लो क सं घ र्ष !
लोकसंघर्ष पत्रिका
शुक्रवार, 8 अप्रैल 2022
आसाराम के आश्रम एक लड़की की लाश मिली है
गुरुवार, 7 अप्रैल 2022
भाजपा सरकार में पत्रकारों की ताजा स्थिति
"हाँ, श्रीमान मोदी, हम आरएसएस की सांप्रदायिक विचारधारा के लिए खतरनाक हैं," डी राजा
मंगलवार, 5 अप्रैल 2022
इसीलिए हम कम्युनिस्ट है
सोमवार, 4 अप्रैल 2022
अपनी नाकामियों को छुपाने के लिए बलिया प्रशासन ने पत्रकारों को बनाया ‘बलि का बकरा
शनिवार, 2 अप्रैल 2022
योगेन्द्र मधुप का सम्मान
हमारे अभिभावक व साहित्यकार श्री विनय दास के आवास पर सतनामी संप्रदाय की 14 गद्दी में से हमारे ग्राम जरौली गद्दी के महंत गुरुवर आदरणीय श्री रामदास जी "क्रूर" व मेरे पिताश्री साहित्यकार श्री योगेंद्र मधुप का सम्मान किया गया। इस आयोजन में मौजूद रहने का जो सौभाग्य मिला उससे अभिभूत हूं, इस अतुलनीय प्रयास के लिए गुरुवर विनय दास को बहुत-बहुत शुभकामनाएं, सादर प्रणाम।
जय हो समर्थ भाई बड़े बाबा जगजीवन दास की, जय हो बाबा प्यारे दास की।
-
श्रुतिमान शुक्ला
शनिवार, 23 अक्तूबर 2021
बुधवार, 29 सितंबर 2021
कन्हैया कुमार का मजदूर वर्ग की विचारधारा पर विश्वास नहीं - डी राजा
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव डी राजा ने कन्हैया कुमार के कांग्रेस में शामिल होने को लेकर कहा कि उन्होंने मेरी पार्टी से ख़ुद को स्वयं ही निष्कासित कर लिया है. सीपीआई हमेशा से जातिविहीन और क्लासविहीन सोसाइटी के लिए लड़ाई लड़ती रही है. कन्हैया कुमार की अपनी महत्वाकांक्षाएं और आकांक्षाएं रही होंगी. इससे पता चलता है कि उनका कम्युनिस्टों और वर्किंग क्लास की विचारधारा में कोई विश्वास नहीं था. उनके आने से पहले भी कम्युनिस्ट पार्टी थी और उनके जाने के बाद भी यह बनी रहेगी. उनके जाने से पार्टी खत्म नहीं हो जाएगी. हमारी पार्टी निस्वार्थ संघर्ष और बलिदान के लिए है. वह हमारी पार्टी के लिए स्पष्ट और ईमानदार नहीं रहे.
शुक्रवार, 13 अगस्त 2021
स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर बी डी जोशी
प्रसिद्ध मजदूर नेता, स्वतंत्रता
सेनानी व राजनीतिज्ञ बी.डी. जोशी
;भवानी दत्त जोशी का जन्म 9 अगस्त
1917 में शिमला में हुआ। इनके
पिता महाराजा शिमला के राजपुरोहित
एवं ज्योतिषी थे। इनके पूर्वज
उत्तराखंड, जिला अल्मोड़ा के निवासी
थे। अल्मोड़ा जिला उत्तराखंड के
कुमाऊं क्षेत्र में आता है। अल्मोड़ा शुरू
से ही शिक्षा व संस्कृति का केंद्र रहा है
जहां ब्रिटिशराज में साक्षरता की दर
देश के अन्य भागों के मुकाबले कहीं
अधिक थी। यही कारण है यहां के
पंडित अच्छे पढ़े-लिखे व संपन्न हैं।
इस कारण समाज के हर क्षेत्र में चाहे
सरकारी पद हो, राजनीतिक, साहित्य
व कला इत्यादि के क्षेत्र में सब जगह
इनकी पकड़ थी। पंडित गोविन्द बल्लभ
पंत, पी.सी. जोशी, सुमित्रानंदन पंत,
मोहन उप्रेती, बी.एम. शाह इसी श्रेणी
से संबंध रखते हैं। यहां के पंडित-पंत,
जोशी पांडे, उप्रेती, लोहिनी, तिवारी
इत्यादि अपने को दीवान खानदान का
बताते हैं।
दीवान खानदान बनने का इतिहास
बताया जाता है कि सन्1792 में
नेपाल के गोरखों ने गढ़वाल व कुमाऊं
पर अधिकार कर लिया जो 1815
तक चला। गोरखों ने यहां के निवासियों
पर तरह-तरह के जुल्म ढाए। उनके
अत्याचारों के बारे में आज भी प्रचलित
है कि ‘‘यह कोई गोरखिया राज थोड़ा
ही है’’। तब अल्मोड़ा के इसी खानदान
के हरीदेव जोशी कलकत्ता में अंग्रेजों
से मिले और गोरखों से मुक्ति दिलाने
का आग्रह किया, शर्त यह रखी गई कि
अंग्रेज राजा होंगे और तथाकथित उच्च
जाति के पंडित दीवान। अंग्रेज-गोरखा
यु( में गोरखा हार गए। इस प्रकार ये
लोग दीवान बन गए। हालांकि कुछ
इतिहासकार इससे सहमत नहीं है।
शिमला अंग्रेजों की ग्रीष्मकालीन
राजधानी हुआ करती थी जहां जोशी
का बचपन बीता। शिमला, जो ब्रिटेन
के शहरां की भांति था तथा यहां भारतीयों
को प्रवेश की इजाजत नहीं के बराबर
थी। यही उनकी प्राथमिक शिक्षा संस्कृत
माध्यम से हुई। उच्च शिक्षा प्राप्त करने
हेतु वह दिल्ली आए और दिल्ली
विश्वविद्यालय के हिन्दू कॉलेज में
दाखिला लिया। भारतीयों के प्रति अंग्रेजों
का उपेक्षित व्यवहार देख जोशी को
आरंभ से ही उनसे नफरत होने लगी।
नौजवानों में अंग्रेजों के प्रति गुस्सा था,
ऐसे वातावरण ने जोशी को भी प्रभावित
किया। इसके अलावा उनके बड़े भाई
खिलाफत आंदोलन में शामिल थे
जिसका प्रभाव भी जोशी पर पड़ा जिसने
कम्युनिस्ट नेताओं की जीवनी-54
प्रसि( ट्रेड यूनियन व कम्युनिस्ट नेता बी.डी. जोशी
उन्हें राजनीतिक में आने के लिए प्रेरित
किया।
1939 में जोशी सरकारी नौकरी
में आ गए। जोशी ने अपनी योग्यता व
मेहनत के दम पर वह बहुत जल्दी
पदोन्नति पाकर वित्त मंत्रालय में
अधिकारी बन गए। वही जोशी ने
मंत्रालयों में कार्यरत चतुर्थ श्रेणी के
कर्मचारियों को संगठित किया और
संगठन का मार्गदर्शन करने लगे
1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में
भी उनकी हिस्सेदारी रही। छद्म नाम
से वह कांग्रेस-सोशलिस्ट पार्टी दिल्ली
प्रदेश के महत्वपूर्ण पदाधिकारी रहे।
1943 से 1945 के बीच में वह
कई बार जेल गए। अंत में सन 1945
में फिरोजपुर जेल से रिहा हुए। नौकरी
चली गई। देश आजाद होने पर उन्हें
नौकरी पर बहाल करने का आदेश
हुआ परंतु वरियता के अनुसार, पद न
मिलने के कारण उन्होंने स्वीकार नहीं
किया।
आजादी मिलते ही देश का बंटवारा
भारत-पाकिस्तान के रूप में हो गया
और सांप्रदायिक दंगे शुरू हो गए। 30
जनवरी 1948 को गांधी जी की हत्या
कर दी गई। जोशी उस समय कांग्रेस
पार्टी के श्रमिक विभाग के मुखिया थे।
समाजवादी नेता फिरोज गांधी व
कृष्णाकांत जो बाद में भारत के
उपराष्ट्रपति बने, जोशी के मित्रों में से
थे। सरकार ने दिल्ली में दंगों से निबटने
के लिए उन्हें ऑनरेरी-मैजिस्ट्रेट नियुक्त
किया तथा उनका कार्यक्षेत्र बाड़ा
हिन्दूराव था। उनकी पत्नी श्रीमती
सुभद्रा जोशी तथा श्रीमती इंदिरा गांधी
उनके इस कार्य में सहभागी थे। कुछ
समय बाद उनका कांग्रेस पार्टी से
मोहभंग हो गया और वह सोशलिस्ट
पार्टी में चले गए। यहां का माहौल भी
उन्हें रास नहीं आया, अतः उन्होंने
त्यागपत्र दे दिया, अब वह मजदूर
संगठनों व सामाजिक संस्थाओं से जुड़े
रहे।
उस दौर में दिल्ली राजनीति से
जुड़े नेताओं में प्रमुख थे-श्रीमती अरूणा
आसफअली, सुभद्रा जोशी, मीर मुस्तफा
अहमद, कृष्णचंद्र चांॅदी वाले, बी.डी.
जोशी, चौधरी ब्रह्मप्रकाश, एम. फारूकी,
बृजमोहन तूफान, सरल शर्मा, वाई.डी.
शर्मा, लाला श्यामनाथ, रामचरण
अग्रवाल इत्यादि। सी.के. नायर जिन्हें
देहात का गांधी कहा जाता था, इन
सबमें वरिष्ठ थे। सन् 1952 में जोशी
नायर के खिलाफ दिल्ली देहात से
कम्युनिस्ट पार्टी के प्रत्याशी के रूप में
लोकसभा का चुनाव लड़ें, परंतु विजयश्री
नायर को मिली। इससे पहले 1952
में जोशी निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में
दिल्ली विधान सभा का चुनाव लड़े
और जीते। यह दिल्ली की पहली विधान
सभा थी जिसका कार्यकाल
1952-57 तक था।
1957 में जोशी ने विधिवत
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ;सी.पी.आईद्ध
की सदस्यता ले ली। अब वह ट्रेड
यूनियन के अलावा पार्टी के कार्यक्रमों
में भी बढ़चढ़ कर हिस्सा लेने लगे।
सन् 1962 में चीन ने भारत पर
आक्रमण कर दिया। भारत के
दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावादियों ने
कम्युनिस्टों को बदनाम करने में कोई
कसर नहीं छोड़ी। कई जगह पार्टी
कार्यालयों पर हमले हुए। दिल्ली के
चांदनी चौक के कटरा अशर्फी में एटक
का कार्यालय था, कार्यालय की विशेषता
यह थी कि उसका एक गेट एक गली
में खुलता था तो दूसरा दूसरी गली में।
आरएसएस तथा भारतीय जनसंघ
;बीजेपी से पहले पार्टी का नामद्ध के
गुंडों ने कार्यालय पर हमला कर दिया।
उनकी नीयत कार्यालय पर कब्जा करने
या सील करवाने की थी। अंदर जोशी
के नेतृत्व में यूनियन की बैठक चल
रही थी। शोर सुनकर कामरेड दरवाजे
पर डंडे लेकर बचाव में खड़े हो गए।
जब बात बढ़ गई तो कामरेड डट गए।
जो आगे आकर शोर मचाता उसको
खींचकर अंदर उचित इलाज देने के
बाद दूसरे दरवाजे से बाहर फेंक देते
थे, इस प्रकार जब 5-6 हुल्लड़बाजों
की पिटाई हुई तो उपद्रवी भाग खड़े
हुए। यह जोशी के साहस और सूझबूझ
का ही परिणाम था।
सन् 1965 में भारत-पाक यु(
हुआ जिसमें पाकिस्तान ने मुंह की
खायी। भारत को ब्लैकमेल करने के
लिए चीन ने भारत पर एक बार फिर
आक्रमण करने की धमकी दे दी। कारण
पूछा गया तो पता चला कि चीन भारतीय
फौजों पर उनकी सौ भेड़ों को उठा कर
ले जाने का आरोप लगा रहा था। इसके
जवाब में सीपीआई ने बी.डी.जोशी और
प्रेमसागर गुप्ता के नेतृत्व में 101
भेड़ों का जूलूस निकाला। जुलूस चांदनी
चौक, लाल किला, तीन मूर्ति होते हुए
चीनी दूतावास पर पहुंचा। काफी लोग
जुलूस में शामिल थे। नेताओं के भाषण
के बाद चीनी दूतावास अधिकारियों को
आग्रह किया गया कि वे अपनी भेड़ें ले
लें, परंतु आक्रमण न करें। काफी समय
तक जब कोई उत्तर नहीं मिला तो
जुलूस समाप्त कर दिया गया।
सन 1972 में जोशी दिल्ली
महानगर परिषद के लिए दिल्ली
किशनगंज से चुने गए। उनके अलावा
सीपीआई के दो अन्य सदस्य रामचन्दर
शर्मा व चौधरी श्रीचंद भी चुने गए।
उस समय दिल्ली महानगर परिषद में
57 सीटें थी, राज्य बनने के बाद
दिल्ली विधानसभा के सदस्यों की संख्या
70 है। जोशी इस परिषद के वरिष्ठ
तथा सम्मानित सदस्य थे। जनता की
समस्याओं को लेकर काफी मुखर रहते
थे। आपातकाल में जबरन नसबंदी व
तुर्कमान गेट की तोड़फोड़ की कार्रवाईयों
के खिलाफ महानगर परिषद में वह
खूब बोले। जोशी का यह ऐतिहासिक
भाषण सुनने लायक था जिसमें उन्होंने
संजय गांधी के खिलाफ जमकर बोला।
इसकी जोशी दम्पत्ति को बाद में कीमत
भी चुकानी पड़ी।
जोशी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की
राष्ट्रीय परिषद के सदस्य रहे तथा कुछ
समय तक केंद्रीय कार्यकारिणी में विशेष
आमंत्रित भी रहे। सन्1957 से लेकर
1999 तक पार्टी के अनुशासित
सदस्य रहे। उनका मार्क्सवाद में अटूट
विश्वास था। संस्कृत भाषा पर जोशी
की अच्छी पकड़ थी। गीता के कई
श्लोक उन्हें कंठस्थ याद थे, जिन्हें वे
समय-समय पर राजनैतिक बहस व
संवादों के दौरान उदाहरण के रूप में
प्रयोग करते थे। भर्थरी के नीति शतक
हो या कालीदास के मेघदूत या वाल्मीकि
रामायण के संदर्भों का प्रयोग वह मीटिंगों,
रैलियों में अपने भाषणों के दौरान करते
थे। इसके अलावा भारतीय दर्शन पर
भी उनकी अच्छी पकड़ थी।
जोशी एक कुशल वक्ता थे। उनके
भाषणों को श्रोता मंत्रमुग्ध होकर सुनते
थे। विषय पर विस्तार से चर्चा करते थे
और हर बात में तर्क होता था। सन
1962 में सुभद्रा जोशी ने बलरामपुर
उत्तर प्रदेश से संसद का चुनाव लड़ा।
उनका मुकाबला भारतीय जनसंघ के
दिग्गज नेता अटलबिहारी वाजपेयी से
था। वाजपेयी लखनऊ और बलरामपुर
दोनों जगहों से लड़ रहे थे। वाजपेयी
का नामांकन पहले हो चुका था जबकि
कांग्रेस पार्टी तब तक अपना उम्मीदवार
तय नहीं कर पाईं। वाजपेयी ने प्रचार
किया कि कांग्रेस के पास उनके खिलाफ
लड़ने के लिए कोई प्रत्याशी है ही नहीं।
खुद पंडित नेहरू भी यहां से चुनाव
लड़ने से कतरा रहे हैं। जब सुभद्रा
जोशी का नामांकन हो गया तो वाजपेयी
ने अपने भाषणों में कहना शुरू कर
दिया, ‘‘सुना है कांग्रेस ने हमारे खिलाफ
कोई सुभद्रा जोशी नाम की महिला को
खड़ा किया है जो न मांग भरती है, न
बिन्दी लगाती हैं, न चूड़ियां पहनती है,
पता नहीं शादीशुदा है या विधवा। न ही
भारतीय सभ्यता व संस्कृति का ज्ञान
है, न ही पढ़ी-लिखी मालूम पड़ती हैं।’’
कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने सुभद्रा
जी से अनुरोध किया कि जब तक
चुनाव हैं तब तक वह यही सबकुछ
कर लें। परंतु सुभद्रा जी और जोशी
जी ने यह बात नहीं मानी। जोशी ने
सुभद्रा जी का भाषण तैयार किया जिसके
अनुसार, सुभद्रा जी ने एक विशाल
जनसमूह में कहा, ‘‘वाजपेयी जी बड़े
विद्वान आदमी हैं, देश के महान होनहार
नेता हैं और ओजस्वी वक्ता हैं, मेरे
बारे में उन्होंने कुछ बातें कही है
जैसे-मेरा मांग न भरना, बिन्दी न
लगाना तथा चूड़ियां न पहनने के
अलावा मेरे भारतीय संस्कृति व सभ्यता
के ज्ञान के बारे में भी टिप्पणी की है।
वाजपेयी जी हम तो उस भारतीय
सभ्यता में विश्वास करते हैं कि जहां
सीता हरण के बाद सुग्रीव ने रामचंद्र
को सीता जी के कुछ जेवर दिए जो
सीता जी ने रावण के पुष्पक विमान से
नीचे फेंक थे। राम सीता के कर्णफल
को दिखाकर लक्ष्मण से पूछते हैं कि
भैया क्या यह सीता का ही कर्णफल
है? जवाब में लक्ष्मण कहते है कि भैया
कोई पैर का आभूषण हो तो दिखाइए,
मैं पहचान लूंगा। कर्णफल नहीं पहचान
सकूंगा क्योंकि मैंने तो हमेशा उनके
पैर ही छुए हैं, कभी भी सर उठाकर
उनकी ओर नहीं देखा।’’ मैंने मांग भरी
है या नहीं, मैं चूड़ियां पहनती हूं या
नहीं, इससे वाजपेयी जी का अभिप्राय
क्या है? वह किस भारतीय संस्कृति
की बात कर रहे हैं?’’ परिणाम यह
हुआ कि वाजपेयी जी को मीटिंगें ठंडी
पड़ने लगी और अंत में वह बहुत बड़े
अंतर से हार गए।
जोशी ने अपने सामाजिक जीवन
की शुरूआत एक मजदूर नेता से की
थी। पहले केंद्रीय सरकार में कार्यरत
चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों को संगठित कर
उनके संगठन के मार्गदर्शक के रूप में
उसके बाद दिल्ली के कपड़ा मजदूरों
की यूनियन के नेता के रूप में। बतौर
राजनेता उन्होंने इतनी शोहरत नहीं
टीकाराम शर्मा कमाई जितनी एक मजदूर नेता के
रूप में। वह कई वर्षों तक दिल्ली राज्य
कमेटी एटक के प्रधान व महामंत्री रहें।
राष्ट्रीय पैमाने पर वह एटक के
उपप्रधान, प्रधान, सचिव,
उप-महासचिव व कार्यवाहक महासचिव
रहे। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर वह विश्व
मजदूर संघ की जनरल काउंसिल के
सदस्य भी रहे। कई बार उन्होंने
समाजवादी तथा दूसरे देशों की यात्राएं
भी की। कपड़ा उद्योग की बारीकियों
की भी उनको गहरी समझ थी।
जोशी जी का कार्यक्षेत्र दिल्ली व
फरीदाबाद रहा। दिल्ली में ‘‘कपड़ा
मजदूर एकता यूनियन’’ के वह अंत
तक महासचिव रहे। दिल्ली में चार
प्रमुख कपड़ा मिलें थी-दिल्ली क्लॉथ
मिल, स्वतंत्र भारत मिल, बिरला मिल
व अजुध्या टेक्सटाइल मिल, मजदूरों
के वेतनमान, महंगाई भत्ता इत्यादि को
लेकर कई हड़तालें हुई जिसमें एकता
यूनियन के अलावा अन्य यूनियनें भी
शामिल रहीं। परंतु कपड़ा मजदूर
यूनियन एवं जोशी का उनमें विशेष
योगदान था। जुलाई 1979 में हुई
संपूर्ण हड़ताल में करीब 24,000
मजदूरों ने भाग लिया। इसमें अन्य
बातों के अलावा जस्टिस विद्यालिंगम
अवार्ड को लागू करने की मुख्य मांग
थी। यह हड़ताल करीब 3 महीने चली।
इसमें तीन मिलों के मालिक इसे लागू
करने के लिए तैयार हो गए परंतु डी.
सी.एम.;दिल्ली क्लॉथ मिलद्ध राजी नहीं
हुआ। अंत में जोशी आमरण अनशन
पर बैठे और डी.सी.एम. प्रबंधन को भी
झुकना पड़ा।
इसके अलावा जोशी जी ने प्रेमसागर
गुप्ता के साथ मिलकर मिल मजदूरों
के लिए करमपुरा क्षेत्र में रिहायशी मकान
प्रसि( ट्रेड यूनियन व कम्युनिस्ट नेता बी.डी. जोशी
बनवाए। इसमें तत्कालीन शहरी
विकासमंत्री मेहरचंद खन्ना का भी
योगदान था। पहले कर्मचारियों को इन
मकानों का किराया देना पड़ता था।
एक अर्से बाद यह मांग उठाई गई कि
किराया मकान के मूल्य के बराबर या
उससे अधिक दे दिया गया है। अतः
मकान में रहने वाले कर्मचारी के ही
नाम कर दिए जाए। एक सम्मानपूर्ण
समझौते के आधार पर उक्त कर्मचारी
मकान मालिक बन गए।
आरंभ से ही जोशी फरीदाबाद बाटा
कर्मचारी यूनियन से जुड़े रहे। पहले
वह यूनियन के प्रधान रहे तथा उसके
बाद इसके आजीवन चेयरमैन। बाटा
यूनियन के अलावा उनका दखल कुछ
समय के लिए एस्कॉर्ट्स व गुडईयर
वर्कर्स यूनियनों में भी रहा। बाटा दुकानों
में कार्यरत सेल्समैन यूनियन के भी वह
नेता रहे। इसके अलावा ऑल इंडिया
बाटा इम्पलॉयज फेडरेशन के भी प्रधान
रहे। हरियाणा एटक के महासचिव व
बाटा मजदूर यूनियन के नेता कामरेड
बेचूगिरी बतलाते हैं-प्रबंधकों से वार्ता
करने के मामले में जोशी का कोई सानी
नहीं था। वह खुद कम बोलते थे और
मालिकों को बोलने का अधिक मौका
देते थे। खुद बड़े ध्यान से सुनते थे।
यहीं से वह मालिकों की रणनीति भांप
लेते। यहीं से उन्हें बहस के लिए मुद्दे
मिल जाते थे। दूसरी बात, उनकी
ड्रॉफ्टिंग गजब की थी जिसका कायल
मैंनेजमेंट भी था। उनके अंग्रेजी के ज्ञान
की हर कोई सराहना करता था।’’
फरीदाबाद के अलावा जोशी जी ने
मोदी नगर में भी मजदूरों की यूनियन
बनायी और कुछ समय उसमें काम भी
किया। मोदी नगर एक ऐसी जगह थी
जहां मालिक यूनियन बनने ही नहीं
देते थे।
जोशी देहली मेडिकल टेक्नीशियन्स
एंड इम्प्लॉयज ऐसोसिएशन के भी
1971 से 1999 ;अप्रैलद्ध तक
प्रधान रहे। सन 1974 में दिल्ली
नगरनिगम के अस्पतालों में हड़ताल
हुई। जोशी महानगर परिषद के सदस्य
थे, अतः इस आंदोलन की गूंज
महानगर परिषद में भी पहुंची। जहां
निगम प्रशासन बात करने को राजी
नहीं था इसके बाद घुटनों के बल ;झुक
गयाद्ध आ गया। सन्1978 में मौलाना
आजाद मेडिकल कॉलेज एवं
लोकनायक तथा जी.बी. पंत के
तकनीकी कर्मचारी संघर्षरत थे। जोशी
ने तत्कालीन जनता पार्टी, जो महानगर
परिषद में बहुमत में थी, धमकी दे दी
कि अगर फैसले के लिए सरकार राजी
नहीं है तो दिल्ली की दूसरी बड़ी
यूनियनें-पेट्रोलियम, डी.टी.यू., बैंक,
टेक्सटाइल यूनियनों को संघर्ष में उतारा
जाएगा। परिणामस्वरूप दिल्ली प्रशासन
के स्वास्थ्य विभाग के हस्तक्षेप के बाद
समझौता हो गया। दिल्ली प्रशासन में
कार्यरत तकनीकी कर्मचारियों की भर्ती
के नियम, पदोन्नति नीति आदि बनवाने
में जोशीजी की महत्वपूर्ण भूमिका रही।
एक अन्य यूनियन ‘‘ग्रामीण
श्रमजीवी यूनियन’’ के भी जोशी प्रधान
थे। इसका दायरा मुख्यतः दिल्ली देहात
था। सरकार ने कंझावला में 1970
में हरिजनों व पिछड़ी जातियों में 120
एकड़ जमीन आवंटित की। इनमें
109 हरिजन तथा 7 पिछड़ी जातियों
के परिवार थे। वहां के बड़े जमींदारों ने
इन परिवारों को उक्त जमीन का कब्जा
नहीं लेने दिया और इसके विरू(
दिल्ली उच्च न्यायालय में याचिका
लगाई जिसे माननीय न्यायलय ने
खारिज कर दिया। फिर भी उक्त
परिवारों को जमीन नहीं जोतने दी गई।
गरीब परिवार कई वर्षां तक कुछ नहीं
कर सके, न ही सरकार ने इनकी कोई
मदद की। 7 जुलाई 1978 को इसे
लेकर संघर्ष हुआ क्योंकि संगठन इनके
साथ था। इस खूनी संघर्ष में 12
हरिजन, 8 औरतें तथा 4 आदमी बुरी
तरह जख्मी हुए। 8 जुलाई को बी.डी.
जोशी, प्रेमसागर एवं एन.एन. मन्ना ने
दौरा किया । भूपेश गुप्ता ने यह मामला
राज्य सभा में उठाया। तब कहीं जाकर
शांति कायम हुई।
दिल्ली के राजनेताआें औेर
नौकरशाही में जोशी का बहुत सम्मान
था। इसका फायदा हमारे संगठन को
मिला, जो समस्या निचले स्तर पर
नहीं सुलझती उसे सचिवों या कार्यकारी
पार्षदों के साथ बैठक कर सुलझा लिया
जाता। वह एक अच्छे वार्ताकार थे तथा
उनके तर्क अकाट्य थे। पिछली सदी
के सत्तर के दशक में उपभोक्ता मूल्य
सूचकांक की समीक्षा के लिए एक कमेटी
बैठी जिसके चेयरमैन प्रो. नीलकंठ रथ
थे। एटक का प्रतिनिधित्व जोशी ने
किया। आधारवर्ष 1960 था,
दियासलाई के मूल्य को लेकर बहस
शुरू हुई। 1960 में इसकी कीमत
1 आना ;6 नए पैसेद्ध थी जबकि बैठक
के समय 10 नए पैसे, कीमत में
बढ़ोतरी को लेकर सरकार के प्रतिनिधि
ने 66.66ø बताई जबकि जोशी का
कहना था कि बढ़ोतरी शत-प्रतिशत
है। यह सुनकर सब लोग चौंक गए
और जोशी से इसे सि( करने के लिए
की। वैसे तो 66.66ø सही था। परंतु
जोशी ने कहा कि जो दियासलाई 6
पैसे में आती थी उसमें साठ तिल्लियां
होती थी और अब 10 पैसे में आ रही
है तो उसमें केवल 50 तिल्लियां ही
है! इस प्रकार मूल्यवृ( शत-प्रतिशत
है। सबके यह बात माननी पड़ी।
जोशी को पहली बार मैंने 1973
में एटक ऑफिस आसफअली रोड पर
देखा था। दिल्ली एटक में मैं अपनी
यूनियन का प्रतिनिधित्व करता था,
इसलिए हर मीटिंग में उनसे मुलाकात
होती थी, उनके सामने खड़े होने या
सीधे बात करने की मेरी हिम्मत नहीं
होती थी। 1978 में मैं अपनी यूनियन
का महासचिव चुना गया। अतः अक्सर
मुलाकात होने से मेरी झिझक भी जाती
रही। नए साथियों को आगे बढ़ाने और
उनकी हौसला अफजाही करना जोशी
जी की विशेषता थी। एक समय के
बाद अक्सर मुझे उनका या सुभद्रा जी
के रक्त के नमूने लेने जाना पड़ता
था, हम लोग नाश्ता साथ ही करते थे।
ऐसे मौके पर वे अपने बारे में और
अपने अनुभवों के बारे में बतलाते थे।
इन्हीं वार्तालापों के आधार पर मुझे
उनके निजी जीवन व राजनैतिक जीवन
के बारे में पता चला। उसी के आधार
पर इस लेख को मैं पाठकों से साझा
कर रहा हूं। जोशी अपने स्वास्थ्य के
प्रति काफी सचेत रहा करते थे। अतः
उन्होंने अच्छी जिंदगी बिताई। परंतु अंत
में एक बार वह बीमार हुए तो दिल्ली
के एक निजी नर्सिंग होम में भर्ती हुए।
कुछ दिन ठीक रहने के बाद उन्हें
पीलिया हो गया। ऐसा माना जाता है
कि उन्हें संक्रमित रक्त चढ़ गया था।
यह पीलिया आम पीलिया नहीं बल्कि
एक विशेष प्रकार का पीलिया था जिसे
हैपेटाइटिस-बी कहते है, जो बहुत
खतरनाक बीमारी होती है। यही पीलिया
अंत में उनकी मौत का कारण बना।
इस बीमारी से वे करीब दो वर्ष तक
जूझते रहे। अंत में 27 अप्रैल 1999
को दिल्ली के जी.बी.पंत अस्पताल में
उनकी मृत्यु हो गई।
मौलाना हसरत मोहानी
मौलाना हसरत मोहानी इतिहास के
असाधारण व्यक्ति थे जो भारतीय
कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना से जुड़े
हुए थे। उनका नाम ‘इंकलाब
जिंदाबाद’ के नारे और कांग्रेस में पूर्ण
आजादी का प्रस्ताव पेश करने से भी
संबंधित है।
हसरत मोहानी का जन्म 1 जनवरी
1875 को वर्तमान उत्तर प्रदेश के
जिला उन्नाव के मोहान गांव में हुआ
था। उनकी जन्म की तिथि विवादास्पद
है। वह क्षेत्र यूपी का यूनान ;ग्रीसद्ध
कहलाता था क्योंकि वहां ज्ञान-चर्चा
और पढ़ने-लिखने का वातावरण था।
स्वयं मौलाना हसरत के परिवार की
महिलाएं शिक्षित थीं और उन्हें साहित्य
की सूक्ष्मताओं का ज्ञान था। दूसरा प्रभाव
पुनर्जागरण का थाः सर सैय्यद अहमद
ने एक स्कूल की स्थापना कर
‘‘अलीगढ़ आंदोलन’’ की शुरूआत की।
हसरत मोहानी की प्राथमिक शिक्षा
गांव में ही हुई। आगे उनका दाखिला
मोहान के गवर्नमेंट हाई स्कूल और
फिर फतेहपुर के गवर्नमेंट हाई स्कूल
में हुआ।
उसी दौरान उनकी उर्दू शायरी में
दिलचस्पी पैदा हो गई। उन्होंने ‘हसरत
मोहानी’’ उपनाम अपना लियाऋ ‘मोहान’
से मोहानी आया। सुप्रसि( गजल
‘‘चुपके-चुपके रात-दिन’’ उन्हीं की
लिखी हुई है। साथ ही उनकी दिलचस्पी
विद्यार्थी आन्दोलन में भी हो गई।
हसरत बड़े तेज विद्यार्थी थे। उन्होंने
दो स्थानों से एन्ट्रेस परीक्षा दी और
दोनों ही में सबसे आगे रहे। अलीगढ़
के सर जियाउद्दीन ने अलीगढ़
इन्स्टीच्यूट गैजट में उनके रिकॉर्ड देखे
और उन्हें तुरंत अलीगढ़ पहुंचने को
कहा। हसरत ने एम.ए.ए.ओ. कॉलेज
में एडमिशन ले लिया जो आगे चलकर
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी बन गया।
‘‘उर्दू-ए-मुआल्ला’
अपनी पढ़ाई समाप्त करके हसरत
वकीली करना चाहते थे लेकिन अंग्रेज
सरकार ने ऐसा नहीं करने दिया।
इसलिए हसरत ने अपना एक छोटा-सा
प्रेस खड़ा कर लिया। लकड़ी के ‘‘प्रेस’
वे खुद लाते, चलाते और कागज
छापते। इस अखबार का नाम था
‘‘उर्दू-ए-मुआल्ला’’ उनकी पत्नी
निशातुन्निसा भी इस काम उनकी
सक्रिय सहयोगी थी। तुर्की तथा अन्य
विषयों पर हसरत के कई लेख अंग्रेजों
को पसंद नहीं आए। इसलिए उन्होंने
यह प्रेस बंद करवा दिया।
इस पत्रिका में हसरत मोहानी ने
समाजवाद के समर्थन में कई लेख
लिखे, जैसे ‘‘समाजवाद क्या चाहता
कम्युनिस्ट नेताओं की जीवनी
मौलाना हसरत मोहानीः भाकपा के संस्थापकों में
है,’’, ‘‘रूस की नई पीढ़ी का विकास’’,
‘‘पं. नेहरू और समाजवाद’’, इ.।
पाकिस्तान की कम्युनिस्ट पार्टी के
संस्थापकों में एक सैय्यद सिब्ते हसन
1970 में लिखते हैं कि कुछ
मुल्ला-मौलवी समाजवाद का नाम तक
नहीं सुनना चाहते थे लेकिन मौलाना
हसरत मोहानी खुद को ‘मुस्लिम
कम्युनिस्ट’’ कहते थे। वे आगे लिखते
हैंः ‘‘आगे बढ़कर काम करनेवाला ये
आदमी लाभ-हानि की बात कभी नहीं
सोचा करते.....उनके पास न घर था
और न ही कार और न ही फैक्टरियों
में शेयर...इसकी पॉकेट खाली रहती
थी लेकिन दिल बड़ा उदार था।
कांग्रेस में
हसरत ने 1899 में मैट्रिक फर्स्ट
डिविजन में पास की। जल्द ही वे उभरते
राष्ट्रीय आंदोलन की चपेट में आ गए।
उन्हें एम.ए.ओ. कॉलज से राष्ट्रीय
आजादी के नारे लगाने के लिए निकाल
दिया गया। आजादी उनकी एक तरह
से जिद थी। उन्होंने किसी तरह बी.ए.
पास किया।
हसरत मोहानी बाल गंगाधर तिलक
से खूब प्रभावित थे, यहां तक कि हसरत
उन्हें अपना गुरू मानते थे। तिलक के
ही कहने पर हसरत कांग्रेस में शामिल
हुए और 1904 के अधिवेशन में भाग
लिया। इसके बाद वे सूरत के
ऐतिहासिक अधिवेशन ;1907द्ध में
शामिल हुए। उन्होंने गोखले, मोतीलाल
नेहरू तथा अन्य उदारवादियों के
विरू( तिलक का साथ दिया। वे
तिलक, लाला लाजपत राय और
अरविंद घोष के साथ थे। तिलक के
साथ ही उन्होंने कांग्रेस छोड़ी।
हसरत मोहानी स्वदेशी आंदोलन
के नेता बन गए और विदेशी कपड़ों के
बहिष्कार का प्रचार किया। उन्होंने
अलीगढ़ के रसेल स्ट्रीट में ‘‘स्वदेशी
खिलाफत कपड़ा भंडार’’ की स्थापना
की। बंबई के प्रसि( व्यापारी सर
फजलभाय करीमभाय ने मौलाना
शिबली नोमानी के कहने पर कर्ज पर
सामान मुहैय्या किया। हसरत और
उनकी पत्नी निशातुन्निसा दूकान में
बैठा करते और समान बेचा करते, साथ
ही स्वदेशी का प्रचार भी किया करते।
वास्तव में यह दूकान गांधीजी की
पत्रिका यंग-इंडिया की सहायता करने
के लिए खोली गई थी।
हसरत उर्दू-ए-मोआल्ला में
स्वदेशी के पक्ष में लिखा करते। 1908
में अंग्रेजों की आलोचना करते हुए
‘‘मिस्र के देशभक्त मुस्तफा कमाल की
मृत्यु’’ नामक एक लेख पत्रिका में
प्रकाशित हुआ। इसे आजमगढ़ के एक
राष्ट्रवादी नेता और एडवोकेट इकबाल
सोहेल ने लिखा था लेकिन अनाम छापा
था। अंग्रेज बहुत नाराज हो गए और
हसरत को अपने गुस्से का शिकार
बनाते हुए उनपर राजद्रोह का आरोप
लगाया, 2 वर्षों की कठोर कारावास
की सजा सुनाई और 5 सौ रुपयों का
जुर्माना ठोक दिया। हसरत ने लेख
लिखने का जुर्म खुद के नाम ले लिया।
हसरत ने जेल के अपने अनुभवों
के बारे में लिखा। गिरफ्तारी के वक्त
उनकी बेटी नीमा बहुत बीमार थी।
लेकिन बेगम निशातुन्निसा ने उन्हें पत्र
में लिखा कि वे घर की चिंता न करें।
बेगम मजबूत इरादों की महिला थीं।
उन्होंने बुर्का और पर्दा करना छोड़ दिया,
वे खुले रूप से राजनैतिक काम करतीं,
ऑल इंडिया वीमैन्स कॉन्फ्रेंस की नेता
थीं, कांग्रेस के अधिवेशनों में हिस्सा
लिया करतीं, और बरेली समेत कई
जगहों पर महिलाओं को संगठित किया
करतीं। इसे गांधीजी ने यंग इंडिया
के 1921 के एक अंक में मुखपृष्ठ
पर नोट किया है।
हसरत को जेल मे रोज एक मन
गेहूं पीसना पड़ता था और उन्हें कोई
सुविधाएं नहीं थीं। उनकी सारी किताबें
जला दी गई थीं। अलीगढ़ की उनकी
लाइब्रेरी से किताबें कई गाड़ियों में
लादकर उनकी जुर्माने की रकम जमा
करने के लिए बेच दी गईं। अंग्रेज और
यूरोपियन बंदियों का बाथरूम वाले
अलग-अलग कमरे दिए गए थे।
भारतीय कैदियों का इस्तेमाल उनके
नौकरों के तौर पर किया जाता था।
उन्हें 1910 में रिहा किया गया।
1911 में त्रिपोली पर इटली के
आक्रमण के साथ त्रिपोली का यु(
आरंभ हो गया हसरत मोहानी ने इसके
खिलाफ आवाज उठाई। वे ‘‘रेड
क्रिसेन्ट’’ आंदोलन में शामिल हो गए।
1913 में उनका प्रेस जब्त कर लिया
गया। मौलाना और बेगम को दो जून
का खाना भी नसीब नहीं होता था।
फिर भी, मौलाना आजाद
अल-हिलाल में लिखते हैं कि ‘‘वे
सब चीजों के बारे में अनजान रहा
करते और आजादी की सुरा पीकर मस्त
रहा करते, सच्चाई के अंतहीन संगीत
में डूबे हुए..........’’
1915 में काबुल में ‘‘अस्थाई
भारत सरकार’’ के गठन की घोषणा
की गई। राजा महेंद्र प्रताप इसके अध्यक्ष
और ओबैदुल्ला सिंधी प्रधानमंत्री बनाए
गए। हसरत मोहानी ने इसका स्वागत
किया। ओबैदुल्ला ने अस्थाई सरकार
की सहायता की मोहानी से अपील की।
मोहानी फिर गिरफ्तार कर लिए गए।
इस बार वे पहले ललितपुर जेल में
रखे गए, फिर झांसी, प्रतापगढ़,
लखनऊ, फैजाबाद और मेरठ की जेलों
में स्थानांतरित कर दिए गए। उन्हें 22
मई 1918 को रिहा कर दिया गया।
रिहाई के बाद मोहानी मुस्लिम लीग
के अधिवेशनों में शामिल हुए। उनमें से
एक की उन्होंने अध्यक्षता भी की। लेकिन
लीग के साथ उनका केई तालमेल
नहीं बैठा। वे पूर्ण आजादी पर जोर दे
रहे थे।
मोहानी दम्पत्ति 1920 में कानपुर
चले गए। एक प्रतिनिधिमंडल जब
वायसराय से मिलने गया तो मोहानी ने
उनसे हाथ मिलाने से इंकार कर दिया
और चुपचाप खिसक लिए। ये मौलाना
हसरत मोहानी ही थे जिन्होंने
‘‘इन्कलाब जिंदाबाद’’ का नारा लगाया
जिसे भगत सिंह ने प्रचारित किया। यह
नारा प्रथम कार्ल मार्क्स ने दिया था।
कांग्रेस अधिवेशन में पूर्ण
आजादी का प्रस्ताव
हसरत मोहानी और बेगम
निशातुन्निसा ने कांग्रेस के अहमदाबाद
अधिवेशन ;1921 द्ध में भाग लिया।
इसमें स्वामी कुमारानंद, अशफाक
उल्ला और रामप्रसाद बिस्मिल भी
शामिल हुए। यह अधिवेशन मोहानी द्वारा
पूर्ण आजादी का प्रस्ताव पेश करने के
लिए प्रसि( है। यह प्रस्ताव उन्होंने
स्वामी कुमारानंद के साथ मिलकर पेश
किया था।
अधिवेशन में हिस्सा लेने वाले
सैय्यद सुलेमान निदवी लिखते हैं कि
एकाएक दो स्वयंसेवक गांधीजी के पास
दौड़े आए और उन्होंने सूचित किया
कि हसरत मोहानी ने विषय समिति में
पूर्ण आजादी का प्रस्ताव पेश किया है
और इस पर अड़े हुए हैं। गांधीजी
दौड़े-दौड़े वहां गए लेकिन मोहानी टस
से मस नहीं हुए और प्रस्ताव उन्होंने
प्रतिनिधि अधिवेशन में पेश कर दिया।
जाहिर है पूर्ण आजादी का यह प्रस्ताव
पराजित हो गया। कांग्रेस ने पूर्ण आजादी
का ध्येय अंततः 1929 में स्वीकार
कर लिया।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का
स्थापना सम्मेलन, कानपुर,
1925
हसरत मोहानी रूसी क्रांति से गहरे
रूप से प्रभावित थे। कानपुर में उनका
घर कम्युनिस्ट गतिविधियों का केंद्र
बनता जा रहा था। उन्होंने कानपुर में
पार्टी ऑफिस खेलने में भी सहायता
की।
के. एन. जोगलेकर अपने संस्मरणों
में लिखते हैं कि बंबई के ग्रुप को वी.
एच. जोशी से पता चला कि सत्यभक्त
और हसरत मोहानी तथा अन्य दिसंबर
1925 में कानपुर में अखिल भारतीय
कम्युनिस्ट सम्मेलन आयोजित करने
की तैयारी कर रहे हैं। वी. एच. जोशी
कानपुर जेल मे बंद एस. ए. डांगे से
मिलने जा रहे थे। बंबई ग्रुप ने इस
पहल का पूर्ण समर्थन किया।
हसरत मोहानी प्रथम ;संस्थापनाद्ध
अखिल भारतीय कम्युनिस्ट सम्मेलन
;कानपुर,1925द्ध की स्वागत समिति
के अध्यक्ष चुने गए। उन्होंने कांग्रेस
अधिवेशन के पंडाल से थोड़ा अलग
कम्युनिस्ट सम्मेलन के लिए एक पंडाल
खड़ा करने में मदद की। स्वागत समिति
की सदस्यता पांच रुपए थी। इससे
थोड़ा पैसा आ गया। मोहानी ने अन्य
स्रोतों से भी काफी पैसे जमा करने में
सफलता प्राप्त की। सम्मेलन में 300
से अधिक प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया।
एक मजदूर जुलूस निकाला गया जो
कांग्रेस के पंडाल तक गया। इसका
नेतृत्व करने वालों में हसरत मोहानी
और निशातुन्निसा भी थे। यहां के अध्यक्ष के रूप में मौलाना हसरत मोहानी का भाषण
दिलचस्प था। उन्होंने कहाः‘‘कम्युनिस्ट आंदोलन किसानों और मजदूरों का
आंदोलन है। भारत की जनता आम तौर पर इस आंदोलन के सि(ांतों और
उद्देश्यों से सहमत हैं....कुछ कमजोर और घबराये लोग कम्युनिज्म के नाम से ही
डरते हैं। हालांकि ये गलतफहमियां पूंजीपतियों ने फैलाई हैं।’’
इस आरोप का खंडन करते हुए कि कम्युनिस्ट विदेशी शक्तियों के प्रति
वफादार हैं, मोहानी ने कहाः ‘‘हमारा संगठन पूरी तरह भारतीय है....समान
उद्देश्यों वाली अन्य पार्टियों के साथ हमारे संबंध हमदर्दी और मानसिक लगाव के
होंगे, खासकर तीसरी इंटरनेशनल के साथ। हम सिर्फ उनका साथ देने वाले हैं,
उनके पीछे-पीछे चलने वाले नहीं.....’’
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के उद्देश्यों को उन्होंने इस प्रकार स्पष्ट कियाः
‘‘उचित तरीके अपनाकर स्वराज या पूर्ण आजादी हासिल करना...
‘‘.......किसानों और मजदूरों की मुक्ति तथा खुशहाली के लिए हर तरह से
काम करना। इस संदर्भ में उन सभी राजनैतिक पार्टियों से सहयोग करना जो
उपर्युक्त उद्देश्यों को हासिल करने में मदद करे।
‘‘कम्युनिज्म के सि(ांतों के प्रचार का इंतजाम करना....
‘‘हम धर्मां के प्रति अति-सहिष्णुता का भाव रखते हैं।’’
हसरत मोहानी कहा करते थे कि इस्लाम भी पूंजीवाद के खिलाफ है। उन्होंने
इस बात पर जोर दिया कि ‘‘रूसी शब्द ‘सोवियत’ वास्तव में अरबी शब्द
‘सोवियत’ ही है जिसका अर्थ होता है समानता।’’
उन्होंने कहा कि कुछ लोग कम्युनिज्म को धर्म-विरोधी बताते हैं। सच तो
यह है कि धर्म के मामलों में हम सबसे अधिक लचीलेपन और सहिष्णुता
प्रदर्शित करते हैं। वह हर व्यक्ति जो हमारे सि(ांत स्वीकार करता है हमारी पार्टी
में शामिल किया जाएगा चाहे वह मुस्लिम हो या हिन्दू या ईसाई या बौ( या और
कोई या कोई बिना धर्म के।
‘‘हमारे कुछ मुस्लिम नेता बिना आधार के यह कहते हैं कि कम्युनिज्म
इस्लाम के खिलाफ है। सच्चाई इससे बिल्कुल अलग है।’’
मौलाना हसरत मोहानी को सम्मेलन में चुनी गई केंद्रीय कार्यकारिणी समिति
में शामिल कर लिया गया। उन्हें 1927 में बंबई में हुई कार्यकारिणी समिति में
फिर से ले लिया गया। लेकिन इसके बाद पार्टी के साथ उनके मतभेद गंभीर होते
चले गए। फलस्वरूप उन्हें 1928 के अंत में पार्टी से हटा दिया गया। वे कांग्रेस
के अलावा मुस्लिम लीग में भी कार्य करने पर जोर देते रहे। पार्टी उनके लीग में
शामिल होने की बात से सहमत नहीं थी।
लेकिन मुस्लिम लीग में भी वे तालमेल नहीं बिठा पा रहे थे और वहां टकराव
की स्थिति में आते रहे। वे धर्म के आधार पर दो राष्ट्रों की नीति से सहमत नहीं
थे। देश के विभाजन के तो वे बिल्कुल खिलाफ थे।
इस बीच उन्होंने अपनी एक ‘आजाद पार्टी’ भी बनाई।
हसरत मोहानी ने प्रगतिशील लेखक संघ ;प्रलेसद्ध के स्थापना सम्मेलन
;लखनऊ, 1936द्ध में भी हिस्सा लिया।
वे हमेशा ट्रेनों में थर्ड क्लास में यात्रा किया करतेऋ ‘ऐसा क्यों’ पूछने पर
कहतेः ‘क्योंकि फोर्थ क्लास नहीं है इसलिए’!
हिन्दू-मुस्लिम एकता
हसरत मोहानी हिन्दू-मुस्लिम एकता की जोरदार वकालत किया करते।
उन्हें ‘इस्लामी कम्युनिस्ट’ कहा जाता। वे नियमित रूप से हज यात्रा पर जाया
करते और हर बार लौटने पर मथुरा-वृन्दावन में श्रीकृष्ण की पूजा में जाया
करते, खासकर जन्माष्टमी के अवसर पर! उन्होंने कृष्ण को ‘पैगम्बर’ बताते हुए
कविताएं भी लिखीं।
संविधान सभा के सदस्य
हसरत मोहानी 1946 में गठित संविधान सभा में मुस्लिम लीग के टिकट
पर चुने गए। वे डॉ. अम्बेडकर की अध्यक्षता में गठित संविधान रचना समिति के
सदस्य भी थे। लेकिन उनके ढे़र सारे मतभेद थे। वे सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व के
खिलाफ थे। डॉ. अम्बेडकर से भी उनके भारी मतभेद थे। उनका विचार था कि
भारतीय संविधान में देश की विशेषताओं का ध्यान कम रखा गया है और अन्य
देशों के संविधानों की नकल की गई है। वे सोवियत मॉडल वाले संघीय ढांचे को
पसंद करते थे।
उन्हांने भारतीय संविधान पर अनुमोदन का हस्ताक्षर करने से इंकार करदिया।
मौलाना हसरत मोहानी की मृत्यु 13 मई 1951 को हो गई। गांधीजी ने
उन्हें मुस्लिम समुदाय का सबसे बहुमूल्य रत्न बताया।
मौलान हसरत मोहानी की याद में आज देशभर में कई संस्थाएं, स्कूल,
यादगार-स्थल इत्यादि मौजूद हैं।
-अनिल राजिमवाले
शनिवार, 10 जुलाई 2021
मीनाक्षीताई साने सरदेसाई
मीनाक्षीताई साने ;सरदेसाई का जन्म, 18 मई 1909 को सोलापुर महाराष्ट्रद्ध में हुआ था। भाकपा के
सुप्रसि( नेता कामरेड एस.जी. सरदेसाई
उनके बड़े भाई थे। जाहिर है मीनाक्षी
ने सरदेसाई से बहुत-कुछ सीखा और
उन्हीं के प्रभाव से आगे चलकर भारतीय
कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हुईं।
मीनाक्षी जब काफी छोटी ही थी
जब उसकी माता की लंबी बीमारी से
मृत्यु हो गई। उन्हीं टी.बी. थी जिसके
उपचार के लिए कभी सोलापुर तो कभी
हैदराबाद इ. हवा बदलने के लिए जाना
पड़ता। आखिरकार 1911 में ही
बिलिमोरा में उनकी मृत्यु हो गई। पहले
तो मीनाक्षी बंबई संबंधियों के यहां ले
जाई गई। उसे बचपन से ही लगातार
दमे की शिकायत रहा करती। उसकी
माता किर्लोस्कर परिवार से थीं और
उनका नाम था इंदिराबाई सरदेसाईऋ
पिता का नाम था जी. एस. सरदेसाई।
फिर डॉ. किर्लोस्कर मीनाक्षी को
सोलापुर ले आए। बीमारी के कारण
मीनाक्षी की पढ़ाई अक्सर घर में ही
हुआ करती। सोलापुर और बड़ौदा दोनों
ही जगहों में उसे पढ़ने का बड़ा मौका
मिला। उसके एक संबंधी बड़ौदा में
गायकवाड़ राजपरिवार की सेवा में थे।
7वीं क्लास की परीक्षा की तैयारी
मीनाक्षी ने घर में ही की और परीक्षा में
बैठी। जून 1925 में हिंगण में महिला
विद्यालय में आठवीं में भर्ती हुई।
राजनीति में
1925 में मीना के बड़े भाई
श्रीनिवास सरदेसाई ने बंबई के
सिडेनहैभ कॉलेज में दाखिला लिया।
उन्होंने कहा कि 1925 से 1930
का दौर राष्ट्रीय आंदोलन में उत्साह
और स्फूर्ति का दौर था। नौजवान नए
रास्ते की खोज में थे। वे मीनाक्षी को
विभिन्न विचारकों के बारे में बताय
करते। वे उससे कहते कि हमें
धंधा-व्यवसाय वगैरह नहीं करना है,
नौकरी नहीं करनी है। जो कुछ करना
है वह देश के लिए करना है। हमारे
जीवन का कोई न कोई उद्देश्य होना
चाहिए।
इन बातों का मीनाक्षी पर असर तो
पड़ना ही था। उसे भी लगने लगा कि
अन्याय के विरू( लड़ना चाहिए। वह
कम्युनिस्ट नेताओं की जीवनी-52
मीनाक्षीताई साने ;सरदेसाईद्धः
आरंभिक महिला कम्युनिस्टों में
अपने मन में जगी शंकाओं का समाधान
अपने पिता श्री गणपतराव सरदेसाई
;आबाद्ध से पत्र व्यवहार के जरिये
खोजती। बाद में वे बर्लिन चले गए
थेऋ वहां से भी मीना के साथ उनका
पत्र व्यवहार जारी था।
मैट्रिक पास कर लेने के बाद
कॉलेज में भर्ती होने पर मीना ने लिखित
रूप में ‘‘मेरा ध्येय’’ नामक दस्तावेज
तैयार किया। यह उसने 29 नवंबर
1928 को तैयार किया। उसने लिखा
कि वह दो आंदोलनों में विशेषतौर पर
हिस्सा लेगीः एक कृषि तथा दूसरा
पतितो(ार। गरीब और निम्न वर्गों के
लिए कम से कम चार क्लास की पढ़ाई
कराने वाला स्कूल मुझे तैयार करना
ही है। उसने लिखा कि ‘‘अपनी इच्छा
इतनी तीव्र रखूंगी कि ऐसा स्कूल
स्थापित किए बगैर में मरने वाली नहीं।
यह शपथ मैं कभी न भूलूं, इसके लिए
वह कागज हमेशा मैं अपनी आंखों के
सामने रखूंगी’’-मीनाक्षी सरदेसाई!
मीना की कॉलेज की सखी बिंदू
सप्रे ;बाद में प्रमिला पानवलकरद्ध अपने
संस्मरणों में कहती हैं कि मीना बहुत
लोकप्रिय थी और हमेशा दूसरों की
मदद करने को तैयार रहा करती। उसे
जोर का दमा था फिर भी बड़ी सक्रियता
से मदद करती।
सरदेसाई और किर्लोस्कर परिवार
समाज सुधारक थे। श्रीनिवास सरदेसाई
की बहन होने का उसपर काफी प्रभाव
जो पढ़ने-लिखने, अध्ययनशीलता एवं
प्रगतिशील विचारों में दृष्टिगोचर होता
था।
उस जमाने में पूना ;पुणेद्ध में
देशभक्तों के भाषण हुआ करते। इन
मौकों पर मीनाक्षी सबको इसकी खबर
दिया करती और सखियों को इन सभाओं
में ले जाया करती।
20 मार्च 1929 का गांधीजी ने
नमक कानून तोड़ने का आंदोलन
आरंभ कर दिया। सत्याग्रह शुरू हो
गया। श्रीनिवास सरदेसाई ने गांधीजी
से भेंट करके जंगल सत्याग्रह की
अनुमति ले ली। कांग्रेस के नेता
शंकरराव देव ने जंगल सत्याग्रह की
जिम्मेदारी सरदेसाई को सौंपी। 1930
में नगर जिले के संगमनेर में सत्याग्रह
करने का फैसला किया गया।
मीनाक्षी तुरंत सक्रिय हो गईं और
अपनी दो सखियों को लेकर वह
संगमनेर जा पहुंची। सत्याग्रहियों के
पहुंचने से पहले ही लड़कियां गिरफ्तार
कर ली गईं। खबर अखबारों में छप
गई। सत्याग्रहियों ने पुलिस को समझाया
कि ये लड़कियां केवल सत्याग्रह देखने
आई थीं, पकड़ना है तो सत्याग्रहियों
को पकड़ो।
लड़कियां छोड़ दी गई। कॉलेज
लौटने पर प्रिंसिपल ने उनसे माफी मांगने
को कहा। मीनाक्षी ने साफ इंकार कर
दिया। अन्य लड़कियों ने कहा कि हम
किसी दबाव में नहीं, अपनी इच्छा से
गई थी। मीनाक्षी लोकप्रिय हो गई।
मीना विवाह करने के भी बहुत पक्ष
में नहीं थीं और उसे सामाजिक कार्य में
बाधा समझती थी।
1931 में सरदेसाई जेल से
छुटकर बाहर आए। उन्होंने मीनाक्षी
को 8-10 दिनों के लिए बंबई बुलाया।
उसे मार्क्सवाद संबंधी कईं बातें बताईं
और पढ़ने के लिए मार्क्सवाद की कई
पुस्तकें दीं।
मीनाक्षी ने बंबई में रहते हुए
‘प्रगति’ नामक पत्रिका में काम करना
आरंभ किया। उसने जी.ए. की परीक्षा
अच्छे दर्जे में पास की। इस बीच सतारा
के एस.एन.डी.टी. कॉलेज और कन्या
विद्यालय से उन्हें अस्थायी तौर पर
‘‘लेडी सुपरिंटेंडैंट’ का काम 1931
में मिल गया। वहां उसने एक साल
काम किया जबकि वह केवल2-3
महीनों के लिए गई थी।
उस वक्त सतारा के गणेशोत्सव में
मीनाताई ने दो भाषण दिए। निजी
संपत्ति के बारे में बोलते हुए उसने
लाफार्ग, बुखारिन, रसेल, इ. के विचार
प्रस्तुत किए। भाषण बड़े ही प्रभावशाली
रहे। श्रीनिवास सरदेसाई ने पत्र के
जरिये उनका अभिनंदन किया।
पार्टी में पूरावक्ती कार्यकर्ता
1932 में मीना को आगे पढ़ने
के लिए विदेश, खासकर अमरीका,
भेजने की तैयारियां चल रही थीं। लेकिन
मीना ने आगे पढ़ने या विदेश जाने का
विचार अंतिम रूप से त्याग दिया और
पूरी तरह पार्टी के काम में समय देने
का निर्णय किया। उसने पिताजी को
इसकी खबर भी दे दी। पिताजी ने
दबाव डाले बिना पत्र में उसके निर्णय
के सकारात्मक एवं नकारात्मक पहलू
मात्र उसके आगे रख दिए। मीना ने
कॉलेज/स्कूल को एक महीने की नोटिस
देते हुए डॉ. कमलाबाई देशपांडे को
पत्र लिख दिया। इसमें उसने कहा कि
पहले तो उसका इरादा आगे नौकरी
करने का था लेकिन बंबई में कामरेडों
से बातचीत करने तथा परिस्थिति देखते
के बाद उसने तय किया कि बिना कोई
समय गंवाए अब वह पूरी तरह भारतीय
कम्युनिस्ट पार्टी के काम में शामिल हो
जाएगी।
उस जमाने के लिए मीनाक्षी का
यह निर्णय अत्यंत महत्वपूर्ण और
साहसिक था। नौकरी छोड़ एक अच्छे
खाते-पीते घर की लड़की कठिन
परिस्थिति में बंबई में कम्युनिस्ट पार्टी
का पूरावक्ती काम करे, यह अत्यंत
कठिन निर्णय था। तीस के दशक में
शायद ही किसी अन्य महिला ने ऐसा
कदम उठाया हो। उसके इस निर्णय से
लोग चकित हो गए।
पार्टी मीना का खर्च उठने की स्थिति
में नहीं थी। इसलिए अण्णासाहेब बरवले
नामक वकील और उनकी पत्नी
माईसाहेब ने यह जिम्मेदारी बखूबी
निभाई। अण्णासाहेब मीना को पत्रों में
‘‘उल कंनहीजमत’’ ;मेरी पुत्रीद्ध संबोधित
किया करते।
मीना बंबई पहुंचकर घर जाने के
बजाय सीधे कम्यून चली गई। अब
वह क्रांति की सेवा में पूरी तरह समर्पित
हो गई। बंबई के कम्युनिस्टों का संभवतः
प्रथम ‘‘कम्यून’’ जनवरी 1933 में
स्थापित किया गया था। वह मांटुगा में
था। वहां रामकृष्ण जाम्भेकर, बसंत
खले, डॉ. अधिकारी, कराडकर,
कोल्हटकर, सरदेसाई इ. मंडली रहा
करतीऋ और इन सबके साथ अब मीना
भी रहने लगी। यह वह दौर था जब
पार्टी संकट से गुजर रही थी। मेरठ
षडयंत्र केस में उसके शीर्षस्थ नेता
गिरफ्तार हो चुके थे। पार्टी में गहन
आर्थिक एवं सांगठनिक संकट था।
मीना मजदूर बस्तियों में जाकर
मजदूरों, खासकर स्त्रियों से मिलने
लगीं। यहां तक कि वे मदनपुरा जैसी
बदनाम बस्ती में भी काम करने लगी।
‘‘लाल बावटा’ गिरणी कामगार यूनियन
12 मुक्ति संघर्ष साप्ताहिक 11 - 17 जुलाई, 2021
के तहत बड़ी-बड़ी सभाएं संगठित की
जाने लगीं। उनमें मीना, जाम्भेकर,
कराडकर, इ. साथी काम करने लगे।
दो आने में सस्ती ‘राइस प्लेट’
तथा चाय-पाव वगैरह में ही काम चल
रहा था। अक्सर उनके पास खर्च के
लिए पैसे नहीं हुआ करते।
कभी-कभी मीनाक्षी इस बात से
नाराज होती और विरोध करती कि
मीटिंगों में उसे चाय बनाने के लिए
कहा जाता। वह साफ कहती कि आप
में से कोई भी चाय बनाने के सक्षम हैंऋ
फिर भी मुझे ही कहते है क्योंकि मैं
स्त्री हूं। वे सभी निरूत्तर हो गए।
सोलापुर में कार्य
कम्यून में मीनाक्षी की मित्रता
रघुनाथ कराडकर से बढ़ने लगी। वे
एक गरीब परिवार से थे और कम्युनिस्ट
विचारधारा से भलीभांति अवगत थे।
जल्द ही, दिसंबर 1932 में, उन
दोनों का विवाह हो गया। विवाह के
एक सप्ताह के अंदर ही दोनों को 3
दिसंबर को मजदूर आंदोलन के
सिलसिले में सोलापुर जाना पड़ा।
1920 में मजदूर 12 घंटे से
भी अधिक काम किया करते। उन्हें बहुत
थोड़ा वेतन, सड़ा हुआ अन्न और
साल-भर में पुरूष को एक जोड़ी धोती
और स्त्री को एक साड़ी मिल जाय तो
बहुत था!
इसके खिलाफ मजदूरों ने कई
हड़तालें कीं। 16 जनवरी 1920
को सोलापुर में मजदूरों की प्रथम बड़ी
हड़ताल हुई। इन हड़तालों को मजदूर
‘‘अड्डा करना’ कहते। अभी वे
‘हड़ताल’ से ठीक से अवगत नहीं थे।
तिलक ने उनका समर्थन किया।
1928 में सोलापुर में टेक्सटाइल
यूनियन ;लाल बावटा गिरणी कामगार
यूनियनद्ध की स्थापना की गई। सरदेसाई,
कराडकर, साने इ. नेता सोलापुर जाने
लगे।
अखबारों मे मीनाक्षी और कराडकर
के सोलापुर आगमन और स्टेशन पर
पहुंचते ही कराडकर की गिरफ्तारी की
खबरें छपीं। मीना के बारे में भी
सरदेसाई की बहन होने, इत्यादि संबध्ां
खबरें छपीं।
सोलापुर समाचार ;6
दिसंबर1933द्ध के अनुसार मीनाक्षी
ने मजदूरों की आम सभा में ‘इंकलाब
जिंदाबाद’ इ. नारे लगाए। बाद में अपने
भाषण में उन्होंने सारे देश में चल रहे
मजदूर आंदोलनों का ब्यौरा दिया।
ट्रेड यूनियन और मजदूर
आंदोलन में
कराडकर, साने तथा अन्य नेताओं
की गिरफ्तारी के कारण उनकी
गैर-हाजिरी में भी मजदूर आंदोलन
मीनाक्षीताई साने ;सरदेसाईद्धः आरंभिक महिला कम्युनिस्टों में
जारी था जिसमें मीनाक्षी बड़ी ही सक्रिय
थीं। वे हजारों मजदूरों को संबोधित
किया करतीं। लोग उन्हें देख आश्चर्य
चकित रह जाते- ‘ये कौन है?’ पूछते।
लोग कहा करतेः ‘‘डॉक्टर साब
;डॉ. बी.के. किर्लोस्करद्ध की नातिन है’!
किर्लोस्कर सुविख्यात समाज-सुधारक
थे। उन्होंने श्रीनिवास और मीनाक्षी के
रास्ते को समझने के लिए अपने 70वें
वर्ष की आयु के बाद मार्क्सवाद का
अध्ययन आरंभ किया! वे स्वयं एक
मार्क्सवादी बन गए और इस दृष्टिकोण
से कई लेख मराठी में लिखे। उन्होंने
कम्युनिस्टों की बड़ी मदद की।
मीनाक्षी को अक्सर ही गुप्त रूप
से मजदूर बस्तियों में रहना पड़ता था।
वे गुप्त बैठकों को संबोधित किया करतीं।
1934 की हड़ताल में मीनाक्षी तथा
कराडकर, बाटलीवाला, नांदेड, विभूते
इ. को 6 महीनों की सजा देकर बीजापुर
जेल में कैद रखा गया। यह हड़ताल
3 महीने चली।
यह पहला मौका था जब मीनाक्षी
जेल गई। उस समय वे गर्भवती थीं।
उन्हें कठोर कारावास की सजा दी गई।
लेकिन वे फिर भी डगमगाई नहीं जबकि
मैजिस्ट्रेट ने बी क्लास देने की
सिफारिश की थी। इसकी लोगों में तथा
अखबारों में तीखी आलोचना की गई।
छह महीनों बाद मीनाक्षी और
कराडकर अक्टूबर 1934 में जेल
से छूटे। जनवरी 1935 में उन्हें
पुत्र-प्राप्ति हुई। उसका नाम जतींद्र रखा
गया जो क्रांतिकारी जतीन सेन के नाम
पर था।
जेल से छूटने पर उन्हें रहने की
कई जगहें बदलनी पड़ी। इनमें से एक
स्थान पर मीनाक्षी ने ‘‘ए.बी.सी. ऑफ
कम्युनिज्म’ विषय पर कार्यकर्ताओं की
क्लास को संबोधित किया। सोलापुर
में संभवतः यह अपने ढंग का पहला
क्लास था। वे अपने बच्चे को कंधे पर
लादे मजदूरों के बीच इधर-उधर जाती
औेर बैठकें, आम सभाएं तथा दूसरी
गतिविधियां जारी रखती।
इस बीच उन्होंने बीड़ी महिला
मजदूरों को संगठित करना आरंभ किया।
मजदूरों के काम करने और रहने की
स्थितियां अत्यंत ही दयनीय थी।
10-10 घंटे गर्दन मोड़कर वे
महिलाएं बीड़ी बनाया करती। हजार
बीड़ियां पर उन्हें मात्र 5 आने मिला
करते। इसमें से भी मालिक किसी न
किसी बहाने पैसे काट लेते।
29 अक्टूबर 1934 को
शिवकरण मांगीलाल के बीड़ी कारखाने
में लगभग 125 महिला मजदूरों ने
हड़ताल कर दी। उनकी मांग थी कि
5 आने प्रति हजार के बजाय 8 आने
प्रति हजार बीड़ी मजदूरी दी जाए।
संभवतः सारे भारत के असंगठित क्षेत्र
के मजदूरों की यह प्रथम हड़ताल थी।
इसकी नेता मीनाक्षी थी। इन महिला
कामगारों को पुरूष कामगारों का पूर्ण
समर्थन हासिल था। पहली बार महिला
कामगार बाहर खुले में घूमने लगीं और
यूनियन की गतिविधियां करने लगीं जो
बहुतां को पसंद नहीं आया।
अंग्रेजों के प्रभुत्व वाले उस जमाने
में यूनियन और पार्टी का काम करने
वालों को आसानी से न रहने की जगह
मिला करती और न ही ऑफिस बनाने
और न आम सभा करने की। अक्सर
ही मालिक और प्रशासन के दबाव से
मालिक-मकान कमरे किराये पर देने
से इंकार कर दिया करते।
मीनाक्षी के नेतृत्व में हड़ताल कैसी
दीखती है, इसे ‘‘किर्लोस्कर मासिक’’
में लिखने के लिए सुप्रसि( मराठी
साहित्यकार ना. सी. फड़के को लेकर
शंकरराव किर्लोस्कर सोलापुर पहुंचे।
उनके घर पहुंचने के कुछ देर बाद
बाहर से नारों की आवाजें आने लगी।
महिला बीड़ी मजदूरों का जुलूस निकल
रहा थाऋ सभी छत पर पहुंच गएऋ देख
मीनाक्षी जुलूस के आगे-आगे लाल
झंडा लिए नारे लगाते चल रही थी।
सारा दृश्य उनके लिए विस्मयकारक
था। सारी महिलाएं रणचंडी बनी हुई
थीं!
जुलूस खत्म होने पर सरदेसाई और
मीनाक्षी दोपहर घर लौटे। वे सभी
हड़ताल और जुलूस के बारे में बातें
करते रहे। फिर रात नौ बजे यूनियन
ऑफिस में बातचीत और मीटिंगों का
सिलसिला आरंभ हो गया। मजदूरों की
एकता की ताकत का प्रभाव स्पष्ट था।
1937 के आम चुनाव
1935 के नए संविधान के
अनुसार 1937 के फरवरी में सारे
देश में सीमित आम चुनाव संपन्न हुए।
सोलापुर के कपड़ा मिल मजदूर संगठनों
और कांग्रेस ने मिलकर चुनाव लड़ना
तय किया। मजदूर सीट से का.
खेडगीकर को खड़ा किया गया और वे
प्रचंड बहुमत से विजयी हुए। ‘‘इंजन’
चिन्ह से लड़ते हुए उन्हें 7719 वोट
मिले जबकि उनके प्रतियोगी श्री बखले
को मात्र 973 वोट ही मिले। बीड़ी
मजदूरों, खासकर महिला कामगारों,
के बीच असीम उत्साह का संचार हो
गया। उनमें भारी आत्मविश्वास पैदा
हुआ।
ब्रिटिश सरकार ने कुछ आदिवासी
समुदायों को ‘गुनाहगार’ का दर्जा दे
दिया था। उन पर सही-गलत मुकदमे
चला करते और समाज से बहिष्कृत
किया जाता। यूनियन ने संघर्ष करके
यह कानून वापस करवाया।
यूनियन के कार्यकर्ताओं ने
‘‘एकजुट’ ;एकजुटताद्ध नाम साप्ताहिक
पत्रिका आरंभ की। इसमें मीना सक्रिय
थीं। 14 फरवरी 1930 को
‘‘राजबंदी दिवस’ मनाया गया इसके
दौरान आम हड़ताल का आयोजन किया
गया। इसमें मीनाक्षी, कराडकर, विभूते
इ. नेता सक्रिय थे। मीनाक्षी को फिर 6
महीनों की सजा दी गईं उन्हें यरवदा
जेल मे रखा गया। वह जतींद्र को उसकी
दादी के पास रख गई।
रिहाई और नया जीवन
जेल में रहते हुए मीनाताई ने अपने
व्यक्तिगत जीवन पर पुनर्विचार किया।
वे इस नतीजे पर पहुंची कि परिवार,
विशेषकर बच्चे पर, अधिक ध्यान देना
आवश्यक है। परिवार को लेकर
कराडकर से उनकी दूरी बढ़ती गई।
जेल से छूटने के बाद मीनाताई ने
उनसे तलाक ले लिया और का. साने
के साथ विवाह कर लिया। इससे पहले
उन्होंने घर चलाने के लिए एक जगह
सेवासदन में शिक्षिका की नौकरी करने
की कोशिश भी की लेकिन कम्युनिस्ट
होने के नाते उनकी नौकरी छूट गई।
1938 में यरवदा जेल से छूटने
पर रेलवे स्टेशन पर सैंकड़ों मजदूरों ने
उनका स्वागत किया। 7 नवंबर को
औद्योगिक विवाद बिल के खिलाफ
हड़ताल आयोजित कीं गई जिसमें
मीनाक्षी अत्यंत सक्रिय रहीं। विशाल
जुलूस निकाले गए।
21 नवंबर 1938 को मीनाक्षी
मध्यप्रांत बीड़ी कामगार परिषद की
अध्यक्ष चुनी गई। 3 अक्टूबर 1939
को सोलापुर में ‘‘यु(-विरोधी दिवस’
मनाया गया इसमें सरदेसाई, साने,
मीनाक्षी इ. के भाषण हुए। 5 से 7
दिसंबर 1939 को सोलापुर में
महाराष्ट्र महिला परिषद का अधिवेशन
संपन्न हुआ। मीनाक्षी इसके
संगठनकर्ताओं में थीं।
मई 1940 में भारत संरक्षण
कानून के तहत मीनाताई को फिर
गिरफ्तार कर लिया गया और वे
1942 तक बंद रहीं। छूटने के बाद
वे तुरंत सोलापुर में मजदूर आंदेलन
में सक्रियता से कूद पउ़ी।
बी.टी.आर. लाईन और मीनाताई
का इस्तीफा
1948 में पार्टी पर ‘‘बी.टी.आर.
लाईन’ हावी होने के बाद मीनाताई
फिर गिरफ्तार हो गईं। साने तथा अन्य
सहयोगी भी गिरफ्तार कर लिए गए
और उन सबकों यरवदा जेल में रखा
गया। पार्टी के अंदर फूट और तीव्र
मतभेदों तथा बहसा-बहस से मीनाताई
परेशान हो गईं। उन्होंने पार्टी नेतृत्व से
यह सब समाप्त करने की अपील करते
हुए सात पन्नों का एक पत्र लिखा।
उनकी कोशिशों का कोई असर नहीं
हुआ और उन्हें पार्टी से इस्तीफा दे
दिया।
1950 में उन्हें रिहा कर दिया
गया। इस्तीफा देने के बावजूद वे पार्टी
के साथ ही बनी रहीं और सोलापुर मे
टी.यू. का काम करती रही। साथ ही
1950 में विधिवत रूप से उनका
विवाह का. साने से हो गया।
1953 में मीनाताई सोलापुर
नगरपालिका स्कूल बोर्ड की सदस्य
चुनी गईं। 1956 में उन्होंने ‘‘शांति
निकेतन’’ नामक नई शिक्षा संस्था की
स्थापना की।
1952-53 में सोलपुर में
असाधारण अकाल पड़ा जिसमें मीनाताई
ने सक्रियता से सहायता कार्य किया।
1960 और 1970 क ेदशकों में
मीनाताई भारतीय महिला फेडरेशन में
सक्रिय हो गईं। 14-15 नवंबर
1980 को औरंगाबाद में संपन्न
महाराष्ट्र राज्य महिला फेडरेशन के
अधिवेशन की अध्यक्षता मीनाताई ने
की।
बाद में मीनाताई बंबई से तलेगांव
;पूना के नजदीकद्ध आकर रहने लगीं।
आगे चलकर वे ‘‘महिला आंदोलन
पत्रिका’ में सहायता करने लगीं।
मीनाताई साने की मृत्यु 17 अगस्त
1989 को हो गई।
- अनिल राजिमवाले