साम्प्रदायिक लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
साम्प्रदायिक लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

बुधवार, 23 मार्च 2016

साम्प्रदायिक दंगे और उनका इलाज- भगत सिंह

1919 के जालियँवाला बाग हत्याकाण्ड के बाद ब्रिटिश  सरकार ने साम्प्रदायिक दंगों का खूब प्रचार शुरु किया। इसके असर से 1924 में कोहाट में बहुत ही अमानवीय ढंग से हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए। इसके बाद राष्ट्रीय राजनीतिक चेतना में साम्प्रदायिक दंगों पर लम्बी बहस चली। इन्हें समाप्त करने की जरूरत तो सबने महसूस की, लेकिन कांग्रेसी नेताओं ने हिन्दू-मुस्लिम नेताओं में सुलहनामा लिखाकर दंगों को रोकने के यत्न किये।
इस समस्या के निश्चित हल के लिए क्रान्तिकारी आन्दोलन ने अपने विचार प्रस्तुत किये। प्रस्तुत लेख जून, 1928 के ‘किरती’ में छपा। यह लेख इस समस्या पर शहीद भगतसिंह और उनके साथियों के विचारों का सार है। – सं. भारत वर्ष की दशा इस समय बड़ी दयनीय है। एक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्म के अनुयायियों के जानी दुश्मन हैं। अब तो एक धर्म का होना ही दूसरे धर्म का कट्टर शत्रु होना है। यदि इस बात का अभी यकीन न हो तो लाहौर के ताजा दंगे ही देख लें। किस प्रकार मुसलमानों ने निर्दोष सिखों, हिन्दुओं को मारा है और किस प्रकार सिखों ने भी वश चलते कोई कसर नहीं छोड़ी है। यह मार-काट इसलिए नहीं की गयी कि फलाँ आदमी दोषी है, वरन इसलिए कि फलाँ आदमी हिन्दू है या सिख है या मुसलमान है। बस किसी व्यक्ति का सिख या हिन्दू होना मुसलमानों द्वारा मारे जाने के लिए काफी था और इसी तरह किसी व्यक्ति का मुसलमान होना ही उसकी जान लेने के लिए पर्याप्त तर्क था। जब स्थिति ऐसी हो तो हिन्दुस्तान का ईश्वर ही मालिक है।
ऐसी स्थिति में हिन्दुस्तान का भविष्य बहुत अन्धकारमय नजर आता है। इन ‘धर्मों’ ने हिन्दुस्तान का बेड़ा गर्क कर दिया है। और अभी पता नहीं कि यह धार्मिक दंगे भारतवर्ष का पीछा कब छोड़ेंगे। इन दंगों ने संसार की नजरों में भारत को बदनाम कर दिया है। और हमने देखा है कि इस अन्धविश्वास के बहाव में सभी बह जाते हैं। कोई बिरला ही हिन्दू, मुसलमान या सिख होता है, जो अपना दिमाग ठण्डा रखता है, बाकी सब के सब धर्म के यह नामलेवा अपने नामलेवा धर्म के रौब को कायम रखने के लिए डण्डे लाठियाँ, तलवारें-छुरें हाथ में पकड़ लेते हैं और आपस में सर-फोड़-फोड़कर मर जाते हैं। बाकी कुछ तो फाँसी चढ़ जाते हैं और कुछ जेलों में फेंक दिये जाते हैं। इतना रक्तपात होने पर इन ‘धर्मजनों’ पर अंग्रेजी सरकार का डण्डा बरसता है और फिर इनके दिमाग का कीड़ा ठिकाने आ जाता है।
यहाँ तक देखा गया है, इन दंगों के पीछे साम्प्रदायिक नेताओं और अखबारों का हाथ है। इस समय हिन्दुस्तान के नेताओं ने ऐसी लीद की है कि चुप ही भली। वही नेता जिन्होंने भारत को स्वतन्त्रा कराने का बीड़ा अपने सिरों पर उठाया हुआ था और जो ‘समान राष्ट्रीयता’ और ‘स्वराज्य-स्वराज्य’ के दमगजे मारते नहीं थकते थे, वही या तो अपने सिर छिपाये चुपचाप बैठे हैं या इसी धर्मान्धता के बहाव में बह चले हैं। सिर छिपाकर बैठने वालों की संख्या भी क्या कम है? लेकिन ऐसे नेता जो साम्प्रदायिक आन्दोलन में जा मिले हैं, जमीन खोदने से सैकड़ों निकल आते हैं। जो नेता हृदय से सबका भला चाहते हैं, ऐसे बहुत ही कम हैं। और साम्प्रदायिकता की ऐसी प्रबल बाढ़ आयी हुई है कि वे भी इसे रोक नहीं पा रहे। ऐसा लग रहा है कि भारत में नेतृत्व का दिवाला पिट गया है।
दूसरे सज्जन जो साम्प्रदायिक दंगों को भड़काने में विशेष हिस्सा लेते रहे हैं, अखबार वाले हैं। पत्रकारिता का व्यवसाय, किसी समय बहुत ऊँचा समझा जाता था। आज बहुत ही गन्दा हो गया है। यह लोग एक-दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएँ भड़काते हैं और परस्पर सिर फुटौव्वल करवाते हैं। एक-दो जगह ही नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए हैं कि स्थानीय अखबारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे हैं। ऐसे लेखक बहुत कम है जिनका दिल व दिमाग ऐसे दिनों में भी शान्त रहा हो।
अखबारों का असली कर्त्तव्य शिक्षा देना, लोगों से संकीर्णता निकालना, साम्प्रदायिक भावनाएँ हटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कर्त्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, साम्प्रदायिक बनाना, लड़ाई-झगड़े करवाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है। यही कारण है कि भारतवर्ष की वर्तमान दशा पर विचार कर आंखों से रक्त के आँसू बहने लगते हैं और दिल में सवाल उठता है कि ‘भारत का बनेगा क्या?’
जो लोग असहयोग के दिनों के जोश व उभार को जानते हैं, उन्हें यह स्थिति देख रोना आता है। कहाँ थे वे दिन कि स्वतन्त्राता की झलक सामने दिखाई देती थी और कहाँ आज यह दिन कि स्वराज्य एक सपना मात्रा बन गया है। बस यही तीसरा लाभ है, जो इन दंगों से अत्याचारियों को मिला है। जिसके अस्तित्व को खतरा पैदा हो गया था, कि आज गयी, कल गयी वही नौकरशाही आज अपनी जड़ें इतनी मजबूत कर चुकी हैं कि उसे हिलाना कोई मामूली काम नहीं है।
यदि इन साम्प्रदायिक दंगों की जड़ खोजें तो हमें इसका कारण आर्थिक ही जान पड़ता है। असहयोग के दिनों में नेताओं व पत्राकारों ने ढेरों कुर्बानियाँ दीं। उनकी आर्थिक दशा बिगड़ गयी थी। असहयोग आन्दोलन के धीमा पड़ने पर नेताओं पर अविश्वास-सा हो गया जिससे आजकल के बहुत से साम्प्रदायिक नेताओं के धन्धे चौपट हो गये। विश्व में जो भी काम होता है, उसकी तह में पेट का सवाल जरूर होता है। कार्ल मार्क्स के तीन बड़े सिद्धान्तों में से यह एक मुख्य सिद्धान्त है। इसी सिद्धान्त के कारण ही तबलीग, तनकीम, शुद्धि आदि संगठन शुरू हुए और इसी कारण से आज हमारी ऐसी दुर्दशा हुई, जो अवर्णनीय है।
बस, सभी दंगों का इलाज यदि कोई हो सकता है तो वह भारत की आर्थिक दशा में सुधार से ही हो सकता है दरअसल भारत के आम लोगों की आर्थिक दशा इतनी खराब है कि एक व्यक्ति दूसरे को चवन्नी देकर किसी और को अपमानित करवा सकता है। भूख और दुख से आतुर होकर मनुष्य सभी सिद्धान्त ताक पर रख देता है। सच है, मरता क्या न करता। लेकिन वर्तमान स्थिति में आर्थिक सुधार होेना अत्यन्त कठिन है क्योंकि सरकार विदेशी है और लोगों की स्थिति को सुधरने नहीं देती। इसीलिए लोगों को हाथ धोकर इसके पीछे पड़ जाना चाहिये और जब तक सरकार बदल न जाये, चैन की सांस न लेना चाहिए।
लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग-चेतना की जरूरत है। गरीब, मेहनतकशों व किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूँजीपति हैं। इसलिए तुम्हें इनके हथकंडों से बचकर रहना चाहिए और इनके हत्थे चढ़ कुछ न करना चाहिए। संसार के सभी गरीबों के, चाहे वे किसी भी जाति, रंग, धर्म या राष्ट्र के हों, अधिकार एक ही हैं। तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम धर्म, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता व देश के भेदभाव मिटाकर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताकत अपने हाथों मंे लेने का प्रयत्न करो। इन यत्नों से तुम्हारा नुकसान कुछ नहीं होगा, इससे किसी दिन तुम्हारी जंजीरें कट जायेंगी और तुम्हें आर्थिक स्वतन्त्राता मिलेगी।
जो लोग रूस का इतिहास जानते हैं, उन्हें मालूम है कि जार के समय वहाँ भी ऐसी ही स्थितियाँ थीं वहाँ भी कितने ही समुदाय थे जो परस्पर जूत-पतांग करते रहते थे। लेकिन जिस दिन से वहाँ श्रमिक-शासन हुआ है, वहाँ नक्शा ही बदल गया है। अब वहाँ कभी दंगे नहीं हुए। अब वहाँ सभी को ‘इन्सान’ समझा जाता है, ‘धर्मजन’ नहीं। जार के समय लोगों की आर्थिक दशा बहुत ही खराब थी। इसलिए सब दंगे-फसाद होते थे। लेकिन अब रूसियों की आर्थिक दशा सुधर गयी है और उनमें वर्ग-चेतना आ गयी है इसलिए अब वहाँ से कभी किसी दंगे की खबर नहीं आयी।
इन दंगों में वैसे तो बड़े निराशाजनक समाचार सुनने में आते हैं, लेकिन कलकत्ते के दंगों मंे एक बात बहुत खुशी की सुनने में आयी। वह यह कि वहाँ दंगों में ट्रेड यूनियन के मजदूरों ने हिस्सा नहीं लिया और न ही वे परस्पर गुत्थमगुत्था ही हुए, वरन् सभी हिन्दू-मुसलमान बड़े प्रेम से कारखानों आदि में उठते-बैठते और दंगे रोकने के भी यत्न करते रहे। यह इसलिए कि उनमें वर्ग-चेतना थी और वे अपने वर्गहित को अच्छी तरह पहचानते थे। वर्गचेतना का यही सुन्दर रास्ता है, जो साम्प्रदायिक दंगे रोक सकता है।
यह खुशी का समाचार हमारे कानों को मिला है कि भारत के नवयुवक अब वैसे धर्मों से जो परस्पर लड़ाना व घृणा करना सिखाते हैं, तंग आकर हाथ धो रहे हैं। उनमें इतना खुलापन आ गया है कि वे भारत के लोगों को धर्म की नजर से-हिन्दू, मुसलमान या सिख रूप में नहीं, वरन् सभी को पहले इन्सान समझते हैं, फिर भारतवासी। भारत के युवकों में इन विचारों के पैदा होने से पता चलता है कि भारत का भविष्य सुनहला है। भारतवासियों को इन दंगों आदि को देखकर घबराना नहीं चाहिए। उन्हें यत्न करना चाहिए कि ऐसा वातावरण ही न बने, और दंगे हों ही नहीं।
1914-15 के शहीदों ने धर्म को राजनीति से अलग कर दिया था। वे समझते थे कि धर्म व्यक्ति का व्यक्तिगत मामला है इसमें दूसरे का कोई दखल नहीं। न ही इसे राजनीति में घुसाना चाहिए क्योंकि यह सरबत को मिलकर एक जगह काम नहीं करने देता। इसलिए गदर पार्टी जैसे आन्दोलन एकजुट व एकजान रहे, जिसमें सिख बढ़-चढ़कर फाँसियों पर चढ़े और हिन्दू मुसलमान भी पीछे नहीं रहे।
इस समय कुछ भारतीय नेता भी मैदान में उतरे हैं जो धर्म को राजनीति से अलग करना चाहते हैं। झगड़ा मिटाने का यह भी एक सुन्दर इलाज है और हम इसका समर्थन करते हैं।
यदि धर्म को अलग कर दिया जाये तो राजनीति पर हम सभी इकट्ठे हो सकते है। धर्मों में हम चाहे अलग-अलग ही रहें।
हमारा ख्याल है कि भारत के सच्चे हमदर्द हमारे बताये इलाज पर जरूर विचार करेंगे और भारत का इस समय जो आत्मघात हो रहा है, उससे हमे बचा लेंगे।
आभार : यह फाइल आरोही, ए-2/128, सैक्टर-11, रोहिणी, नई दिल्ली — 110085 द्वारा प्रकाशित संकलन ‘इन्कलाब ज़िन्दाबाद’ (सम्पादक : राजेश उपाध्याय एवं मुकेश मानस) के मूल फाइल से ली गयी है।

गुरुवार, 2 जनवरी 2014

इंसाफ का कांटों भरा रास्ता:जकिया जाफरी का लंबा संघर्ष




गत 26 दिसंबर 2013 को गुजरात की एक मेट्रोपोलिटन अदालत ने नरेन्द्र मोदी और 59 अन्य आरोपियों को गुजरात कत्लेआम में उनकी भूमिका के आरोप से मुक्त कर दिया। अदालत ने एसआईटी की रिपोर्ट को पूर्णतः स्वीकार कर लिया और मोदी और उनकी सरकार की कत्लेआम में किसी भी प्रकार की भूमिका से इंकार किया। अदालत ने नरेन्द्र मोदी के विरूद्ध सन् 2002 के साम्प्रदायिक दंगों के मामले मे  मुकदमा चलाए जाने की मांग करने वाली एक याचिका को खारिज कर दिया। इस निर्णय पर विभिन्न प्रतिक्रियाएं हुईं। श्रीमती जाफरी स्वयं पर नियंत्रण नहीं रख सकीं और रो दीं परंतु उन्होंने अपनी कानूनी लड़ाई आगे भी जारी रखने का संकल्प दोहराया। उनका आरोप है कि मोदी ने मंत्रियों,  अधिकारियों व पुलिस के साथ मिलीभगत कर, गुजरात में देश को हिला देने वाली हिंसा को भड़काया और उसे जानबूझकर नियंत्रित नहीं किया। नरेन्द्र मोदी ने कहा कि उन्हें इस निर्णय से राहत मिली है। उन्होंने अपने ब्लाग पर लिखा कि हिंसा ने उन्हें गहरे तक हिला दिया था। उन्होंने यह भी कहा कि दंगों से उन्हें ‘व्यथा, दुःख, कष्ट, विषाद, वेदना व पीड़ा’ हुई। गुजरात की सामाजिक कार्यकर्ता मल्लिका साराभाई ने राज्य की न्याय व्यवस्था की बदहाली का जिक्र करते हुए कहा कि ‘‘गुजरात की किसी भी अदालत से मोदी को क्लीन चिट के अलावा कुछ भी मिलेगा, ऐसी अपेक्षा करना मूर्खतापूर्ण है’’। उनके अनुसार, ‘‘गुजरात में हर व्यक्ति मोदी के प्रतिशोध से डरता है’’।
गुजरात में जो भयावह सांप्रदायिक हिंसा हुई, उसमें राज्यतंत्र और हिंसा करने वालों के बीच मिलीभगत स्पष्ट देखी जा सकती थी। दंगों के बाद सामाजिक कार्यकर्ताओं ने पीडि़तों को न्याय दिलाने के लिए पूरी कर्मठता और प्रतिबद्धता से काम किया। नतीजे में कई महत्वपूर्ण मामलों की सुनवाई गुजरात से बाहर की अदालतों में करवाई गई क्योंकि गुजरात में व्याप्त आतंक के माहौल में न्याय पाना मुश्किल था। उच्चतम न्यायालय के निर्देश पर एसआईटी का गठन किया गया और इसने न्यायालय की निगरानी में अपना काम किया। परंतु एसआईटी की जांच पूर्णतः निष्पक्ष व ईमानदार प्रतीत नहीं होती। यह दिलचस्प है कि जहां एसआईटी ने मोदी को क्लीन चिट दे दी वहीं न्यायालय द्वारा नियुक्त न्यायमित्र राजू रामचन्द्रन ने कहा कि रपट में कई ऐसे तथ्यों का जिक्र है जिनके आधार पर मोदी पर विभिन्न धाराओं में मुकदमे दर्ज किए जा सकते हैं। निर्णय के सार्वजनिक होने के तुरंत बाद भाजपा कार्यकर्ताओं ने पटाखे फोड़े और मोदी ने ट्वीट किया ‘‘सत्यमेव जयते’’। ऐसा लगता है कि सत्य भी कई हैं और आपका सत्य क्या है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप लाईन के किस ओर हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि कम से कम अभी के लिए, ‘मोदी का सच’ जीत गया है और जकिया जाफरी व उनके जैसे गुजरात दंगांे के हजारों पीडि़तों का सच हार गया है।
एक ही घटना के विभिन्न लोगों के लिए अलग-अलग अर्थ होते हैं। भाजपा के प्रवक्ता निर्णय का जमकर बचाव कर रहे हैं। तीस्ता सीतलवाड़ (सिटीजन फाॅर जस्टिस फाॅर पीस) द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति में याचिका का विस्तृत विवरण दिया गया है। सीतलवाड़ लंबे समय से जकिया जाफरी की मदद कर रही हैं। श्रीमती जाफरी के वकीलों ने अदालत में जोर देकर कहा कि राज्य सरकार ने जानबूझकर उन संकेतों को नजरअंदाज किया, जिनसे यह जाहिर होता था कि राज्य में बड़े पैमाने पर दंगे करवाने की तैयारी हो रही है। उन्होंने फैक्स संदेशों और टेलीफोन काल्स के रिकार्ड प्रस्तुत किए जिनसे यह पता लगता है कि सरकार को यह ज्ञात था कि अयोध्या से लौट रहे कारसेवक गंुडागर्दी और अभद्र व्यवहार कर रहे हैं और उत्तेजक नारे लगा रहे हैं। मुख्यमंत्री, जो अब हिंसा से ‘दुःखी व व्यथित’ होने की बात कर रहे हैं, का उस समय एक अलग ही रूप था। वे ट्रेन में आग लगाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय आतंकवादियों, पाकिस्तान की आईएसआई और स्थानीय मुसलमानों को दोषी ठहरा रहे थे। उन्होंने इस घटनाक्रम में विहिप को शामिल कर आग को और हवा दी। कारसेवकों के जले हुए शवों का पोस्टमार्टम खुले में किया गया और इस दौरान आरएसएस व विहिप के कार्यकर्ता उपस्थित थे।
मोदी ने स्वयं भी ‘हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है’ जैसे भड़काऊ बयान देकर हालात और बिगाड़े। अब राजनैतिक कारणों से यह दावा किया जा रहा है कि मोदी ने ऐसा कोई बयान नहीं दिया था। शीर्ष अधिकारियों की एक बैठक में मोदी ने उन्हें यह निर्देश दिया कि यदि गोधरा पर हिंदुओं की प्रतिक्रिया होती है तो उसे रोकने का प्रयास न करें। हरेन्द्र पण्ड्या, जिन्होंने यह बात एक जनन्यायाधिकरण के समक्ष कही थी, की बाद में हत्या हो गई। एक पुलिस अधिकारी संजीव भट्ट ने भी यही बात कही। सेना की तैनाती देरी से की गई और उचित तरीके से नहीं हुई। कई गंभीर रूप से दंगाग्रस्त इलाकों में सेना भेजी ही नहीं गई। मोदी ने यह कहा कि ‘मुसलमानों को सबक सिखाया जा रहा है।’
विभिन्न स्टिंग आपरेशनांे से भी साम्प्रदायिक ताकतों की भूमिका और राज्यतंत्र की मिलीभगत सामने आई। मोदी सरकार में मंत्री डाक्टर माया कोडनानी और विहिप के बाबू बजरंगी इन दिनों अपने अपराध के लिए आजीवन कारावास की सजा भोग रहे हैं। पुनर्वास के काम में भी लेतलाली हुई और राज्य सरकार ने अपनी जिम्मेदारी से बचने के लिए बेतुके तर्क दिए जिनमें से एक यह था कि राहत शिविर बच्चे पैदा करने की फैक्ट्रियां बन गए हैं। गोधरा ट्रेन आगजनी को तो आतंकवाद बताया गया परंतु उसके बाद हुए कत्लेआम को मात्र सामान्य हिंसा करार दिया गया। आज भी जुहापुरा जैसे इलाकों में हिंसा पीडि़त नारकीय परिस्थितियों मंे जी रहे हैं। अनवरत प्रचार के जरिए गुजरात के इन अप्रिय सत्यों को छुपाने की कोशिश हो रही है। सरकार की नीतियों की किसी भी आलोचना को गुजरात की अस्मिता पर आक्रमण बताया जा रहा है। बहुसंख्यक समुदाय को यह विश्वास दिला दिया गया है कि मुट्ठीभर अल्पसंख्यक, उसके लिए बड़ा खतरा हैं।
कई अन्य आरोपियों को भी निचली अदालतों से बरी कर दिया गया था परंतु ऊंची अदालतों ने उन्हें उनके किए की सजा दी। ऐसा ही माया कोडनानी के मामले में भी हुआ। गुजरात में इशरत जहां और उनके जैसे कई अन्य लोगों को फर्जी मुठभेड़ांे में मार गिराया गया। मोदी के एजेण्डे को कार्यरूप में परिणित करने के लिए  राज्य के कई शीर्ष पुलिस अधिकारी सलाखों के पीछे हैं। इनमें बंजारा व अन्य कई शामिल हैं। साराभाई ने गुजरात में न्याय पाने की संभावना के बारे में जो कुछ कहा है वह सच प्रतीत होता है। गुजरात में दरअसल दो सत्यों के बीच युद्ध चल रहा है। एक ओर है मोदी का सत्य और दूसरी ओर जकिया जाफरी का। मोदी को इस पूरी त्रासदी से बहुत लाभ मिला और डगमगा रही भाजपा राज्य मंे मजबूती से खड़ी हो गई। अत्यंत होशियारी से तैयार किए गए एक प्रचार अभियान के जरिए मोदी को विकास पुरूष का दर्जा देने की कोशिश हुई और उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया गया। जकिया जाफरी और उनके जैसे सैंकड़ों पीडि़तों ने अपने प्रियजन खोये, अपने घरबार खोए और अब भी वे उन भयावाह दिनों की काली छाया से मुक्त नहीं हो सके हैं।
सच की जीत होगी। यह न्याय के लिए युद्ध की शुरूआत है। श्रीमती जाफरी और सामाजिक कार्यकर्ता केवल व्यक्तिगत दुःख के कारण नहीं लड़ रहे। वे न्याय  के लिए लड़ रहे हैं। निःसंदेह सच की जीत होगी।
 -राम पुनियानी
Share |