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शनिवार, 12 मई 2012

1857 का महान योद्धा वीर कुंवर सिंह



1777 ----1858
अंग्रेज इतिहासकार होम्स लिखता है की उस बूढ़े राजपूत की जो ब्रिटिश सत्ता के साथ इतनी बहादुरी व आन के साथ लड़ा 26 अप्रैल 1858 को एक विजेता के रूप में मृत्यु का वरण किया |

कुंवर सिंह न केवल 1857 के महासमर के महान योद्धा थे , बल्कि वह इस संग्राम के एक वयोवृद्ध योद्धा भी थे |इस महासमर में तलवार उठाने वाले इस योद्धा की उम्र उस समय 80 वर्ष की थी |महासमर का यह वीर न केवल युद्ध के मैदान का चपल निर्भीक और जाबांज खिलाड़ी था , अपितु युद्ध की व्यूह -- रचना में भी उस समय के दक्ष , प्रशिक्षित एवं बेहतर हथियारों से सुसज्जित ब्रिटिश सेना के अधिकारियों , कमांडरो से कही ज्यादा श्रेष्ठ था |इसका सबसे बड़ा सबूत यह है की इस महान योद्धा ने न केवल कई जाने -- माने अंग्रेज कमांडरो को युद्ध के मैदान में पराजित किया अपितु जीवन के अंतिम समय में विजित रहकर अपने गाँव की माटि में ही प्राण त्याग किया | उनकी मृत्यु 26 अप्रैल 1858 को हुई , जबकि उसके तीन दिन पहले 23 अप्रैल को जगदीशपुर के निकट उन्होंने कैप्टन ली ग्राड की सेना को युद्ध के मैदान में भारी शिकस्त दिया था | कुंवर सिंह का जन्म आरा के निकट जगदीशपुर रियासत में 1777 में हुआ था | मुग़ल सम्राट शाहजहा के काल से उस रियासत के मालिक को राजा की उपाधि मिली हुई थी | कुंवर सिंह के पिता का नाम साहेबजादा सिंह और माँ का नाम पंचरतन कुवरी था | कुंवर सिंह की यह रियासत भी डलहौजी की हडपनीति का शिकार बन गयी थी |
10 मई 1857 से इस महासमर की शुरुआत के थोड़े दिन बाद ही दिल्ली पर अंग्रेजो ने पुन: अपना अधिकार जमा लिया था | अंग्रेजो द्वारा दिल्ली पर पुन:अधिकार कर लेने के बाद बाद भी 1857 के महासमर की ज्वाला अवध और बिहार क्षेत्र में फैलती धधकती रही | दाना पूर की क्रांतिकारी सेना के जगदीशपुर पहुंचते ही 80 वर्षीय स्वतंत्रता प्रेमी योद्धा कुंवर सिंह ने शस्त्र उठाकर इस सेना का स्वागत किया और उसका नेतृत्त्व संभाल लिया | कुंवर सिंह के नेतृत्त्व में इस सेना ने सबसे पहले आरा पर धावा बोल दिया |क्रांतिकारी सेना ने आरा के अंग्रेजी खजाने पर कब्जा कर लिया | जेलखाने के कैदियों को रिहाकर दिया | अंग्रेजी दफ्तरों को ढाहकर आरा के छोटे से किले को घेर लिया |किले के अन्दर सिक्ख और अंग्रेज सिपाही थे | तीन दिन किले की घेरेबंदी के साथ दाना पूर से किले की रक्षा के लिए आ रहे कैप्टन डनवर और उनके 400 सिपाहियों से भी लोहा लिया | डनवर युद्ध में मारा गया | थोड़े बचे सिपाही दानापुर वापस भाग गये | किला और आरा नगर पर कुंवर सिंह कीं क्रांतिकारी सेना का कब्जा हो गया | लेकिन यह कब्जा लम्बे दिनों तक नही रह सका | मेजर आयर एक बड़ी सेना लेकर आरा पर चढ़ आया | युद्ध में कुंवर सिंह और उसकी छोटी से\इ सेना पराजित हो गयी | आरा के किले पर अंग्रेजो का पुन: अधिकार हो गया |
कुंवर सिंह अपने सैनिको सहित जगदीशपुर की तरफ लौटे | मेजर आयर ने उनका पीछा किया और उसने जगदीशपुर में युद्ध के बाद वहा के किले पर भी अधिकार कर लिया | कुंवर सिंह को अपने 122 सैनिको और बच्चो स्त्रियों के साथ जगदीशपुर छोड़ना पडा | अंग्रेजी सेना से कुंवर सिंह की अगली भिडंत आजमगढ़ के अतरौलिया क्षेत्र में हुई | अंग्रेजी कमांडर मिल मैन ने 22 मार्च 1858 को कुंवर सिंह की फ़ौज पर हमला बोल दिया | हमला होते ही कुंवर सिंह की सेना पीछे हटने लगी अंग्रेजी सेना कुंवर सिंह को खदेड़कर एक बगीचे में टिक गयी | फिर जिस समय मिल मैन की सेना भोजन करने में जुटी थी , उसी समय कुंवर सिंह की सेना अचानक उन पर टूट पड़ी | मैदान थोड़ी ही देर में कुंवर सिंह के हाथ आ गया |मेल मैन अपने बचे खुचे सैनिको को लेकर आजमगढ़ की ओर निकल भागा | अतरौलिया में पराजय का समाचार पाते ही कर्नल डेम्स गाजीपुर से सेना लेकर मिल मैन की सहायता के लिए चल निकला |28 मार्च 1858 को आजमगढ़ से कुछ दूर कर्नल डेम्स और कुंवर सिंह में युद्ध हुआ | कुंवर सिंह पुन: विजयी रहे | कर्नल डेम्स ने भागकर आजमगढ़ के किले में जान बचाई |
अब कुंवर सिंह बनारस की तरफ बड़े | तब तक लखनऊ क्षेत्र के तमाम विद्रोही सैनिक भी कुंवर सिंह के साथ हो लिए थे |बनारस से ठीक उत्तर में 6 अप्रैल के दिन लार्ड मार्क्कर की सेना ने कुंवर सिंह का रास्ता रोका और उन पर हमला कर दिया | युद्ध में लार्ड मार्क्कर पराजित होकर आजमगढ़ की ओर भागा | कुंवर सिंह ने उसका पीछा किया और किले में पनाह के लिए मार्क्कर की घेरे बंदी कर दी |
इसकी सुचना मिलते ही पश्चिम से कमांडर लेगर्ड की बड़ी सेना आजमगढ़ के किले की तरफ बड़ी | कुंवर सिंह ने आजमगढ़ छोडकर गाजीपुर जाने और फिर अपने पैतृक रियासत जगदीशपुर पहुचने का निर्णय किया | साथ ही लेगर्ड की सेना को रोकने और उलझाए रखने के लिए उन्होंने अपनी एक टुकड़ी तानु नदी के पुल पर उसका मुकाबला करने के लिए भेज दिया | लेगर्ड की सेना ने मोर्चे पर बड़ी लड़ाई के बाद कुंवर सिंह का पीछा किया | कुंवर सिंह हाथ नही आये लेकिन लेगर्ड की सेना के गाफिल पड़ते ही कुंवर सिंह न जाने किधर से अचानक आ धमके और लेगर्ड पर हमला बोल दिया | लेगर्ड की सेना पराजित हो गयी |
अब गंगा नदी पार करने के लिए कुंवर सिंह आगे बड़े लेकिन उससे पहले नघई गाँव के निकट कुंवर सिंह को डगलस की सेना का सामना करना पडा | डगलस की सेना से लड़ते हुए कुंवर सिंह आगे बढ़ते रहे |अन्त में कुंवर सिंह की सेना गंगा के पार पहुचने में सफल रही | अंतिम किश्ती में कुंवर सिंह नदी पार कर रहे थे , उसी समय किनारे से अंग्रेजी सेना के सिपाही की गोली उनके दाहिने बांह में लगी | कुंवर सिंह ने बेजान पड़े हाथ को अपनी तलवार से काटकर अलग कर गंगा में प्रवाहित कर दिया | घाव पर कपड़ा लपेटकर कुंवर सिंह ने गंगा पार किया | अंग्रेजी सेना उनका पीछा न कर सकी | गंगा पार कर कुंवर सिंह की सेना ने 22 अप्रैल को जगदीशपुर और उसके किले पर पुन: अधिकार जमा लिया | 23 अप्रैल को ली ग्रांड की सेना आरा से जगदीशपुर की तरफ बड़ी ली ग्रांड की सेना तोपों व अन्य साजो सामानों से सुसज्जित और ताजा दम थी | जबकि कुंवर सिंह की सेना अस्त्र - शस्त्रों की भारी कमी के साथ लगातार की लड़ाई से थकी मादी थी | अभी कुंवर सिंह की सेना को लड़ते - भिड़ते रहकर जगदीशपुर पहुचे 24 घंटे भी नही हुआ था | इसके वावजूद आमने - सामने के युद्ध में ली ग्रांड की सेना पराजित हो गयी | चार्ल्स वाल की 'इन्डियन म्युटनि ' में उस युद्ध में शामिल एक अंग्रेज अफसर का युद्ध का यह बयान दिया हुआ है की -- वास्तव में जो कुछ हुआ उसे लिखते हुए मुझे अत्यंत ल्ल्जा आती है | लड़ाई का मैदान छोडकर हमने जंगल में भागना शुरू किया | शत्रु हमे पीछे से बराबर पीटता रहा | स्वंय ली ग्रांड को छाती में गोली लगी और वह मनारा गया | 199 गोरो में से केवल 80 सैनिक ही युद्ध के भयंकर संहार से ज़िंदा बच सके | हमारे साथ सिक्ख सैनिक हमसे आगे ही भाग गये थे .
22 अप्रैल की इस जीत के बाद जगदीशपुर में कुंवर सिंह का शासन पुन: स्थापित हो गया | किन्तु कुंवर सिंह के कटे हाथ का घाव का जहर तेजी से बढ़ रहा था इसके परिणाम स्वरूप 26 अप्रैल 1858 को इस महान वयोवृद्ध पराक्रमी विजेता का जीवन दीप बुझ गया | अंग्रेज इतिहासकार होम्स लिखता है की --- उस बूढ़े राजपूत की जो ब्रिटिश -- सत्ता के साथ इतनी बहादुरी व आन के साथ लड़ा 26अप्रैल 1858 को एक विजेता के रूप में मृत्यु हुई | एक अन्य इतिहासकार लिखता है की कुवरसिंह का व्यक्तिगत चरित्र भी अत्यंत पवित्र था , उसका जीवन परहेजगार था | प्रजा में उसका बेहद आदर - सम्मान था | युद्ध कौशल में वह अपने समय में अद्दितीय था
कुंवर सिंह द्वारा चलाया गया स्वतंत्रता - युद्ध खत्म नही हुआ | अब उनके छोटे भाई अमर सिंह ने युद्ध की कमान संभाल ली |
अमर सिंह
कुंवर सिंह के बाद उनका छोटा भाई अमर सिंह जगदीशपुर की गद्दी पर बैठा | अमर सिंह ने बड़े भाई के मरने के बाद चार दिन भी विश्राम नही किया | केवल जगदीशपुर की रियासत पर अपना अधिकार बनाये रखने से भी वह सन्तुष्ट न रहा | उसने तुरंत अपनी सेना को फिर से एकत्रित कर आरा पर चढाई की | ली ग्रांड की सेना की पराजय के बाद जनरल डगलस और जरनल लेगर्ड की सेनाये भी गंगा पार कर आरा की सहायता के लिए पहुच चुकी थी | 3 मई को राजा अमर सिंह की सेना के साथ डगलस का पहला संग्राम हुआ | उसके बाद बिहिया , हातमपुर , द्लिलपुर इत्यादि अनेको स्थानों पर दोनों सेनाओं में अनेक संग्राम हुए | अमर सिंह ठीक उसी तरह युद्ध नीति द्वारा अंग्रेजी सेना को बार - बार हराता और हानि पहुचाता रहा , जिस तरह की युद्ध नीति में कुंवर सिंह निपुण थे | निराश होकर 15 जून को जरनल लेगर्ड ने इस्तीफा दे दिया | लड़ाई का बहार अब जनरल डगलस पर पडा | डगलस के साथ सात हजार सेना थी |डगलस ने अमर सिंह को परास्त करने की कसम खाई | किन्तु जून , जुलाई , अगस्त और सितम्बर के महीने बीत गये अमर सिंह परास्त न हो सका | इस बीच विजयी अमर सिंह ने आरा में प्रवेश किया और जगदीशपुर की रियासत पर अपना आधिपत्य जमाए रखा | जरनल डगलस ने कई बार हार खाकर यह ऐलान कर दिया जो मनुष्य किसी तरह अमर सिंह को लाकर पेश करेगा उसे बहुत बड़ा इनाम दिया जाएगा , किन्तु इससे भी काम न चल सका | तब डगलस ने सात तरफ से विशाल सेनाओं को एक साथ आगे बढाकर जगदीशपुर पर हमला किया | 17 अक्तूबर को इन सेनाओं ने जगदीशपुर को चारो तरफ से घेर लिया | अमर सिंह ने देख लिया की इस विशाल सैन्य दल पर विजय प्राप्त कर सकना असम्भव है | वह तुरंत अपने थोड़े से सिपाहियों सहित मार्ग चीरता हुआ अंग्रेजी सेना के बीच से निकल गया | जगदीशपुर पर फिर कम्पनी का कब्जा हो गया , किन्तु अमर सिंह हाथ न आ सका कम्पनी की सेना ने अमर सिंह का पीछा किया | 19 अक्तूबर को नौनदी नामक गाँव में इस सेना ने अमर सिंह को घेर लिया .
अमर सिंह के साथ केवल 400 सिपाही थे |इन 400 में से 300 ने नौनदी के संग्राम में लादकर प्राण दे दिए | बाकी सौ ने कम्पनी की सेना को एक बार पीछे हटा दिया | इतने में और अधिक सेना अंग्रेजो की मदद के लिए पहुच गयी | अमर सिंह के सौ आदमियों ने अपनी जान हथेली पर रखकर युद्ध किया | अन्त में अमर सिंह और उसके दो और साथी मैदान से निकल गये | 97 वीर वही पर मरे | नौनदी के संग्राम में कम्पनी के तरफ से मरने वालो और घायलों की तादाद इससे कही अधिक थी |कम्पनी की सेना ने फिर अमर सिंह का पीछा किया | एक बार कुछ सवार अमर सिंह के हाथी तक पहुच गये | हाथी पकड लिया , किन्तु अमर सिंह कूद कर निकल गया | अमर सिंह ने अब कैमूर के पहाडो में प्रवेश किया | शत्रु ने वहा पर भी पीछा किया किन्तु अमर सिंह ने हार स्वीकार न की | इसके बाद राजा अमर सिंह का कोई पता नही चलता | जगदीशपुर की महल की स्त्रियों ने भी शत्रु के हाथ में पढ़ना गवारा न किया | लिखा है की जी समय महल की 150 स्त्रियों ने देख लिया की अब शत्रु के हाथो में पड़ने के सिवाय कोई चारा नही तो वे तोपों के मुँह के सामने खड़ी हो गयी और स्वंय अपने हाथसे फलिता लगाकर उन सबने ऐहिक जीवन का अन्त कर दिया .
-सुनील दत्ता
पत्रकार
आभार इंटरनेट तथा भारत ब्रिटिश राज ---- सुन्दरलाल की पुस्तको के आधार पर प्रस्तुत

बुधवार, 9 मई 2012

प्रथम स्वतंत्रता संग्राम ..............दस मई





राष्ट्र मुक्ति के संघर्ष का दिन

10 मई 1857 इस राष्ट्र के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का प्रथम दिवस है |सभी जानते है कि यह संग्राम मेरठ छावनी के सैनिको के विद्रोह के साथ शुरू हुआ था | लेकिन बाद में यह राजाओं , नवाबो , जमीदारो के साथ किसानो , दस्तकारो आदि के जन -- विद्रोह का रूप ग्रहण कर लिया था |
निश्चित तौर पर इस संग्राम का विस्फोट ब्रिटिश कम्पनी और उसकी हुकूमत द्वारा किए जाते रहे लूट -- अन्याय -- अत्याचार और दमन आदि के प्रति समाज के सभी वर्गो में निरंतर बढ़ते असंतोष विरोध के चलते हुआ था | उसमे कारतूसो में गाय - सूअर कि चर्बी के इस्तेमाल जैसे चर्चित तात्कालिक कारणों ने तो उस संग्राम कि पहली चिंगारी भडकाने का ही काम किया था |
एक साल से उपर चले इस संघर्ष में भले ही हिन्दुस्तानियों कि हार हो गयी | लेकिन इस संघर्ष ने न केवल उभरते हुए आधुनिक राष्ट्र के लिए ऐतिहासिक महत्व कि उपलब्धिया प्रदान
है कि बल्कि राष्ट्र के जनसाधारण को वर्तमान युग के संघर्षो के लिए एक विरासत और दिशा भी प्रदान की है |
इसकी सबसे बड़ी ऐतिहासिक उपलब्धी तो यह है की इसने सदियों से सोते रहे इस राष्ट्र को झकझोर कर उठा दिया | तलवार पकडवाकर युद्ध के मैदान में उतार दिया |सैन्य दृष्टि से अत्यंत प्रशिक्षित सुसंगठित तथा उस समय के आधुनिक हथियारों से लैस ब्रिटिश फ़ौज से युद्ध में सामना करने की निडरता प्रदान कर
दिया | इसने जन -- जन में विदेशी राज को , विदेशी लूट व व्यापार को , विदेशी विजातीय धर्म व संस्कृति को पूरी तरह से उखाड़ फेकने का साहस व पराक्रम प्रदान कर दिया | 1857 के स्वतंत्रता सेनानियों ने इस युद्ध में
अपने रक्त भरकर एक नए जुझारू राष्ट्रवाद को अंकुरित कर दिया | फिर बाद के वर्षो में देश के समर्पित राष्ट्रवादियो एवं क्रान्तिकारियो को इस महान संघर्ष से प्रेरणा लेने का सुअवसर भी प्रदान किया | भगत सिंह व उनके साथियो ने भी अपने क्रांतिकारी संघर्ष में 10 मई को याद किया | उसे शुभ --- दिन का नाम दिया | इसे मनाने के लिए देशवासियों एवं राष्ट्रभक्तो का आह्वान किया | यह सब भगत सिंह एवं उनके साथियो के दस्तावेज में " 10 मई शुभ दिन " नाम से लेख के रूप में मौजूद है | 1857 के संघर्ष ने इस क्षेत्र को खासकर सम्पूर्ण उत्तर प्रदेश व बिहार के पूर्वी क्षेत्र को इस संघर्ष का नायक बनने का ऐतिहासिक गौरव प्रदान किया है | इस संघर्ष में प्रदेश का पूर्वांचल भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश के साथ -- साथ चला | यह युद्ध इस प्रदेश के लगभग हर क्षेत्र में लड़ा गया | पूरे प्रदेश में यह युद्ध एक साथ युद्ध का रूप तो नही ले सका , पश्चिम से पूरब की ओर एक आगे बढती हुई लहर का रूप जरुर ग्रहण किया | निश्चित ही यह युद्ध समूचे क्षेत्र को और युद्धरत रहे इस व अन्य क्षेत्रो की जनता को विशेष गौरव प्रदान करता है और उन्हें भविष्य में ऐसे संघर्षो के लिए प्रेरणा प्रदान करता है |
1857 के इस महासंग्राम ने एक और ख़ास ऐतिहासिक उपलब्धि प्रदान की है |
सदियों तक इस देश के हिन्दुओं -- मुसलमानों में एक साथ रहने के वावजूद
राजनितिक , सामाजिक भिन्नताए उपर से नीचे तक बनी रही | एक साथ का रहन - सहन उसे तोड़ने में कही से सफल नही हो पाया | लेकिन 1857 के इस महासमर ने उनमे अभूतपूर्व राजनितिक एकता खड़ी कर दी | इसे देखकर स्वंय ब्रिटिश शासक भी आश्चर्य चकित रह गये और उन्होंने उसे तोड़ने का उपक्रम ठीक इसी युद्ध के बाद
शुरू कर दिया |
इसके अतिरिक्त 1857 के संग्राम की एक और बड़ी ऐतिहासिक उपलब्धी यह है की
इसने युद्धरत क्षेत्र के सैनिको , राजाओं , नवाबो , जागीरदारों , किसानो , दस्तकारो , व्यापारियों में ब्रिटिश राज के विरुद्ध भारी एकजुटता खड़ी कर दी | हम यहा 1857 के युद्ध में अग्रेजो का साथ दे रहे विभिन्न समुदायों के उपरी व निचले हिस्से की ब्रिटिश प्रशस्ति और युद्ध में जैसी गद्दारी जैसी गतिविधियों को नजरअंदाज नही कर रहे है , लेकिन याद रखने वाली बात है की हिनुस्तानियो के एक हिस्से में ऐसी भूमिकाये ब्रिटिश राज के स्थापित होने के साथ ही बढने लगी थी | ये भूमिकाये 1857 की देन नही थी | इसके विपरीत वे तमाम लोग जो 1857 के संग्राम में अंग्रेजो के विरुद्ध स्वतंत्रता की तलवार उठाये , वे निसंदेह:1857 की देन थी | उनमे युद्ध के लिए उपर से नीचे तक बनी जो एक्ताये भी 1857 की देन थी | यह सब इस संग्राम की ऐतिहासिक उपलब्धी थी व है | इसलिए इतिहास व इतिहासकार यहा तक अंग्रेज इतिहासकार भी उन लड़ते रहे हिन्दुस्तानियों के मुकाबले अंग्रेजो का साथ दिए हिन्दुस्तानियों को बहुत कम महत्व दिए है | युद्धरत सेनानायको व बहादुरों की हिम्मत व पराक्रम को सम्मान दिए है |अब प्रश्न है कि क्या आज 1857 का महासमर इस देशवासियों के लिए उनके भावी आंदोलनों संघर्षो के लिए प्रेरणा श्रोत बन सकता है ? संघर्ष कि इस विरासत को आगे बढाने में मददगार साबित हो सकता है ?
एकदम हो सकता है पर सभी देशवासियों के लिए कदापि नही | जिस तरह से ब्रिटिश कम्पनी और उसके लूट , दमन व अत्याचार के विरुद्ध खड़े होने वाले विभिन्न सामाजिक हिस्से उसके भुक्तभोगी के रूप में संघर्ष के लिए उठ खड़े हुए थे उसी तरह वर्तमान दौर में विदेशी व देशी धनाढ्य कम्पनियों कि लूट और उसके लिए लाये जाते रहे नीतियों कानूनों आदि के भुक्त भोगी जनसाधारण भी उनके विरोध व विद्रोह के लिए उठ खड़े हो सकते है | जिस तरह ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी और उसके व्यापार के लिए कम्पनी राज के लिए और इस देश के उनके सहयोगियों के लिए 1857 के के स्वतंत्रता संग्राम डगर था , बगावत था राजद्रोह था उसी तरह से वर्तमान दौर में बढ़ते जनसमस्याओ को लेकर उभ्दने वाला जन -- विरोध -- जन आन्दोलन व संषर्ष भी " राष्ट्र विरोधी " राज विरोधी संघर्ष ही प्रचारित किया जाएगा | 1920 -- 30 के बाद ब्रिटिश कम्पनियों और ब्रिटिश राज के साथ उद्योग व्यापार तथा सत्ता के समझौते में लगे रहे लोगो ने देश कि धनाढ्य कम्पनियों और कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग जैसी पार्टियों ने1857 के संघर्ष को बीत गया इतिहास कहकर स्वतंत्रता संघर्ष में इसकी उपयोगिता को , मार्गदर्शन को पूरी तरह से खारिज कर दिया | |1947 में स्वतंत्रता समझौते के बादशिक्षा मंत्री बने श्री अबुल कलाम आजाद ने इसे खुलकर कहा था कि " पूर्व में घटित युद्ध कि घटनाओं से प्रेरणा लेने का समय बीत गया है | भारत और ब्रिटेन के बीच राजनितिक समस्या को आपसी बातचीत एवं सुलह समझौते द्वारा सुलझा लिया गया है | उसने दोनों देशो के बीच दोस्ती कि नयी भावना भर दी है | भारत ब्रिटिश संबंधो में बीते कल के कडवाहट ' जो उसकी चारित्रिक विशेषता थी अब नही रही |'...................(
इतिहासकार एस. एन . सेन कि पुस्तक एट्टींन फिफ्टीसेवन में अबुल कलाम आजाद कि लिखी भूमिका से उद्घृत )
सत्ता सरकार के उच्च पदों पर आसीन श्री आजाद एवं दूसरे कांग्रेसी लीडरो ने सुलह व समझौतों कि इस प्रक्रिया शुरू होने के बाद 1857 को याद करना बंद कर दिया था जबकि क्रांतिकारी 10 मई को मनाते रहे और आम जनता का इसके लिए आह्वान भी करते रहे | पुस्तक कि भूमिका लिखते समय श्री आजाद यह बात भूल गये1857 में भी हिन्दुस्तान --- ब्रिटिश संबंधो कि कड़वाहट को अंग्रेजो का साथ दे रहे देशवासियों ने कत्तइ नही महसूस किया |फिर 1920 -- 30के बाद ब्रिटिश साम्राज्य व ब्रिटिश राज के साथ समझौता कर रहे देश के धनाढ्य एवं उच्च हिस्से तथा कांग्रेस व मुस्लिम लीग जैसी पार्टियों के लिए संबंधो को कडवाहट तथा 1857 के युद्ध को याद करने कि कोई जगह नही थी |अब उन्हें ब्रिटेन के साथ बढ़ते जा रहे सम्बन्ध में उन्हें भगत सिंह जैसे क्रान्तिकारियो कि कडवाहट कत्तई महसूस नही हो सकती थी |1947 के बाद तो वह रिश्तो कि वह कडवाहट पूरी तरह से मिठास में बदल गयी |भारत -- ब्रिटेन के रिश्तो कि मिठास व कडवाहट १८५७ में भी थी और आज भी है | जिन तबको के रिश्ते लुटेरे , साम्राज्यवादियों के साथ बनते और मधुर होते गये उन्हें संबंधो में मिठास कि अनुभूति होती गयी , पर जिनके साथ अमेरिका , इंग्लैण्ड जैसे देशो के साथ रिश्ते कडवे बने रह गये , उन्हें 1857 जैसी कडवाहट ही महसूस होगी और हो भी रही है |
कौन नही जानता कि वर्तमान दौर में देश के समूचे धनाढ्य एवं उच्च हिस्से के सम्बन्ध अमेरिका , इंग्लैण्ड जैसी साम्राज्यी देशो कि सरकारों से साम्राज्यी कम्पनियों से व साम्राज्यी पूंजी से मधुरतम होते गये |इन संबंधो के जरिये यहा और वहा के धनाढ्य एवं उच्च हिस्सों के निजी हितो -- स्वार्थो का परस्पर सहयोग अधिकाधिक मुनाफाखोरी व सूदखोरी कि लूट का अमेरिका , इंग्लैण्ड जैसे साम्राज्यी ताकतों के प्रभुत्व या दबदबे के अधिकाधिक बढाव का काम निरंतर बढ़ता रहा है |इन्ही लुटेरे व प्रभुत्वकारी संबंधो में आम मजदूरों , किसानो , दस्तकारो , बुनकरों , दुकानदारों एवं अन्य मध्यम वर्गियो का जीवन चौतरफा संकटों से घिरता जा रहा है | उन्हें महगाई , बेकारी आदि कि मार सहने के साथ -- साथ लाखो कि संख्या में आत्महत्याए तक के लिए विवश करता जा रहा है |
देसंश के जन साधारण के लिए ये सम्बन्ध कडवे है निरंतर कटू से कटुतम होते गये है | उन्हें ऐसे शोषणकारी प्रभुत्वकारी संबंधो से राष्ट्र के जन साधारण को मुक्त कराने के लिए १८५७ को और देश -- दुनिया के अन्य क्रांतकारी घर्षो आंदोलनों को याद करना ही पडेगा | उन्हें इन संघर्षो को अपना पथ प्रदर्शक मानकर आगे बढना ही होगा
-कबीर
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