधित किया है तथा उसके भीतर विकसित हो सकने वाले आत्म विश्वास को पीछे की ओर धकियाया है। सिनेमा में तो तब भी एक ख़ास दौर में सही सामाजिक उद्देश्य को ख़ास महत्व प्राप्त रहा है। यर्थाथवादी सिनेमा तथा समान्तर सिनेमा की भी एक धारा रही है। स्त्री संघर्षशीलता अपनी वास्तविक ज़मीन खोजती हुई चित्रित हुई है। कुछ फि़ल्मों में तो अन्याय व अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष में वो नेतृत्व कारी भूमिका में है। इन संघर्षों के सरोकार वृहत्तरता लिए हुए है। आज के सिनेमा तथा चैनल्स ने तो जैसे स्त्री की इस संघर्षशीलता का दाह संस्कार ही कर दिया। आज के सिनेमा (सब नहीं), सीरियल्स तथा विज्ञापनों के लिये स्त्री केवल देह रह गयी है। देह जिस पर हाथ फेरने मात्र से काला आदमी गोरा और मोटा आदमी स्मार्ट हो जाता है।
16 दिसम्बर को घटित घटना के विरुद्ध बेटियों का अप्रत्याशित रूप से बड़ी संख्या में प्रतिरोध के मैदान में उतरना, उनकी जीवटता, दृढ़ता तथा ख़तरे उठाने के हौसले ने मैथिलीशरण गुप्त के ‘मर्दानी’ को झुठलाते हुए साबित किया है कि वे लड़ीं इसलिये कि वह लड़कियाँ थीं। स्त्री थीं, वह लड़ी मर्दों या मर्दानों की अपेक्षा अधिक जुझारू तरीके़ से। यक़ीनन बेटे भी लड़े, भाई भी लड़े मज़बूती से लड़े लेकिन संवेदनहीनता की सीमाएँ लाँघ जाने वाली सरकार को झुका सकने वाली धार संघर्ष को बेटियों के कारण ही प्राप्त हुई।
भारतीय समाज की ऐतिहासिक उपलब्धि को अपेक्षित परिणामों तक पहुँचाने के लिये आवश्यक है कि बेटियाँ-बेटे, बहनें भाई सब यह समझें कि समानता के सिद्धान्त पर आधारित यौन हिंसा विरोधी सामाजिक चेतना को व्याप्तता में विकसित किए बिना यादगार संघर्ष के लक्ष्य केा प्राप्त कर पाना कठिन है। इसके लिये सघन सामाजिक विमर्श तथा व्यापक संवाद बनाना ही होगा। जिसकी शुरुआत यक़ीनन परिवार ही से करनी होगी।
ऐसी प्रत्येक घटना को तत्ववादी शक्तियाँ सामाजिक नैतिकता के आधार पर अपनी स्थिति मज़बूती करने के लिये इस्तेमाल करती आयी हैं धर्म गुरुओं की स्त्री विरोधी सोच ने उसके अवसाद को अधिक दंश कारी बनाया है। सह शिक्षा लिबास, सामाजिक सक्रियता तथा आज़ादाना विचरण हमेशा उनके निशाने पर रहे हैं। वह भूल जाते हैं कि बलात्कार तथा दूसरे प्रकार की यौन हिंसा के पीछे स्त्री पुरुष यानी कि लड़के लड़कियों के बीच एक मोटी दीवार का, घने अजनबी पन और सान्निध्य का कुण्ठाजनक अभाव प्रमुख रूप से उपस्थित है। यौन उत्तेजना को गति देने वाले वातावरण ने लड़के-लड़कियों को एक दूसरे के निकट आने की ललक को बढ़ाया है। बावजूद इसके बलात्कार के लिये इस ललक केा कारण मानना तथ्य संगत नहीं है। बलात्कार से इतर यौन हिंसा की दूसरी गतिविधियों में इस ललक की उपस्थिति संभव हो सकती है। सच पूछिये तो सह शिक्षा ने हालात को भयावह हद तक जाने से बचाया है, अनुभव बताते हैं कि सह शिक्षा की व्याप्तता हालात को बेहतर बनायेगी बिगाड़ेगी नहीं। समाज के आधुनिक विकास के लिये स्त्री का घर से बाहर निकलना नितान्त आवश्यक है, स्वयं उसके सुख के लिये आत्मनिर्भरता बेहतर स्थिति हो सकती है। धर्मों-मजहबांे से स्त्री के सेविका स्वरूप को आदर्श स्त्री का चिंतन लेने वाले उसकी आज़ादी, आत्मनिर्भरता, सामाजिक भागीदारी को कैसे स्वीकार कर सकते हैं।
समाज के आधुनिक विकास को अवरूद्ध करना आत्मघाती साबित होगा। आधुनिकता के इस महा अभियान में सबकी साझी भूमिका है फिर भी लड़कियों की तरक़्क़ी बताती है कि समाज सभ्यता तथा आधुनिकता के किस मुहाने तक पहुँच पाया है। मध्य युगीन जीवन मूल्यों से हम कितना मुक्त हो पाये हैं।
जिस समाज में औरतों को खुली हवा में साँस लेने, खिलखिलाने, चीख़ने, ज्ञान के नये क्षेत्रों में जाने, आत्मनिर्भर होने तथा अपनी प्रतिभा के जौहर दिखाने अपनी अस्मिता के संघर्ष पर पाबन्दी हो, वह समाज नहीं क़ैद ख़ाना है। ऐसे कै़दख़ाने की सलाख़ों का टूटना ही बेहतर है।
- शकील सिद्दीक़ी
लोकसंघर्ष पत्रिका में शीघ्र प्रकाश्य
तोड़ने होंगे गढ़ और मठ सब
जाना होगा दुर्गम पहाड़ो के उस पार
यही वह मक़ाम है जहाँ बदलती सोच और जीवन पद्धति तथा जड़ संस्कारों के साथ होने वाले टकराव से पैदा हुए अन्तर्विरोध सामने आते है। रिश्तों की स्वाभाविकता तथा पवित्रता पर सन्देह करने वाले मुखर होते हैं। इस स्वाभाविकता व पवित्रता पर छापा मारने के लिये वह व्याकुल हो उठते हैं।
जि़म्मेदार व सभ्य नागरिक का विवेक व संस्कार न दे सकने वाला शिक्षा तंत्र तथा परिवार संस्था की कमज़ोरी के कारण भी हालात बिगड़े हैं। नशे के ख़तरों को जानते हुए भी सरकारों द्वारा शराब की सुलभता को नित नया विस्तार देने की नीतियों ने भी सामाजिक अराजकता को नयी उठान दी है। यह उपनिवेशवादी प्रवृत्ति है, जो संकेत करती है कि सरकारें जानता को अपना उपनिवेश बना कर रखना चाहती है। आर्थिक लाभ तथा युवा पीढ़ी में संघर्षशीलता की धार को कुन्द करने की मंशा से शराब माफि़याओं से सरकारों की साँठ-गाँठ किसी से छिपी नहीं है। जनविरोधी सत्ताएँ हमेशा ही से अपने विरुद्ध प्रतिरोध की संभावना को कुन्द करने के लिये नशाखोरी का इस्तेमाल करती आयी हैं। समूचे शिक्षा तंत्र, आबकारी नीति, की क़ानून, पुलिस व्यवस्था तथा न्याय प्रणाली की सघन समीक्षा के साथ समानुपातिक सामाजिक विकास को सिद्धान्त लागू किए बिना हालात में अपेक्षित तब्दीली संभव नहीं है। स्त्री के सम्मान को, उसकी प्रगति की समस्त संभावनाओं को सुनिश्चित कर सकने वाले सांस्कृतिक दृष्टिकोण की भी उतनी ही ज़रूरत है। उल्लेखनीय है कि सरकारें अपने कार्यक्रमों में सजी-धजी महिलाओं को सज्जा की वस्तु के रूप में प्रस्तुत करती हैं। ऐसी सुन्दरियाँ उन्हें सम्मोहित करती हैं, जिनके अधरों पर मादक मुस्कान हो, शब्द नहीं, चेहरे पर मृदुलता हो तनाव नहीं। आंखों में चमक हो, प्रश्न नहीं।
इसे बाज़ार वादी दृष्टिकोण ही कहा जायेगा। रोजे़ रौशन की तरह यह सब पर अयाँ (प्रकट) है कि आक्रामक होते बाज़ार तथा बाज़ारवादी दृष्टिकोण ने स्त्री का संकट बढ़ाया है। उसे माल बेचने का साधन, कई बार तो स्वयं उसे माल बना दिया। उपभोक्ता को ललचाने के उपक्रम मे वो स्वयं उपभोक्ता सामग्री में बदलते हुए यौन वस्तु बन गयी है। सभी तरह के विज्ञापनों के स्त्री विरोधी चरित्र पर फ़ौरी तौर पर अंकुश लगाने की आवश्यकता तो है ही।
विज्ञापनदाताओं को आकर्षित करने के उद्देश्य से टी0वी0 सीरीयल्स बनाने वालों ने बाज़ारवादी शक्तियों से धृणित समझौते किए हैं। जिस प्रकार भारतीय सिनेमा ने स्त्री के साथ विराटता ग्रहण करता आघातक़ारी विश्वासघात किया ठीक उसी तरह चैनल्स भी आमतौर पर स्त्री को अवमूल्यित करने के षड्यन्त्रों का हिस्सा बने हुए हैं। इन सीरियल्स में स्त्रियाँ या तो एक दूसरे के विरुद्ध षड्यन्त्र कर रही होती हैं अथवा अपना गर्भ किराये पर उठा रही होती है। उनकी दिलचस्पी प्रायः ग़ैर वैवाहिक, इतर पति सम्बन्धांे में होती है, धार्मिक परम्पराओं, आरोपित सामाजिक मूल्यों को बचाने या फिर स्त्री की रुढि़वादी छवि को सुरक्षित रखने में। चैनल्स ने फि़ल्मों के समान ही धार्मिक अन्ध विश्वास कर्मकाण्ड तथा रुढि़वाद के महिमामण्डन से स्त्री की कठिनाई को जटिल बनाया है। उसकी सामाजिक गतिविधि को बाधित किया है तथा उसके भीतर विकसित हो सकने वाले आत्म विश्वास को पीछे की ओर धकियाया है। सिनेमा में तो तब भी एक ख़ास दौर में सही सामाजिक उद्देश्य को ख़ास महत्व प्राप्त रहा है। यर्थाथवादी सिनेमा तथा समान्तर सिनेमा की भी एक धारा रही है। स्त्री संघर्षशीलता अपनी वास्तविक ज़मीन खोजती हुई चित्रित हुई है। कुछ फि़ल्मों में तो अन्याय व अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष में वो नेतृत्व कारी भूमिका में है। इन संघर्षों के सरोकार वृहत्तरता लिए हुए है। आज के सिनेमा तथा चैनल्स ने तो जैसे स्त्री की इस संघर्षशीलता का दाह संस्कार ही कर दिया। आज के सिनेमा (सब नहीं), सीरियल्स तथा विज्ञापनों के लिये स्त्री केवल देह रह गयी है। देह जिस पर हाथ फेरने मात्र से काला आदमी गोरा और मोटा आदमी स्मार्ट हो जाता है।
16 दिसम्बर को घटित घटना के विरुद्ध बेटियों का अप्रत्याशित रूप से बड़ी संख्या में प्रतिरोध के मैदान में उतरना, उनकी जीवटता, दृढ़ता तथा ख़तरे उठाने के हौसले ने मैथिलीशरण गुप्त के ‘मर्दानी’ को झुठलाते हुए साबित किया है कि वे लड़ीं इसलिये कि वह लड़कियाँ थीं। स्त्री थीं, वह लड़ी मर्दों या मर्दानों की अपेक्षा अधिक जुझारू तरीके़ से। यक़ीनन बेटे भी लड़े, भाई भी लड़े मज़बूती से लड़े लेकिन संवेदनहीनता की सीमाएँ लाँघ जाने वाली सरकार को झुका सकने वाली धार संघर्ष को बेटियों के कारण ही प्राप्त हुई।
भारतीय समाज की ऐतिहासिक उपलब्धि को अपेक्षित परिणामों तक पहुँचाने के लिये आवश्यक है कि बेटियाँ-बेटे, बहनें भाई सब यह समझें कि समानता के सिद्धान्त पर आधारित यौन हिंसा विरोधी सामाजिक चेतना को व्याप्तता में विकसित किए बिना यादगार संघर्ष के लक्ष्य केा प्राप्त कर पाना कठिन है। इसके लिये सघन सामाजिक विमर्श तथा व्यापक संवाद बनाना ही होगा। जिसकी शुरुआत यक़ीनन परिवार ही से करनी होगी।
ऐसी प्रत्येक घटना को तत्ववादी शक्तियाँ सामाजिक नैतिकता के आधार पर अपनी स्थिति मज़बूती करने के लिये इस्तेमाल करती आयी हैं धर्म गुरुओं की स्त्री विरोधी सोच ने उसके अवसाद को अधिक दंश कारी बनाया है। सह शिक्षा लिबास, सामाजिक सक्रियता तथा आज़ादाना विचरण हमेशा उनके निशाने पर रहे हैं। वह भूल जाते हैं कि बलात्कार तथा दूसरे प्रकार की यौन हिंसा के पीछे स्त्री पुरुष यानी कि लड़के लड़कियों के बीच एक मोटी दीवार का, घने अजनबी पन और सान्निध्य का कुण्ठाजनक अभाव प्रमुख रूप से उपस्थित है। यौन उत्तेजना को गति देने वाले वातावरण ने लड़के-लड़कियों को एक दूसरे के निकट आने की ललक को बढ़ाया है। बावजूद इसके बलात्कार के लिये इस ललक केा कारण मानना तथ्य संगत नहीं है। बलात्कार से इतर यौन हिंसा की दूसरी गतिविधियों में इस ललक की उपस्थिति संभव हो सकती है। सच पूछिये तो सह शिक्षा ने हालात को भयावह हद तक जाने से बचाया है, अनुभव बताते हैं कि सह शिक्षा की व्याप्तता हालात को बेहतर बनायेगी बिगाड़ेगी नहीं। समाज के आधुनिक विकास के लिये स्त्री का घर से बाहर निकलना नितान्त आवश्यक है, स्वयं उसके सुख के लिये आत्मनिर्भरता बेहतर स्थिति हो सकती है। धर्मों-मजहबांे से स्त्री के सेविका स्वरूप को आदर्श स्त्री का चिंतन लेने वाले उसकी आज़ादी, आत्मनिर्भरता, सामाजिक भागीदारी को कैसे स्वीकार कर सकते हैं।
समाज के आधुनिक विकास को अवरूद्ध करना आत्मघाती साबित होगा। आधुनिकता के इस महा अभियान में सबकी साझी भूमिका है फिर भी लड़कियों की तरक़्क़ी बताती है कि समाज सभ्यता तथा आधुनिकता के किस मुहाने तक पहुँच पाया है। मध्य युगीन जीवन मूल्यों से हम कितना मुक्त हो पाये हैं।
जिस समाज में औरतों को खुली हवा में साँस लेने, खिलखिलाने, चीख़ने, ज्ञान के नये क्षेत्रों में जाने, आत्मनिर्भर होने तथा अपनी प्रतिभा के जौहर दिखाने अपनी अस्मिता के संघर्ष पर पाबन्दी हो, वह समाज नहीं क़ैद ख़ाना है। ऐसे कै़दख़ाने की सलाख़ों का टूटना ही बेहतर है।
- शकील सिद्दीक़ी
लोकसंघर्ष पत्रिका में शीघ्र प्रकाश्य
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