बुधवार, 31 दिसंबर 2025

समाजवादी नेता राजनारायण के 39 वे पुण्यस्मरण दिवसपर विनम्र अभिवादन.

समाजवादी नेता राजनारायण के 39 वे पुण्यस्मरण दिवसपर विनम्र अभिवादन. लखनऊ के दोस्त शाहनवाज़ अहमद कादरी ने संपादित की हुई 512 पनौ की "राजनारायण एक नाम नहीं इतिहास है. " शीर्षक की किताब को पढ़ने के बाद सेल्फ कन्फेशन "हालांकि शाहनवाजजी इस किताब के लिए मुझसे काफी समय से मुझे भी आग्रह कर रहे थे "कि मैं भी राजनारायण जी पर कुछ लिखूं" लेकिन बचपन से ही, राष्ट्र सेवा दल और वह भी मुख्यतया महाराष्ट्र के समाजवादी नेताओं से राजनारायणजी के बारे में जो भी कुछ सुनते आया था वह एक हास्यास्पद व्यक्ति से आगे कुछ नहीं थे ऐसी छवि बनाने वाला मामला था.लेकिन इस किताब को पढ़ने के बाद मुझे यह बात स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं हो रहा है " कि मेरे मन में राजनारायणजी के बारे में बनी हुई छवी गलत थी." डॉ. राम मनोहर लोहिया के बाद सही मायने में उनके "जेल, वोट और फावडे का सिद्धांत" पर खरे उतरने वाले लोगों में, राजनारायणजी एक थे. यह इस किताब को पढ़ने के बाद मुझे लग रहा है. आजादी के तीस साल पहले पैदा हुए राजनारायणजी ( 23 नवंबर 1917 ) कुलमिलाकर 69 साल की जींदगी जिएं (31 दिसंबर 1986 मृत्यु ) काशी के राज परीवार में पैदा हुए राजनारायणजी फकिर जैसा जीवन जीए थे. हालांकि चार बेटे और एक बेटी के पिता होने के बावजूद और खुद एक सामंती परिवार में पैदा होने के बावजूद अपने परिवार के किसी भी सदस्य को तथाकथित परिवारवादी राजनीतिक, उत्तराधिकारियों के जमाने मे अपने परिवार का एक भी सदस्य राजनीति में नहीं है. सब के सब एक सामान्य जीवन वह भी अपने बलबूते पर पढ - लिख कर नौकरी में रहे हैं. तीन नंबर के बेटे श्री. जयप्रकाश उत्तर प्रदेश सरकार की नौकरी से निवृत्त होकर इलाहाबाद में रहने वाले की मृत्यु हुई है. सबसे बड़ा बेटा भुवनेश्वर प्रकाश की युवावस्था में ही बिमारी से मृत्यु हो गई थी. दो नंबर के पुत्र मोहनजी गांव में रहकर खेती-बाड़ी का काम करते हैं. और छोटे पुत्र ओमप्रकाश बैंक की नौकरी से निवृत्त होकर वाराणसी में ही रहते हैं. और पुत्री सावित्री देवी आजमगढ़ में ब्याहता है. यह सब विस्तार से देने की वजह राजनारायणजी की छवी हमारे अपने आंखों में क्या थी ? और वास्तविक स्थिति क्या है ? यह लोगों को पता चलना चाहिए इसलिए दे रहा हूँ. राजनारायणजी के राजनीतिक जीवन की शुरुआत, उम्र के तेरह साल के थे (1930) तब से शुरू हुई है. बनारस विश्वविद्यालय के विद्यार्थी नेता के रूप में उन्होंने अपने जीवन की शुरुआत की थी. और युद्ध विरोधी प्रदर्शन के कारण 1939 में पहली गिरफ्तारी हुई, तो फिर लोहिया के जेल फावड़ा और वोट के अनुसार आजादी मिलने तक तीस साल के पहले ही अपने जीवन के पांच साल जेल में बंद रहे. आजादी के बाद डॉ. राम मनोहर लोहिया "के जो जमीन को जोते बोवे, वहीं जमीन का मालिक है " नारे के अनुसार अपने हिस्से की पुश्तैनी जमीन पर, जो भी ज्योतदार थे उन्हें अपने हिस्से की जमीन का मालिकाना हक घोषित कर दिया, इससे अधिक समाजवाद को अपने खुद के व्यक्तिगत जीवन में ढालने के उदाहरण और कितने समाजवादी या कम्युनिस्ट विचारधारा के लोगों के है ? महाराष्ट्र के पंढरपूर के विठ्ठल मंदिर प्रवेश के सत्याग्रह आंदोलन की शुरूआत सानेगुरुजी के नेतृत्व में 1948 में हुई है. और उसकी काफी चर्चा भी है. लेकिन 1956 भारत के सबसे प्रसिद्ध काशी विश्वनाथ मंदिर प्रवेश सत्याग्रह आंदोलन का सुत्रपात राजनारायणजी के नेतृत्व में हुआ है. और उस सत्याग्रह के समय पुलिस तथा सेना तैनात कर दी गई थी. लेकिन राजनारायणजी ने सेना और पुलिस की परवाह न करते हुए, सत्याग्रह किया, जिसमें उन्हें लहू-लुहान होने तक पुलिस के द्वारा बेरहमी से पीटा गया और छ महिनों के लिए घायलावस्था में ही जेल में बंद कर दिया था. लेकिन दलितों को मंदिर प्रवेश और मंदिर के बाहर "दलितों को प्रवेश वर्जित है." कि तख्ति को खोदकर ही दम लिया. और उसी तरह अंग्रेजी शासन तो हट गया था लेकिन 1957 में आजादी के दस साल के बावजूद, अंग्रेजों की मूर्तियां जगह - जगह मौजूद थी. राजनारायणजी पहले नेता थे जिन्होंने इस मुद्दे पर, बनारस के बेनिया बाग में व्हिक्टोरिया रानी की मूर्ति को लेकर, पहले उन्होंने तरिकेसे सरकार को निवेदन दिया "कि अब अंग्रेजो के जगह पर, देशी लोग आ गए हैं, तो गुलाम के प्रतिक इन मूर्तियों को हटाने के लिए कहा. " लेकिन सरकार ने मूर्ती को हटाने की मांग को ठुकराया दिया तो राजनारायणजी कहाँ मानने वाले थे ? सो उन्होंने हल्लाबोल, शैली में आंदोलन शुरू कर दिया और जबरदस्त पुलिस बंदोबस्त के रहते हुए मूर्ति तक अपने साथीयो के साथ पहुंचे और मूर्ति को धराशायी करके ही रुके. हालांकि उनकी इस कृति में पुलिस लगातार लाठीचार्ज किए जा रही थी. और उसके बाद 27 महिनों के लिए, जेल में बंद कर दिया था. मतलब राजनारायणजी आजादी के बाद, आजादी के पहले की तुलना में, अधिक समय जेल में बंद रहे हैं. आपातकाल के उन्नीस महिने आलग से. और उसमे भी श्रीमती इंदिरा गांधी के 1971 बंगला देश की लड़ाई के आलोक में उनके खिलाफ सभी विरोधी दलों के तरफसे अटलबिहारी वाजपेयी से लेकर कोई भी नेता चुनाव लड़ने के लिए, तैयार नहीं हो रहा था. अकेले राजनारायणजी ने इस चुनौती को स्वीकार कर के रायबरेली से चुनाव लड़ा. और हारने के बाद भी नहीं माने इंदिरा गाँधी जी के खिलाफ इलाहाबाद हाई कोर्ट में याचिका दायर की और सभी लोग हंसी मजाक उड़ाने के बावजूद (जिसमें सोशलिस्ट भी शामिल थे ) राजनारायणजी नहीं मानें, उन्होंने कहा "कि श्रीमती इंदिरा गांधी ने चुनाव में धांधली की है. " और आस्चर्य की बात राजनारायणजी इलाहाबाद हाई कोर्ट में, श्रीमती इंदिरा गांधी के खिलाफ अपना मामला जीत गए. और उसी दौरान भारत में गुजरात से लेकर बिहार तक, विद्यार्थियों का आंदोलन चल रहा था. और उसका नेतृत्व जयप्रकाश नारायण कर रहे थे. 12 जून 1975 के दिन इलाहाबाद हाई कोर्ट के जगमोहन लाल सिन्हा नाम के जज ने, अपने फैसले में कहा "कि श्रीमती इंदिरा गांधी ने, अपने चुनाव में भ्रष्ट तरीकों का इस्तेमाल करने के कारण, चुनाव जीती है. इसलिए उन्हें लोकसभा के सदस्यता से अयोग्य घोषित कर दिया." और संपूर्ण विश्व में भूकंप जैसा माहौल बन गया था. और मुख्यतः भारत की आजादी के बाद हमारे न्यायालय के इतिहास में पहली बार किसी जज ने देश के सबसे बड़े पद पर बैठे हुए व्यक्ति के खिलाफ फैसला देने के कारण न्यायालय का मान बढ़ाया है. और राजनारायणजी को मस्खरा समझने वाले लोगों को अचानक वह राष्ट्रीय स्तर के नेता लगने लगे और तबसे राजनारायणजी के नाम के आगे नेताजी शब्द उनके मृत्यू परांत भी जारी है. इंदिरा गाँधी, जयप्रकाश नारायण के आंदोलन तथा राजनारायणजी के कोर्ट केस में मामले की हार और जॉर्ज फर्नाडिस के नेतृत्व में चल रहे रेल्वे कर्मचारियों के हड़ताल से तंग आकर आपातकाल की घोषणा 25 जून 1975 को आधी रात को कर दी थी. और उन्नीस महीनों के बाद विभिन्न एजेंसियों के रिपोर्ट के आधार पर जनवरी 1977 में पांचवीं लोकसभा बर्खास्त कर के चुनाव की घोषणा कर दी और राजनारायणजी ने जेल से ही घोषणा कर दी "कि मै श्रीमती इंदिरा गांधी जहां से भी चुनाव लडेगी मै उनके खिलाफ चुनाव लडुंगा. हालांकि उन्हें फरवरी के आठ तारीख को रिहा करने के बावजूद वह अपने निर्णय पर अटल रहे उनके शुभचिंतकों ने कहा "कि आप दो जगह से चुनाव लड़िए " इसके लिए उन्हें प्रतापगढ़ से चुनाव लड़ने के लिए कहा गया (क्योंकि वहाँ की संसदीय क्षेत्र से पांच विधानसभा सीट में से तीन सोशलिस्टो के पास थे. ) इसलिए सभी साथियों का आग्रह उन्हें दोनों जगह से चुनाव लड़ने के लिए कहा गया था. लेकिन वह नहीं मानें. और सिर्फ रायबरेली से ही खड़े हुए और 52 हजार वोटों से श्रीमती इंदिरा गांधी के खिलाफ जीत दर्ज की. और इसीलिये राजनारायणजी का नाम भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों से लिखा गया उन्हें भारत के जीमीकार्टर से लेकर, जॉयंट किलर जैसे उपाधियों से नवाजा गया. भारत और विश्व के मिडिया ने अपने सर आंखों पर बिठाया है. मतलब कुछ दिनों पहले एक मस्खरा के रूप में उसी मिडिया ने राजनारायणजी को लेकर क्या - क्या वाक्यों का प्रयोग नहीं किया था ? और आज वही मिडिया, उनके तारीफ करते हुए उनकी तारीफ के पूल बांध रहा है. 1977 में जनता सरकार में, उन्होंने स्वास्थ मंत्री के रूप में मोरारजी देसाई ने अपने मंत्रिमंडल में शामिल करते हूऐ उन्हें भारत के स्वास्थ मंत्रालय की जिम्मेदारी सौंपी थी. भारत की उपेक्षित चिकित्सा पद्धतियों में से होमिओपॅथी, आयुर्वेद तथा यूनानी, और अन्य पारंपरिक पद्धतियों को पहली बार, एलोपैथी के बराबर दर्जा देने का फैसला राजनारायण जी ने लिया . जो बात मेरे खुद के होमिओपॅथी कॉलेज के दिनों में मैंने कॉलेज के जी. एस. होने के नाते मैंने बहुत कोशिश की है. उसके अपने खुद के जेब से पैसे खर्च कर के लिए दिल्ली जाकर (1971-72) तत्कालीन राष्ट्रपति श्री. वी. वी. गिरी को राष्ट्रपति भवन में जाकर, एक प्रतिनिधी मंडल के साथ मिला था. और उन्हें होमिओपॅथी तथा आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति और युनानी तथा कुछ और भी पारंपरिक रूप से, हज़ारों वर्षों से अधिक समय से चली आ रही चिकित्सा पद्धतियों का शास्त्रीय तरीके से सज्ञान लेते हुए, उन्हें एलोपैथी के साथ ही, दर्जा देने की मांग की है. और मेरी मांग के पांच सालों के भीतर राजनारायणजी ने स्वास्थ मंत्रालय का कार्यभार संभालने के बाद तुरंत ही यह निर्णय लिया है. इसलिए मैंने दिल्ली जाकर उन्हें विशेष धन्यवाद ज्ञापन सौंपा है. मेरे लिए सबसे अहम बात आर. एस. एस. के साथ जनसंघ के संबंधों को देखते हुए मैने आदरणीय एस. एम. जोशी जी को आपातकाल के समय जनता पार्टी के गठन होने की प्रक्रिया के दौरान ही कहा था "कि जनसंघ के साथ चुनाव के लिए तात्कालिक रूप से गठबंधन कर सकते हो लेकिन इस दल के साथ सोशलिस्ट पार्टी का विलय कर के एक पार्टी कर के बहुत बड़ा नुकसान सोशलिस्टो का होगा. क्योंकि जनसंघ आर. एस. एस. की राजनीतिक ईकाई है. इसलिए उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता हिंदूत्ववादी तथा समाजवाद और सेक्युलरिज्म के विरोधी और पूंजीवादी मुक्त अर्थव्यवस्था के समर्थक दल के साथ सोशलिस्टो ने एक पार्टी बनाना बहुत गलत निर्णय होगा. और इस प्रक्रिया में सबसे अधिक, समाजवादियों का नुकसान होगा इसलिए तात्कालिक रूप से चुनावी गठबंधन तक ठीक हैं. लेकिन जनसंघ के साथ एक दल बनाना बिल्कुल गलत है. " और इसलिए मैं खुद व्यक्तिगत रूप से जनता पार्टी मे शामिल नहीं था. और मुझे अमरावती लोकसभा के लिए वह महाराष्ट्र जनता पार्टी के अध्यक्ष, एस एम जोशी जी जेपी के आग्रह पर बने थे . तो उस हैसियत से, आदरणीय एस. एम. जोशी जी ने कहा" कि तुम्हारे चुनाव में, मै खुद अपनी पूरी क्षमता से जेपी, जगजीवन राम तथा विजया लक्ष्मी पंडित को भी प्रचार के लिए अमरावती ले आऊंगा." लेकिन मै नहीं माना और वह महाराष्ट्र जनता पार्टी के अध्यक्ष होने के नाते मुझे अपने साथ महाराष्ट्र जनता पार्टी के महासचिव बनने का आग्रह किया तो वह भी मैने अस्वीकार कर दिया था . इस कारण जब, चंद कुछ दिनों के भीतर ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग जनसंघ के मंत्रियों के द्वारा रोजमर्रा के कामकाज में हस्तक्षेप करते हुए देखकर राजनारायणजी के कान खड़े हुए. और उन्होंने विधीवत प्रधानमंत्री मुरारजी देसाई के सामने यह मामला उठाया. मुरारजी भाई ने राजनारायण की आपत्ति को अनदेखी कीया . जैसा कि गांधी हत्या के पहले ही नगरवाला नामके एक पुलिस अधिकारी ने मुंबई राज्य के गृहमंत्री रहते हुए मुरारजी देसाई को 30 जनवरी 1948 कुछ दिनों पहले ही "कहा कि मुझे बैरिस्टर विनायक दामोदर सावरकर की गतिविधियों में संशयास्पद नजर आ रहा है. और यह आदमी महात्मा गाँधी जी के हत्या का षडयंत्र कर रहा है, इसलिए आप मुझे इसे गिरफ्तार करने की इजाजत दिजीए. " तो मुरारजी देसाई नगरवाला के उपर गुस्सा होकर उसे डांटकर कहा, "कि खबरदार सावरकर को हाथ लगाया तो महाराष्ट्र में दंगे शुरू हो जायेंगे. " हिंदुत्ववादीयो के प्रति मुरारजी देसाई की सहानुभूति कितनी पूरानी है. यह बात सामने लाने के लिए मै मनोहर मुळगांवकर की किताब 'The men who killed Gandhi' के हवाले से लिख रहा हूँ. वैसे भी संगठन कांग्रेस पार्टी भी समाजवाद के विरोधी और मुक्त पुंजिवाद की हिमायती होने के कारण उन्हें आर एस एस के प्रति लगाव था. राजनारायणजी ने जनसंघ के दोहरी सदस्यता के मुद्दे को सब से पहले पार्टी के भीतर उठाया था . लेकिन कुछ लोगों को सत्ता के मोह में राजनारायणजी की बात ठीक नहीं लगी तो राजनारायणजी ने अपने मंत्रिपद से त्यागपत्र दे दिया. और अपने ही पार्टी के सरकार के खिलाफ विपक्ष की भूमिका में आ गए. और संपूर्ण देश में दोहरी सदस्यों वाले मुद्दे पर जनजागरण करने की कोशिश कर रहे थे. लेकिन मिडिया में शुरू से ही आर. एस. एस. के लोगों की भरमार होने के कारण राजनारायणजी की छवि खराब करने के लिए विशेष रूप से, तेज गति से अभियान चलाया गया था. और यह सब देखकर, उन्होंने जुलाई 1979 में बगावत का झंडा बुलंद कर जनता पार्टी तोडकर जनता पार्टी सेक्युलर का गठन किया. और मुरारजी देसाई की सरकार को धराशायी कर दिया. इसलिए राजनारायणजी के उपर हमारे अजिज दोस्त शाहनवाज़ कादरी साहब ने अपनी खुद की जेब से पैसे लगाकर राजनारायणजी के प्रति उनकी निष्ठा और प्रतिबध्दता का परिचय दिया है. 512 पन्नौकी किताब में संस्मरणात्मक लेखो के अलावा वैचारिक लेख राजनारायणजी ने दिए हुए साक्षात्कार खुद राजनारायणजी की कलम से लिखे गए लेखों से लेकर संसदीय लायब्रेरी से उनके संसदीय कार्य के बारे में 31 महत्वपूर्ण मुद्दों के उपर उठाए गए मुद्दों पर 144 पृष्ठों में बृहत जानकारी दी गई है. वह बहुत ही महत्वपूर्ण और देश के अहम मुद्दो के उपर उन्होंने अपने संसदीय जीवन में एतिहासिक भूमिका निभाई है. आज उनके 29 वे पुण्यस्मरण दिवसपर विनम्र अभिवादन. डॉ. सुरेश खैरनार 31 दिसंबर 2023, 2025 नागपुर.

सरस्वती शक्ति वन्दन - अवधी भाषा

सरस्वती शक्ति वन्दन - अवधी भाषा रहते किये दंभ है देवता या नटि कर्म की ओर निहारते है।। विश्वास है घात किया करते जजमान को रोवाव डारते है।। नत्र मस्तक घेसदा वक्त रहें, रहते नये जे अपना नही दुतकारते है।। कल्याण सदा ही करें तारते है नाउ वारत है।। करें काज कसाई हितू बनिकै वृद्ध के संग बालिका कोवर दें। गृह उच्च के ताथै बताते रहे मतिको गीत مر 2 34 सो भनि को हरि दें।। परे धोरे दरेर तहाँ नक शीश कदावि दरै दरखें ।। नहु रूप कला से दिखाय को मला को रसातल के तल दे धरखें।। अवधी भाषा के कवि स्वर्गीय जगजीवन सिंह 'सरस'

अगली सदी में लाल झंडा लेकर चलना ही होगा - डी राजा

अगली सदी में लाल झंडा लेकर चलना ही होगा - डी राजा जैसे-जैसे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी राजनीतिक जुड़ाव की एक सदी पूरी कर रही है, इसकी विरासत बराबरी, धर्मनिरपेक्षता और न्याय की नींव पर भारत को फिर से बनाने के काम पर सोचने के लिए मजबूर करती है। 26 दिसंबर, 2025 को, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी 100 साल की हो जाएगी। यह शताब्दी सिर्फ़ एक राजनीतिक पार्टी के लिए समय का निशान नहीं है, बल्कि एक ऐसे आंदोलन पर ऐतिहासिक सोच का पल है जिसने भारत के आज़ादी के संघर्ष, देश के भविष्य के लिए उसके नज़रिए और उसके सामाजिक और आर्थिक नज़रिए को गहराई से आकार दिया। अपने शुरुआती सालों से ही,भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव कम्युनिस्ट पार्टी ने क्रांतिकारी नारे "इंकलाब ज़िंदाबाद" को आवाज़ दी, जिसे मौलाना हसरत मोहानी ने गढ़ा था, जो ऐतिहासिक कानपुर महाधिवेशन की स्वागत समिति के चेयरमैन थे और जिसे भगत सिंह और उनके साथियों ने अमर कर दिया था। कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं के ज़रिए, क्रांतिकारी बदलाव की यह आवाज़ देश के कोने-कोने तक पहुँची, जो विरोध, उम्मीद और देशभक्ति की जीती-जागती मिसाल बन गई।भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी औपनिवेशिक शासन का सामना करते हुए उभरी और राष्ट्रीय आंदोलन के सामने खड़े एक बुनियादी सवाल का जवाब देने की कोशिश की: आज़ादी किसके लिए और किस मकसद के लिए। एक सदी से भी ज़्यादा समय से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी लगातार यह तर्क देती रही है कि सामाजिक और आर्थिक बदलाव के बिना राजनीतिक आज़ादी से आम लोग पुराने और नए तरीकों में फंसे रहेंगे। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की ऐतिहासिक जड़ें उपनिवेशिक पूंजीवाद के खिलाफ़ इसके बिना समझौता किए संघर्ष में हैं। ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने भारत की अर्थव्यवस्था को विदेशी पूंजी की ज़रूरतों के अधीन कर दिया, देशी उद्योग को खत्म कर दिया, शोषण वाले ज़मीन के रिश्ते थोपे, और बहुत ज़्यादा गरीबी पैदा की। साथ ही, इसने एक मॉडर्न वर्किंग क्लास बनाई और भारतीय क्रांतिकारियों को सोशलिस्ट सोच की ग्लोबल लहरों से रूबरू कराया, खासकर 1917 की रूसी क्रांति के बाद। भारतीय एक्टिविस्ट और क्रांतिकारियों ने, जो विदेश में या इंटरनेशनल नेटवर्क के ज़रिए मार्क्सवाद से मिले, यह देखना शुरू कर दिया कि राष्ट्रीय आज़ादी और सामाजिक आज़ादी को अलग नहीं किया जा सकता। यह समझ दिसंबर 1925 में कानपुर में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना के साथ एक संगठनात्मक रूप में परिपक्व हुई। मार्क्सवादी सिद्धांत, भारतीय वास्तविकताएँ कानपुर महाधिवेशन में क्रांतिकारियों, ट्रेड यूनियन के लोगों और साम्राज्यवाद-विरोधी एक्टिविस्टों को एक साथ लाया गया, जो मार्क्सवादी सिध्दांत और भारतीय असलियत पर आधारित एक क्रांतिकारी पार्टी बनाने के लिए प्रतिबद्ध थे। कॉलोनियल शासन के खिलाफ लड़ाई में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की भूमिका उम्मीद से कम और बहुत ज़्यादा देशभक्ति वाली थी। इंपीरियल पावर के साथ समझौता करने वाले राष्ट्रवाद के अलग-अलग पहलुओं के उलट, कम्युनिस्ट कॉलोनियलिज़्म को राजनीतिक दबदबे से चलने वाले आर्थिक शोषण के सिस्टम के तौर पर समझते थे। उन्होंने ट्रेड यूनियन संघर्षों, किसान आंदोलनों, अंडरग्राउंड विरोध और विचारधारा की लड़ाइयों के ज़रिए ब्रिटिश शासन से लड़ाई लड़ी। उनकी देशभक्ति अमीर लोगों की बातचीत में नहीं, बल्कि आम भारतीयों की ज़िंदगी और संघर्षों में थी। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सबसे अहम योगदानों में से एक था बड़े पैमाने पर संगठन बनाने पर ज़ोर देना। पार्टी ने माना कि समाज को उसकी पूरी विविधता में एकजुट किए बिना राजनीतिक आज़ादी हासिल नहीं की जा सकती। इसने ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस, ऑल इंडिया किसान सभा, ऑल इंडिया स्टूडेंट्स फ़ेडरेशन, प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन और इंडियन पीपल्स थिएटर एसोसिएशन जैसे सांस्कृतिक और लेखकों के संगठनों, और बाद में, महिलाओं और युवाओं के संगठनों जैसे प्लेटफ़ॉर्म बनाने और उन्हें मज़बूत करने में मदद की। सामाजिक मुक्ति: जन संघर्षों के ज़रिए ही कम्युनिस्ट राजनीति ने अपनी गहरी जड़ें जमाईं। इन संगठनों के ज़रिए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने मज़दूरों, किसानों, छात्रों, बुद्धिजीवियों और कलाकारों को साझा संघर्षों के लिए एकजुट किया। जन संघर्षों के ज़रिए ही कम्युनिस्ट राजनीति ने अपनी गहरी जड़ें जमाईं।भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने ज़मीन और इज़्ज़त के लिए बड़े आंदोलनों का नेतृत्व किया, जिसमें सामंती ज़ुल्म के ख़िलाफ़ तेलंगाना का हथियारबंद संघर्ष, बंगाल में तेभागा आंदोलन जिसने किसानों को उनकी उपज पर उनके हक़ के लिए आवाज़ उठाई, केरल में ज़मींदारों के ज़ुल्म के ख़िलाफ़ पुन्नपरा-वायलार संघर्ष, और थान जावुर डेल्टा के ज़मीन के संघर्ष शामिल हैं। कानपुर, बॉम्बे, कलकत्ता और पुडुचेरी जैसे इंडस्ट्रियल सेंटर्स में, कम्युनिस्ट लीडरशिप में ट्रेड यूनियन आंदोलन ने बड़ी मज़दूर जीत हासिल की, जिससे मज़दूरों के हक़, मज़दूरी और इज़्ज़त सुरक्षित हुई। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने राष्ट्रीय संघर्ष के एजेंडे को पूरी तरह से बदल दिया। ऐसे समय में जब डोमिनियन स्टेटस पर एक संभावित समझौते के तौर पर बहस हो रही थी, कम्युनिस्टों ने पूरी आज़ादी पर ज़ोर दिया गया। वे संविधान सभा की मांग के शुरुआती और सबसे लगातार समर्थकों में से थे, उनका तर्क था कि सिर्फ़ लोगों द्वारा चुनी गई एक सॉवरेन बॉडी ही डेमोक्रेटिक संविधान बना सकती है। यह मांग बाद में भारत की आज़ादी की ओर बदलाव के लिए सेंट्रल बन गई। पार्टी ने आज़ादी की लड़ाई के सेंटर में स्ट्रक्चरल सुधारों को रखा, यह तर्क देते हुए कि ज़मीन सुधारों, मज़दूरों के अधिकारों और सामाजिक बराबरी के बिना आज़ादी सिर्फ़ विदेशी शासकों की जगह देसी एलीट लोगों को ला देगी। कम्युनिस्टों के आंदोलनों के ज़रिए ज़मीन का दोबारा बंटवारा, ज़मींदारी का खात्मा, किराएदारों की सुरक्षा, ट्रेड यूनियन के अधिकार, मिनिमम वेतन और सोशल सिक्योरिटी को नेशनल एजेंडा में शामिल किया गया।भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने एक वर्ग विहीन और जाति विहीन भारत का विज़न बताया, जिसमें जाति को सांस्कृतिक निशान के तौर पर नहीं, बल्कि वर्ग के शोषण से गहराई से जुड़ी एक भौतिक व्यवस्था के तौर पर माना गया। जाति को जोड़कर आर्थिक ढांचे पर अत्याचार के खिलाफ़ पार्टी ने सामाजिक न्याय का मतलब बढ़ाया और आज़ादी की लड़ाई को एक बदलाव लाने वाला कंटेंट दिया। इनमें से कई मांगें संविधान और संविधान में दिखाई दीं। आज़ादी के बाद की पॉलिसी पर बहस। 1947 में आज़ादी के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का संघर्ष खत्म नहीं हुआ। यह एक नए दौर की शुरुआत थी जो सामंती ढांचों को खत्म करने, मोनोपॉलिस्टिक कैपिटलिज़्म का विरोध करने और डेमोक्रेसी को मज़बूत करने पर फोकस था। पार्टी ने ज़मींदारी के खिलाफ़ ऐतिहासिक किसान संघर्षों को लीड किया और केरल, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और बिहार जैसे राज्यों में लैंड रिफॉर्म को आगे बढ़ाने में अहम भूमिका निभाई। पार्लियामेंट्री और एक्स्ट्रा-पार्लियामेंट्री एरिया में,भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने इकॉनमी के खास सेक्टर्स में पब्लिक ओनरशिप का सपोर्ट किया और लगातार बैंकों, कोयला, इंश्योरेंस और दूसरी कोर इंडस्ट्रीज़ के राष्ट्रीयकरण की वकालत की, यह तर्क देते हुए कि स्ट्रेटेजिक रिसोर्सेज़ को प्राइवेट जमा करने के बजाय नेशनल डेवलपमेंट और सोशल वेलफेयर में काम आना चाहिए। संघवाद के रक्षक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी फ़ेडरलिज़्म और भाषाई और सांस्कृतिक विविधता की भी मज़बूत हिमायती थी, जिसने भारत के लोकतांत्रिक ताने-बाने को मज़बूत किया। सामाजिक न्याय के लिए इसका कमिटमेंट दलितों, आदिवासियों, माइनॉरिटीज़ और महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के साथ-साथ सेक्युलरिज़्म और समझदारी भरी सोच के प्रति इसके पक्के समर्थन में दिखा। दशकों से, लाल झंडा सुधार, तरक्की और प्रतिक्रियावादी ताकतों के विरोध का प्रतीक रहा है। आज, जब भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी अपनी दूसरी सदी में कदम रख रही है, भारत गंभीर चुनौतियों का सामना कर रहा है। कम्युनलिज़्म और उभरता हुआ फ़ासिज़्म भारत के लिए खतरा हैं। रिपब्लिक की नींव रखी गई है। आर्थिक विकास के साथ-साथ भारी बेरोज़गारी, अनिश्चितता और बढ़ती असमानताएँ भी हैं। कम्युनिस्ट पार्टी के लिए चुनौती यह है कि वे एक बार फिर आम लोगों की उम्मीदों का पर्याय बनें। इसके लिए आज के कैपिटलिज़्म की अपनी समझ को नया करना होगा, साथ ही बराबरी, डेमोक्रेसी और न्याय के अपने मुख्य मूल्यों पर टिके रहना होगा। हमारे इतिहास के इस अहम मोड़ पर, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की सौवीं सालगिरह सिर्फ़ याद करने का पल नहीं है, बल्कि एक्शन लेने का बुलावा भी है। डेमोक्रेसी पर ही हमला हो रहा है, लोगों के अधिकारों और रोज़ी-रोटी को सिस्टमैटिक तरीके से खत्म किया जा रहा है, और आज़ादी के आंदोलन की कामयाबियों को जानबूझकर खत्म किया जा रहा है। संघ - भाजपा की जोड़ी हमारी सामाजिक एकता को खत्म करना, हमारी आर्थिक आज़ादी को खोखला करना, और संविधान को तोड़कर एक तानाशाही, सबको अलग-थलग करने वाला ऑर्डर लागू करना चाहती है। इस खतरे का टुकड़ों में सामना नहीं किया जा सकता। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को मज़बूत करना होगा और एक बड़ा डेमोक्रेटिक विरोध बनाने के लिए उन्हें एक साथ लाना होगा। वर्ग का शोषण, जाति का ज़ुल्म, और पुरुष-प्रधान सोच अभी भी दबदबे के मज़बूत ढांचे बने हुए हैं, जिनके लिए संगठित और बिना किसी समझौते के संघर्ष की ज़रूरत है। हमारे सामने काम साफ़ है: संस्थाओं को उनके नुकसान पहुंचाने वाले असर से साफ़ करना, रिपब्लिक को वापस पाना, और बराबरी, सेक्युलरिज़्म और न्याय की नींव पर भारत को फिर से बनाना। हमें एक साथ मिलकर विरोध करना होगा। हमें एक साथ मिलकर आगे बढ़ना होगा। हमें एक साथ मिलकर एक नया भारत बनाना होगा: समानता वाला, लोकतांत्रिक और खुशहाल। लाल झंडा और ऊंचा होना चाहिए। लोगों की जीत होनी चाहिए। भविष्य हमारा होना चाहिए।

संघी घृणा अभियान का हिस्सा है एंजेल की हत्या

संघी घृणा अभियान का हिस्सा है एंजेल की हत्या देहरादून में एंजेल चकमा हत्याकांड। एंजेल चकमा हत्याकांड उत्तराखंड की राजधानी देहरादून में हुई एक जातीय हिंसा की हृदय विदारक घटना है, जिसने पूरे देश में बहस छेड़ दी है। यह मामला नस्लीय हिंसा, पूर्वोत्तर भारत के छात्रों की सुरक्षा और पुलिस जांच की अपारदर्शिता और निकम्मे पन से जुड़ा है। यह अपराध 9 दिसंबर 2025 की शाम, देहरादून के सेलाकुई इलाके में (प्रेमनगर थाना क्षेत्र) का है। पीड़ित एंजेल चकमा (उम्र 24 साल), त्रिपुरा के उन्नकोटी जिले के नंदननगर निवासी थे। वे देहरादून के एक निजी विश्वविद्यालय ,जिज्ञासा यूनिवर्सिटी, उत्तरांचल यूनिवर्सिटी के पास स्थित, में एमबीए फाइनल ईयर के छात्र थे। उनके पिता तरुण प्रसाद चकमा बीएसएफ में कार्यरत हैं। एंजेल अपने छोटे भाई माइकल चकमा के साथ बाजार में घरेलू सामान खरीदने गए थे। वहां एक शराब की दुकान या कैंटीन के पास कुछ युवकों का समूह मौजूद था, जो नशे में थे। परिवार और मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार आरोपियों ने भाइयों को "चाइनीज", "चिंकी", "मोमोज" जैसे नस्लीय अपशब्द कहे और अभद्रता की। विरोध करने पर विवाद बढ़ा और आरोपियों ने चाकू, लोहे की रॉड और कड़े (ब्रेसलेट) से हमला किया। एंजेल को सिर, गर्दन, पेट और रीढ़ पर गंभीर चोटें आईं। वे बार-बार चिल्लाते रहे, "मैं इंडियन हूं, चाइनीज नहीं"। एंजेल को ग्राफिक एरा अस्पताल में भर्ती किया गया। 17 दिनों तक आईसीयू में जिंदगी-मौत से जूझने के बाद 26 दिसंबर 2025 को उनकी मौत हो गई। मौत के बाद मामला हत्या का बन गया।पूरे देश में शोर मच गया। बताया जाता है कुल 6 आरोपी हैं। इनमें अविनाश नेगी (25), सूरज खवास (21, मणिपुर मूल का), सुमित कुमार (25), शौर्य (18), आयुष बदोनी (18) और मुख्य आरोपी यज्ञराज अवस्थी (नेपाल मूल का) शामिल हैं। आम जनता में गुस्सा पनपने पर तथा देशव्यापी प्रोटेस्ट के कारण 5 आरोपी गिरफ्तार हुए जिनमें दो नाबालिग सुधार गृह में भेजे गए। मुख्य आरोपी यज्ञराज अवस्थी फरार है । पुलिस का मानना है कि वह नेपाल भाग गया। देहरादून एसएसपी अजय सिंह के अनुसार, यह नस्लीय हमला नहीं था। परंतु यह कथन परिस्थितियों की जानकारी से लोगों के गले के नीचे उतर नहीं रहा है। देहरादून पुलिस की संवेदनहीनता का यह हाल है कि एफआईआर शुरुआत में मारपीट की धाराओं में दर्ज की गई, मौत के बाद हत्या (बीएनएस 103) जोड़ी गई। परिवार का आरोप है कि पुलिस ने शुरुआत में एफआईआर दर्ज करने में देरी की। परिवार, पूर्वोत्तर छात्र संगठन (जैसे ऑल इंडिया चकमा स्टूडेंट्स यूनियन, एनईएसओ), राजनीतिक नेताओं ने और मीडिया ने इसे नस्लीय हिंसा प्रेरित हेट क्राइम बताया। अधिकतर लोगों का यह मानना है कि राष्ट्रवाद के नाम पर भारतीय जनता पार्टी सरकार एवं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विस्तारित परिवार के नेताओं एवं पदाधिकारियो के द्वारा समाज में नफरत फैलाने वाली नीतियों का नतीजा है। कभी मुसलमान को टारगेट किया जाता है, कभी ईसाइयों को तो कभी बरेली में बर्थडे पार्टी में लोग घुस जाते हैं या कहीं तलवार बांटी जा रही है। यह मामला पूर्वोत्तर के लोगों के खिलाफ भेदभाव की बड़ी समस्या को भी उजागर करता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रधान श्री मोहन भागवत प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी की बातों का अनुसरण करते हुए देश को विश्व गुरु स्थापित करना चाहते हैं। लेकिन जब देशवासियों पर उन्हीं की विचारधारा से प्रभावित लोग हिंसा पर उतारू है तो ना तो श्री मोहन भागवत उसकी निंदा करते हैं और ना ही देश के प्रधानमंत्री महोदय। अंध भक्तों को छोड़कर 240 करोड़ आंखें राज्य सत्ता की पार्टी,उनके नेताओं और उनके वरदहस्त प्राप्त दस्तों को अच्छी तरह से देख रही हैं। देश का कानून और जनता न्याय अवश्य करेगी। इस नस्लीय हिंसा की जितनी भी निंदा की जाए वह कम है।

मंगलवार, 30 दिसंबर 2025

वाह क्या बात है महिला दारोगा ने कहा मुंह में मूत्र दूंगी

वाह क्या बात है उ प्र पुलिस मेरठ में महिला दरोगा बोली- मुंह में मूत्र कर दूंगी:कार में बैठे कपल को धमकाया; मेरठ में एक महिला दरोगा ने अपनी वर्दी की हनक दिखाते हुए कार में बैठे कपल से गाली-गलौच और मारपीट की। धमकी देते हुए कहा- पुलिस की वर्दी पहन के खड़ी हूं, दरोगा हूं मैं, मुंह में मूत्र कर दूंगी। मामला मेरठ के आबूलेन मार्केट में रविवार शाम 7 बजे का है। उस वक्त किसी ने घटना का वीडियो बना लिया, जो आज सोमवार को सामने आया। आबूलेन व्यस्ततम मार्केट है। महिला दरोगा की कार जाम में फंस गई थी। उनकी गाड़ी के सामने एक अन्य कार खड़ी थी। पहले महिला दरोगा ने अपनी कार में बैठे-बैठे गालियां दीं। फिर कार से उतरकर एक कार सवार कपल के साथ अभद्रता और मारपीट की। दरोगा की कार के डेशबोर्ड पर पुलिस की कैप रखी हुई थी। जिस आई-20 कार में महिला दरोगा सवार थी, उस पर 14 चालान हैं, जिनकी कुल राशि 43,782 रुपए है। दरोगा सरकारी काम का बहाना बनाकर मुजफ्फरनगर गई थी, लेकिन दोस्तों के साथ मेरठ में आबूलेन मार्केट में शॉपिंग करने पहुंच गई।

सोमवार, 29 दिसंबर 2025

कम्युनिस्ट घोषणा पत्र की काट आज भी साम्राज्यवाद के पास नहीं है - अरविन्द राजस्वरुप

कम्युनिस्ट घोषणा पत्र की काट आज भी साम्राज्यवाद के पास नहीं है - अरविन्द राजस्वरुप
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के शताब्दी समारोह को राज्य सचिव अरविन्द राजस्वरुप ने सम्बोधित किया। कम्युनिस्ट पार्टी के इतिहास को विस्तार से बताया। वीडियो देखने योग्य है। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का शताब्दी समारोह धूमधाम से सम्पन्न भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) का शताब्दी समारोह,19 दिसंबर 2025 को माथुर वैश्य सभा भवन,आगरा में आयोजित किया गया।

रविवार, 28 दिसंबर 2025

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के 100 साल पूरे होने पर गरीबों को कंबल वितरित किया गया-अमित यादव

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के 100 साल पूरे होने पर गरीबों और कंबल वितरित किया गया चित्रकूट। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के स्थापना दिवस के100 साल पूरे होने के उपलक्ष में पार्टी पदाधिकारियों, कार्यकर्ताओं व समाजसेवियों ने जिला सचिव का.अमित यादव एड के नेतृत्व में का.मैयादीन यादव की पुण्य स्मृति पर इटखरी जाकर गरीबों, असहायों को कम्बल वितरण किया गया। इस अवसर पर कामरेड अमित यादव ने कहा कि गरीबों की सहायता व सहयोग करने की शुरुआत कम्युनिस्ट पार्टी ने ही की थी पार्टी की जब स्थापना हुई थी वह इस सिद्धांत के साथ की अंग्रेजी साम्राज्य को उखाड़ कर स्वतंत्र भारत में आर्थिक बराबरी सामाजिक न्याय को लाकर देश को विश्व में अग्रणी बनाना था मगर इस सरकार में अमीर और अमीर हो रहा है तथा गरीब और गरीब होता जा रहा है। युवा रोजगार के लिए, छात्र सस्ती शिक्षा और बीमार व्यक्ति सस्ती चिकित्सा के लिए परेशान हैं जिनके लिए सीपीआई लगातार संघर्ष कर रही है। कम्बल वितरण में समाजसेवी श्री केशव प्रसाद यादव, भजनाश्रम प्रबंधक श्री राम औतार जी,श्री शारदा प्रसाद यादव एड व कामरेड राजेंद्र कुमार यादव के कुशल प्रबंधन व सहयोग से सभी असहायों को सही पात्रों को कम्बल वितरण हो सका।

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी बहराइच -

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना के 100 वर्ष पूरे होने के अवसर पर बहराइच में उमड़ा जनसैलाब हुई रैली व जनसभा शहर को लाल झंडो से सजाया गया

शनिवार, 27 दिसंबर 2025

अंग्रेजों के मुखबिर जान लो कम्युनिस्ट नेता स्वामी कुमारानंद तीस वर्ष तक जेल में रहे है।

अंग्रेजों के मुखबिर जान लो कम्युनिस्ट नेता स्वामी कुमारानंद तीस वर्ष तक जेल में रहे है। स्वामी कुमारानंद , जन्म द्विजेंद्र कुमार नाग एक भारतीय राजनीतिज्ञ और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता थे। वे राजपूताना और मध्य भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन के प्रमुख संस्थापक थे । कुमारानंद रंगून के एक बंगाली परिवार से थे ;उनके पिता बर्मी राजधानी के आयुक्त थे। कुमारानंद उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए ढाका और कलकत्ता गए ।उत्कल के स्वामी सत्यानंद से मिलने के बाद , कुमारानंद 1905 में क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल हो गए।उन्होंने 1910 में चीन की यात्रा भी की और सन यात-सेन से मुलाकात की । चीन में रहने के बाद वे कलकत्ता गए, जहाँ उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। वे नौ साल तक जेल में रहे। कुल मिलाकर, उन्होंने अपने जीवन के 30 साल जेल में बिताए (ब्रिटिश शासन के दौरान और बाद में)। ब्यावर में स्थानांतरित हों महात्मा गांधी से मुलाकात के बाद , कुमारानंद लगभग 1920 में ब्यावर चले ताकि वहाँ ब्रिटिश शासन के खिलाफ प्रतिरोध संगठित कर सकें। उन्होंने 1921 में ब्यावर में किसान सम्मेलन आयोजित करने में इंदुलाल याग्निक के साथ सहयोग किया। कुमारानंद 1920 में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य बने और कांग्रेस के वामपंथी धड़े के एक प्रमुख व्यक्ति थे। मौलाना हसरत मोहानी के साथ मिलकर उन्होंने 1921 में एआईसीसी के अहमदाबाद अधिवेशन में भारत की पूर्ण स्वतंत्रता की मांग करने वाला पहला प्रस्ताव सह-प्रस्तुत किया , जिसे गांधी ने उस समय अस्वीकार कर दिया था। कुमारानंद को इस आयोजन में कम्युनिस्ट घोषणापत्र की प्रतियां वितरित करने के लिए जाना जाता था । वे ब्यावर में नमक सत्याग्रह के प्रमुख व्यक्तियों में से एक थे और इस आंदोलन में अपनी भूमिका के लिए उन्हें गिरफ्तार किया गया था। कुमारानंद ने 1931 में तीन मिलों के श्रमिकों के साथ मिलकर कपड़ा मिल श्रमिकों का एक ट्रेड यूनियन , मिल मजदूर सभा, संगठित किया। यह यूनियन अल्पकालिक रही, क्योंकि इसे मिल मालिकों के कड़े विरोध का सामना करना पड़ा। 1936 में कुमारानंद ने कपड़ा श्रमिक संघ की स्थापना की। यह यूनियन भी कोई खास प्रभाव डालने में विफल रही। 1939 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में, कुमारानंद ने सुभाष चंद्र बोस की उम्मीदवारी का समर्थन किया । सविनय अवज्ञा आंदोलनों के बाद, कुमारानंद को 1943 में गिरफ्तार कर लिया गया। जेल से रिहा होने के बाद, वे 1945 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गए। उसी वर्ष, वे सेंट्रल इंडिया और राजपुताना ट्रेड यूनियन कांग्रेस के संस्थापक अध्यक्ष बने। स्वतंत्रता के बाद, 1948 में उन्हें फिर से जेल भेज दिया गया। 1949 में उन्होंने राजपुताना में सीपीआई का पहला गुप्त सम्मेलन आयोजित किया। कुमारानंद ने 1957 के राजस्थान विधानसभा चुनाव में ब्यावर सीट से चुनाव लड़ा। वे 10,400 वोटों (40.68%) के साथ दूसरे स्थान पर रहे। जुलाई 1960 में केंद्रीय सरकारी कर्मचारियों की हड़ताल के बाद उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। कुमारानंद ने 1962 के राजस्थान विधानसभा चुनाव में ब्यावर सीट 11,681 वोटों (37.18%) के साथ जीती। ब्यावर कांग्रेस पार्टी के भीतर बृज मोहन लाल शर्मा और चिमन सिंह लोढ़ा के बीच हुए गठबंधन ने उनके चुनाव में अहम भूमिका निभाई । निर्वाचित होने के बाद विधानसभा में कुमारानंद की पहली यात्रा के दौरान, मुख्यमंत्री मोहनलाल सुखाड़िया ने उनका अभिवादन किया और सम्मान के प्रतीक के रूप में उनके पैर छुए। [

शुक्रवार, 26 दिसंबर 2025

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के 100 साल डी राजा

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के 100 साल: 'मार्क्स, लेनिन के समय AI नहीं था... कम्युनिस्टों को इसका सामना करना होगा... बदलावों से निपटना होगा' "हम सभी मार्क्सवादी विचारधारा और लेनिनवादी दर्शन के प्रति प्रतिबद्ध हैं। लेकिन मार्क्सवादी-लेनिनवादी सिद्धांतों और विचारधारा को भारतीय वास्तविकताओं पर कैसे लागू किया जाए, यह महत्वपूर्ण है... हम आगे क्यों नहीं बढ़े, यह एक ऐसा मुद्दा है जिस पर ध्यान देने की ज़रूरत है," भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव डी राजा कहते हैं। -मनोज सी.जी हालांकि भारतीय कम्युनिस्ट 1917 में रूसी क्रांति के बाद से सक्रिय थे, लेकिन भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की आधिकारिक स्थापना 26 दिसंबर, 1925 को उत्तर प्रदेश के कानपुर में अपने पहले सत्र में हुई थी। अपने शताब्दी वर्ष में, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और व्यापक संसदीय वामपंथी दल अपने सबसे निचले स्तर पर हैं, और इस सवाल का सामना कर रहे हैं कि वे ऐसे समय में अपनी प्रासंगिकता कैसे हासिल कर सकते हैं जब भारतीय राजनीतिक परिदृश्य पर एक और संस्था का दबदबा है जिसने इस साल अपनी शताब्दी मनाई है, संघ । एक इंटरव्यू में, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव डी राजा, जो 2019 से इस पद पर हैं, अपनी पार्टी की 100 साल की यात्रा, वामपंथी दलों की चुनावी असफलताओं के कारणों और उन चुनौतियों पर बात करते हैं जिनका उन्हें सामना करना है। अंश: * एक सदी की यात्रा को देखते हुए, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के लिए क्या सबक हैं? यह संघर्षों और बलिदानों की यात्रा रही है। पूर्ण स्वराज (पूर्ण स्वतंत्रता) का नारा सबसे पहले हमने ही दिया था। हम संघर्ष में सबसे आगे थे। यह इतिहास का हिस्सा है। हमें गर्व है कि हमारी पार्टी स्वतंत्रता के लिए लड़ने में सबसे आगे थी। हमारी पार्टी पहली थी जिसने लोगों के सभी वर्गों तक पहुँच बनाई। जबकि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का गठन 1925 में हुआ था, ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस का गठन 1920 में श्रमिक वर्ग को संगठित करने के लिए किया गया था। 1936 में, हमने किसानों तक पहुँचने के लिए अखिल भारतीय किसान सभा का गठन किया। उसी साल आल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन का भी गठन हुआ। लखनऊ में पहले सेशन को जवाहरलाल नेहरू ने संबोधित किया था। हमने उसी साल इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन और प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन का गठन किया ताकि हम बुद्धिजीवियों को एकजुट कर सकें। लेकिन आज़ादी के एक साल बाद, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी , जिसके जनरल सेक्रेटरी उस समय बी टी रणदिवे थे, ने यह निष्कर्ष निकाला कि आज़ादी एक दिखावा है और असली आज़ादी नहीं मिली है... जब देश आज़ाद हुआ, तो यह विचार था कि हमें संघर्ष जारी रखना चाहिए। कि यह आज़ादी असली होनी चाहिए। वह समय था जब कांग्रेस ने पार्टी पर बैन लगा दिया था।बी टी रणदिबे लाइन सामने आई, कि चुनाव में हिस्सा लेना है या अपना संघर्ष जारी रखना है, इन सभी मुद्दों पर बहस हुई। आखिरकार, पार्टी ने यह रुख अपनाया कि औपनिवेशिक शासन खत्म हो गया है और उसे चुनाव में हिस्सा लेना चाहिए। जबकि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी अपनी शताब्दी मना रही है, चुनावी तौर पर यह अपने सबसे निचले स्तर पर है। सिर्फ़ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ही नहीं, पूरा वामपंथ। आप इस चुनौती को कैसे देखते हैं? मैं सहमत हूँ। पहले चुनावों में, हमारी पार्टी संसद में मुख्य विपक्ष थी। बाद में, जब गठबंधन सरकारें बनीं, चाहे वह वी पी सिंह के नेतृत्व वाली हो या 1990 के दशक में यूनाइटेड फ्रंट सरकार और यूनाइटेड प्रोग्रेसिव अलायंस, हमारी पार्टी और वामपंथ ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। लेकिन हमें झटके लगे हैं... सब कुछ कहने के बाद, संसदीय लोकतंत्र का मतलब है चुनाव लड़ना, चुनाव जीतना, राजनीतिक सत्ता और एक उचित उपस्थिति होना। लेकिन नए दौर में, वामपंथ को नुकसान हुआ है और उसे यह समझना होगा और सोचना होगा कि गाँव की पंचायतों से लेकर संसद तक, चुनी हुई संस्थाओं में अपनी उपस्थिति को कैसे बेहतर बनाया जाए। लेकिन इस नए दौर में वामपंथ को नुकसान क्यों हो रहा है? कुछ बँटवारे के कारण वामपंथ को नुकसान हुआ है। 1964 में बड़ा बँटवारा जिससे CPI(M) का गठन हुआ, 1960 के दशक के आखिर में दूसरा बँटवारा जिससे CPI(ML) का उदय हुआ और बाद में और भी बँटवारे हुए। * लेकिन 1977 से लेकर 2011 तक, वामपंथ पश्चिम बंगाल में सत्ता में था। 1993 से 2018 तक, इसने त्रिपुरा पर शासन किया। इसने केरल पर कई बार शासन किया। 2004 में, लेफ्ट ने लोकसभा चुनावों में अपना अब तक का सबसे अच्छा प्रदर्शन किया। इसलिए बंटवारे के बाद भी, लेफ्ट कुल मिलाकर एक बड़ा खिलाड़ी था। इसका चुनावी पतन हाल की घटना है। हम सभी मार्क्सवादी विचारधारा और लेनिनवादी दर्शन के प्रति प्रतिबद्ध हैं। लेकिन मार्क्सवादी-लेनिनवादी विचारों और विचारधारा को भारतीय वास्तविकताओं पर कैसे लागू किया जाए, यह महत्वपूर्ण है। ऐसे भारत में जहां आर्थिक असमानता, सामाजिक असमानता, वर्ग विभाजन, भेदभाव, जाति-आधारित शोषण और पितृसत्ता अभी भी मौजूद है, जहां उत्पादन के साधन कुछ खास पूंजीपतियों के हाथों में हैं। मजदूर और किसान धन पैदा करने वाले हैं, लेकिन धन उनके हाथों में नहीं है। डॉ. बी. आर. अंबेडकर ने जातियों के खात्मे की बात कही थी। कम्युनिस्टों को यह समझना होगा। इसे भी समझें। आर्थिक सुधारों और राजनीतिक सुधारों का कोई मतलब नहीं होगा जब तक आप जाति व्यवस्था को खत्म नहीं कर देते। क्या आपने जो कहा, वह कम्युनिस्ट पार्टी के बढ़ने के लिए एक आदर्श सिस्टम नहीं है? यह है। इन सब बातों के बावजूद, हम क्यों नहीं बढ़े, यह एक ऐसा मुद्दा है जिस पर ध्यान देने की ज़रूरत है। अगर आपको लगता है कि लेफ्ट किसी भी दूसरी पार्टी से बेहतर तरीके से इन चुनौतियों का सामना कर सकता है, तो वह ऐसा क्यों नहीं कर पा रहा है? क्या उसके पास लोगों से जुड़ने की भाषा नहीं है? यह समझना चाहिए कि यह एक नया दौर है, विश्व स्तर पर भी। उदाहरण के लिए, (अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड) ट्रंप के उदय को कैसे समझा जाए। अमेरिकी लोग एक आज़ाद समाज की बात करते थे, लेकिन देखिए ट्रंप क्या कह रहे हैं। जब लोग असमानता और अन्याय से पीड़ित होते हैं, तो उन्हें कम्युनिज्म के करीब आना चाहिए। कम्युनिस्टों के चुनावी पतन के बावजूद, हम वैचारिक और राजनीतिक रूप से अभी भी प्रासंगिक हैं। हम कम्युनिस्ट आंदोलन के एकीकरण के बारे में भी बात करते रहते हैं। यह एक ऐतिहासिक ज़रूरत है। यह एक नया दौर है। न केवल पूंजी का निर्यात, ज्ञान का निर्यात, उच्च तकनीक का निर्यात (बल्कि) आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) भी... कम्युनिस्टों को बदलावों का सामना करना होगा और बदलावों का हिस्सा बनना होगा। इसी पर हम चर्चा कर रहे हैं, हम सोच रहे हैं। क्या आप विस्तार से बता सकते हैं? उत्पादन प्रक्रिया में बदलाव हो रहे हैं। मार्क्स या लेनिन के समय AI नहीं था। हमें AI का सामना करना है। यह उत्पादन की शक्तियों, उत्पादन संबंधों और मुनाफा कमाने को प्रभावित करता है। यह एक बदलाव है। फिर, वैचारिक और राजनीतिक रूप से, मूल्य। उपभोक्तावाद परिवार और सामाजिक मूल्यों को प्रभावित कर रहा है। ऐसी स्थिति में, हमें विश्लेषण करने और समझने की ज़रूरत है कि लोगों के दिमाग को कैसे जीता जाए क्योंकि संघ अब सिर्फ धर्म, हिंदू राष्ट्र आदि का मुद्दा उठाता है। इसलिए, लोगों के दिमाग को जीतना, जीवन का एक नैतिक तरीका कैसे पेश किया जाए, यह एक काम है। सभी कम्युनिस्टों को रोल मॉडल के रूप में उभरना चाहिए। हमें सभी इंसानों के प्रति करुणा होनी चाहिए। इसलिए यह एक लंबा संघर्ष है। एक तरफ संघ के खिलाफ वैचारिक संघर्ष और दूसरी तरफ राजनीतिक संघर्ष। आगे बढ़ने के लिए, सभी धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक ताकतों को एकजुट करने और वामपंथी ताकतों को एकजुट करने की ज़रूरत है।

गुरुवार, 25 दिसंबर 2025

वक़्त की धारा में हँसिए की धार, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के 100 साल

वक़्त की धारा में हँसिए की धार, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के 100 साल भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन का इतिहास 1917 की रूसी क्रांति के तुरंत बाद शुरू होता है, उसकी हालत हमेशा आज जैसी नहीं थी नासिरुद्दीन बीबीसी हिंदी सौ साल पहले ब्रितानी हुकूमत के दौर में भारत में दो अलग विचारों वाले संगठन बने, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय कम्‍युन‍िस्‍ट पार्टी. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी आज कई तरह की मुश्‍क‍िलों का सामना करती द‍िख रही है, वहीं आरएसएस इतना मज़बूत पहले कभी नहीं रहा. हम यहाँ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के 100 साल के सफ़र के कुछ अहम पड़ावों का ज़िक्र कर रहे हैं. भारत में कम्‍युन‍िस्‍ट व‍िचार की आमद बीसवीं सदी के दूसरे दशक में कांग्रेस और महात्मा गांधी नेतृत्व में आज़ादी के आंदोलन में तेज़ी आई. इस दशक में ही (1917) रूस में बोल्शेविक क्रांति हुई. उसके बाद दुनिया के कई देशों में कम्युनिस्ट विचार का असर तेज़ी से द‍िखने लगा. व‍िदेशों में रह रहे कुछ भारतीय और ख़िलाफ़त आंदोलन से जुड़े लोग भी रूस पहुँचे. इनमें से कुछ ने वहाँ कम्‍युन‍िस्‍ट पार्टी बनाने की कोश‍िश की. साल था 1920. चूँकि, यह बहुत छोटा समूह भारत से बाहर था, इसल‍िए बात आगे नहीं बढ़ी. इत‍िहासकार सुम‍ित सरकार 'आधुन‍िक भारत' में ल‍िखते हैं, "भारतीय कम्‍युन‍िज्‍़म की जड़ें राष्‍ट्रीय आंदोलन के भीतर से ही फूटी थीं. वे क्रांत‍िकारी ज‍िनका मोहभंग हो चुका था, असहयोग आंदोलनकारी, ख़िलाफ़त आंदोलनकारी, श्रम‍िक और क‍िसान आंदोलनों के सदस्‍य राजनीत‍िक और सामाज‍िक उद्धार के नए मार्ग खोज रहे थे." इस दौर के बारे में 'इंडियाज़ स्ट्रगल फ़ॉर इंडिपेंडेंस'में इत‍िहासकार प्रोफ़ेसर ब‍िप‍िन चंद्रा ल‍िखते हैं, "भारत में 1920 के दशक के आख़िरी दौर और 1930 के दशक में एक मज़बूत वामपंथी समूह उभरने लगा. राजनीतिक आज़ादी का मक़सद ज़्यादा साफ़ हुआ और यह सामाजिक-आर्थिक स्वरूप ग्रहण करने लगा." "आज़ादी की राष्ट्रीय लड़ाई की धारा और शोषित वर्गों की सामाजिक-आर्थिक मुक्ति की लड़ाई- दोनों धाराएँ एक-दूसरे के निकट आने लगीं. समाजवादी विचार भारत की ज़मीन में जड़ें जमाने लगे." बिप‍िन चंद्रा लिखते हैं, "यह भारतीय युवाओं का पसंदीदा आदर्श बन गया. इसके प्रतीक जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस थे. धीरे-धीरे इस धारा की दो शक्तिशाली पार्टियाँ उभरीं- भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) और कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी (सीएसपी)." बंबई के श्रीपाद अमृत डांगे ने सबसे पहले सभी वामपंथी समूहों का एक खुला सम्‍मेलन करने का व‍िचार द‍िया था. इसी बीच क्रांतिकारी सत्‍यभक्‍त कानपुर आए. उन्‍हें 'इंड‍ियन कम्‍युन‍िस्‍ट पार्टी' यानी 'भारतीय साम्‍यवादी दल' बनाने का ख़याल आया. साल 1925 के द‍िसंबर में उन्‍होंने एक राष्‍ट्रीय सम्‍मेलन की घोषणा की. साल 1978 में दिए गए एक इंटरव्यू में सत्‍यभक्‍त ने बताया था, "कम्‍युन‍िस्‍ट पार्टी की स्‍थापना के समय मेरे मुख्‍य सहायक मौलाना हसरत मोहानी, राधामोहन गोकुलजी, नारायण प्रसाद अरोड़ा, सुरेश चंद्र भट्टाचार्य, चार लोग ही थे. वैसे तो हसरत साहब लीग से, राधामोहन जी ह‍िन्‍दू सभा से, अरोड़ा जी कांग्रेस से और सुरेश बाबू क्रांत‍िकारी दल से संबंध‍ित थे, लेक‍िन वे सब आर्थ‍िक क्षेत्र में कम्‍युन‍िज्‍़म के स‍िद्धांत को ठीक समझते थे और उनसे मेरा व्‍यक्‍त‍िगत संपर्क भी था." (‘सत्‍यभक्‍त और साम्‍यवादी पार्टी‘, लेखक- कर्मेंदु श‍िशिर, लोकम‍ित्र) इस तरह 26 से 28 द‍िसंबर 1925 को कानपुर में भारतीय कम्‍युन‍िस्‍टों का स्‍थापना सम्‍मेलन हुआ. इसमें क़रीब 500 प्रत‍िन‍िध‍ियों ने ह‍िस्‍सा ल‍िया. स्‍वागत सम‍ित‍ि के अध्‍यक्ष के तौर पर मौलाना हसरत मोहानी ने कहा था, "कम्‍युन‍िज़्म का आंदोलन, क‍िसानों और मज़दूरों का आंदोलन है. हमारा मक़सद है, सही रास्‍ते पर चलते हुए स्‍वराज या पूरी आज़ादी की स्‍थापना करना." पार्टी का नाम रखा गया- 'कम्‍युन‍िस्‍ट पार्टी ऑफ इंड‍िया. मक़सद तय हुआ- 'ब्र‍ितानी साम्राज्‍यवादी शासन से भारत की मुक्‍त‍ि, उत्‍पादन और व‍ितरण के साधनों का समाजीकरण और इसके आधार पर मज़दूरों और क‍िसानों का गणराज्‍य बनाना.' सदस्‍यता के ल‍िए एक अहम शर्त थी, "अगर कोई भारत में क‍िसी सांप्रदायिक संगठन का सदस्‍य है, तो वह कम्‍युन‍िस्‍ट पार्टी में सदस्‍य के तौर पर शाम‍िल नहीं होगा." (‘डॉक्‍यूमेंट्स ऑफ़ द ह‍िस्‍ट्री ऑफ़ द कम्‍युन‍िस्‍ट पार्टी ऑफ़ इंड‍िया’) बाद के द‍िनों में कम्‍युन‍िस्‍ट पार्ट‍ियों के बीच बुन‍य‍िाद के साल के बारे में मतभेद रहा. कुछ कम्‍युन‍िस्‍ट पार्टियाँ इसका साल 1920 मानती हैं. हालाँक‍ि,भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मानती है क‍ि उसकी बुन‍ियाद का साल 1925 है. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की बुन‍ियाद से पहले साल 1921-22 में ही कांग्रेस के साथ जुड़े कम्‍युन‍िस्‍ट रुझान के मौलाना हसरत मोहानी, स्‍वामी कुमारानंद, एम. स‍िंगारवेलु जैसे नेताओं ने सबसे पहले पूर्ण स्‍वराज का प्रस्‍ताव पास कराने की कोश‍िश की, लेकिन वे नाकाम रहे. मशहूर नारा ‘इंक़लाब ज़‍िंदाबाद’ मौलाना हसरत मोहानी ने ही द‍िया था. इसके सात साल बाद 1929 में कांग्रेस ने पूर्ण स्‍वराज का प्रस्‍ताव मंज़ूर क‍िया. [25/12, 7:08 pm] loksangharsha: षडयंत्रों का केस और सीपीआई रूसी क्रांत‍ि के बाद अंग्रेज़ सरकार समाजवादी/ साम्‍यवादी व‍िचार से बहुत सर्तक हो गई थी. इसल‍िए आज़ादी के आंदोलन के दौरान कम्‍युन‍िस्‍टों के ख़ि‍लाफ़ कई ‘षडयंत्र केस’ चले. ब्रितानी हुकूमत ने भारत में साल 1919 से 'बोल्‍शेव‍िक एजेंटों और उनके प्रचार के ख़तरे' पर नज़र रखने के ल‍िए ख़ास स्‍टाफ़ की न‍ियुक्‍ति‍ की. इसे सीआईडी के ‘बोल्शेविक (विरोधी) विभाग’ के तौर पर जाना जाता था. इनके ज़रिए इकट्ठा रिपोर्ट ख़ुफ़िया विभाग के 'कम्युनिज़्म इन इंडिया' या कम्युनिज़्म एंड इंडिया' नाम के दस्तावेज़ों में देखी जा सकती हैं. रूस से लौटते वक़्त कई भारतीय कम्युनिस्ट पकड़े गए थे. इन पर पेशावर में राजद्रोह का मुक़दमा चला और सज़ाएँ हुईं. इसे 'पेशावर षडयंत्र केस' के नाम से जाना गया. इसके बाद साल 1924 में अंग्रेज़ी हुकूमत ने कम्‍युन‍िस्‍टों के ख़ि‍लाफ़ 'कानपुर में बोल्शेविक षडयंत्र केस' चलाया. यह देखते हुए अंग्रेज़ी हुकूमत के दमन से बचने के लिए स्थापना के बाद कम्युनिस्टों ने अपना राजनीतिक काम 'पीजेंट्स एंड वर्कर्स पार्टी'(डब्‍ल्‍यूपीपी) के ज़रिए किया. प्रोफ़ेसर बिप‍िन चंद्रा के मुताबिक़, "... कम्‍युन‍िस्‍ट इस पार्टी के सदस्‍य थे. डब्‍ल्‍यूपीपी का मूल मक़सद कांग्रेस के अंदर रहकर काम करना और इसे ज़्यादा रेड‍िकल नज़र‍ि‍या देना था. इसे 'आम लोगों की पार्टी' बनाना था... इसके ज़र‍िए पहले पूर्ण स्‍वराज और आख़िरकार समाजवाद के मक़सद को हास‍िल करना था." वे लिखते हैं, "डब्‍ल्‍यूपीपी बहुत तेज़ी से बढ़ी. बहुत ही थोड़े वक़्त में कांग्रेस के अंदर, ख़ासकर बंबई में कम्‍युन‍िस्‍टों का असर भी तेज़ी से बढ़ा. यही नहीं, जवाहरलाल नेहरू और दूसरे रेडिकल कांग्रेसियों ने कांग्रेस को रेडिकल बनाने में डब्‍ल्‍यूपीपी की कोशिशों का स्वागत किया." हालाँकि, आगे चलकर डब्‍ल्‍यूपीपी ख़त्‍म हो गया. मेरठ षडयंत्र केस प्रोफ़ेसर बिप‍िन चंद्रा के मुताब‍िक़, "साल 1929 तक राष्‍ट्रीय और मज़दूर आंदोलनों में कम्‍युन‍िस्‍टों के तेज़ी से बढ़ते असर से सरकार बेहद फ़ि‍क्रमंद थी. इसने सख्‍़त क़दम उठाने का फ़ैसला क‍िया. मार्च 1929 में अचानक छापेमारी हुई. सरकार ने 32 रेडिकल राजनीतिक और ट्रेड यूनियन कार्यकर्ताओं को गिरफ़्तार कर लिया." "इन 32 लोगों पर मेरठ में मुक़दमा चलाया गया. मेरठ षड्यंत्र केस जल्द ही एक 'महत्वपूर्ण राष्ट्रीय मुद्दा' बन गया. ग‍िरफ़्तार लोगों की पैरवी का ज़‍िम्‍मा कई राष्ट्रवादी नेताओं ने संभाला. इनमें जवाहरलाल नेहरू, एमए अंसारी और एमसी छागला शामिल थे. गांधी मेरठ के क़ैद‍ियों से अपनी एकजुटता द‍िखाने और आने वाले द‍िनों में होने वाले संघर्ष में उनकी मदद पाने के ल‍िए उनसे म‍िलने जेल गए." इसी कड़ी में लाहौर षड्यंत्र केस को भी जोड़ा जा सकता है. इस केस में भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु को मौत की सज़ा हुई थी. इस केस के दौरान भी वामपंथी व‍िचारों का काफ़ी प्रसार हुआ. भगत स‍िंह के एक साथी अजय घोष तो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासच‍िव भी बने. आज़ादी के आंदोलन में भागीदारी ब‍िप‍िन चंद्रा के मुताब‍िक़, साल 1939 में पीसी जोशी ने पार्टी के साप्‍ताह‍िक अख़बार नेशनल फ़्रंट में ल‍िखा था, "आज सबसे बड़ा वर्ग संघर्ष हमारा राष्‍ट्रीय संघर्ष हैऔर इसका मुख्‍य संगठन कांग्रेस है." ब‍िप‍िन चंद्रा ल‍िखते हैं, "कम्‍युन‍िस्‍ट अब कांग्रेस के अंदर बहुत मज़बूती से काम कर रहे थे. कई तो कांग्रेस की ज़‍िला और प्रांत‍ीय सम‍िति‍यों में पदाध‍िकारी बने. लगभग 20 (कम्‍युन‍िस्‍ट) अख‍िल भारतीय कांग्रेस सम‍ित‍ि के सदस्‍य थे." इस बीच राष्‍ट्रीय आंदोलन में मार्क्‍सवाद, साम्‍यवाद और सोव‍ियत संघ से प्रभाव‍ित युवाओं का एक और समूह उभरा. इन्‍होंने जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेन्‍द्र देव और मीनू मसानी की लीडरश‍िप में अक्‍तूबर 1934 में बंबई में कांग्रेस सोशल‍िस्‍ट पार्टी (सीएसपी) का गठन किया. ये कांग्रेस के अंदर ही रहकर काम कर रहे थे. मार्क्‍सवादी व‍िचारक और लेखक अन‍िल राज‍िमवाले इस वक़्त 77 साल के हैं. प‍िछले 58 साल से भारतीय कम्‍युन‍िस्‍ट पार्टी के सदस्‍य हैं. वे कहते हैं, "साल 1925 में कम्‍युनि‍स्‍ट पार्टी के गठन के बाद इसका गहरा असर देश की आज़ादी के आंदोलन पर पड़ा. उस वक़्त की ज‍ितनी धाराएँ थीं, उनमें कम्‍युन‍िज़्म और मार्क्‍सवाद के प्रत‍ि द‍िलचस्‍पी पैदा हुई. वैज्ञान‍िक समाजवाद के प्रत‍ि बहस छ‍िड़ी. इसके बाद कई अलग-अलग आंदोलनों के लोग, कम्‍युन‍िस्‍ट पार्टी के साथ आए." इसीलिए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के इत‍िहास को समझने के ल‍िए आज़ादी के आंदोलन के दौरान कांग्रेस के अंदर समाजवादी और वामपंथी धड़े, ऑल इंड‍िया ट्रेड यून‍ियन कांग्रेस (एटक), क‍िसान सभा, हिन्‍दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचएसआरए), ऑल इंड‍िया स्‍टूडेंट्स फ़ेडरेशन (एआईएसएफ़), मह‍िला आत्‍मरक्षा सम‍ित‍ि (एमएआरएस-मार्स), प्रगत‍िशील लेखक संघ (पीडब्‍ल्‍यूए), भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा), ऑल इंड‍िया वीमेन कॉन्‍फ़्रेंस, वर्कर्स एंड पीज़ेंट्स पार्टी, भारत नौजवान सभा, लाल बावटा कला पथक, प्रोग्रेस‍िव आर्ट ग्रुप वग़ैरह संगठनों के काम और असर को भी समझना ज़रूरी है. बंबई में सीपीआई की पहली कांग्रेस साल 1934 से 1942 तक सीपीआई पर पाबंदी लगी रही. उससे पहले और 1945 से 1947 के बीच भी पाबंदी जैसी ही हालत थी. इस दौरान पीसी जोशी महासच‍िव बने और पार्टी को नई द‍िशा म‍िली. साल 1942 के बाद इसकी गत‍िव‍िध‍ियों में काफ़ी तेज़ी आई. संगठन का व‍िस्‍तार हुआ. इसके नतीजे में 23 मई से एक जून 1943 तक खुले तौर पर सीपीआई का पहला अध‍िवेशन या कांग्रेस का आयोजन हुआ. इस अध‍िवेशन में पूरे देश से 139 प्रत‍िन‍िध‍ि शाम‍िल हुए. मशहूर कम्‍युन‍िस्‍ट डॉ. ज़ेडए अहमद अपने संस्‍मरण 'मेरे जीवन की कुछ यादें' में ल‍िखते हैं, "1943 के बाद पूरे देश में कम्‍युन‍िस्‍ट पार्टी और उसके जन संगठनों का बड़ी तेज़ी से व‍िकास हुआ. पार्टी के विकास में उसे क़ानूनी वैधता प्राप्‍त होना तथा कॉमरेड पीसी जोशी का कुशल नेतृत्‍व एक महत्‍वपूर्ण पहलू तो था ही, दूसरी ओर, संगठनों के जन संघर्ष तथा स्‍वाधीनता आंदोलन में उनकी भूम‍िका उससे भी अध‍िक महत्‍वपूर्ण पहलू थी." 1940 का दशक और कम्‍युन‍िस्‍ट पार्टी 1930-40 के दशक में कम्‍युन‍िस्‍ट पार्टी से जुड़ने या उससे जुड़े संगठनों के नज़दीक आने वालों में बौद्ध‍िक, संस्‍कृत‍ि, कला और साह‍ित्‍य जगत की कई नामचीन शख़्स‍ियतें हैं. जैसे- गीतकार प्रेम धवन, मख्‍़दूम मोह‍िउद्दीन, कैफ़ी आज़मी, जाँन‍िसार अख्‍़तर, सज्‍जाद ज़हीर, रशीद जहाँ, साह‍िर लुधयानवी, ख्‍़वाज़ा अहमद अब्‍बास, अभ‍िनेता बलरज साहनी, एके हंगल, दीना पाठक और ज़ोहरा सहगल, फ़िल्मकार ऋत्‍व‍िक घटक, संगीतकार सलिल चौधरी, नागार्जुन, रामविलास शर्मा, अली सरदार जाफ़री, अन्‍ना भाऊ साठे, अमर शेख़, डीएन गवनकर, मुक्‍त‍िबोध, स‍िब्‍ते हसन... इससे जुड़े कलाकारों ने कला के साथ ज़‍िंदगी का र‍िश्‍ता जोड़ा. इसका असर 'धरती के लाल' और 'नीचा नगर' के बाद की फ़‍िल्‍मों की कहान‍ी, गीत-संगीत पर साफ़ देखा जा सकता है. चालीस के दशक में दो बड़ी घटनाएँ हुईं. दूसरे व‍िश्‍वयुद्ध के दौरान बंगाल, बिहार और उत्‍तर प्रदेश के कई ह‍िस्‍सों में अकाल और देश के पूर्वी इलाक़े में जापानी हमला. अकाल की भयावह हालत दिखाते सुनील जाना के फ़ोटो, च‍ित्‍तोप्रसाद, ज़ैनुल आब्‍दीन की कला, कम्‍युन‍िस्‍ट कलाकारों और भारतीय जन नाट्य संघ (इप्‍टा) के सांस्‍कृत‍िक दल ने इस त्रासदी से पूरे देश को जोड़ने का काम क‍िया. सुम‍ित सरकार का मानना है, "(दूसरे व‍िश्‍व) युद्ध की समाप्‍त‍ि तक कम्‍युन‍िस्‍ट पार्टी देश की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बन चुकी थी, हालाँकि, कांग्रेस और (मुस्‍ल‍िम) लीग की तुलना में यह अब भी अत्‍यंत कमज़ोर थी." ब्र‍ितानी हुकूमत से आज़ादी के आंदोलन के साथ-साथ कम्‍युन‍िस्‍ट क‍िसानों और मज़दूरों के हक़ के ल‍िए भी संघर्ष कर रहे थे. इनके नेतृत्‍व में कई बड़े आंदोलन हुए. इनमें केरल में नारियल के रेशे (कयर) बनाने वालों का व‍िद्रोह, अवध में क‍िसानों का लगान और टैक्‍सबंदी का संघर्ष, तेलंगाना में कि‍सानों का सशस्‍त्र व‍िद्रोह, बंगाल का तेभागा, महाराष्‍ट्र में वर्ली आद‍िवास‍ियों का आंदोलन प्रमुख हैं. मशहूर कम्‍युन‍िस्‍ट डॉ. ज़ेडए अहमद 'मेरे जीवन की कुछ यादें' में ल‍िखते हैं, "अख‍िल भारतीय ट्रेड यून‍ियन कांग्रेस ने भी कई राष्‍ट्रव्‍यापी आंदोलन चलाए ज‍िनमें 1946 की डाक तार व‍िभाग एवं रेलवे की मज़दूरों की छँटनी के ख़‍िलाफ़ राष्‍ट्रीय स्‍तर पर छह माह तक चली हड़ताल उल्‍लेखनीय है. भारत के इत‍िहास में यह (उस वक़्त तक की) सबसे बड़ी मज़दूर हड़ताल थी." कम्‍युन‍िस्‍ट पार्टी ने उस दौर में कई माँगें उठाईं. बाद में ये राष्ट्रीय बन गईं. इनमें प्रमुख थीं- ज़मीन उस किसान की, जो उसे जोते. देश की दौलत देश के लोगों के हाथों में हो. काम के घंटे आठ हों. संगठन बनाने, मीटिंग, प्रदर्शन करने और हड़ताल का लोकतांत्रिक हक़ म‍िले. स्त्रियों और दल‍ितों को सामाजिक बराबरी और इंसाफ़ म‍िले. औरंं आज़ादी के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने क्‍या क‍िया? भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने आज़ादी का ख़ूब ज़ोर-शोर से स्‍वागत क‍िया. उसके अख़बार के ख़ास अंक न‍िकले. बंबई में पार्टी ने आज़ादी का जश्‍न मनाया. कुछ सालों की अंदरूनी उथल-पुथल के बाद सीपीआई ने साल 1951-52 के पहले आम चुनाव में भाग ल‍िया. कई राज्‍यों में पार्टी पर पाबंदी थी और कई नेता छ‍िपकर काम कर रहे थे. कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनी. काफ़ी दूर ही सही, दूसरे नंबर पर सीपीआई थी. सीपीआई के चुनाव न‍िशान हँसिया और गेहूँ की बाली पर 61 उम्‍मीदवार लड़े और 25 जीते. इसके अलावा चार न‍िर्दलीय उम्‍मीदवार भी सीपीआई की ह‍िमायत से जीते. लोकसभा में ये सभी 29 एक ही समूह का ह‍िस्‍सा थे. दूसरे लोकसभा चुनाव में इसने 122 सीटों पर चुनाव लड़ा और इसके समूह के सदस्‍यों की तादाद 30 थी. यही नहीं, साल 1964 में पार्टी में टूट से पहले हुए तीन लोकसभा चुनावों में वह देश की मुख्‍य व‍िपक्षी पार्टी थी. यह दुन‍िया में एक नए तरह की कम्‍युन‍िस्‍ट राजनीत‍ि की शुरुआत थी. संसद के दोनों सदनों में कम्‍युन‍िस्‍ट सांसदों ने देश की अर्थव्‍यवस्‍था, मज़दूरों-क‍िसानों, देश की व‍िदेश नीत‍ि से जुड़े मुद्दे उठाए. रेणु चक्रवर्ती, प्रोफ़ेसर हीरेन मुखर्जी, रव‍ि नारायण रेड्डी, पार्वती कृष्‍णन, एसए डांगे, भूपेश गुप्‍ता, गीता मुखर्जी, भोगेन्‍द्र झा, सरजू पांडे, झारखंडे राय, इंद्रजीत गुप्‍ता, मोहम्‍मद इल‍ियास, इसहाक़ संभली शुरुआती दौर के कुछ प्रमुख कम्‍युन‍िस्‍ट सांसद रहे हैं. यही नहीं, व‍िपक्ष के पहले नेता भी भाकपा सांसद एके गोपालन थे. केरल में पहली वामपंथी सरकार वर‍िष्‍ठ पत्रकार इंदर मल्‍होत्रा ने ‘द इंड‍ि‍यन एक्‍सप्रेस’ में 15 साल पहले भारतीय राजनीति के इस अहम पड़ाव का ज़िक्र क‍िया था. वे ल‍िखते हैं, "साल 1957 के दूसरे आम चुनाव में कुछ ऐसा हुआ कि पूरी दुनिया चौंक गई. ये वाक़या तुरंत ही एक अंतरराष्ट्रीय सनसनी बन गया. केरल में अविभाजित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने विधानसभा चुनाव जीत लिया था." "वही केरल, जिसे उस वक़्त लोग 'भारत का समस्याओं से भरा राज्य' कहते थे. इस तरह दुनिया में पहली बार कोई कम्युनिस्ट पार्टी स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव से सत्ता में आई. शुरुआती हैरानी और उत्साह धीरे-धीरे चिंता में बदल गए और यह चिंता देश के भीतर कम बल्कि बाहर की दुनिया में ज़्यादा थी." केरल की सरकार ने सामाज‍िक-आर्थ‍िक सुधार के कई क़दम उठाए. इन क़दमों ने समाज के मज़बूत वर्गों को नाराज़ कर द‍िया. वहाँ आंदोलन होने लगे. एक वक़्त ऐसा आया क‍ि तत्‍कालीन जवाहरलाल नेहरू सरकार ने साल 1959 में ईएमएस नंबूदरीपाद की कम्‍युन‍िस्‍ट सरकार को बर्ख़ास्‍त कर राष्‍ट्रपत‍ि शासन लगा द‍िया. कम्‍युन‍िस्‍ट पार्टी का भव‍िष्‍य मौजूदा दौर की चुनावी राजनीत‍ि में भारतीय कम्‍युन‍िस्‍ट पार्टी की हालत अच्‍छी नहीं द‍िखती. उसके पुराने गढ़ माने जाने वाले इलाक़े कमज़ोर हुए हैं. जैसे-ब‍िहार. एक वक़्त कम्‍युन‍िस्‍ट पार्टी के नेता ब‍िहार विधानसभा में व‍िरोधी दल के नेता भी थे. इस बार के व‍िधानसभा चुनाव में इसके एक भी उम्‍मीदवार को क़ामयाबी नहीं म‍िली. मौजूदा लोकसभा और राज्‍यसभा में इसके दो-दो सदस्‍य हैं. हालाँक‍ि, केरल में प‍िछले दो चुनावों से वाम जनवादी मोर्चा की सरकार है. सीपीआई इस सरकार का ह‍िस्‍सा है. इससे पहले सालों तक वामपंथी मोर्चे की सरकारें पश्‍च‍िम बंगाल और त्र‍िपुरा में भी रही हैं. एक बड़ा सवाल यह भी है क‍ि क्‍या क‍िसी व‍िचार के असर को स‍िर्फ़ चुनावी कामयाबी के पैमाने पर तौला जा सकता है? तो क्‍या नई पीढ़ी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ रही है? अन‍िल राजि‍मवाले कहते हैं, "जुड़ रही है लेक‍िन ज‍ितने नौजवान आने चाह‍िए, उतने नहीं आ रहे हैं. हमें नए तबक़ों के बीच काम करने की ज़रूरत है. भारत जैसे देश में हथ‍ियारबंद संघर्ष और हथ‍ियारबंद क्रांत‍ि की कोई जगह नहीं है, इस देश में कई वामपंथी सरकारें बनी हैं. उससे सबक म‍िलता है, लोकतांत्र‍िक अध‍िकारों का सही इस्‍तेमाल क‍िया जाए तो कम्‍युन‍िस्‍ट सत्‍ता में आ सकते हैं. सबसे बढ़कर, बदलती पर‍िस्‍थ‍ित‍ि के मुताब‍िक़ कम्‍युन‍िस्‍टों को बदलना होगा." बी बी सी से साभार
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