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लोकसंघर्ष पत्रिका
गुरुवार, 6 फ़रवरी 2025
बुरा न मानो मोदी के दोस्त ट्रम्प का तोहफा
बुरा न मानो मोदी के दोस्त ट्रम्प का तोहफा
आज का एक्सप्लेनर:ट्रम्प ने हथकड़ी लगवाकर मिलिट्री प्लेन से भेजे 104 भारतीय, 35 घंटे का सफर और एक टॉयलेट; क्या इसमें भारत सरकार शामिल है?
भारत में 4 फरवरी की सुबह 3 बज रहे थे, तब अमेरिका के टेक्सास के सैन एंटोनियो से एक मिलिट्री एयरक्राफ्ट उड़ान भर रहा था। इस C-17 विमान में अमेरिका में अवैध रूप से रह रहे 104 भारतीय सवार थे। इन्हें अमृतसर के लिए रवाना किया गया। ये अप्रवासी आज दोपहर तक श्री गुरु रामदास जी इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर पहुंचेंगे।
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प भारतीय अवैध अप्रवासियों को देश से क्यों निकाल रहे हैं, क्या इसमें भारत सरकार का भी हाथ है; जानेंगे आज के एक्सप्लेनर में…
सवाल-1: अमेरिका ने कैसे 104 भारतीय अप्रवासियों को भारत डिपोर्ट किया? जवाब: भारतीय समय के मुताबिक 4 फरवरी की सुबह 3 बजे अमेरिका से 104 भारतीय अवैध अप्रवासियों को भारत रवाना किया। यह पहली बार है जब अमेरिका अप्रवासियों को भेजने के लिए सैन्य विमान का इस्तेमाल कर रहा है। 5 फरवरी को दोपहर 2 बजे अमेरिकी मिलिट्री का सी-17 एयरक्राफ्ट भारतीय अवैध अप्रवासियों को लेकर अमृतसर एयरपोर्ट पहुंचा। इसे भारत पहुंचने में करीब 35 घंटे का समय लगा।
ट्रम्प अवैध अप्रवासियों को एलियन और अपराधी कहते आए हैं, जिन्होंने अमेरिका पर हमला किया। इस वजह से ट्रम्प ने अवैध अप्रवासियों को चार्टर्ड फ्लाइट की जगह सैन्य विमान से डिपोर्ट किया। इन लोगों के हाथ में हथकड़ी और बेड़ियां लगीं हुईं थीं। इतना ही नहीं, इस फ्लाइट में 104 लोगों के लिए सिर्फ 1 टॉयलेट है।
हालांकि अमेरिका ने कुल 205 भारतीयों को डिपोर्ट करने के लिए चिह्नित किया है। इसी बीच 186 भारतीयों को डिपोर्ट करने वाली लिस्ट भी सामने आई। हालांकि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि बाकी बचे लोग कहां हैं और कब डिपोर्ट किए जाएंगे।
अमृतसर एयरपोर्ट पर लाए गए 104 लोगों में हरियाणा और गुजरात के 33-33, पंजाब के 30, महाराष्ट्र के 3, उत्तर प्रदेश-चंडीगढ़ के 2 लोग शामिल हैं। इनमें कुछ परिवार भी हैं। इसके अलावा 8–10 साल के बच्चे भी शामिल हैं। सुरक्षा अधिकारियों के मुताबिक पंजाब, हरियाणा और चंडीगढ़ के लोगों को बाई रोड घर भेजा जाएगा। गुजरात, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश के लोगों को बाई एयर ही आगे भेजा जा सकता है।
सवाल-2: ट्रम्प अमेरिका से भारतीय अप्रवासियों को क्यों निकाल रहे हैं? जवाब: डोनाल्ड ट्रम्प ने चुनाव में अवैध अप्रवासियों को देश से निकालने का वादा किया था। उन्होंने अमेरिका के इतिहास का सबसे बड़ा डिपोर्टेशन करने को कहा था। ट्रम्प का मानना है कि दूसरे देशों से लोग अमेरिका में अवैध तरीके से घुसकर अपराध करते हैं। यहां नौकरियों के बड़े हिस्से पर अप्रवासियों का कब्जा है, इससे अमेरिकी लोगों को नौकरी नहीं मिलती।
20 जनवरी 2025 को ट्रम्प ने अपने दूसरे कार्यकाल के पहले कानून ‘लैकेन रिले एक्ट’ पर साइन किए। इस कानून के तहत फेडरल अधिकारियों को उन अवैध अप्रवासियों को हिरासत में लेकर डिपोर्ट करने का अधिकार है, जो किसी आपराधिक गतिविधियों में शामिल रहे हैं।
20 जनवरी 2025 को डोनाल्ड ट्रम्प ने ‘लैकेन रिले एक्ट’ पर साइन किए।
इसके बाद ICE ने 15 लाख अवैध अप्रवासियों की लिस्ट तैयार की, जिसमें 18 हजार भारतीय भी हैं। ट्रम्प ने कहा, 'हम बुरे, खूंखार अपराधियों को बाहर निकाल रहे हैं। ये हत्यारे हैं। ये सबसे बुरे हैं, जितने आप सोच नहीं सकते। हम सबसे पहले उन्हें बाहर निकाल रहे हैं।'
सवाल-3: क्या अप्रवासियों के डिपोर्टेशन में भारत सरकार भी शामिल है? जवाब: BHU में यूनेस्को चेयर फॉर पीस के प्रोफेसर प्रियंकर उपाध्याय का कहना है कि इस डिपोर्टेशन प्रोग्राम में भारत भी शामिल रहा है। भारत की मर्जी के बिना डिपोर्टेशन प्रोग्राम नहीं हो सकता था। इसके लिए केंद्र सरकार ने काफी समय से तैयारी कर ली थी।
21 जनवरी को वॉशिंगटन डीसी में भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर और अमेरिकी विदेश मंत्री मार्को रुबियो की मुलाकात हुई थी। तब मार्को ने अवैध भारतीय प्रवासियों का मुद्दा उठाया था। इस पर विदेश मंत्री जयशंकर ने कहा था कि भारत उन प्रवासियों को वापस लेने को तैयार है, जो अधूरे या बगैर दस्तावेज के अमेरिका पहुंचे थे।
प्यू रिसर्च सेंटर की 2022 की रिपोर्ट के मुताबिक, अमेरिका में लगभग 7.25 लाख अवैध भारतीय अप्रवासी रहते हैं। यह आंकड़ा अवैध प्रवासियों की तीसरी सबसे बड़ी संख्या है।
सवाल-4: भारत पहुंचे अप्रवासियों के साथ आगे क्या होगा? जवाब: विदेश मामलों के जानकार और JNU के प्रोफेसर राजन कुमार कहते हैं, भारत सरकार अप्रवासियों पर कानूनी कार्रवाई करने के लिए बाध्य नहीं है, लेकिन सरकार इस मुद्दे पर जांच जरूर करेगी। डंकी रूट से सफर करना या चोरी-छुपे देश से बाहर निकलने के जुर्म में कार्रवाई हो सकती है। हालांकि, केंद्र सरकार की ओर से इस पर कोई बयान जारी नहीं हुआ है।
राजन कुमार कहते हैं,
अमेरिका से अप्रवासियों की वापसी गंभीर मुद्दा है। सरकार बहुत सोच-समझकर कोई कदम उठाएगी। देश में बदलती राजनीति और अमेरिका के साथ बिगड़ते रिश्तों को ध्यान में रखकर फैसला लेना होगा। यह कहना मुश्किल है कि अप्रवासियों को उनके घर पहुंचाया जाएगा या उन पर कार्रवाई की जाएगी।
सवाल-5: क्या अप्रवासियों को वापस बुलाने का खर्च भारत सरकार उठा रही? जवाब: नहीं। अप्रवासियों के लौटने का खर्च भारत नहीं बल्कि ट्रम्प सरकार उठा रही है, क्योंकि अमेरिकी सरकार अप्रवासियों को डिपोर्ट कर रही है। अमेरिकी रक्षा विभाग डिपार्टमेंट ऑफ डिफेंस (DOD) अप्रवासियों को हटाने की मुहिम में 4 मिलिट्री एयरक्राफ्ट्स का इस्तेमाल कर रही है। इनमें दो C-17 और दो C-130E विमान शामिल हैं।
न्यूज एजेंसी रॉयटर्स के मुताबिक, अमेरिकी अधिकारियों ने बताया कि 27 जनवरी को टेक्सास से ग्वाटेमाला 80 लोगों को भेजा गया था। इसमें एक अप्रवासी पर लगभग 4,675 डॉलर यानी करीब 4 लाख रुपए खर्च हुए थे। यह खर्च अमेरिका के कॉमर्शियल चार्टर्ड फ्लाइट से पांच गुना ज्यादा है। चार्टर्ड फ्लाइट के एक टिकट की कीमत 853 डॉलर यानी करीब 74 हजार रुपए है।
AP की ओर से 30 जनवरी 2025 को जारी हुई ये तस्वीर उन 80 अप्रवासियों की है जिन्हें टेक्सास से ग्वाटेमाला भेजा गया। फोटो में लोगों के हाथ-पैर में हथकड़ी बंधी दिखाई दी। - Dainik Bhaskar
AP की ओर से 30 जनवरी 2025 को जारी हुई ये तस्वीर उन 80 अप्रवासियों की है जिन्हें टेक्सास से ग्वाटेमाला भेजा गया। फोटो में लोगों के हाथ-पैर में हथकड़ी बंधी दिखाई दी।
DOD के मुताबिक, 2022 तक C-17 की औसत ऑपरेटिंग कॉस्ट 21 हजार डॉलर, यानी 18.28 लाख रुपए प्रति घंटा थी, जबकि C-130E के एक घंटे उड़ान की लागत 68 हजार से 71 हजार डॉलर थी। यानी 60 लाख से 62 लाख रुपए।
3 फरवरी को अमेरिकी अधिकारियों ने रॉयटर्स को बताया कि 2025 में मिलिट्री विमान के एक घंटे उड़ान भरने पर करीब 28,500 डॉलर यानी करीब 25 लाख रुपए खर्च आता है। हालांकि, अधिकारियों ने भारतीय अप्रवासियों के डिपोर्टेशन के खर्च का आंकड़ा जारी नहीं किया है।
अमेरिका 18 हजार अवैध अप्रवासियों को भारत भेजने के लिए 360 करोड़ रुपए खर्च करेगा। इसे कैलकुलेशन से समझिए कि टेक्सास से अमृतसर की दूरी 12,913 किमी है। अमेरिकी सैन्य विमान C-17 16 घंटे में यह दूरी तय करता है। एक फ्लाइट की ऑपरेशनल कॉस्ट 4 करोड़ रुपए है। वहीं, 18 हजार अवैध अप्रवासियों को भारत भेजने के लिए लगभग 90 फ्लाइट्स की जरूरत पड़ेगी। इसकी कुल कीमत 360 करोड़ रुपए आएगी।
सवाल-6: क्या 13 फरवरी को ट्रम्प और मोदी की मुलाकात से डिपोर्टेशन रुकेगा? जवाब: डॉ. प्रियंकर उपाध्याय मानते हैं कि PM मोदी और प्रेसिडेंट ट्रम्प की मुलाकात से अप्रवासियों का डिपोर्टेशन नहीं रुकेगा। वे कहते हैं कि भारत इस स्थिति में नहीं है कि अप्रवासियों की वापसी पर रोक लगा सके। अमेरिका सुपर पावर है और बीते कुछ दिनों से अमेरिका और भारत के रिश्तों में दरार पड़ने लगी है। ऐसे में PM मोदी अमेरिकी राष्ट्रपति के फैसले को चुनौती नहीं देंगे।
28 जनवरी को PM मोदी ने डोनाल्ड ट्रम्प से फोन पर बात की थी। ट्रम्प ने PM मोदी पर अप्रवासी मुद्दे को लेकर काफी भरोसा जताया था। ट्रम्प ने कहा,
अवैध अप्रवासियों के मुद्दे पर मोदी वही करेंगे जो सही होगा। जब हम अमेरिका में अवैध तरीके से रह रहे भारतीयों को उनके देश भेजेंगे, तो मोदी सही फैसला लेंगे। भारत के साथ हमारे बहुत अच्छे संबंध हैं। हम भारत से IT प्रोफेशनल्स को लेने के लिए तैयार हैं।
प्रियंकर उपाध्याय बताते हैं कि भारत का अपने पड़ोसी देशों की तुलना में अमेरिका के साथ दोहरा रवैया है। बांग्लादेश के अप्रवासियों को लेकर सरकार का नजरिया सख्त रहा है, लेकिन अमेरिकी अप्रवासियों के लिए मोदी सरकार ने हामी भर दी, क्योंकि यह इकोनॉमिक माइग्रेंट्स हैं। आसान भाषा में समझें तो यह वो लोग हैं जो अमेरिका में पैसा कमाने के लिए गए थे। इसलिए PM मोदी डोनाल्ड ट्रम्प से इस विषय में बात नहीं करेंगे।
रिसर्च सहयोग- गंधर्व झा
योगी पुलिस नहीं है क्या ‘हम ज़िंदा थे, लेकिन सिपाही बोला इसे गंगा में बहा दो…’, महाकुंभ भगदड़ में बची महिला का बयान
योगी पुलिस नहीं है क्या
‘हम ज़िंदा थे, लेकिन सिपाही बोला इसे गंगा में बहा दो…’, महाकुंभ भगदड़ में बची महिला का बयान
महाकुंभ भगदड़ में बची एक महिला के बयान ने सबको हिला कर रख दिया है। उसने कहा है कि वो जिंदा थी मगर बेहोश थी। तभी एक सिपाही ने कहा कि ये मर गई है इसे गंगा में बहा दो।
प्रयागराज के महाकुंभ में 28 और 29 जनवरी की दरमियानी रात को मची भगदड़ में मरने वालों के आंकड़े हर रोज बदल रहे हैं। कभी मरने वालों की गिनती 30 बताई जाती है, तो कभी वो घटकर कम हो जाती है। अभिनेत्री और सपा की सांसद जया बच्चन का बयान आया था जिसमें वो कह रही थीं कि महाकुंभ में गंगा दूषित है, क्योंकि वहां शव बहाये गए हैं। अब भगदड़ में बची बिहार की एक महिला ने ऐसा ही कुछ बताया है, जिसके बाद लोक गायिका नेहा सिंह राठौर ने भी सवाल खड़ा कर दिया है।
महाकुंभ की भगदड़ से बचकर लौटी महिला ने बीबीसी को बताया है कि वो भी भगदड़ में फंस गई थी और उनको वहां देखने वाला कोई नहीं था। वो मदद की गुहार लगा रही थी मगर कोई सुनने वाला नहीं था। महिला ने बताया कि उसके पास उसका बैग था, जिसे लोग छीन रहे थे। एक आदमी ने उसका बैग छीना और जब उसने बैग नहीं दिया तो उसने महिला के सीने पर लात मार दी, जिससे वो बेहोश हो गई।
सिपाही ने कहा गंगा में बहा दो
महिला ने जो कहानी बताई वो किसी को भी हैरान कर देगी। महिला ने बताया कि उसे थोड़ा सा होश आया तो उसने सुना कि एक सिपाही कह रहा था कि ये मर गई है इसे गंगा में बहा दो। तभी एक औरत ने सिपाही को डांटा और इस महिला के मुंह पर पानी की छींटे मारी, जिससे वो वापस होश में आ गई। ये महिला अपनी कुछ साथी महिलाओं के साथ अपने घर लौट चुकी है, लेकिन वो मंजर जो इन्होंने देखा वो ये भूल नहीं पा रही हैं।
बता दें कि नेहा सिंह राठौर ने एक मुहिम चलाई है, जिसमें वो महाकुंभ में लापता हुए लोगों को ढूंढने की बात कर रही हैं। उन्होंने अपने वीडियो में सरकार को महाकुंभ भगदड़ में मारे गए लोगों के लिए दोषी ठहराया था। उन्होंने कहा था, “नकहां छिपे हैं वो सरकारी कलाकार और सरकारी बाबा? जो बड़ी से बड़ी संख्या में श्रद्धालुओं को महाकुंभ में बुला रहे थे, निकलो बाहर। ‘जो कुंभ नहीं आएगा वो देश द्रोही हो जाएगा।’ ये ही बोल रहे थे ना? भगदड़ के बाद से ये कहने लगे हैं, यहां मरने वाले भाग्यशाली हैं, क्योंकि उन्हें मोक्ष मिल गया। अरे इतना ही मोक्ष मिल रहा था तो खुद क्यों नहीं कूद पड़े भगदड़ में? खुद तो सरकारी काफिले के साथ कुंभ नहाने आएंगे और आम जनता को भीड़ के हवाले कर देंगे।”
किसी हिन्दूवादी संगठन ने हिन्दुओं के साथ हो रहे इस अन्याय पर उँगली उठायी?
क्यों नहीं उठायी?
क्या मृतक महिला हिन्दू नहीं थी?
सच तो ये है कि हिन्दुत्व की बात करने वाले 99% लोगों और संगठनों को हिंदुओं से कोई मतलब ही नहीं है.
उन्हें सिर्फ़ हिंदुओं के वोट से मतलब है…बस.
एक अन्य वीडियो शेयर करते हुए नेहा सिंह राठौर ने कैप्शन में लिखा था, “भाजपा सरकार ने कुंभ मेले से सिर्फ़ पाप कमाया है और मेले की भगदड़ में मरने वालों का खून इस सरकार के मत्थे मढ़ा जाना चाहिए।” साथ ही अपने वीडियो में नेहा कह रही थीं, “आम जनता भगदड़ में मर रही है और प्रशासन भाजपा नेताओं को वीआईपी स्नान कराने में व्यस्त है। ये है कुंभ मेले की सच्चाई। भोली-भाली जनता को महाकुंभ में बुलाकर मरने के लिए छोड़ देने वाली इनकी सरकार महान है और इनकी बद इंतजामी पर सवाल उठाने वाले लोग सनातन विरोधी और गिद हैं, हैं ना?”
जया ने मीडिया से बात करते हुए कहा था, “सबसे ज्यादा दूषित पानी इस समय कहां है, कुंभ में है। उसके लिए कोई सफाई नहीं दे रहे। बॉडी जो पानी में डाल दी गई हैं, उससे पानी दूषित हुआ है। यही पानी लोगों तक पहुंच रहा है वहां। इसके ऊपर कोई सफाई नहीं दे रहे हैं।” जया बच्चन के बयान से जुड़ी पूरी खबर पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें…
शनिवार, 1 फ़रवरी 2025
49, 61 या 100, भगदड़ में मौतों का आंकड़ा क्या:महाकुंभ में एक नहीं 3 जगह भगदड़ हुई, GT रोड पर भी 5 मरे
49, 61 या 100, भगदड़ में मौतों का आंकड़ा क्या:महाकुंभ में एक नहीं 3 जगह भगदड़ हुई, GT रोड पर भी 5 मरे
महाकुंभ में 28 जनवरी की देर रात करीब 1:30 बजे संगम नोज इलाके में भगदड़ हुई। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 30 लोगों की मौत हुई है और 60 लोग घायल हैं। भगदड़ सिर्फ एक जगह हुई और मरने वालों की संख्या सिर्फ 30 है, ये दोनों ही बातें सवालों के घेरे में है।
दैनिक भास्कर ने इसकी छानबीन की। प्रशासन के दावों और आंकड़ों में कई लूप-होल्स नजर आते हैं। 29 जनवरी को कहा गया कि 30 मौतें हुई हैं, 25 की पहचान हो गई है। 30 जनवरी को भास्कर रिपोर्टर को मोतीलाल नेहरू कॉलेज में 24 लावारिस शव रखे मिले। अगर इनमें से बीते दिन 5 घटा भी दें तो नई 19 लाशें सामने थीं। ऐसे में मृतकों की संख्या बढ़कर 49 हो जाती है।
सवाल नंबर-1आखिर मरने वालों की असली संख्या क्या है?
जवाब की तलाश में 3 बातें पता चली हैं-
1. 30 नहीं, 49 मौतें हुई हैं
दैनिक भास्कर रिपोर्टर फरहत खान 30 जनवरी को मोतीलाल नेहरू मेडिकल कॉलेज पहुंचे। यहां गुरुवार दोपहर 24 लावारिस शवों की फोटो लगाई गईं। एक दिन पहले प्रशासन ने दावा किया था कि 30 लोगों की मौत हुई है और उनमें से 25 की पहचान कर ली गई है।
सामने 24 लावारिस शवों की तस्वीरें थीं। अगर कल के 5 भी इनमें मिला लें तो भी यहां 19 नई लाशें आई हैं। अगर इन्हें 30 में जोड़ दें तो मरने वालों की संख्या 49 हो जाती है।
फरहत ने कुछ अफसरों और कर्मचारियों से बात की और लावारिस लाशों की लिस्ट चेक करने की कोशिश की। एसडीएम आशुतोष मिश्रा से बातचीत में सामने आया कि 29 जनवरी को यहां 40 से 50 शव रखे थे। इसके अलावा मेडिकल कॉलेज के पोस्टमार्टम हाउस में बैठे एक स्वास्थ्यकर्मी ने बताया कि 20 शव अब भी रखे हुए हैं। हालांकि इस दावे की पुष्टि नहीं की जा सकी।
2. देश के अलग-अलग राज्यों में कुंभ से अब तक 41 शव लौटे
भले ही प्रशासन मरने वालों का आंकड़ा 30 ही बता रहा हो लेकिन अब तक 41 शव देश के अलग-अलग इलाकों में पहुंच चुके हैं। अकेले यूपी के आठ जिलों में 16 शव पहुंचे हैं। इसमें गोरखपुर-बलिया में 4-4 , जौनपुर में 3, लखनऊ, मऊ, गोंडा, सिद्धार्थनगर और प्रयागराज में 1-1 शव लाए गए हैं।
यूपी को छोड़, बाकी राज्यों में अब तक 25 शव जा चुके हैं। इनमें बिहार में 8, कर्नाटक 4, हरियाणा-राजस्थान में 3-3, झारखंड और पश्चिम बंगला में 2-2, असम, गुजरात और उत्तराखंड में 1-1 शव परिजनों के पास आए हैं।
दैनिक भास्कर ने मृतकों के अलग-अलग आंकड़ों पर अपर मेलाधिकारी विवेक चतुर्वेदी से बात की। उन्होंने कहा कि उन्हें मरने वालों की कुल संख्या की जानकारी नहीं है और इस बारे में मेलाधिकारी से बात करने को कहा।
3. कफन पर लिखे नंबर-61 का मतलब
भगदड़ में जिन लोगों की मौत हुई है उन्हें बॉडी बैग में रखकर परिजनों को सौंपा जा रहा है या फिर उनके घर भेजा जा रहा है। छानबीन में दैनिक भास्कर को बैग नंबर 17, 39 और 61 तक के फोटो-वीडियो मिले हैं। सवाल है कि बॉडी बैग पर लिखे इन नंबर्स का मतलब क्या है।
जिस बैग में डेड बॉडी रखी है, उस पर 61 नंबर लिखा हुआ। डॉक्टर के मुताबिक, ये डेडबॉडीज की नंबरिंग होती है।
जिस बैग में डेड बॉडी रखी है, उस पर 61 नंबर लिखा हुआ। डॉक्टर के मुताबिक, ये डेडबॉडीज की नंबरिंग होती है।
हालांकि, न तो प्रशासन और न ही अस्पताल में कोई भी इस नंबर का मतलब बताने को तैयार है। एक डॉक्टर ने ऑफ कैमरा बताया कि ये शवों की नंबरिंग ही है। बॉडी बैग पर नंबर इसलिए लिखा जाता है, ताकि लाशों कि पहचान की जा सके।
सवाल नंबर-2: महाकुंभ में भगदड़ की कितनी घटनाएं हुई हैं?
महाकुंभ में एक नहीं बल्कि तीन जगह भगदड़ हुई, हर जगह मौतें हुईं
छानबीन में सामने आया है कि 28-29 जनवरी की रात संगम नोज इलाके के अलावा ओल्ड जीटी रोड और झूंसी साइड के ऐरावत द्वार के पास भी भगदड़ मची थी। ओल्ड जीटी रोड पर 5 मौत और ऐरावत द्वार पर 24 मौत होने की बात सामने आ रही है।
प्रशासन ने सिर्फ संगम तट पर मची भगदड़ में 30 की मौत और 60 के घायल होने की बात स्वीकार की है। इन तीनों जगहों पर मौतों की संख्या जोड़ दी जाए तो यह संख्या 59 होती है।
ओल्ड जीटी रोड पर गाड़ी ने 5 को कुचला, फिर भगदड़ हुई
29 जनवरी सुबह 8 से 9 बजे के बीच ओल्ड जीटी रोड की तरफ से बड़ी संख्या में श्रद्धालु मेला क्षेत्र में आ रहे थे। इसी बीच मुक्ति मार्ग पर एक महामंडलेश्वर की गाड़ी वहां से गुजर रही थी। इस दौरान दो-तीन महिलाएं वहां गिर पड़ी। गाड़ी महिलाओं को रौंदते हुए निकल गई।
इसके बाद भगदड़ जैसी स्थिति हो गई। इसमें 5 लोगों की मौके पर ही मौत हो गई। मृतकों में एक बच्ची भी शामिल थी। CO रुद्र प्रताप ने बताया- गाड़ी बैक करने के दौरान 5 लोग घायल हो गए थे। उन्हें इलाज के लिए स्वरूप रानी मेडिकल कॉलेज में भर्ती कराया गया। जहां उनकी इलाज के दौरान मौत हो गई। मरने वालों की शिनाख्त कराई जा रही है।
झूंसी की भगदड़ में 24 मौतें होने का दावा
संगम नोज से दो किलोमीटर दूर झूंसी में ऐरावत द्वार के पास भी भगदड़ हुई थी। ये भगदड़ सुबह 6 बजे के आसपास हुई। लोगों से बातचीत के आधार पर दावा किया जा रहा है कि यहां 24 मौतें हुई थीं।
दैनिक भास्कर के रिपोर्टर सचिन गुप्ता और विकास श्रीवास्तव ने यहां पड़ताल की। लापता व्यक्ति के बारे में पूछने के लिए रिपोर्टर सेक्टर-20 के पुलिस बूथ पर गए। वहां उन्होंने चार पुलिसकर्मियों से बात की और उन्हें लापता शख्स की तस्वीर दिखाई। पुलिसकर्मियों ने उन्हें सेक्टर-20 के खोया-पाया केंद्र पर जाने की सलाह दी।
रिपोर्टर खोया-पाया केंद्र गए, लेकिन वहां लापता व्यक्ति का कोई डेटा नहीं मिला। फिर वे पास की पुलिस चौकी गए, जहां उन्होंने डेटा खंगाला। पता चला कि लापता व्यक्ति का मोबाइल पुलिसकर्मियों को ऐरावत द्वार घाट के पास पड़ा मिला था। वहां मौजूद पुलिसकर्मियों ने बताया कि भगदड़ में बहुत सारे बैग छूट गए थे और उन्होंने एक-एक बैग की तलाशी ली।
यह सेक्टर 20 की तस्वीर है, जहां भगदड़ मचने के बाद फैला श्रद्धालुओं का सामान।
यह सेक्टर 20 की तस्वीर है, जहां भगदड़ मचने के बाद फैला श्रद्धालुओं का सामान।
एंबुलेंस ड्राइवर्स की माने तो मरने वाले 100 से ज्यादा
सेक्टर-20 सब सेंट्रल हॉस्पिटल में रिपोर्टर ने यहां तीन एंबुलेंस ड्राइवरों से बात की। एक ड्राइवर ने दावा किया कि 29 जनवरी की तड़के हॉस्पिटल में पैर रखने की जगह नहीं थी। वे लाशों को कर्नाटक, पश्चिम बंगाल और पटना तक छोड़कर आए हैं। दूसरे ड्राइवर का दावा है कि भगदड़ के समय उनकी एंबुलेंस पर लोग जान बचाने के लिए चढ़ गए थे। उन्होंने कुछ बच्चों को बचाकर एंबुलेंस में बैठा लिया था।
तीसरे ड्राइवर ने दावा किया है- सेक्टर-20 के हॉस्पिटल में करीब 25-30 लाशें आई थीं। एक डॉक्टर ने सभी लाशों के फोटो भी खींचे थे। हॉस्पिटल के एक कर्मचारी ने बताया कि उस दिन लगातार लाशें आ रही थीं, और सभी लाशों को बाद में एसआरएन सहित दूसरे अस्पतालों में भेज दिया गया।
ऐरावत द्वार पर एक चाय दुकानदार ने बताया कि भगदड़ के बाद उनकी दुकान के बाहर ही 5 लाशें पड़ी थीं, जिनमें चार महिलाएं और एक पुरुष था। भीड़ ने उनकी पूरी दुकान लूट ली और 20 पेटी पानी की बोतलें उठा ले गए। उन्होंने बताया कि चौराहे पर 5 लाशें पड़ी थीं और लोगों के कपड़े, बिस्तर छूट गए थे।
सेक्टर–2 स्थित सेंट्रल हॉस्पिटल में महाकुंभ में मरने वालों की संख्या को लेकर रिपोर्टर सचिन गुप्ता ने एबुलेंस ड्राइवरों से बात की। एक एंबुलेंस ड्राइवर ने दावा किया है कि सेंट्रल हॉस्पिटल में करीब 90 से 100 लाशें आई थीं। सभी को बड़े अस्पतालों की मोर्चरी में भेज दिया गया। (इसका ऑडियो दैनिक भास्कर के पास है) एंबुलेंस के ड्राइवरों ने यूपी के आजमगढ़ से लेकर कर्नाटक तक लाश छोड़कर आए हैं।
शुक्रवार, 31 जनवरी 2025
उघरे अंत न होए निबाहू कालिनेम जिन रावन राहू-महाकुंभ
उघरे अंत न होए निबाहू कालिनेम जिन रावन राहू-महाकुंभ
महाकुंभ अपनी अव्यवस्थाओं के लिए जाना जाएगा। क्योंकि एक भगदड़ में 40 लोगों की मृत्यु को सरकार स्वीकार कर रही है लेकिन अकेले बस्ती ,गोरखपुर मंडल में 35 लोगों की लापता लिस्ट सोशल मीडिया पर जारी हुई है ।और महाकुंभ में भगदड़ के बाद जो सूचनाओं आ रही हैं उनमें से लापता लोगों की संख्या सैकड़ो मे है। सरकार इस संबंध में लापता लोगों के परिजन की कोई मदद नहीं कर पा रही है हालात बद से बदतर हो गए हैं। सरकार महाकुंभ में अपनी असफलताओं का नया कीर्ति स्तंभ स्थापित कर रही है ।प्रयागराज के महाकुंभ में सरकार उत्तर प्रदेश के विभिन्न जिलों में श्रद्धालुओं को रोक रही है। जिसका सीधा अर्थ यह है कि महाकुंभ में सरकार की कोई व्यवस्था नहीं है अखबारों में इलेक्ट्रॉनिक चैनल छवि उभरने के लिए सिर्फ विज्ञापन बाजी का ही खेल चल रहा है महाकुंभ में सरकार जिम्मेदार अधिकारियों के ऊपर गैर इरातन हत्या का मुकदमा आज भी दर्ज नहीं कर पाई है और जांच के नाम पर लीपा पोती कर रही है महाकुंभ में दो बार आग लग चुकी है सरकार मौन है सरकार कानून व्यवस्था को बनाए रखने के लिए प्रयागराज अयोध्या वाराणसी मिर्जापुर चित्रकूट जिलों की नाकाबंदी कर दी है और वहीं पर जाने के लिए 4 फरवरी तक अघोषित प्रतिबंध लगा दिया गया है और सरकार में बहुत सारी सवारी ट्रेनों को रद्द करके अपनी अव्यवस्था का प्रमाण पत्र स्वयं जारी कर दिया है।
गुरुवार, 30 जनवरी 2025
साहब बहादुर एक मेला नहीं करवा पा रहे हैं फिर लगी आग
साहब बहादुर एक मेला नहीं करवा पा रहे हैं फिर लगी आग
महाकुंभ मेला क्षेत्र में फिर लगी आग, धू-धू कर जले कई पंडाल, फायर ब्रिगेड की टीम सेक्टर 22 में अचानक आग लग गयी। आग ने देखते ही देखते विकराल रूप धारण कर लिया। आग की चपेट में कई पंडाल आग गये।
प्रयागराज महाकुंभ मेला क्षेत्र में गुरूवार दोपहर उस समय एक बार अफरा-तफरी मच गयी। जब सेक्टर 22 में अचानक आग लग गयी। आग ने देखते ही देखते विकराल रूप धारण कर लिया। आग की चपेट में कई पंडाल आग गये। घटना की जानकारी तुरंत फायर ब्रिगेड की टीम को दी गयी। मौके पर पुलिस और फायर ब्रिगेड की टीम पहुंच गयी है। मौके पर दमकल की कई गाड़ियां पहुंच गयी हैं। वहीं आग लगने के बाद दूर से ही धुएं का गुबार नजर आ रहा है। हालांकि आग लगने की घटना में किसी के हताहत होने की जानकारी नहीं है। मौके पर अधिकारी पहुंच गये हैं।
मिली जानकारी के अनुसार छतनाग घाट नागेश्वर घाट के सेक्टर 22 में गुरूवार दोपहर भीषण आग लग गयी। तेज हवा के चलते आग जल्द ही फैल गयी। जिससे एक दर्जन से ज्यादा पंडाल उसकी चपेट में आ गये। झूंसी की तरफ छतनाग के पास यह पंडाल बने हुए थे। बताया जा रहा है कि प्राइवेट कंपनी की ओर से लगाए गए वैदिक टेंट सिटी में आग लगी हुई है। घटना की जानकारी होने के बाद दमकल विभाग के कर्मी मौके पर पहुंच गये है। पुलिस और दमकल विभाग की टीम आग पर काबू पाने में जुटी हुई है। गनीमत रही है कि आग लगने के समय वहां कोई मौजूद नहीं था। इसलिए कोई हताहत नहीं हुआ है। हालांकि आग लगने के बाद हर तरफ अफरा-तफरी का माहौल है।
आई जी समेत आठ पुलिसकर्मियों को उम्र कैद की सजा
गुड़िया दुष्कर्म मामले में पुलिस हिरासत में सूरज की मौत को लेकर सीबीआई कोर्ट ने अपना फैसला सुना दिया। कोर्ट ने आईजी जहूर जैदी समेत 8 पुलिसकर्मियों को हत्या के मामले में उम्रकैद की सजा सुनाई है।
इसके बाद जब जांच तेज हुई तो उसे कई बार सुबह या फिर शाम को गेस्ट हाउस में पूछताछ के लिए बुलाया गया। कुछ ही दिनों बाद एकदम से शाम के समय पुलिस आई और सूरज को उठाकर ले गई। इसके बाद वे एक बार ही सूरज से पांच मिनट के लिए मिल सकी, इस दौरान जो बातें हुईं, वो आखिरी रह गईं।
सूरज ने जो कहा उसे पूरा करने के लिए दिन रात ईमानदारी से मेहनत कर रही हूं। ईमानदारी के साथ अपने बच्चों को पढ़ाई करवाकर एक बेहतर इंसान बना कर सूरज के सपने को पूरा करूंगी।
गुड़िया के पिता ने भी माना न्याय
बता दें कि थाने में जान गंवाने वाले सूरज को मारने वाले दोषियों को मिली उम्रकैद की सजा को गुड़िया के पिता भी न्याय मानते हैं, उनका कहना है कि सूरज को सोमवार को सीबीआई कोर्ट से न्याय मिला है। अब इस मामले में गुड़िया के
पुलिस की डंडे बाजी भी जिम्मेदार है महाकुम्भ की घटना के लिए
पुलिस की डंडे बाजी भी जिम्मेदार है महाकुम्भ की घटना के लिए
महाकुंभ: मौनी अमावस्या स्नान त्रासदी में बदल गया, भगदड़ में दर्जनों की मौत
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, जिन्होंने खुद को धरती पर सबसे बड़े समागम के मेजबान के रूप में स्थापित किया है, ने लोगों से “अफवाहों” पर ध्यान न देने का आग्रह किया और केवल इतना कहा कि चोटें आई हैं, फिर चुप हो गए
बुधवार की सुबह भोर होने से पहले संगम तट पर एक पवित्र अवसर अभिशाप में बदल गया। इलाहाबाद में उत्साह से भरे महाकुंभ में घटने वाली आपदा में दर्जनों श्रद्धालु कुचलकर मारे गए, सैकड़ों घायल हो गए और कई लोग घायल हो गए।
पूरे दिन गोल-मोल बातें करने के बाद, ऐसा प्रतीत हुआ कि सरकारी मशीनरी ने जानबूझकर त्रासदी की व्यापकता के बारे में जानकारी छिपाने का प्रयास किया तथा यह धारणा बनाई कि कुछ खास नहीं हुआ है, पुलिस ने आधिकारिक तौर पर मृतकों की संख्या 30 तथा घायलों की संख्या 60 बताई। रॉयटर्स ने तीन पुलिस सूत्रों के हवाले से मृतकों की संख्या 40 बताई।
महाकुंभ के डीआईजी वैभव कृष्ण ने शाम को एक संवाददाता सम्मेलन में बताया: "कुछ लोग थे जिन्होंने अखाड़ा मार्ग (संगम से 1.5 किमी) पर बैरिकेड्स तोड़ दिए और उन लोगों को कुचल दिया जो जमीन पर सो रहे थे और स्नान करने के लिए ब्रह्म मुहूर्त (शुभ समय) का इंतजार कर रहे थे। हम 90 घायल लोगों को अस्पताल ले गए लेकिन उनमें से केवल 60 को ही बचा पाए। मरने वाले 30 श्रद्धालुओं में से हमने अब तक 25 की पहचान की है।"
कई श्रद्धालुओं और प्रत्यक्षदर्शियों ने बताया कि मृतकों और घायलों की संख्या कहीं अधिक हो सकती है।
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, जिन्होंने खुद को धरती पर सबसे बड़े समागम के मेजबान के रूप में स्थापित किया है, ने लोगों से “अफवाहों” पर ध्यान न देने का आग्रह किया और केवल इतना कहा कि कुछ लोग घायल हुए हैं, फिर चुप हो गए। बाद में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने “पवित्र आत्माओं” की मृत्यु पर शोक व्यक्त किया।
आदित्यनाथ ने कई दिनों तक अभूतपूर्व सुरक्षा व्यवस्था के बारे में चिल्लाने के बाद श्रद्धालुओं पर दोष मढ़ दिया, जबकि मोदी ने "डिजिटल महाकुंभ" के बारे में शेखी बघारकर इसका समर्थन किया। मुख्यमंत्री ने कहा कि भीड़ का "जबरदस्त दबाव" था और लोगों ने संगम के "नाक" पर जाने की कोशिश करने के बजाय नदी के किनारे कहीं भी पवित्र डुबकी लगाने की सलाह को नज़रअंदाज़ कर दिया।
टीवी मीडिया का एक वर्ग, जिसे व्यापक रूप से मोदी सरकार का आभारी माना जाता है, ने पूरे दिन इस त्रासदी को नजरअंदाज किया और दर्शकों से मुंह की खानी पड़ी, जिन्होंने अपना गुस्सा सोशल मीडिया पर निकाला।
बुधवार देर रात लखनऊ में रोते हुए आदित्यनाथ ने पत्रकारों से कहा कि कुंभ त्रासदी “दिल दहला देने वाली” थी और उन्होंने प्रत्येक मृतक के परिवार को 25 लाख रुपये का मुआवजा देने की घोषणा की। उन्होंने न्यायिक जांच के भी आदेश दिए।
कई श्रद्धालुओं ने शिकायत की कि पुलिस ने पंटून पुलों को अवरुद्ध कर दिया है और उन्हें संगम की ओर बढ़ने से रोक दिया है। प्रत्यक्षदर्शियों ने बताया कि पुलिस श्रद्धालुओं को लाठियों से पीछे धकेल रही थी और अचानक उन पर डंडे बरसाने लगी, जिससे भगदड़ मच गई और लोग इधर-उधर भागने लगे और एक-दूसरे पर गिरने लगे।
मुख्यमंत्री के अनुसार, मौनी अमावस्या के अवसर पर अमृत स्नान के लिए कुंभ में 8 से 10 करोड़ श्रद्धालु उपस्थित थे।
महाकुंभ के डीआईजी कृष्णा ने दिन में पहले कहा: "मैं मृतकों और घायलों की संख्या की पुष्टि नहीं कर सकता। श्रद्धालुओं के दबाव में एक भारी गेट गिर गया और कुछ लोग गंभीर रूप से घायल हो गए।"
वैभव ने कहा, "अब सब ठीक है। हम अखाड़ों के साधुओं के अमृत स्नान के लिए तैयार हैं। वे अब संगम पर स्नान करने के लिए पहुंच रहे हैं।" इससे पहले सरकार ने पहले अमृत स्नान को रद्द कर दिया था, लेकिन बाद में साधुओं को सुबह 11 बजे से पवित्र स्नान करने की अनुमति दे दी थी।
प्रत्यक्षदर्शी
बिहार के नालंदा से 45 वर्षीय रमेश कुमार ने कहा: "पुलिस ने रात में ही सभी पंटून पुलों को बंद कर दिया था और श्रद्धालुओं से संगम क्षेत्र में न जाने को कहा था। मैं सेक्टर 4 (अखाड़ा मार्ग के पास) में था, जब पुलिस ने रात करीब 1.45 बजे लाठियों से भीड़ को पीछे धकेलना शुरू किया। किसी ने बैरिकेड नहीं तोड़ा था, लेकिन पुलिस ने हमें लाठियों से पीटना शुरू कर दिया।
"लोग सभी दिशाओं में भाग गए, उनमें से कुछ ने बैरिकेड्स हटा दिए। वहाँ महिलाएँ और बच्चे थे। वे ज़मीन पर गिर गए और घबराए हुए भक्तों के पैरों तले कुचले गए। सड़क के दोनों ओर सो रहे कुछ भक्तों को उन लोगों के पैरों तले कुचल दिया गया जो वहाँ से भागने की कोशिश कर रहे थे।"
रमेश ने बताया कि भगदड़ के बाद से वह अपनी पत्नी और तीन बच्चों का पता नहीं लगा पाए हैं। उन्होंने कहा, "मुझे नहीं पता कि वे कहां हैं।"
उत्तर प्रदेश के देवरिया की 35 वर्षीय मीना देवी ने कहा: "मैं अपनी मां को नहीं ढूंढ पा रही हूं। जब वह जमीन पर पड़ी थीं तो मैंने उनका हाथ पकड़ रखा था। कुछ पुलिसवालों ने मुझे धक्का देकर एक तरफ कर दिया, उन्हें स्ट्रेचर पर लिटाया और ले गए।
मीना ने बताया, "बाद में एक पुलिसकर्मी ने मुझे सेक्टर 2 सेंट्रल अस्पताल (कुंभ मैदान में) जाने को कहा, लेकिन वहां के डॉक्टरों ने मुझे इलाहाबाद शहर के स्वरूपरानी अस्पताल में जाने को कहा। मुझे अभी तक वह नहीं मिली है।"
उन्होंने कहा, "जब भगदड़ मची, तब हम संगम से करीब 1.5 किलोमीटर दूर थे। पुलिस हमें पुल से जाने के लिए कह रही थी, जिसके लिए हमें 30 किलोमीटर का चक्कर लगाना पड़ता। सरकार श्रद्धालुओं के साथ बहुत ही अमानवीय व्यवहार कर रही है।"
एक श्रद्धालु संजय पांडे ने बताया कि उन्होंने सेक्टर 18 में ही टेंक्ट सिटी में कम से कम 12 शव देखे। उन्होंने बताया कि कई श्रद्धालु बैग और अन्य सामान के वजन के नीचे दबे हुए थे।
कर्नाटक की एक श्रद्धालु सरोजिनी ने पीटीआई वीडियो को बताया, "श्रद्धालुओं के लिए जगह कम पड़ गई थी और अचानक धक्का-मुक्की होने लगी, जिसमें हम फंस गए। हममें से कई लोग गिर गए और भीड़ बेकाबू हो गई। बचने का कोई मौका नहीं था, हर तरफ से धक्का-मुक्की हो रही थी।"
अस्पताल में मौजूद एक अन्य महिला, जिसका बच्चा घायल हो गया था, ने कहा: "हमारे पास जाने के लिए कोई जगह नहीं थी। कुछ लोग जो हमें धक्का दे रहे थे, वे हंस रहे थे, जबकि हम उनसे बच्चों के प्रति दया की भीख मांग रहे थे।"
गाजियाबाद के 50 वर्षीय सुरेंद्र कुमार चौबे कहते हैं, "गंगा और यमुना देश के कई जिलों से होकर बहती हैं। हम कुंभ में त्रिवेणी संगम (गंगा, यमुना और पौराणिक सरस्वती का संगम) पर स्नान करने आए हैं, जो हमें देश में कहीं और नहीं मिलेगा। सरकार क्यों नहीं चाहती कि हम संगम पर जाएं? क्या इसलिए कि उन्होंने संगम को वीवीआईपी और अखाड़ों के साधुओं के लिए आरक्षित कर रखा है? मुख्यमंत्री को यह घोषणा करनी चाहिए थी कि आम श्रद्धालु महाकुंभ में न आएं और कहीं और पवित्र स्नान करें। उन्होंने महाकुंभ का पूरे देश में प्रचार क्यों किया?"
मुख्यमंत्री ने दोष दूसरे पर मढ़ा
बुधवार की सुबह आदित्यनाथ ने अप्रत्यक्ष रूप से श्रद्धालुओं को दोषी ठहराते हुए कहा कि उन्हें संगम पर इकट्ठा होने की कोशिश करने के बजाय नदी के 12 किलोमीटर के हिस्से में अपने शिविरों के निकटतम स्थानों पर पवित्र डुबकी लगानी चाहिए थी।
"आज प्रयागराज (इलाहाबाद) में 8-10 करोड़ श्रद्धालु हैं। सुबह 8.30 बजे तक करीब 3 करोड़ लोगों ने पवित्र स्नान किया। मेला क्षेत्र में भीड़ का जबरदस्त दबाव था। रात 1 से 2 बजे के बीच कुछ लोगों ने अखाड़ा मार्ग पर बैरिकेड्स फांदने की कोशिश की और गंभीर रूप से घायल हो गए। मैं लोगों से अपील करता हूं कि वे अफवाह न फैलाएं और न ही अफवाहों पर ध्यान दें," मुख्यमंत्री ने सुबह 9 बजे लखनऊ में संवाददाताओं से कहा।
उन्होंने कहा, "मेला क्षेत्र में 20 अस्थायी घाट हैं और श्रद्धालुओं को संगम की नाक तक पहुंचने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। उन्हें नदी के किनारे जहां भी हो, वहीं स्नान करना चाहिए।" "मैंने साधुओं से बात की है और फैसला किया है कि भीड़ का दबाव कम होने पर वे अपना जुलूस निकालेंगे और अमृत स्नान करेंगे।"
बुधवार, 29 जनवरी 2025
महाकुंभ की भगदड में लगभग चालीस मरे संख्या बढने की आशंका - सरकार मौन
महाकुंभ की भगदड में लगभग चालीस मरे संख्या बढने की आशंका - सरकार मौन
सरकार नेअभी तक नहीं माना है कि महाकुंभ में कोई मरा है लेकिन समाचारों के अनुसार मौतै हुई है और सरकार ने कोई मुआवजा देने की घोषणा भी नहीं की है। सरकार मृतक हिन्दूओं को छुपा रही है।
महाकुंभ भगदड़ में 35 से 40 मौतें:करीब 20 शव परिजनों को सौंपे गए
प्रयागराज महाकुंभ में संगम तट पर मंगलवार-बुधवार की रात करीब डेढ़ बजे भगदड़ मच गई। इस हादसे में अब तक 35-40 लोगों की मौत हो चुकी है। 70 से ज्यादा लोग घायल हैं। मरने वालों की संख्या भी बढ़ सकती है।
भास्कर रिपोर्टर सृष्टि मेडिकल कॉलेज पहुंचीं, जहां हादसे में मारे गए लोगों के शव रखे गए थे। उन्होंने 20 शव गिने। यहां आखिरी डेडबॉडी पर 40 नंबर लिखा हुआ था।
इससे पहले मेडिकल कॉलेज में 14 शव पोस्टमॉर्टम के लिए लाए गए थे। फिर मेले से 8-10 एंबुलेंस से कुछ और शवों को लाया गया। इन्हें मिलाकर करीब 20 शव उनके परिजनों को सौंपे जा चुके हैं। वे उन्हें लेकर चले भी गए हैं।
वहां देखा तो 3 कमरों में लाशें पड़ी थीं। मैंने 20 लाशें गिनीं। इसके अलावा, जो डेडबॉडी का बैग होता है, उसमें सबसे बड़ा नंबर 40 लिखा था। यानी 40 शव वहां थे।
सरकारी व्यवस्था फेल भगदड काफी लोग मरे महाकुंभ में रुदन चालू
सरकारी व्यवस्था फेल भगदड काफी लोग मरे महाकुंभ में रुदन चालू
भीड इतनी कि लाशों के भी खोने का डर, परिजन हाथ पकड़े रहे
प्रयागराज के संगम तट पर आधी रात बाद भगदड़ मच गई। इसमें कितने श्रद्धालुओं की मौत हुई? और कितने घायल हैं? प्रशासन ने अभी तक कोई आंकड़ा जारी नहीं किया है।
स्वरूपरानी अस्पताल में मौजूद भास्कर रिपोर्टर के मुताबिक- 14 शव पोस्टमॉर्टम के लिए लाए जा चुके हैं। इससे पहले, केंद्रीय अस्पताल में फर्श पर 11 लाशें रखी थीं।
भगदड़ वाली जगह से भीड़ हटी तो वहां श्रद्धालु तड़पते दिखे। कोई अपनों की मौत पर वहां बैठकर रो रहा था तो कोई अपनों की तलाश में इधर-उधर भटक रहा था।
भगदड़ के बाद अपने परिजन का शव देखकर लोग चीखने लगे। लाशों के बीच अपनों को लोग तलाशते रहे।
भीड़ इतनी थी कि घटनास्थल पर एम्बुलेंस पहुंचने में काफी दिक्कत हुई। इससे पहले स्ट्रेचर पर लादकर शवों को हॉस्पिटल ले जाया गया।
प्रत्यक्षदर्शियों ने बताया कि भगदड़ के बाद लोग काफी देर तक वहीं पड़े रहे। घायल तड़पते रहे।
संगम घाट से स्ट्रेचर पर लादकर घायलों और शवों को हॉस्पिटल ले जाया गया।
हादसे के काफी देर बाद 70 से ज्यादा एम्बुलेंस संगम पर पहुंची।
स्ट्रेचर नहीं मिला तो पुलिस के जवान घायल महिला को उठाकर एम्बुलेंस तक ले गए।
ये भगदड़ के तुरंत बाद की तस्वीर है। कपड़े, बैग और कंबल चादर के बीच डेडबॉडी और घायल पड़े हुए हैं।
भगदड़ के बाद लोग अपने सामानों को समेटते दिखे।
पुल पर इतनी भीड़ और धक्का-मुक्की हुई की कई लोग खुद की जान बचाने के लिए पुल से नीचे उतर गए।
भगदड़ में घायल हुए लोगों को हॉस्पिटल ले जाने से पहले ही डॉक्टरों को अलर्ट कर दिया गया। अस्पताल में पब्लिक की एंट्री कुछ देर के लिए रोक दी गई।
मंगलवार, 28 जनवरी 2025
महान क्रांतिकारी श्रीपाद अमृत डांगे - जिन्हें उल्लू अभी भी समझ नही पाए
सुप्रसिद्ध चिंतक जगदीश्वर चतुर्वेदी अगले रविवार 2 फरवरी को नई दिल्ली में AITUC कार्यालय में एस.ए. डांगे की 125वीं जयंती के उपलक्ष्य में उनकी विरासत और जीवन पर चर्चा करेंगे।
वह चर्चा को आधार देने के लिए,वह यहां वर्ष के कार्यक्रमों के लिए घोषणा पत्र उपलब्ध कर रहे हैं:
घोषणा पत्र
श्रीपाद अमृत डांगे १२५वाँ जन्म वर्ष उत्सव
श्रीमान श्रीपाद अमृत डांगे एक महान स्वतंत्रता सेनानी,प्रखर देशभक्त , भारत में ट्रेड यूनियन एवं भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापकों में से एक और एक सामाजिक, राजनीतिक और आध्यात्मिक विचारक थे। उनका जन्म 1899 में महाराष्ट्र के नासिक में हुआ था। डांगे की चेतना पर बाल गंगाधर तिलक जैसे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के नेताओं ने गहरा प्रभाव डाला। वे अपने छात्र जीवन से ही स्वतन्त्रता संग्राम से जुड़ गए।
डांगे 1917 की ऐतिहासिक महान अक्टूबर रूसी क्रांति से भी प्रभावित हुए। इस प्रकार वे बीसवीं सदी के दो ऐतिहासिक आंदोलनों से प्रभावित हुए, एक तरफ विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन और दूसरी तरफ उपनिवेशवाद के खिलाफ लड़ाई विदेशी शासन से लड़ाई । उन्होंने न केवल इन दोनों आंदोलनों में भाग लिया, बल्कि उन्होंने इन्हें समझने और इनकी व्याख्या करने में अपनी रचनात्मक प्रतिभा लगाई। उन्होनें एक तरफ़ भारतीय जनता और गांधी जी के सत्याग्रह के बीच मेल देखा और दूसरी तरफ रुसी क्रांति की सफलता। श्री डांगे ने अपनी राजनीतिक सोच की शुरुआत गांधी और लेनिन के बीच तुलना करके की परन्तु बाकी ज़िन्दगी गांधी और लेनिन के विचारों के बीच सामान्य आधार खोजने और समन्वय ढूँढ़ने में लगाई।
इसी कारण से डांगे हमारे राष्ट्रीय आंदोलन के सबसे महत्त्वपूर्ण और प्रासंगिक राजनीतिक विचारकों में से एक हैं। इस वर्ष हम श्री डांगे का 125वाँ जन्म दिवस मना रहे हैं। डांगे की प्रासंगिकता भारतीय क्रांति के सिद्धांतकार के रूप में है । वह समझते थे कि भारत में क्रांतिकारी प्रक्रिया रूस और चीन की तरह नहीं होगी। न ही वे मार्क्स के सिद्धांतों को भारतीय संदर्भ में हठधर्मिता से लागू करने में विश्वास करते थे। इस वजह से, श्री डांगे के काम को समझकर हम भारतीय क्रांतिकारी प्रक्रिया के सही कालक्रम और विचार तक पहुँच सकते हैं। उनकी सोच हमें इस समय के अनेक सवालों पर मार्गदर्शन देती है। भारतीय राज्य व्यवस्था का स्वभाव क्या है और हम इस राज्य व्यवस्था के साथ भारतीय लोगों के रिश्ते को किस रूप में देख सकते हैं? हमें इस समय के क्रांतिकारी संघर्ष और 'समाजवाद' के बीच के रिश्ते को कैसे फिर से परिभाषित करना चाहिए?
डांगे ने भारतीय जनता के वास्तविक हालात का गहरा अध्ययन किया। वह भारतीय जनता की नब्ज़ को पहचानते थे और उनकी चेतना और गति समझते थे। इस वजह से डांगे भारत के लोगों और उनके नेता महात्मा गांधी के बीच द्वंद्वात्मक संबंध को देखने में सक्षम थे। इस मामले में, उनकी आजीवन सोच कम्युनिस्ट आंदोलन के अन्य विचारकों से अलग थी। उनहोंने गांधीजी को एक क्रांतिकारी के रूप में देखा, और उनके अहिंसक सत्याग्रह के तरीकों को भारतीय जनता के लिए सबसे उपयुक्त रणनीति माना। उन्हें भारतीय लोगों के प्रति गहरा प्रेम और उनकी क्षमताओं में विश्वास था।
डांगे को क्रांति की गहरी समझ थी। वह नहीं मानते थे कि भारतीय आजादी
एक बुर्जुआ क्रांति थी। उन्होंने इस क्रांति का साम्राज्यवाद-विरोधी होने का गुण और लोगों के बीच इसके आधार को देखा। उन्होंने देखा कि भारतीय परिस्थितियों की विशेषताओं के कारण एक अहिंसक क्रांति आवश्यक थी। साथ ही उन्होंने यह समझा कि भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का क्रांतिकारी उद्देश्य था ब्रिटिश औपनिवेशिक राज्य-व्यवस्था का शांतिपूर्ण अहिंसक ढंग से समाप्ती ।
स्वतंत्रता संग्राम के दौरान डांगे ने कम्युनिस्ट आंदोलन को कट्टरपंथी, अति-वामपंथी और ‘पेटी-बुर्जुआ’ विचारधारा से दूर धकेलने का प्रयास किया। इस तरह, उन्होंने तिलक, लाला लाजपत राय, सरदार वल्लभभाई पटेल जैसे कांग्रेस नेताओं को उनकी पुरानी सोच के बावजूद भी ब्रिटिश साम्राज्यवाद के साथ समझौता करते नहीं देखा। उन्होंने यह स्वीकार करने से इंकार किया कि पूँजीपति वर्ग पूरी दुनिया में एक है, और भारतीय राष्ट्रवादी पूँजीवादी वर्ग के जटिल रूप को गहराई से समझने की आवश्यकता देखी। उनका मानना था कि भारतीय लोगों में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने के लिए स्वतंत्रता संग्राम के समय सभी प्रगतिशील और क्रांतिकारी ताकतों को कांग्रेस के साथ मिलकर काम करना चाहिए।
आज़ादी के बाद, वे हिंसक तरीकों से राज्य सत्ता पर कब्ज़ा करने और "पूंजीपति वर्ग" को उखाड़ फेंकने के रोमांचक विचार नहीं रखते थे। बल्कि वह मानते थे कि इस लोकतान्त्रिक क्रांति को पूरा करने की ज़रुरत है जो शहादतों और मेहनत से हासिल की गई है. भारतीय राज्य व्यवस्था के साथ जुड़ कर लोगों के सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन के लिए काम करना होगा। डांगे की कार्यनीति भारतीय राज्य व्यवस्था की सटीक समझ पर आधारित थी। उन्होंने देखा कि भारतीय राज्य व्यवस्था को पुराने उदारवादी या साम्यवादी सिद्धांतों के आधार पर नहीं समझा जा सकता। यह समाज के ऊपर सिर्फ़ एक दमनकारी संरचना नहीं थी जिसका इस्तेमाल अन्यथा असभ्य लोगों को व्यवस्था देने के लिए किया जाए, न ही यह केवल वर्ग हितों का एक साधन थी। यह राज्य व्यवस्था भारतीय जनता की लोकतांत्रिक आकांक्षाओं को पूरा करने का एक साधन थी जिन्होनें स्वतंत्रता संग्राम के माध्यम से अपनी आवाज़ उठाने के लिए संघर्ष किया। इसलिए, डांगे ने भारतीय राज्य व्यवस्था द्वारा बनाए गए ढाँचे में लोकतांत्रिक क्रांति को जारी रखने के लिए लड़ाई लड़ी।
श्रीमती इंदिरा गांधी की सरकार के महत्त्वपूर्ण दौर में डांगे ने इंदिरा गांधी के अनेक कदमों जैसे बैंक राष्ट्रीयकरण, भूमि सुधार और पूंजी की मिल्कियत तथा राष्ट्रीय कर ढाँचे में सुधार का समर्थन किया । उन्होंने 1971 की भारत-सोवियत समझौते को एक प्रगतिशील और साम्राज्यवाद विरोधी कदम के रूप में देखा। उन्होंने इंदिरा गांधी के नेतृत्व को स्वतंत्रता संग्राम की विरासत को आगे बढ़ाते हुए पाया और उनके प्रति लोगों के प्रेम को पहचाना। उन्होंने कहा कि लोगों के दिल में इंदिरा जी के लिए एक विशेष स्थान था क्योंकि वह एक महिला नेता भी थीं। जब इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा की, तो उन्होंने इसे देश में अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसी/डीप स्टेट के साथ मिली हुई ताकतों द्वारा बनाए जा रहे अराजकता और “कलर क्रांति” के माहौल का मुकाबला करने के लिए एक आवश्यक कदम के रूप में देखा। वह अपनी इस समझ पर आजीवन बने रहे जिस कारण उन्हें उसी पार्टी से ही निष्कासित किया गया जिसकी स्थापना में उन्होंने अग्रणी भूमिका थी। इस मामले में, उनका जीवन निर्मला देशपांडे और कुछ हद तक अरुणा आसफ अली के जीवन के समान है। ये तीनों हस्तियाँ भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की वह शाखाएँ थीं जिन्होंने 'संपूर्ण क्रांति' के कृत्रिम दावों को पहचाना। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद भारतीय समाज और शासक वर्ग ने एक क्रांति-विरोधी और पश्चिम की ओर देखने वाला मोड़ लिया।
आज जब हम डांगे का मूल्यांकन कर रहे हैं, तो हम सोवियत संघ का पतन और भारतीय अर्थव्यवस्था के नवउदारवादी सुधार शुरू हुए 30 वर्ष से अधिक समय बीत चुका है। इन नवउदारवादी सुधारों ने हमारे स्वतंत्रता संग्राम के कुछ मूल्यों को नकारने की कोशिश की। हम ऐसा ऐसे समय में कर रहे हैं जब भारतीय अर्थव्यवस्था बढ़ रही है, लेकिन सांप्रदायिकता, धार्मिक भेदभाव , पहचान की राजनीति, गरीबी और असमानता माहौल है और यह निरन्तर बढ़ रहा है । इस समय में, हमें डांगे के एकता और संघर्ष के नारे को वापस लाना ज़रूरी है। हमें शांति और लोकतंत्र के पक्ष में सभी ताकतों को एकजुट करने के लिए काम करना चाहिए। साथ ही, हमें सही विचारों और भारत और दुनिया में राजनीतिक स्थिति की सही समझ के लिए संघर्ष करना चाहिए।
कुछ लोगों का मानना है कि प्राथमिक संघर्ष 'संविधान को बचाना' या उदारवादी अधिकार हासिल करना है, लेकिन हमें अपने स्वतंत्रता संग्राम के विचारों के अनुरूप भारतीय लोगों के लिए वास्तविक लोकतंत्र की लड़ाई लड़ना चाहिए। अवसरवादी गठबंधनों के बजाय, हमें उन विचारों के लिए संघर्ष करना चाहिए जो लोगों को एकजुट कर सकें। हमें भारतीय राज्य व्यवस्था को इस तरह से बदलने की कोशिश करनी चाहिए कि यह लोगों के प्रति अधिक जवाबदेह बने, गरीबी उन्मूलन करे और समाजवाद के सपने को साकार करे, जो अंततः वास्तविक लोकतंत्र है।
डांगे ने समझा कि हम भारत के बारे में कूपमंडूक बन कर नहीं सोच सकते और हमें भारत को विश्व इतिहास को बदलने में अपनी भूमिका निभाते हुए देखना चाहिए। इस सन्दर्भ में, हम आज एक ऐतिहासिक और रोमांचक समय में रह रहे हैं और आशा और उम्मीद के अनेक कारण मौजूद हैं। पश्चिमी देश, खासकर अमेरिकी राजनीति और समाज गहरे संकट के दौर से गुज़र रहे हैं। दूसरी ओर, ब्रिक्स के उभरते देशों के माध्यम से एक नयी लोकतांत्रिक विश्व व्यवस्था जन्म ले रही है। फिर भी, पश्चिम एशिया और पूर्वी यूरोप दोनों में संकट और युद्ध जारी है और परमाणु युद्ध की संभावना मंडरा रही है। जब दुनिया का प्रमुख “लोकतंत्र”, फिलिस्तीनी जनता के नरसंहार में सहायता देता है तो सवाल उठता है, “फासीवाद” असल में कहाँ है? बांग्लादेश का उदाहरण दिखाता है कि कैसे एक स्थायी लोकतांत्रिक समाज को, "फासीवाद" से लड़ने के नाम पर, विदेशी शक्तियों की मदद से अस्थिर किया जा सकता है। हमें इन युद्धों और अस्थिरता के पीछे असली अपराधी को पहचानना चाहिए और शांति के लिए संघर्ष करने में अपनी भूमिका निभानी चाहिए।
हमें भारतीय जनता को गहराई से समझने की कोशिश करनी होगी। आम भारतीयों को सांप्रदायिक या बहुसंख्यकवादी होने का दोषी ठहराने के बजाय, हमें उन ताकतों के खिलाफ लड़ना चाहिए जो उन्हें गरीबी में रखती हैं। हमें श्री डांगे की तरह लोगों के प्रति प्रेम की भावना से और उनमें एक बुनियादी विश्वास रख कर आगे बढ़ना होगा। लोगों के प्रति इस प्रेम के वजह से डांगे भारतीय परंपरा में रुचि रखते थे और वे भारतीय दार्शनिक परंपरा के बारे में खुलेपन से सोचते थे। हमें एकता, शांति, गरीबी उन्मूलन और एक नई विश्व व्यवस्था के लिए संघर्ष करना होगा। हमें अंततः भारतीय बच्चों के लिए लड़ना होगा ताकि वे भविष्य में अपनी पूरी क्षमता तक पहुँच सकें।
एस. ए. डांगे - एक इंटरव्यू
बिपिन चंद्रा
फरवरी 1984 में, मुझे कॉमरेड एस.ए. डांगे का इंटरव्यू लेने का अवसर मिला, जो आजीवन क्रांतिकारी रहे, जिन्होंने कभी भी दुनिया को वैसी स्वीकार नहीं किया जैसी वह थी और उन्होंने अपना पूरा जीवन मानवीय स्थिति को बदलने के लिए समर्पित कर दिया। भले ही कॉमरेड डांगे बुढ़ापे और खराब स्वास्थ्य की समस्याओं का सामना कर रहे थे, उनके इंटरव्यू से 1930-1948 की अवधि के बारे में एक गहरी, हालांकि बिखरी हुई, समझ प्रकट हुई ।
अपने 75 वर्ष से अधिक लंबे राजनीतिक जीवन में, डांगे भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन की सोच और व्यवहार में आवश्यक परिवर्तनों के प्रति लगातार जागरूक रहे। इसने उन्हें लगातार कुछ नया करने, आंदोलन का आलोचनात्मक मूल्यांकन करने और आंदोलन की कमजोरियों और अंधे तरीकों पर काबू पाने के लिए नए तरीकों की खोज करने के लिए प्रेरित किया। राष्ट्रीय जीवन और मजदूर वर्ग के आंदोलन में कम्युनिस्टों के योगदान के प्रति पूरी तरह जागरूक रहते हुए भी उन्होंने कभी भी आत्मसंतुष्ट दृष्टिकोण नहीं अपनाया। राष्ट्रीय जीवन के हर बड़े मोड़ पर - 1929-1930, 1936-37, 1942 और 1946-47 - उन्होंने राजनीतिक वास्तविकता के साथ तालमेल बिठाने का प्रयास किया।
वह उन कुछ भारतीय मार्क्सवादियों में से एक थे जिन्होंने भारत के राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन के रणनीतिक परिप्रेक्ष्य से जूझने की कोशिश की। सवाल यह नहीं है कि वह सही थे या ग़लत। अपने पहले ही प्रकाशित काम में उन्होंने गांधी को लेनिन के खिलाफ खड़ा कर दिया। बाद में उन्होंने माना कि यह गलत था। साथ ही, इस अपरिपक्व लेखन ने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की रणनीति का मूल प्रश्न भी खड़ा कर दिया। 1947 तक वे लगातार गांधी जी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय आंदोलन के राजनीतिक, आवामी और वैचारिक चरित्र का अन्वेषण करते रहे। 1947 के बाद, उन्होंने लोकतांत्रिक भारत के राजनीतिक ढांचे का सम्मान किया और इस रूपरेखा का देश में समाजवाद और लोकतंत्र के लिए संघर्ष के लिए क्या महत्त्व था।
डांगे अपने मज़ाक और तीखे व्यंग्य के लिए प्रसिद्ध थे। उनके इंटरव्यू में दोनों के उदाहरण सामने आए। उदाहरण के लिए, 1936 में राष्ट्रीय कांग्रेस के फैजाबाद सत्र में, कांग्रेस नेतृत्व द्वारा एक प्रस्ताव पेश किया गया था जिसमें आग्रह किया गया था कि भारत का संविधान संविधान सभा द्वारा बनाया जाए। डांगे ने एक संशोधन पेश करते हुए कहा कि संविधान सभा ऐसा केवल "सत्ता जीतने के बाद" करे। दक्षिणपंथी नेताओं ने संशोधन का विरोध करते हुए कहा कि यह रूसी क्रांतिकारी अनुभव पर आधारित था और इसलिए आंदोलन में विदेशी विचारधारा को पेश करने का एक प्रयास था। डांगे के जवाब पर चारों ओर हंसी गूंज उठी, जिसमें कांग्रेस अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू सबसे आगे थे, "कृपया मुझे बताएं कि "संविधान सभा' शब्द किस वैदिक विचारधारा से आया है?" इसी तरह, उन्होंने 1983 में बॉम्बे टेक्सटाइल हड़ताल के दौरान दत्ता सामंत से कहा; “क्या आप कम से कम कथा साहित्य पढ़ते हैं? कृपया कुछ पढ़ें।” वह इस बात से भयभीत थे कि एक श्रमिक नेता कम पढ़ता है और, जैसा कि उन्होंने कहा, "शिक्षित लोग असंस्कृत और साहित्य के बारे में अशिक्षित बने हुए हैं।" एक और किस्सा उन्हीं के शब्दों में: “...भारत में सामान्य चीजें बहुत कम लोग पढ़ते हैं। वे मुझे अगाथा क्रिस्टी पढ़ते हुए पाते हैं और वे मुझ पर हंसते रहते हैं। 'आप अगाथा क्रिस्टी को क्यों पढ़ रहे हैं?' मैंने कहा क्योंकि 'क्यूंकि मैं आप सभी को भूलना चाहता हूं।'
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गांधीजी और भारत के राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम में उनके नेतृत्व के पहलुओं के बारे में कॉमरेड डांगे के विचार बेहद ताज़ा और रचनात्मक थे।
गांधीजी के बारे में उन्होंने विश्लेषण उन्होंने इस तरह शुरू कि "महात्मा गांधी को हमेशा जन अभियान से प्रेरणा मिलती थी," और वे अकेले ही "जनता को गति दे सकते थे।" यह आकस्मिक नहीं था कि जिस लेख के साथ गांधीजी ने 1942 का आंदोलन शुरू किया था उसका शीर्षक था "द लायन शेक्स द मेन"। वास्तव में, डांगे ने कहा, गांधीवादी गांधी को नहीं समझते हैं "क्योंकि वे उन्हें केवल एक अहिंसक पैगंबर के रूप में सोचते हैं।" दूसरी ओर, डांगे उन्हें "एक वास्तविक क्रांतिकारी मानते थे जो यदि आवश्यक हो तो हिंसा का उपयोग करने में संकोच नहीं करेगा". गांधी ने 1942 में जनता को हिंसा के लिए उकसाने के वायसराय के आरोप का जवाब 1943 में दिया था, की जनता की हिंसा अँगरेज़ सरकार की “लियोनी हिंसा” का जवाब था। यानी यह “आपकी हिंसा का प्रतिरूप” था। “यह (जनता की हिंसा का) की सफाई देने का प्रयास नहीं है तो और क्या है?” डांगे ने पूछा।
डांगे के अनुसार, एक शब्द में कहें तो गांधीवादी राजनीति और रणनीति का मूल उद्देश्य ब्रिटिश (औपनिवेशिक) राज्य व्यवस्था को नष्ट करना था। यह एक और कारण था कि गांधी को एक क्रांतिकारी के रूप में देखना सही था। गांधीजी पर प्रमुख कम्युनिस्ट दृष्टिकोण पर व्यंग करते हुए डांगे ने कहा: “यह फैक्ट्स पर भी फिट नहीं बैठेगा। महात्मा गांधी हर बार क्रांति को धोखा देते हैं, और यहां वह बार-बार क्रांति शुरू करते हैं।”
डांगे का गांधीजी और अहिंसा पर भी कुछ कहना था। चीन से अलग, जहां सन यात-सेन ने एक गणतंत्र से शुरुआत की थी और सरदारवाद के कारण किसानों के पास हथियार थे, भारत में किसान बेहथियार थे। इसके चलते गांधीजी ने संघर्ष का एक अनोखा रूप, अहिंसा और सत्याग्रह अपनाया। यह सही था "उन परिस्थितियों में जिनमें हम पूरी तरह से बेहथियार थे।" इन परिस्थितियों में, "कोई अन्य रास्ता नहीं था"।
गांधीजी द्वारा आंदोलनों को वापस लेने और 1931 में गांधी-इरविन समझौते के रूप में समझौता करने के संबंध में, डांगे सबसे तीव्रबुद्धि थे। डांगे ने कहा, गांधी ने आंदोलन वापस ले लिया और समझौता तभी किया, जब उन्होंने देखा कि आंदोलन नीची ढलान पर है। एक सामान्य टिप्पणी करते हुए, डांगे ने कहा: “उन्होंने (गांधी) जब भी देखा कि जनता का मूड खराब हो रहा है, उन्होंने हमेशा समझौता किया। उन्होंने कभी अपने आप से समझौता नहीं किया, सिर्फ तभी जब उन्होंने देखा कि जनता थक गयी है”। 1931 में गांधी-इरविन समझौते का विशेष रूप से उल्लेख करते हुए, जिसके वजह से 1930 का नमक सत्याग्रह ख़तम कर दिया गया था, डांगे ने कहा, “इसके लिए वजह यह थी कि वह देख रहे थे कि विद्रोह नीचे की ओर जा रहा था। एक रणनीतिज्ञ होने के नाते वह किसी आंदोलन के पूरी तरह ख़त्म हो जाने के बाद उसे ख़त्म नहीं करना चाहते थे।” इस संबंध में उन्होंने कहा कि यह कहना "सभी अन्यायपूर्ण" था, जैसा कि रजनी पाल्मे दत्त ने बाद में लिखा, कि गांधी ने पूंजीवादी दबाव के तहत समझौता किया था। डांगे ने बताया कि यह एक और सवाल था जिस पर वह उस समय कम्युनिस्ट आंदोलन के भीतर अलग-थलग थे, क्योंकि उन्होंने गांधी-इरविन समझौते को "रणनीति, युद्ध की रणनीति" के रूप में देखा था। वास्तव में, यदि आंदोलन नीचे की ओर जा रहा है तो यह दिखावा करने का कोई मतलब नहीं है कि एक व्यक्ति अकेला झंडा लेकर चल रहा है।''
डांगे ने 1932-34 के जन आंदोलन की वापसी पर चर्चा करके गांधी के राजनीतिक नेतृत्व के इस पहलू के साथ-साथ जनता के प्रति उनके दृष्टिकोण को भी चित्रित किया। उन्होंने बताया कि जब गांधीजी ने 1934 में आंदोलन बंद कर दिया तो "कोई आंदोलन नहीं बचा था (और) आंदोलन 1933 में समाप्त हो गया था"। लेकिन गांधी ने जनता को दोष नहीं दिया। इसके बजाय उन्होंने जो कारण बताया वह यह था कि "बिहार की जेल में एक प्रसिद्ध सत्याग्रही ने भूख हड़ताल पर रहते हुए एक कप दूध या चाय पी ली थी और इसलिए मैं आंदोलन बंद कर रहा हूं"। कई लोग ऐसे नेता को, ऐसा कारण बताने के लिए, "पागल आदमी" कहेंगे; लेकिन, डांगे ने कहा, गांधी "पागल आदमी नहीं थे"। उन्होंने ऐसा अजीब कारण बताया क्योंकि "वह जनता को दोष नहीं देंगे, वह नेताओं, कार्यकर्ताओं या किसी को भी दोष नहीं देंगे"। "ऐसे", डांगे ने कहा, "ऐसे थे वह आदमी"।
डांगे ने उस समय चल रही कपड़ा हड़ताल के नेताओं की कमजोरी (फरवरी 1984 में इंटरव्यू के समय) का जिक्र करके गांधीवादी नेतृत्व की इस विशेषता को दर्शाया। उस स्तर पर हड़ताल की विफलता की भविष्यवाणी करते हुए, उन्होंने कहा कि इसका परिणाम यह होगा क्योंकि नेताओं को "समझ नहीं आया कि हड़ताल कब रोकें और इसके बारे में समझौता करें...आप हड़ताल को एक साल तक नहीं खींच सकते।" यह सपना है, और कुछ नहीं।”
डांगे ने स्पष्ट रूप से स्वीकार किया कि 1930 के दशक की शुरुआत में, वह भी महात्मा गांधी को पूंजीपति वर्ग का प्रवक्ता मानते थे क्योंकि उन्होंने पूंजीपति वर्ग को नहीं छोड़ा। लेकिन डांगे तब भी देख सकते थे कि गांधी "अकेले ही जनता को आंदोलन में डाल सकते हैं" और गांधी "एक ज्वालामुखी हैं (और) जब तक वह भारत में अब शुरू नहीं करते, कोई भी आंदोलन शुरू नहीं होगा, चाहे वह बोल्शेविक हो, कम्युनिस्ट हो, श्रमिक हो, किसान हो, कांग्रेस या कुछ और'' बाद में उन्हें यह भी एहसास हुआ कि क्यूंकि गांधी हड़तालों के विरोधी थे, इसलिए उन्हें मजदूर वर्ग विरोधी नहीं माना जाना चाहिए। वास्तव में, "उनकी दरिद्र नारायण परिभाषा में सभी शामिल है"।
डांगे ने गांधी की राजनीति की दो अन्य विशेषताओं पर भी ध्यान दिया। गांधी ने "कम्युनिस्टों के खिलाफ कभी नहीं लिखा" भले ही वह हिंसा पर कम्युनिस्टों के आग्रह से सहमत नहीं थे। दूसरा, गांधी को समझने के लिए किसी को इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि वह स्थिर नहीं थे, उन्होंने लगातार प्रगति की, जैसा कि 1929 में हिंसा की स्थिति में आंदोलन को न रोकने के उनके आश्वासन या 1943 में वायसराय को उनके जवाब से पता चलता है।
डांगे ने कांग्रेस के दक्षिणपंथ के मूल्यांकन की समस्या पर भी नई सोच प्रदान की। उन्होंने कहा कि कम्युनिस्टों ने सरदार पटेल और राजेंद्र प्रसाद जैसे कांग्रेस नेताओं को "गलत समझा"। “हमने उन्हें साम्राज्यवाद-विरोधी होने का श्रेय नहीं दिया। यह एक बुनियादी बात है। हो सकता है कि वे सुधारवादी, उदारवादी और ऐसे ही कुछ थे, लेकिन हमने कभी-कभी उनके बुनियादी दृष्टिकोण को नहीं मन - चाहे वे बिल्कुल ही ब्रिटिश विरोधी हों। वह अवैज्ञानिक था क्योंकि प्रत्येक पूंजीपति अपने लिए एक नियम चाहता था। इसलिए यह आशा करना कि वे ऐसा नहीं करेंगे और यह भी चाहेंगे कि अंग्रेज बने रहें, मूर्खता थी। और वह अति वामपंथ और उसकी मूर्खता की पराकाष्ठा थी”।
वह जमाना चला गया
एस ए डांगे
[श्री एस. ए. डांगे, भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के संस्थापक विश्व के सबसे अधिक वयोवृद्ध कम्यूनिस्ट नेता, आल इन्डिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस के भू.पू. अध्यक्ष, भूतपूर्व सांसद, स्वतन्त्रता सेनानी, मार्क्सवादी विचारक तथा लेखक, संस्कृत विद्वान।
नित्यनूतन के विशेष संवादाता बम्बई जाकर श्री डांगे से मिले । 1977 की कांग्रेस की हार के बाद, दिल्ली में हुई पहली आम सभा में मंच पर इन्दिरा जी के साथ बैठे थे एक ही नेता, श्री डांगे । उसी समय की एक तस्वीर दीवार पर टंगी थी। छियासी साल की उम्र में भी श्री डांगे की पैनी बुद्धिमत्ता, विनोदप्रियता तथा बातचीत का सहज ढंग किसी को भी प्रभावित किये बगैर नहीं रह सकता, प्रस्तुत हैं उसी भेंट वार्ता के कुछ अंश ]
नित्यनूतन संवादाता - सुना हैं कि 'इन्दिरा जी बम्बई में इसी मकान में आपसे दो तीन बार मिलने आयी थीं । इन्दिराजी से आपका वर्षों का परिचय है आप उनसे सबसे पहले कब मिले थे ?
डांगे- पण्डित नेहरू जब प्रधानमन्त्री थे, तब उनसे मिलने मैं तीन मूर्ति कभी-कभी जाता था। उस समय इन्दिरा जी हमारी बातचीत में सम्मिलित नहीं होती थी । पंडित जी ने चाय-मंगवाई तो भेज दिया करती थीं। उनसे मिलना अधिक हुआ उनके प्रधानमंत्री बनने पर। उस समय मैं संसद सदस्य था। बंगलादेश के बनने पर उन्हीं को बताकर मैं ढाका गया था। मुजीब साहब तथा वहां के कम्युनिस्ट नेताओं से मिला। लड़ाई से पहले एक बार जयप्रकाश जी मुझसे मिले और उन्होंने कहा कि इन्दिराजी से कहिये कि पूर्व पाकिस्तान में अपनी फौज भेजे। मैंने जवाब दिया कि मैं कुछ नहीं कहूंगा। वे ठीक समय पर ठीक निर्णय लेंगी। उनके सलाहकार की भूमिका अपनाना मुझे मंजूर नहीं है। क्योंकि मेरा विश्वास है कि वे बिल्कुल सही निर्णय लेंगी।
नि. सं. - नेहरू जी और इन्दिरा जी की तुलना की जाये तो क्या नजर आयेगा ?
डांगे- नेहरू जी का जमाना अलग था इन्दिरा जी का जमाना बिल्कुल अलग। हां यह लड़की ज्यादा जिद्दी जरूर थी वे सोवियत यूनियन के नेताओं को कई बार ऐसी खरी- खरी सुनाने वाली पत्र लिखती जिनके वे आदी नहीं थे। एक बार मैंने उनके एक नेता से हंसते हुए कहा, आप प्रोटेस्ट (निषेध) क्यों नहीं करते ? तो वे बोले उससे क्या लाभ होगा ? वह कभी किसी की सुनती थोड़े ही हैं । सोवियत यूनियन में पण्डित जी का बहुत असर था। अपनी सोवियत यूनियन की यात्रा समाप्त कर भारत लौटते समय पण्डित जी ने कहा था मैं अपने दिल का एक टुकड़ा यहां छोड़कर जा रहा हूं इसका वहां पर गहरा असर हुआ । पण्डित जी केवल राजनीतिझ नहीं थे कवि भी थे । पर इन्दिरा जी का सोवियत यूनियन पर डबल प्रभाव था क्योंकि वे थीं महिला ।
श्री डांगे जी के साथ सभी हंस पड़े, डांगे जी आगे बोले, जिस तरह उस देश की आम जनता इन्दिरा जी के दर्शन के लिए उमड़ पड़ती थी वह अब शायद ही किसी को नसीब होगा । दैट एज इज गान, वह जमाना अब चला गया।
नि. स.- उन दोनों में कौन-सी ऐसी बात थी, जिससे कि लोग उनकी ओर आकर्षित होते थे ?
डांगे- उनके शासन में पाइगनुर आप्रेशन (दर्दनाक दमन) कभी नहीं रहा । वैसे सभी बुर्जुवा देशों में भ्रष्टाचार रहता ही है तो यहां पर भी है । लेकिन वे दोनों स्वयं भ्रष्टाचारी कतई नहीं थे। बात ऐसी है कि इस देश को चाहिए जवाहरलाल नेहरू इन्दिरा गांधी । यह देश उनका आदी बन गया था । उन दोनों में कुछ ऐसी बात थी समथिंग अन्डिफाइन्ड [ कुछ ऐसा जिसकी परिभाषा नहीं की जा सकती ] जिसका इस देश पर गहरा असर हुआ। वैसे यह लड़का (राजीव गांधी) भी ठीक चल रहा है। धीरे-धीरे वह उस देश की समस्याओं को समझेगा |
नि. स. - इन्दिरा जी की सफलता क्या थी ?
डांगे – उसके एडिमिनेस्ट्रेशन (प्रशासन) पर उसका पर्सनल कलर (व्यक्तिगत रंग) चढ़ा था। वे लिवरल (उदार) जनरस (दरिया दिल ) थीं और महिला भी । एक महिला का भारत जैसे विशाल देश की प्रधानमंत्री बनना एक अनोखी अद्भुत चीज थी, जिसका रंग सब पर चढ़ा था। अब यही देखो कि अभी तक हमारे देश में महारानी विक्टोरिया की बात सुनायी जाती हैं, अडेव या जार्ज का कोई जिक्र नहीं करता। उसी तरह आगे आने वाली पीढ़ियां इन्दिरा गांधी की बातें सुनाया करेगें और किसी की नहीं हां एक अपवाद रहेगा पंडित की स्वयं ।
इन्दिरा के चेलों ने और साथियों ने गड़बड़ की और 1977 की हार हुई। जिस कारण देश को बहुत कीमत चुकानी पड़ी अगर इन्दिरा बनी रहती तो खूब जोरदार हमला करती पुरानी समाज व्यवस्था पर एक बार उन्होंने मुझसे भूमि सुधार के बारे में पूछा था । मैंने कहा 'यू आर लिब्रेटिंग लैण्ड लेस लेबर (आप भूमि हीन मज़दूरों को बन्धनों से मुक्ति दिला रही हैं ।) लेकिन यह काम बनना सम्भव नहीं दिखता, क्योंकि जमींदार वर्ग आज भी बहुत प्रभावशाली है। आप अभी तक उनके पंख काट नहीं पाई हैं, जिन बन्धुआ मजदूरों को आप मुक्ति दिला रहीं हैं उनके लिये काम देने का इंतज़ाम नहीं किया गया है । बात ऐसी है हमारी आजादी के बाद अमेरिका ब्रिटेन की जगह लेना चाहता था और हमारी ब्यूरोक्रेसी ( अफसर शाही) भी हावी है हम पर । लेकिन इन्दिरा जी ने उनका प्रभाव कम किया था। भारत की असली शान दोनों बाप-बेटी के जमाने में रही । अब चिंता लगी रहती है कि इन्दिरा के जाने के बाद कहीं सभी क्षेत्रों में प्रगतिशील दिशा की रफ्तार कम न पड़ जाए ।
नि. सं. - इंदिरा जी १९७७ में क्यों हारीं ?
डांगे – इलेक्शन इज ए ट्रिक, इट इज नाट ने वेसरिली मेजर (चुनाव एक तरकीब है, उसे हमेशा एक पैमाना नहीं माना जा सकता) एकाध परसेंट से भी कोई हार सकता है ।---......उस समय इन्दिरा जी की लोकप्रियता समाप्त नहीं हुई थी कुछ कम हुई थी उनके चेलों ने उन्हें धोखा दिया । जयप्रकाश नारायण के द्वारा रचे गए षड़यन्त्र का इन्दिरा जी ने पर्दाफाश क्रिया । पर इन्दिरा जी के अपने ही अनुयायी उनके लिये समस्या बन गये, जो उनकी हार के लिए जिम्मेदार हैं।
नि. सं. - 1980 में इन्दिरा जी फिर से सत्ता में कैसे आ सकीं ?
डांगे - लोगों के सामने दूसरा अच्छा कोई पर्याय ही नहीं था। (हंसते हुए) उन्होंने देखा कि सारे मर्द बेकार साबित हुए। यह महिला ही सबसे अच्छी है । वैसे भारत का इतिहास भी इस बात का साक्षी है कि उसी तरह पुरुषों की लाइन को अस्वीकार कर महिलाओं के शासन को स्वीकार, कई बार किया गया है। चाहे महिला राजगद्दी पर बैठे या न बैठे, शासन उसी का चला है भारत की महिलायें पुरुषों से अधिक बुद्धिमान और सक्षम रही हैं। मराठों के इतिहास में शिवाजों की माता जीजाबाई बहुत अच्छे ढंग से शासन चलाती रही। उसका एक अलग आसन था। जहाँ से न्याय दिया करती थी। भारत के इतिहास की उस परम्परा का सर्वोतम रूप इन्दिराजी में निखर उठा । आज तक के इतिहास में न कभी इतना विशाल देश एक शासक के अन्त गत रहा न कभी इतना विराट् जनसमूह एक साथ रहा।
इन्दिरा जी बातें सबकी सुनती थी पर दिमाग उनका अपना ही चलता था वे इतनी उदार थीं कि और सबके साथ अच्छा व्यवहार रखती थी कि ऐसा सत्ताधीश अब नहीं मिलेगा उन्होंने जीवनभर अच्छी शिक्षा पायी, गांधी जी के साथ, पन्डित जी के साथ अन्य सभी बड़े नेताओं के साथ रहने का उन्हें अवसर मिला। इतनी बड़ी हुकूमत उनके हाथ में थी पर उन्होंने सन्तुलन कभी खोया नहीं। पण्डित जी के साथ भी यही बात थी। मोतीलाल जी के हाथ में सत्ता नहीं थी पर वे उस समय भी शान से रहते थे । लगता था जैसे हुकूमत उन्हीं के हाथ में हो । अंग्रेज गर्वनर उनके साथ हमेशा मित्रता का सलूक करता रहा । उन सभी में एक अजीब-सा गुणों का समिश्रण था ।
नि. सं. - क्या इन्दिरा जी की हत्या को रोकना सम्भव था ?
डांगे - अमेरिका का उसमें हाथ था, उसके बिना किसी प्रधानमन्त्री की हत्या होना सम्भव ही नहीं है । अमेरिका को लगा कि अब यह महिला बहुत ज्यादा शक्तिशाली बन रही हैं जो उनके लिये भारी पड़ रहा था । अमरीका चाहता था कि उसका वजन बढ़े। पर इंदिराजी ने बढ़ने नहीं देती। दोनों महाशक्तियां चाहती थीं कि अपना वजन बढ़ें पर इन्दिरा जी बताया कि भारत कोई छोटा देश नहीं है यह महान देश है। इन्दिरा जी थी धर्मनिरपेक्ष, तो सम्प्रदायवादी सिखों को उनकी लाइन कैसे जंचती ? सवाल धर्म या सम्प्रदाय का नहीं था अन्तरराष्ट्रय राजनीत का था ।
नि.स. - चीन भारत युद्ध के समय क्या नेहरू जी से आपकी भूमिका भिन्न थी ?
डांगे- उस समय कई नेताओं ने पन्डित जी से कहा कि कम्यूनिस्ट पार्टी को गैर कानूनी करार दिया जाए । सभी कम्यूनिस्टों को गिरफ्तार किया जाय। मैं उस समय कलकत्ते में था। हमारी पार्टी ने तब तक लड़ाई के बारे में कोई निर्णय नहीं लिया था । दिल्ली लौटने पर मैंने पार्टी क बैठक बुलायी । पन्डित जी पर काफी दबाव सा आ रहा था । लेकिन उन्होंने कहा 'लेट अस वेट एण्ड सी व्हाट हैपन्स टू डागेंज लाइन' [हम जहा प्रतीक्षा करें और देखें कि डांगे की लाइन मानी जाती है या नहीं ] उन्हीं दिनों में मैंने उनसे कहा कि मैं सोवियत यूनियन जाना चाहता हूं । उन्होंने कहा ठीक है जाइये । मैंने पूछा कि वहां पर क्या किया जाए तो उन्होंने कहा कि वे तटस्थ रहें तो भी काफी है । उस समय उनके लिए और हमारी पार्टी के लिये भी कभी उलझन थी । सोवियत यूनियन जाने पर मुझे पता चला कि वे केवल तटस्थ नहीं रहे, बल्कि उन्होंने कई ऐसे काम किये जिससे भारत की सहायता हुई ।
पन्डित जी और इन्दिरा जी के लिए मेरी एक व्यक्तिगत भावना रही है । बिना बुलाये मैं कभी उनसे मिलने नहीं जाता था और न सलाह देता था । मेरा विश्वास था कि साधारणतया वे जो भी करेंगे, ठीक ही करेंगे । जब डांगे जी से पूछा गया कि आप दिल्ली कब आ रहे हैं तो उन्होंने दर्द भरी आवाज में कहा, ‘अब किससे मिलने दिल्ली आऊं ?'
गुरू गोरख नाथ मठ - बौद्ध परंपरा से सनातनी कुंभ परंपरा तक
गुरू गोरख नाथ मठ .
( बौद्ध परंपरा से सनातनी कुंभ परंपरा तक )
यह लेख आप सभी को निश्पक्ष होकर पढ़ने पर कुछ सोचने को बाध्य जरूर करेगा.
गुरु गोरखनाथ जी बौद्ध बौद्ध परंपरा के बहुजन दार्शनिक गुरु मत्स्येन्द्र नाथ के शिष्य थे। गोरखनाथ के शिष्य भैरो नाथ थे जिनकी लड़ाई हिंदू वैष्णो देवी से हुआ था और वह इस लड़ाई में शहीद हुये। अब गोरखनाथ मठ पर योगी का कब्जा है। गुरु मत्येंद्र नाथ का संबन्ध मछुआरा समुदाय से है। अगर देखा जाये तो चौरासी सिद्धों में कालपा लुहार जाति से थे, चमरिपा चमार जाति से थे, धोमिप्पा धोबी जाति से थे। सिक्किम में बौद्ध भिक्षुओं को करमापा कहा जाता है और सिद्ध सन्तों के नाम में "पा" अक्षर जुड़ा हुआ है। गुरु गोरखनाथ के नाम से नेपाल में गोरखा समुदाय के लोग हैं जिनके नाम पर गोरखा रेजिमेंट बना है। गोरखपुर नेपाल से सटा हुआ जिला है।
नाथ समुदाय के जोगी जनरली बहुजन समुदाय से ही होते हैं। उत्तर भारत में इसी समुदाय से जोगी बने लोग हाथ में सारंगी लेकर गाँव-गाँव गुरु मत्येंद्र नाथ और गुरु गोरखनाथ के दर्शन को अपने लोक गीतों के माध्यम से लोगों को समझाते व बताते थे। जिसमें राजा भृतहरि का नाम अक्सर आता है। यह जोगी अब कम संख्या में दिखाई देते हैं। लेकिन सवर्णों में इनकी कोई विसात नहीं है इसीलिए नाथपंथी जोगी बहुजनों की ही बस्तियों में भिक्षाटन के लिए जाते रहे हैं।बचपन में मेरे गांव मे अक्सर दिखते रहे लेकिन अब नही दिखते। बहुजन दर्शन का इतिहास आजीवक, जैन, बौद्ध, सिद्ध, नाथ, सतगुरु रविदास, सतगुरु कबीर, फुले, पेरियार, अंबेडकर इत्यादि तक यह आंदोलन आज भी गतिमान है।
जिस तरह से बहुत से बुद्ध विहारों पर सवर्ण समुदाय का कब्जा है और कुछ जगह बुद्ध की मूर्ति को देवी देवता बनाकर प्रचारित किया जाता रहा है। बहुजन संघर्ष से उपजी उपलब्धियों को हथियाने के लिए सवर्ण समाज तरह-तरह से धार्मिक व राजनीतिक षड्यंत्र करता रहा है।
योगी आदित्यनाथ बौद्ध भिक्खू अथवा हिंदू साधू ?
योगी आदित्यनाथ जी "गुरु गोरखनाथ मठ" के महंत हैं। गुरु गोरखनाथ बौद्ध धम्म की तंत्रयान शाखा के प्रमुख आचार्य थे। उनकी महानता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उनके नाम पर जिले का नाम गोरखपुर रखा गया । गुरु गोरखनाथ का मठ वस्तुतः एक बुद्ध विहार है। मठ में बुद्ध मूर्ति आज भी देखी जा सकती है। इसके अतिरिक्त गर्भ गृह में बुद्ध विरासत भरी पड़ी है। बौद्ध भिक्खू और हिंदू साधू में अंतर
बौद्ध भिक्खू-
(1) सिर पर बाल नहीं रखते हैं।
(2) दाढ़ी और मूंछ नहीं रखते हैं।
(3) गले में माला धारण नहीं करते हैं।
(4) ललाट(माथे) पर चंदन ,भस्म आदि का लेप/ तिलक नहीं लगाते हैं।
हिंदू साधु-
(1) सिर पर बड़े-बड़े बाल/जटाएं होती हैं।
(2) दाढ़ी और मूंछ बड़े- बड़े होते हैं।
(3) गले में रुद्राक्ष की मालाएं होती हैं।
(4) माथे/ललाट पर चंदन /भस्म की तिलक & लेप लगा होता है।
योगी आदित्यनाथ का लक्षण बौद्ध भिक्खू से क्यों मिलता है ? क्योंकि योगी आदित्यनाथ कोई और नहीं बल्कि बौद्ध भिक्खू ही है।
आप सोच रहे होंगे कि योगी आदित्यनाथ बौद्ध भिक्खू होने के बाद भी ब्राह्मणवादी व्यवस्था का पोषक क्यों है?
युद्ध शास्त्र का एक सिद्धांत है की जब दुश्मन इतना ताकतवर हो जिसे आमने-सामने के युद्ध में परास्त ना किया जा सके तो घुसपैठ करके आसानी से खत्म किया जा सकता है। मोदी सरकार और योगी आदित्यनाथ के मठ को जब अरबों खरबों में विदेशी फंडिंग लेनी होती है तो बौद्ध राष्ट्रों में जाकर प्रबोधन करते हैं कि बुद्ध के बताए हुए "आर्य अष्टांगिक मार्ग" पर चलकर ही विश्व का कल्याण हो सकता है। यह बोलकर अकूत संपत्ति भारत में लाया जाता है और फिर ब्राह्मणवादी व्यवस्था को मजबूत किया जाता है। ब्राह्मणवादी लोगों की घुसपैठिया नीति आज की नई नीति नहीं है।
1- सिंधु घाटी सभ्यता में घुसपैठ कर उसे खत्म किया।
2- मौर्य साम्राज्य में घुसपैठ कर उसका विनाश किया
3- बौद्ध धम्म में घुसपैठ कर संघ का विनाश किया
4- संतों गुरुओं महापुरुषों के द्वारा चलाए गए आंदोलन में घुसपैठ कर मुक्ति आंदोलन को भक्ति आंदोलन में परिवर्तित करके विनाश किया।
5- फुले, शाहू,अंबेडकरी आंदोलन को महापुरुषों के मृत्यु के उपरांत घुसपैठ की नीति अपनाकर खत्म किया आंदोलन की विचारधारा और उद्देश्य की हत्या कर दी गई।
विचारधारा/ उद्देश्य किसी भी आंदोलन का प्राण तत्व होता है। (विचारधारा & उद्देश्य) हीन आंदोलन मुर्दे के समान होता है। जिसका अस्तित्व तो होता है परंतु परिवर्तन करने में असमर्थ हो जाता है।
सनद रहे - जब 85% का व्यक्ति 15% के खेमे में जाता है तो वह अपने निजी स्वार्थ को साधने हेतु जाता है। अपने ही समाज का विनाश जितना करेगा उसी अनुपात में उसका स्वार्थ सिद्धि होगा। 15 % का व्यक्ति 85% के खेमे में बहुत ही गहरी साजिश के तहत आता है। वह अपना निजी स्वार्थ तो सिद्ध करता ही है। अपने समाज का भी हित साधता है। आपके आंदोलन को तहस-नहस करता है।
किसी पार्टी/ संगठन के लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंचाना हमारा उद्देश्य नहीं है।
*"नाथ सम्प्रदाय की हत्या: एक मठ और तीन महंत; नाथ सम्प्रदाय से आधुनिक साम्प्रदायिकता तक की संक्षिप्त कथा"*
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नाथ सम्प्रदाय की मठ परंपरा के संस्थापक गोरखनाथ माने जाते हैं. गोरखनाथ के गुरु थे मत्स्येंद्रनाथ जिनका संबंध मत्स्यि यानी मछुआरों से था.
गोरखनाथ का इतिहास देखेंगे तो इतना घपला मिलेगा कि आप दंग रह जाएंगे. उनके जन्म के बारे में तमाम कथाएं है जिनमें यह तय करना मुश्किल है कि कौन सी वाली सही है. जो सबसे प्रचलित कथा है, उसके अनुसार उनका जन्म मत्स्येंद्रनाथ की कृपा से हुआ था.
मत्स्येन्द्रनाथ ने एक निःसन्तान महिला को बच्चा होने के लिए भभूति दी. महिला ने भभूति गोबर के ढेर पर डाल दी और चलती बनी. 12 वर्ष बाद मत्स्येन्द्रनाथ को वो महिला मिल गई. बाबा ने उससे उसकी संतान के बारे में पूछा. झेंपकर उसने गोबर वाली बात बताई. मत्स्येन्द्रनाथ झल्ला उठे. उन्होंने गोबर के ढेर के पास आवाज़ लगाई और वहां से एक 12 वर्ष का लड़का सामने आया. मत्स्येन्द्रनाथ ने इस लड़के का नाम रखा गोरखनाथ.
इन्हीं महंत गोरखनाथ के नाम पर गोरखपुर को उसका नाम मिला. इन्ही के नाम पर गोरखनाथ मठ की स्थापना हुई. इन्हीं के चेले थे राजा गोपीचंद और भर्तृहरि.
जोगियों के अनुसार गोपीचंद ने सारंगी का अविष्कार किया तथा राजा भर्तृहरि वो व्यक्ति थे जिन्होंने गोरखनाथ के प्रभाव से राजपाठ छोड़ दिया. जोगी आज भी अपने गीतों में इनका उल्लेख करते हैं.
पहली अहम बात की गोरखनाथ की जन्म को छिपाया गया , साजिश के तहत कबीर , रैदास की तरह उनको ब्राह्मण के पेट से पैदा बताया जाता है.
दूसरी जो सबसे अहम बात है- गोरखनाथ ने ब्राह्मणवाद, बौद्ध परम्परा में अतिभोगवाद व सहजयान में आई विकृतियों के खिलाफ विद्रोह किया. हिंदू-मुसलमान एकता की नींव रखी और ऊंच-नीच, भेदभाव, आडम्बरों का विरोध किया. यही कारण है कि नाथ सम्प्रदाय में बड़ी संख्या में सनातन धर्म से अलगाव की शिकार अस्पृश्य जातियां इसमें शामिल हुईं.
नाथपंथियों में वर्णाश्रम व्यवस्था से विद्रोह करने वाले सबसे अधिक थे.
हिंदू और मुसलमान दोनों धर्मों के लोग बल्कि कहीं-कहीं तो मुसलमान बड़ी संख्या में नाथ संप्रदाय में शामिल हुए. गोरखनाथ का प्रभाव कबीर, दादू , जायसी और मुल्ला दाऊद जैसे अस्पृश्य जातीय और गैर-हिन्दू कवियों पर भी माना जाता है. इससे इतना तो स्पष्ट हो ही जाता है कि गोरखनाथ और उनके गुरु किसी ऊंची जाति से तो कतई नहीं थे.
तीसरी अहम बात.
गोरखनाथ के बाद आप उनके उत्तराधिकारियों श्री वरद्नाथ तत्पश्चात परमेश्वर नाथ एवं गोरखनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार करने वालों में प्रमुख बुद्धनाथ जी (1708-1723 ई), बाबा रामचंद्र नाथ जी, महंत पियार नाथ जी, बाबा बालक नाथ जी, योगी मनसा नाथ जी, संतोष नाथ जी महाराज, मेहर नाथ जी महाराज, दिलावर नाथ जी, बाबा सुन्दर नाथ जी, सिद्ध पुरुष योगिराज गंभीर नाथ जी, बाबा ब्रह्म नाथ जी महाराज तक के इतिहास में कुछ खास नहीं मिलेगा. ये कौन थे, किस पृष्ठभूमि से थे इसके बारे में आज पता लगाना मुश्किल है.
अब आते हैं अंतिम बात पर.
आपको अचानक से गोरखपुर मठ का इतिहास राजस्थान के ठाकुर नान्हू सिंह यानी दिग्विजयनाथ से मिलना शुरू हो जाएगा. यह हिन्दू महासभा के सदस्य थे. इस महंत के मठ प्रमुख बनने के बाद मुस्लिम और अस्पृश्य जाति के जोगियों की संख्या में गिरावट आने लगी. दिग्विजयनाथ के बाद एक दूसरा ठाकुर अवैद्यनाथ यानी कृपाल सिंह बिष्ट (पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखंड) बनता है.
इनके बाद तीसरा ठाकुर आदित्यनाथ यानी अजय सिंह बिष्ट (पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखंड) मठ प्रमुख बनता है. पौड़ी गढ़वाल के इन दोनों ठाकुरों का क्या रिश्ता है किसी को नहीं पता.
इन तीनों ठाकुरो के आने के बाद 3 बातें देखने को मिलती हैं –
1
मुस्लिम और अस्पृश्य जाति के जोगियों का सफाया हो जाता है.
2
क्रमशः एक ही जाति (ठाकुर) के मठ प्रमुख बनने की परंपरा कायम होती है.
3
नाथ सम्प्रदाय गोपीनाथ और भर्तृहरि के गीत गाना को प्रायः छोड़कर, हिन्दू मुस्लिम एकता, ऊंच नीच, आडंबरों का विरोध छोड़कर, क्षत्रिय राम की बात करने वाला कट्टर हिन्दू सम्प्रदाय बन जाता है.
जार्ज वेस्टन ब्रिग्स की पुस्तक ‘गोरखनाथ एंड दि कनफटा योगीज’ में उल्लिखित 1891 की जनसंख्या रिपोर्ट और इसी वर्ष की पंजाब की जनसंख्या रिपोर्ट के अनुसार 28,816 गोरखनाथी और 78,387 योगी में 38,137 मुसलमान योगी थे.
आज हालत ये है कि उत्तर भारत , खासकर पूर्वांचल से उनका पूरी तरह सफाया हो गया है.
गोरखपुर में जो बचे खुचे मुसलमान जोगी थे वो हिन्दू युवा वाहिनी के डर से भगवा वस्त्र पहनना और सारंगी बजा कर गीत गाना छोड़ चुके हैं.
इस तरह एक सामंती जाति के मठाधीशों ने,नाथ सम्प्रदाय की हत्या कर दी. उसे उसके असल वारिसों से छीन लिया.
नाथ सम्प्रदाय की हत्या के बाद, साम्प्रदायिकता का नया युग:
आपने पढ़ा कि किस तरह गोरखनाथ मठ के तीन ठाकुरों क्रमशः दिग्विजयनाथ (नान्हू सिंह), अवैद्यनाथ (कृपाल सिंह बिष्ट) और आदित्यनाथ (अजय सिंह बिष्ट) ने नाथ सम्प्रदाय की हत्या की और उसे कट्टर हिंदुत्व का रंग दिया.
अब हम देखेंगे कि किस तरह इन्होंने साम्प्रदायिकता को जन्म दिया जिसका परिणाम यह रहा कि आज़ादी के बाद भारत हिन्दू-मुसलमान जंग का मैदान बन गया!
इसकी शुरुआत होती है राजस्थान के राजपूत महंत दिग्विजय नाथ (नान्हू सिंह) से. गोरखनाथ मठ से राजनीति में भाग लेने वाला यह पहला महंत थे . अपने शुरूआती दिनों में यह कांग्रेस में थे, लेकिन असहयोग आंदोलन की समाप्ति के बाद इन्होंने हिन्दू महासभा का दामन थाम लिया. इनको 1935 में गोरखनाथ मठ का महंत बनाया गया. उसके बाद इन्होंने 1935 से 1969 तक उत्तर भारत में भयानक स्तर पर साम्प्रदायिकता फैलाई और "हिन्दू बनाम मुस्लिम" के विवाद को जन्म दिया.
आपको जानकर आश्चर्य होगा कि नान्हू सिंह से दिग्विजय नाथ बने ये व्यक्ति, राम मंदिर की संकल्पना को जन्म देने वाला पहला व्यक्ति थे . उनके पहले किसी ने भी राम मंदिर की संकल्पना प्रस्तुत नहीं की थी. उन्होंने हिन्दू- मुस्लिम की खूनी और साम्प्रदायिक राजनीति में अपना भविष्य काफी पहले देख लिया था. इन्होंने ही 22 दिसंबर 1949 की रात को अयोध्या में बाबरी मस्जिद में रामलला की मूर्ति रखवायी। इसी का परिणाम था कि उसने अयोध्या में बाबरी मस्जिद की जगह राम मंदिर होने का दावा किया. यह हैरतअंगेज होने के साथ-साथ हास्यास्पद भी था. शुरुआती दिनों में इसे किसी ने गंभीरता से नहीं लिया था. आज देश में जो सांमप्रदायिकता का ज़हर फैलाया जा रहा है इसी का परिणाम है.
आज एं बिष्टो ने श्रमण संस्कृति का भट्ठा बिठा दिया जाने ये बहुजन समाज कब सुधरेगा। हसीबा खेलिबा धरीबा ध्यान।
drbn singh.
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