बुधवार, 24 दिसंबर 2025

कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यालय पर भाजपा का हमला- जवाब देने पर आरोप लगेगा कम्युनिस्ट हिंसक होते हैं - रणधीर सिंह सुमन

कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यालय पर भाजपा का हमला- जवाब देने पर आरोप लगेगा कम्युनिस्ट हिंसक होते हैं - रणधीर सिंह सुमन पुडुचेरी में, जहां भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी कार्यालय के सामने कॉमरेड लेनिन की प्रतिमा स्थापित कर रही है, जिसका औपचारिक अनावरण अभी होना बाकी है, असहिष्णुता की ताकतों ने अशांति फैलाने का प्रयास किया। कल देर रात, भाजपा नेता और कार्यकर्ता मौके पर पहुंचे, लेनिन विरोधी नारे लगाए और प्रतिमा को ढककर उसे हटाने की मांग की। लेकिन उनकी योजना विफल रही। तेजी से और निर्णायक कार्रवाई करते हुए, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी पुडुचेरी के सचिव कॉमरेड ए.एम. सलीम, पार्टी नेताओं और समर्पित कार्यकर्ताओं के साथ तुरंत मौके पर पहुंचे। पार्टी ने प्रशासन को स्थिति स्पष्ट रूप से समझाई, लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा की और प्रतिमा को पूरी तरह से अपने नियंत्रण में लेकर शांति और गरिमा बनाए रखी। यह सिर्फ एक प्रतिमा का मामला नहीं था, बल्कि उकसावे और असहिष्णुता के खिलाफ इतिहास, विचारधारा और लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा का मामला था। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी एकजुट, सतर्क और दृढ़ रही।

मौलाना मदनी ने दिल्ली में जावेद अख्तर से बहस कर नास्तिकों को अपनी बात कहने का अधिकार प्रदान किया है।

मौलाना मदनी ने दिल्ली में जावेद अख्तर से बहस कर नास्तिकों को अपनी बात कहने का अधिकार प्रदान किया है। पूर्व में पुरानी बात है - वृंदावन में नास्तिकों का सम्मेलन कराया था कि रद्द इस सम्मेलन का आयोजन स्वामी बालेंदु ने किया था. इसकी सूचना फ़ेसबुक के जरिए दी गई थी और आयोजकों के दावे के मुताबिक सम्मेलन में हिस्सा लेने के लिए देश के 18 राज्यों से पांच सौ से ज्यादा लोग जुटे थे. स्वामी बालेंदु ने कहते हैं कि वो सम्मेलन रद्द होने से निराश जरूर हैं लेकिन इसे अपनी कामयाबी के तौर पर देखते हैं. उन्होंने फोन पर बीबीसी से कहा, "पांच सौ लोगों के जुटने से धर्म की चूलें हिल गईं. इससे मालूम होता है कि धर्म कितना कमजोर है." वहीं, सम्मेलन का विरोध करने वालों में शामिल विश्व हिंदू परिषद की वृंदावन नगर इकाई के पूर्व अध्यक्ष और धर्म रक्षा संघ के प्रमुख सौरभ गौड़ कहते हैं कि वृंदावन में ऐसा कोई कार्यक्रम होने नहीं दिया जा सकता है. उन्होंने कहा, "वृंदावन धार्मिक नगरी है. भगवान कृष्ण की लीला भूमि है. करोड़ों लोगों के लिए आस्था का केंद्र है. अगर ये सम्मेलन में करना था तो कहीं और करते. अच्छा हुआ कार्यक्रम रद्द हो गया नहीं तो आज बड़ा कांड हो जाता." गौड़ कहते हैं कि सम्मेलन के आयोजकों ने भी पूरे जीवन धर्म का नाम लेकर कमाया है. अब पता नहीं कैसे नास्तिक हो गए. वहीं स्वामी बालेंदु भी मानते हैं कि किसी वक़्त वो भी आस्तिक थे और प्रवचन करते थे लेकिन बाद में वो नास्तिक हो गए. वो कहते हैं, "मेरी धर्म और ईश्वर से कोई सीधी लड़ाई नहीं है. मेरी लड़ाई गरीबी और शोषण से है. धर्म के नाम पर गरीबों का शोषण किया जा रहा है." स्वामी बालेंदु का दावा है कि वो अपनी मुहिम जारी रखेंगे. वहीं धार्मिक संगठनों का दावा है कि वो वृ़ंदावन में ऐसा कोई आयोजन नहीं होने देंगे. स्वामी बालेंदु का दावा है कि सम्मेलन का विरोध करने वालों ने उनके वृदांवन आश्रम पर पथराव किया और सम्मेलन में हिस्सा लेने आए लोगों को मारा पीटा. वो कहते हैं, "नास्तिक होना कोई गुनाह नहीं है. भारत का संविधान मुझे उतने ही अधिकार देता है, जितने एक आस्तिक को देता है. हम उनके प्रवचन और यज्ञ को नहीं रोकते तो उन्हें हमारे नास्तिक होने से क्या समस्या है?" इस पर गौड़ कहते हैं कि धर्म के बिना कोई समाज अनुशासित नहीं रह सकता. वो कहते हैं, "बिना धर्म के व्यक्ति अनुशासन में नहीं रह सकता. हिंदू, मुस्लिम, ईसाई या पारसी कोई भी कोई धर्म हो वो आध्यात्मिक शांति देता है और पूरे जीवन को अनुशासित रखने में अहम भूमिका निभाता है. अगर धर्म नहीं होता तो समाज में बुरी स्थिति उत्पन्न हो जाती." वहीं, स्वामी बालेंदु का कहना है कि वो मानते हैं कि समाज में ईश्वर और धर्म अंधविश्वास फैलाने का कारण हैं. लोग इनसे दूर होंगे तो बेहतर समाज बनाया जा सकता है. बालेंदु कहते हैं कि वो अपनी मुहिम आगे भी जारी रखेंगे.

सोमवार, 22 दिसंबर 2025

रविवार, 21 दिसंबर 2025

गालियां दोनों तरफ से आती है - जावेद अख्तर

गालियां दोनों तरफ से आती है - जावेद अख्तर

जावेद अख्तर साहेब जिंदाबाद।

अरबों लोगों के दबाव को नजरअंदाज करते हुए सच के साथ खड़े रहने की ताकत सिर्फ और सिर्फ जावेद अख्तर साहेब में ही है। जावेद अख्तर साहेब जिंदाबाद।

शनिवार, 20 दिसंबर 2025

मार्क्स को हर व्यक्ति को पढना चाहिए - क्रान्तिकारी लाला हरदयाल

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भौतिकवाद मानव समानता के लिए वैचारिक आधार प्रदान करता है - श्याम बिहारी वर्मा

भौतिकवाद मानव समानता के लिए वैचारिक आधार प्रदान करता है दुनिया में मानव समाज के प्रारंभ से ही ,थोड़े लोगों के पास ही धन इकट्ठा होने एवं अधिकांश लोगों द्वारा घोर गरीबी में जीवन बिताने की विरुद्ध तमाम संतों एवं समाज सुधारकों द्वारा लिखा जाता रहा है, स्पार्टा के प्रतिष्ठित नागरिक लाइक ग्रीस ने सारी जमीन को 39000 टुकड़ों में बांटकर उन टुकड़ों को किसानों में बराबर बराबर बांट दिया ,इनका कार्यकाल ईसा से 800 से 900 वर्ष पूर्व था , ईशा से तीसरी शताब्दी पूर्व स्पार्टा के राजघराने के एक युवक आगिस ने लाइकगेस के सुधारों को दोबारा लागू करने की कोशिश की, और मारा गया मैक्स बेवर ने उसे पहला "कम्युनिस्ट शाहीद " कहा है , आगिस की मौत के 5 साल बाद ईसापुर 235 से 222 में क्लिमोमेंस ने आगिस के सुधारो को बलपूर्वक लागू करने की कोशिश की ,कुछ ही समय में उच्च वर्ग के लोगों ने अपने वर्गीय हितों की रक्षा की खातिर साजिश करके मकदूनिया के राजा से स्पार्टा पर हमला कराकर सुधारों का को खत्म करा दिया, ईशा से 435 से 447 वर्ष पूर्व अफलातून ने अपने उत्कृष्ट ग्रंथ रिपब्लिक में नजीर के तौर पर एक ऐसे समाज की मुकम्मल योजना बनाई थी , जिसमें उन्होंने एथेंस में उत्कृष्ट साम्यवाद की व्यवस्था स्थापित की थी , अफलातून के बाद जिन बुद्धिजीवियों ने काल्पनिक स्वर्ग के नक्शे बनाए वह सब पब्लिक से प्रभावित हैं , पाइथागोरस 582 से 507 ईसवी पूर्व में दक्षिणी इटली में प्रोटॉन के स्थान पर अपने शिष्यों और समर्थकों की एक बस्ती बसाई थी वहां लोग समाजवादी सिद्धांतों के अनुसार अपना जीवन व्यतीत करते थे , प्रकृति ने समस्त वस्तुएं सभी मनुष्यों के एक समान उपयोग के लिए उपलब्ध की हैं, ईश्वर ने सभी वस्तुओं की रचना का आदेश दिया है ,ताकि सबको समान रूप से रोजी-रोटी मिले और जमीन सबकी सामूहिक संपत्ति हो, इसलिए प्रकृति की ओर से सबको समान अधिकार मिला हुआ है लेकिन लालच ने यह अधिकार केवल कुछ लोगों तक सीमित कर दिया है सुन्नत अमरोज 339 से 397 ई ,पादरियों के कर्तव्य पुस्तक एक अध्याय 26 , ईसा मसीह के खास शिष्य 12 थे उनमें कोई मछेरा था ( पत रस और ऐंडूज )कोई रंगरेज था ( लूका) और कोई चर्मकार यह सभी निकले वर्ग से संबंधित थे , यह नया धर्म खुलेआम धनवानो के खिलाफ था और ईसा मसीह साफ शब्दों में उनकी निंदा करते थे ,वह कहते थे कि तुम खुदा और धन दोनों की सेवा नहीं कर सकते, और उनका निर्णय था कि धनवान खुदा के राज्य में जाने के लायक नहीं है, उन्होंने एक धनवान को देखकर कहा,कि धनवान का खुदा के राज्य में शामिल होना कितना कठिन है, क्योंकि धनवान खुदा के राज्य में प्रवेश करें इससे सुई के छेद में से ऊंट का निकल जाना आसान है लूका अध्याय 18 , इसी तरह जस्टिन शहीद 100 से 145 इसवी, जिनको रूम में सलीब दी गई , लिखते हैं कि हम जो इससे पहले सब वस्तुओं से अधिक धन और स्वामित्व के रास्ते को पसंद किया करते थे ,अब सामूहिक तौर पर उत्पादन करते हैं , और लोगों में उनकी आवश्यकताओं के अनुसार बांट देते हैं , पादरी तस्तोलिन 150 से 230 ई, कहते थे कि हममे बीवी के अलावा सब चीजें सामूहिक हैं , पादरी संत सिवोरेन मृत्यु 258 इसवी, कहते थे की जो कुछ ईश्वर की ओर से दिया जाता है वह सबके सामूहिक प्रयोग के लिए है , संत बाजेल महान 330 से 379 ई भी धन को हेय दृष्टि से देखते थे, क्या तुम ( धनवान ) चोर और डाकू नहीं हो, तुम्हारे पास जो रोटी है, वह भूखों की संपत्ति है ,जो वस्त्र तुम पहने हुए हो, वह नंगे शरीरों की संपत्ति है ,जो जूता तुमने पहन रखा है, वह नंगे पैरों की संपत्ति है और जो चांदी का भंडार तुमने इकट्ठा किया है, वह जरूरतमंदों की संपत्ति है, इतिहास गवाह है ईसा मसीह के समय से लगभग 400 वर्षों तक ऐसे अनगिनत मसीही धर्मगुरु हुए हैं, जो धन और धनवानो से नफरत करते थे ,वह भिक्षुकों जैसा सरल जीवन बिताते थे और उन्होंने अपने और अपने शिष्यों के लिए सामूहिक जीवन पद्धति को चुना था वह निजी संपत्ति को सभी खराबियों की जड़ समझते थे ,और ईसाइयों को निजी संपत्ति से दूर रहने के उपदेश देते थे , निसंदेहजब धीरे-धीरे धनवानो ने और खुद रोमन साम्राज्य के शासको ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया तब मसीही चर्च का चरित्र बदल गया ,परिणाम स्वरुप मसीही चर्च साम्राज्य का एक महत्वपूर्ण स्तंभ बन गया, उसका हित साम्राज्य से संबद्ध हो गया और वह राज्य के अन्याय अत्याचार लूट खसोट को धार्मिक रूप से उचित ठहरने लगे ,वह जीवन शैली जिस पर मसीह के शिष्यों और दूसरे ईसाई धर्म गुरु चलते थे अब स्वप्न हो गई , इंग्लैंड के बुद्धि जीवी जान बाल कहते हैं , कि शुरू में ईश्वर ने सबको समान पैदा किया , निसंदेह ऊंच-नीच स्वार्थी मनुष्यों द्वारा बनाया गया ,तुम दासता की बेड़ियां तोड़ दो ,खेतों पर कब्जा कर लो, और उन लोगों को अपने रास्ते से हटा दो ,जो समता की राह में अवरोध पैदा करें , यह बगावती बातें थीं , नतीजतन जान बाल को 1381 में फांसी दे दी गई , ईरान के राजा कबाद 488 से 531 ई के समय में मजदक नाम के एक व्यक्ति अपनी बुद्धिमत्ता की वजह से राजा के करीबी हो गए ,वह कहते थे की धनी निर्धन सब बराबर हैं संपत्ति में सबको समान हिस्सा मिलना चाहिए उन्होंने सूखे की वजह से भूखे लोगों को अनाज के भंडारों से अनाज उठा लेने को कहा, कबाद में मजदक को नौशेरवां के हवाले कर दिया और नौशेरवां ने मजदक और उसके साथियों को जिंदा दफन कर दिया, थॉमस मूर 1448 से 15 35 के विचार थे कि पूंजी पतियों तथा कथित राष्ट्र राज्य मेहनतकशों को लूटने और श्रम से अनुचित लाभ उठाने की सुव्यवस्थित साजिश है, बादशाह और उसके दरबारी सरकारी अधिकारी और अदालतें सब इस साजिश के कल पुर्जे हैं, रिश्वतखोरी बेईमानी भाई भतीजा बाद और चापलूसी इसका आचरण है, फ्रांसिस बेकन 1561 से 1626 तक भौतिकवाद की कल्पना उतनी ही पुरानी है जितना मनुष्य का ज्ञान, सबसे पुराना भौतिकवादी दर्शन जो हमें ज्ञात है आर्यों की पवित्र पुस्तक ऋग्वेद की कुछ ऋचाओं में भी भौतिकवाद की झलक मिलती है इसके अलावा गौतम बुद्ध और चारबाक आदि की शिक्षाओं का कर भी भौतिकवाद ही है ,बल्कि कुछ विद्वानों का तो कहना है कि भौतिकवाद का दर्शन यूनानियों ने हिंदुस्तान से सीखा था , बेकन का ऐतिहासिक कार्य है कि उन्होंने भौतिकवादी दर्शन के आदिम प्रचलन को बहाल किया और प्रचलित अवधारणाओं को भौतिक सिद्धांतों की कसौटी पर परखा ,उन्होंने दावा किया कि प्रकृति परमाण्विक कणों से मिलकर बनी है और पदार्थ की आधारभूत व्यवस्था गति है , प्रकृति के स्वतंत्र अस्तित्व की स्वीकृति को भौतिकवाद कहते हैं भौतिकवादी दर्शन के अनुसार सूरज चांद जमीन नदी पहाड़ और समंदर पेड़ पौधे और जानवर यहां तक की दुनिया की सभी वस्तुएं वास्तव में भौतिक रूप में हमारे सामने मौजूद है ,यह हमारे विचारों द्वारा उत्पन्न नहीं है यह चीजें मनुष्यों से लाखों वर्ष पहले भी अस्तित्व में थी, जो बाद में पैदा हुए वह अपने से पहले पैदा होने वाले का कारण नहीं बन सकते, दूसरी बात यह है कि मनुष्य और उसका मस्तिष्क भी दूसरी वस्तुओं की तरह पदार्थ से ही बने हैं जिस वस्तु को हम विचार या आत्मा कहते हैं वह वास्तव में मनुष्य के मस्तिष्क का ही कार्य है, मस्तिष्क से बाहर विचार का कोई अस्तित्व नहीं है, पदार्थ की विशेषता यह है कि वह हर समय गतिशील एवं परिवर्तनशील रहता है वह कभी नष्ट नहीं होता निसंदेह उसकी आकृति और गुण परिवर्तित होते रहते हैं कैसे लकड़ी जलकर कोयला हो जाती है कोयला राख बन जाता है और राख के कण हवा में मिल जाते हैं ,या जमीन का हिस्सा बन जाते हैं ,नष्ट नहीं होते हैं,

गुरुवार, 18 दिसंबर 2025

क्या स्तालिन तानाशाह थे..? ➖➖➖➖➖➖➖➖ भाग..४

क्या स्तालिन तानाशाह थे..? ➖➖➖➖➖➖➖➖ भाग..४ ➖➖ #मास्को 1933 -38 यह वो वक्त था जब गैर मुल्क के पत्रकारों , कानूनविदों और राजनैतिकों का जमावड़ा लगातार रहा था। कारण था #मास्को_मुकदमा। इतिहास इसी शीर्षक से दर्ज है। वर्ष 1934 में स्तालिन के कर्णधार #किरोव की हत्या से पुरा सोवियत भोचक्का हो गया। जांच के बाद पता चला कि पार्टी, राज्य,लाल सेना के अंदर प्रतिक्रांतिकारी समुहों का निर्माण हो चुका है। स्थिति इतना गंभीर हो गई थी कि "सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी" के सदस्यों का सदस्यता कार्ड वापस ले लिया गया था। आखिर यह हुआ क्यों..कौन था इसके पिछे..? #ट्रॉटस्की.. जब भी लेनिन ,स्तालिन का जिक्र होता है तो एक नाम ट्रॉटस्की का भी आता है। बोल्सेविक पार्टी के नेतृत्व में जब सोवियत क्रांति हुई थी उस वक्त के केन्द्रीये कमेटी में ट्रॉटस्की भी प्रमुख सदस्य थे। जैसा कि होता है हर पार्टी में मुद्दे पर,कार्य पद्धति पर ,नेतृत्व पर आंतरिक चर्चा,बहस होता है..उसी प्रकार बोल्सेविक पार्टी के अंदर भी चर्चा,बहस से निष्कर्ष निकाला जाता था। ट्रॉटस्की एक महत्वकांक्षी व्यक्ति थे..जो खुद में सम्पूर्ण समझते थे और दुसरों को कमतर। उनकी यही महत्वकांक्षा व्यक्तिवाद से ग्रसित कर अहंकारी,अपनी गलतियों को न स्विकार कर क्रांति विरोधी रास्ता अखतियार कर लिये थे। यहां पर आपको #एम_एन_राय का वक्तव्य जानना चाहिये। लेकिन यह एम.एन.राय थे कौन..? एम.एन.राय लेनिन के जमाने से हीं #कम्युनिस्ट_इंटरनेशनल की महत्वपूर्ण सदस्य थे और बड़ी जिम्मेदारी निभा रहे थे। बाद में मतांतर की वजह से वहां से निकल आये और अपने अंतिम समय में स्तालिन का विरोधी बन गये। न सिर्फ़ स्तालिन बल्कि कम्युनिज्म का हीं विरोधी बन गये। वही एम.एन.राय "ट्रॉटस्की और स्तालिन " शीर्षक निबंध में लिखते हैं... "दरअसल उन दोनों के बीच कोई व्यक्तिगत विरोध नहीं था। ... स्तालिनवाद कहकर जिस नीति का ट्रॉटस्की ने विरोध किया था, वह लेनिन द्वारा लायी गयी नयी आर्थिक नीति के साथ पूरी तरह से मेल खाती है। इस नीति की वजह से मार्क्सवाद में कोई भटकाव नहीं आया, बल्कि कहा जा सकता है कि तब की स्थिति का आकलन कर वास्तविकता के साथ मार्क्सवाद का मेल करना ही स्तालिन का मकसद था। ... ट्रॉटस्की हमेशा यही मानते रहे कि वे ही सही हैं और पार्टी के दूसरे लोग गलत कर रहे हैं। अंत में पार्टी उन्हें ही आदर्श नेता मानने को मजबूर होगी। इसी उम्मीद से, वे पार्टी पर कृपा करके, उसके काम में अपनी ताकत का इस्तेमाल करते रहे। ... अगर ट्रॉटस्की के विचारों के आधार पर स्तालिन को पार्टी नेतृत्व पद से हटा दिया जाता, तो शायद आज सोवियत संघ का अस्तित्व ही नहीं रहता।" (चतुरंग पत्रिका,आश्विन 1347,अंक-१) #ट्रॉटस्की..सत्ता लोलुप्ता में इतना पतीत हो गये थे कि द्वितीय विश्व युद्ध के वक्त यह मान कर चल रहे थे कि सोवियत संघ की पराजय हो जाती है,तो स्तालिन नेतृत्व का पतन हो जायेगा और फिर पार्टी और सोवियत का नेतृत्व मेरे हांथ में आ जायेगा। यहां आपको बता देना चाहता हूं कि ट्रॉटस्की 1929 में पार्टी के खिलाफ गतिविधियों, गुटबाजी,अनुशासन हिनता के वजह से पार्टी से निष्कासित कर दिया गया था। फिर उनकी ख्यालि पोलाव यह था कि युद्ध में सोवियत सेना की हार होती है तब स्तालिन के नेतृत्व पर प्रश्न चिन्ह खड़ा करूंगा और बोल्सेविक पार्टी मुझे हांथो-हांथ ले लेंगे। जब बैठक में ##ट्रॉटस्की पर निष्कासन का फैसला लिया जा रहा था तो उस बैठक में एम.एन.राय भी मौजूद थे। लेख के शुरूआत में "मास्को मुकदमा" का जिक्र किया था। जो #किरोव की हत्या सहित और भी क्रांति विरोधी लोगों पर मुकदमा चला था। यह एक जनवादी मुकदमा उन पून्जीवादी राष्ट्रों, राजनेताओं,उस व्यवस्था में रचे-बसे लोगों के लिए अनोखी घटना घटने जा रही थी। उस मुकदमें के प्रत्यक्ष दर्शी विदेशी पत्रकारों, कानूनविदों, कूटनीतिज्ञों,राजनैतिक नेता..सब ने यही कहा कि "एक बड़े साजिश का पर्दाफाश हुआ। इसी मुकदमें को अमेरिकी राजदूत #जोसेफ_डेविस ने अपनी पुस्तक " मिशन टू मास्को" में कहा है कि... "सब कुछ देखकर मैं निश्चिंत हो गया हूं कि इस मुकदमे में स्वीकारोक्ति के लिए किसी प्रकार का कोई जर्बदस्ती अभियुक्तों के साथ नहीं की गयी थी" मुकदमा खत्म होने के बाद डेविस जब स्तालिन के बारे में अपनी बेटी से कहते हैं "उन्हें देखकर लगता है कि धैर्य और बौद्धिकता के मामले में वे काफी ताकतवर हैं। उनकी दोनों आंखें कोमल प्यार भरे भूरे रंग में सराबोर हैं। ऐसा लगता है मानो बच्चे उनकी गोद में बैठना पसंद करेंगे। उनका चिंतन जगत काफी रसपूर्ण और विराट है। उनकी बुद्धि काफी कुशाग्र है। ..उनके सबसे बड़े दुश्मन उनके बारे में जो कुछ कहते हैं बिल्कुल इसके उलट सोंच सको,तभी स्तालिन की सच्ची तस्वीर मिल पायेगा"। यह सच है कि #किरोव की हत्या के बाद बेहद पैमाने पर गिरफ्तारी की गयी थी। तब ऐसा देखकर पत्रकार और बुद्धिजीवियों के एक तबके ने बर्नार्ड शॉ से सवाल किया कि " क्या रूस की क्रांति ने दुनियां के दबे-कुचले लोगों को आकर्षित किया है...?" बर्नार्ड शॉ जवाब देते हैं.."बात बिल्कुल उल्टा है। इस क्रांति ने दुनियां के सर्वश्रेष्ठ लोगों को आकर्षित किया है" क्रमशः जारी....... #Dharmendra Kumar

स्टालिन तानाशाह थे ? ➖➖➖➖➖➖ भाग..३

स्टालिन तानाशाह थे ? ➖➖➖➖➖➖ भाग..३ #वो_दस_साल_जब_सोवियत_जी_उठा ऊपर का हैस (#) टैग से आप कंफूज हो रहे होंगे..कि हमने तो अमेरिकी पत्रकार #जॉन_रीड की मशहूर किताब "दस दिन जब दुनिया हिला उठा" (Ten Days That Shook the World) के बारे में सुना ,पढ़ा हूं। यह "दस_साल" कहां से आया..! सन 1917 जारशाही से मुक्त होकर समाजवादी व्यवस्था को अंगीकार करने के लक्ष्य के साथ सोवियत आगे तो चल पड़ा। मगर यह राह इतना सरल नहीं था। विश्वयुद्ध, अकाल,बाहरी दुश्मनों के हमले,गृह युद्ध आदि सब कुछ मिलाकर जो बर्बादी हुई थी,उससे उबरना एक नवजात समाजवादी व्यवस्था को 1917 से 1929 यानी की 10 वर्ष लग गये थे। 1926 तक समाजवादी रूस की आर्थिक स्थिति क्रांति से पहले की #जार वाली स्थिति से खस्ताहाल था। लेनिन की सानिध्य भी साथ नहीं था। ऐसी स्थिति स्तालिन को झेलना पड़ रहा था। इसके बाद सन 1927 में थोड़ी तरक्की हुई और 1917 के जार वाली स्थिति से करीब-करीब पहूंचने में सफलता प्राप्त हुई । यही वो समयाधी था जिससे सोवियत अवाम को यकिन हो गया कि हम महफूज है। स्टालिन ने इस मोके को हांथ से जाने नहीं देना चाहते थे। एक वर्ष और थोड़ा व्यवस्थित करने के बाद 1929 में #पंचवर्षिये परियोजना पर लागु किये। यह वो जोखिम था जहां से सोवियत और साथ में समाजवादी व्यवस्था आवाद होता या फिर बर्बाद हो जाता। लेकिन जब नियत और दिशा सही हो तो सफलता मिलकर रहेगी। और हुआ भी वही। रूस 1917 के (जार शासन) मुकाबले तीन गुना ज्यादा उत्पादन हासिल कर लिया। यानी महज पांच वर्ष (कुल पंद्रह वर्ष) शुन्य से शिखर की ओर बढ़ चुका था। 1937 तक पून्जीवादी राष्ट्रों के कलेजा मुंह में आ गया समाजवादी सोवियत की बुलंदी देखकर। यह वो कर्मयज्ञ जिसकी विशालता दूनिंया ने पहले कभी नहीं देखा था। ट्रॉटस्की,जिनोविएव,कामेनेव,बुखारिन जैसे गिद्ध नज़र #स्तालिन के नाकामियों पर नोच खाने के लिये बैठा हो उस माहौल में सोंचिये स्तालिन को कितना फूंक-फूक कर कदम रखना पड़ा होगा..? और समाजवादी सोवियत को बुलंदी पर पहूंचाया..! स्तालिन के जीवनी के लेखक #आइजक_डयेत्सर जो स्तालिन के घोर आलोचक ट्रॉटस्की खेमे या ट्रॉटस्कीवादी से थे। और खुद डयेत्सर भी #स्तालिन के घोर विरोधी थे। कभी कभी ऐसा भी होता है कि हम अपने विरोधीयों के बारे में सही बातें कह देते हैं, वही डयेत्सर से भी हो गया था। डयेत्सर लिखते हैं कि.. "क्यों ट्रॉटस्की, जिनोविएव,कामेनेव,बुखारिन आदि नेतृत्व में नहीं आ सके..? क्यों स्तालिन ने हीं नेतृत्व की जिम्मेवारी संभाली..? जवाब में वो खुद हीं कहते हैं कि ये लोग सिर्फ सिद्धांत पर अनावश्यक बहस किया करते थे। कौन नेतृत्व में आयेगा इनका आपस में हीं द्वन्द था। वही स्तालिन एक मात्र व्यक्ति थे जो खामोशी के साथ समाजवाद और पार्टी के लिए काम करते थे। नेतृत्व में कौन आया, कौन नहीं आया इसको लेकर उन्हें सर दर्द नहीं था। यहां बताना चाहिए कि लेनिन के प्रस्ताव पर वे 1912 में केन्द्रीय कमिटी के सदस्य तथा 1922 में पार्टी के महासचिव बने। इतिहास ने साबित कर दिया है कि लेनिन ने उपयुक्त व्यक्ति को ही जिम्मेवारी सौंपी थी। स्तालिन के संबंध में कहते हुए डयेत्सर आगे लिखते हैं, "स्तालिन के निजी जीवन का वर्णन करना असंभव है" ऐसा क्यों? इस पर डयेत्सर कहते हैं कि स्तालिन के निजी जीवन को लेकर लिखने को कुछ भी नहीं था। ऐसा कुछ भी नहीं मिलता। यहां तक कि उन्होंने किसी को निजी पत्र तक नहीं लिखा। दरअसल क्रांति, पार्टी और स्तालिन का निजी जीवन एकाकार हो गया था। इसमें कोई अंतर नहीं था। यहीं ट्रॉटस्की सहित अन्य लोगों के साथ उनका काफी फर्क था। ... प्रख्यात संगीतकार #पॉल_रॉबसन ने सोवियत संघ और स्तालिन के बारे में लिखा है, "...यहां आप देख पायेंगे आकार में राष्ट्रीय पर सारतत्व में अन्तर्राष्ट्रीय संस्कृति का स्वरूप... इनका जीवन समाजवादी व्यवस्था के अधीन लेनिन-स्तालिन के सुदृढ़ संचालन में विकसित हो रहा है, ... इनके खिलाफ तथाकथित मुक्त पश्चिम की सम्मिलित ताकतें खड़ी हैं, जिनकी अगुवाई कर रहे हैं अमेरिका के लालची, मुनाफाखोर, जंगखोर उद्योगपति और धनकुबेरों की टोली। तात्कालिक मुनाफे के लिए 'अमेरिकी शताब्दी' के मोह ने उन्हें अंधा बना रखा है। वे इस सच्चाई को नहीं देख पाये हैं कि यह सभ्यता उन्हें छोड़कर काफी आगे निकल चुकी है। हम जनता की शताब्दी में जी रहे हैं। यूरोप के पूर्वी आकाश में और पूरी दुनिया में प्रकाशमान सितारे चमक रहे हैं। गुलाम देशों की जनता सोवियत समाजवाद की ओर टकटकी लगायी हुई है। ... आधुनिक जीवन के हर क्षेत्र में स्तालिन का काफी गहरा और विस्तृत प्रभाव है। .. दुनिया के समाजशास्त्र के संबंध में जो ज्ञान वे छोड़कर गये हैं, वह आज भी अमूल्य है। कोई भी व्यक्ति आदर के साथ कह सकता है कि मार्क्स-एंगेल्स-लेनिन स्तालिन वर्तमान और भविष्य की मानवता की श्रेष्ठ सम्पदा हैं। हां, गहरी मानवता और गहरी समझदारी के रूप में वे पर्वत-तुल्य बहुमूल्य परम्परा छोड़ गये हैं। ... निरंतरता में धैर्य के साथ दिली मुहब्बत और ज्ञान के जरिये शांति और लगातार बढ़ती समृद्धि के लिए उन्होंने संघर्ष किया। दुखों कष्टों से पीड़ित करोड़ों लोगों को इस धरती पर छोड़कर वे चल बसे।" क्रमशः जारी... तस्वीर..मैक्सिम गोर्की के अंतिम यात्रा के दौरान पार्थीव शरीर को कंधा देते कॉमरेड स्टालिन। #Dharmedra Kumar
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