बुधवार, 16 जुलाई 2025
भारतीय उपमहाद्वीप ( भारत पाकिस्तान बांगला देश ) के अनूठे कम्युनिस्ट कॉमरेड मोनी सिंह
भारतीय उपमहाद्वीप ( भारत पाकिस्तान बांगला देश )
के अनूठे कम्युनिस्ट कॉमरेड मोनी सिंह
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(भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का यह शताब्दी वर्ष है। 1925 में पार्टी की स्थापना हुई थी। पूरे देश में शताब्दी वर्ष मनाया जा रहा है। इसकी इकाइयां अपने तैं सक्रिय हैं। मुझे नहीं पता मोनी सिंह को किसी ने याद भी किया या नहीं ? मोनी सिंह वह वाहिद शख्स हैं, जो भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के शुरुआती नेताओं में से एक तो रहे ही हैं, पाकिस्तान की कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापकों में एक अत्यंत महत्वपूर्ण नेता और बांग्ला देश की कम्युनिस्ट पार्टी के सर्वोच्च नेता भी रहे।इस तरह मोनी सिंह तीन तीन देशों की कम्युनिस्ट पार्टियों के आधार स्तंभ रहे। हालांकि 1925 में ही गठित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग आज देश चला रहे हैं, वहीं भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी वर्धरोध हो कर अपनी राष्ट्रीय पार्टी की हैसियत खो चुकी है। मोनी सिंह को सी पी एम और भाकपा ( माले ) को भी अपना पुरखा नायक मानते हुए कृतज्ञता पूर्वक स्मरण करना चाहिए। मोनी सिंह को साझा तौर पर याद करते हुए श्रद्धांजलि देनी चाहिए। मोनी सिंह के अथक संघर्ष को याद करना आज ज्यादा जरूरी है। कभी संसद विधान सभा में जाने को संशोधनवाद और प्रतिगामी बताने वाली कम्युनिस्ट पार्टियां आज इसमें प्रवेश करने को इस कदर आकुल व्याकुल हैं कि सिद्धांत विहीन समझौते और सौदेबाजी ही इनकी राजनीति रह गई है। आंदोलन और संघर्ष ही किसी भी दल को प्राणवंत और जीवंत रखते हैं।)
आजादी का अमृत वर्ष अब ढलान पर है। कायदे से अपने ज्ञात अज्ञात नायकों को मुस्तर्का तौर पर पुण्य स्मरण करना चाहिए था। कॉमरेड मोनी सिंह को जिस शिद्दत से याद करना चाहिए था, उसका शातांश भी कहीं नजर न आया।
कॉमरेड मोनी सिंह का जन्म संयुक्त भारत ( अब बांगला देश ) के मैमनसिंह जिला के सुसांग दुर्गापुर में 28 जून 1901 को हुआ था। वह एक अत्यंत समृद्ध परिवार में जन्मे थे। किशोरावस्था में ही वह उग्र संगठन "अनुशीलन" से जुड़ गए थे। रूस की लाल क्रांति का गहरा असर मोनी सिंह पर हुआ था। कह सकते हैं, स्थापना वर्ष 1925 से ही मोनी सिंह कम्युनिस्ट पार्टी से संबद्ध हो गए थे। 1926 में ही उनका संपर्क विख्यात कम्युनिस्ट नेता मुजफ्फर अहमद से कोलकाता में हो गया था। कोलकाता के लिलुआ में रेल मजदूरों और मटियाबुर्ज में जूट मजदूरों के बीच मोनी सिंह ने सघन काम किया था। कई शानदार हड़तालों का कुशल नेतृत्व करते हुए उन्होंने मजदूरों के जीवन स्तर को ऊंचा उठाया था। 1930 तक मोनी सिंह कोलकाता के मजदूर आंदोलन में सक्रिय रहे।
मोनी सिंह ने टंक आंदोलन का नेतृत्व किया। टंक का अर्थ था फसल की लगान के रूप में दी जानेवाली पूर्व निर्धारित मात्रा। फसल हो या न हो, निश्चित धान देना ही होगा। टंक की जमीन पर किसानों का कोई अधिकार नहीं होता था।इस आंदोलन ने खूब जोर पकड़ लिया था। मोनी सिंह का अपने सगे दो भाइयों से काफी उलझाव हो गया। मोनी सिंह ने अपने हिस्से वाली जमीन से टंक को खत्म कर दिया था। सामंती और राजशाही वाले उस वक्त किन परेशानियों का सामना करना पड़ा होगा मोनी सिंह को इसकी सहज कल्पना कर सकते हैं। नवादा के बहुश्रुत नक्सली नेता दिनेश अकेला ने यह आरोप लगाया था कि सी पी एम के शीर्ष नेता गणेश शंकर विद्यार्थी अपनी जमीन को बचाने के लिए कम्युनिस्ट बने थे, और अपनी जमीन बचा ली। गणेश शंकर विद्यार्थी सी पी एम बिहार के राज्य सचिव भी रह चुके थे। ऐसे अनेक उदाहरण बिखरे पड़े मिल जायेंगे।
कॉमरेड मोनी सिंह की अद्भुत नेतृत्व क्षमता का 1945 के नेत्रकोना के अखिल भारतीय किसान सम्मेलन में प्रकटीकरण हुआ। शुरू में यह तै हुआ था कि विख्यात किसान नेता स्वामी सहजानंद सरस्वती सभा के अध्यक्ष और मुजफ्फर अहमद स्वागत समिति के अध्यक्ष होंगे। परंतु स्वामी जी ने तब तक यह मन बना लिया था कि वह कम्युनिस्टों के साथ काम नहीं करेंगे। जिस वजह से मुजफ्फर अहमद को अध्यक्ष और मोनी सिंह को स्वागत समिति का अध्यक्ष बनना पड़ा।
इस सम्मेलन में तत्कालीन सी पी आई के महामंत्री पी सी जोशी, हरकिशन सिंह सुरजीत, नंबूदरीपाद, जेड ए अहमद,सुंदरैया, चट्टगांव सशस्त्र कांड की ख्यातनाम नायिका कल्पना दत्त और बिहार से यदुनंदन शर्मा के नाम प्रमुख हैं।
द्वितीय विश्व युद्ध चल रहा था, और रेजगारी की किल्लत थी। मोनी सिंह के हस्ताक्षर और मुहर से सादे कागज पर रकम लिख दी जाती थी, जिस पर दुकानदारों ने सामग्री दिए। इससे मोनी सिंह की लोकप्रियता और रसूख का पता चलता है। पश्चिम बंगाल से मोनी सिंह की बड़ी बहन निर्मला सान्याल भी प्रचार कार्य में हिस्सा लेने आई थीं। बड़ी संख्या में महिलाएं पीठ पर अपने बच्चे बांधे सत्तर अस्सी मील पैदल चल कर आई थीं। हिंदू मुसलमानों का विशाल जुलूस चल कर आया था। खुले अधिवेशन में एक लाख लोगों का समागम हुआ था। विशालता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि ढाका के आठ सौ लोग भोजन परोसने के काम में लगे थे। सम्मेलन में बीस चिकित्सक थे।
सम्मेलन का मूल उद्देश्य था, उत्पीड़ित किसानों को संगठित करना, इसमें यह सफल रहा। टंक उन्मूलन और तेभागा आंदोलन की तैयारी पर प्रस्ताव पारित किए गए।
मार्च 1946 में, देश में आम चुनाव कराए जाने की घोषणा की गई। पूर्व और पश्चिम बंगाल से तेरह उम्मीदवार खड़े किए गए। इसमें ज्योति बसु,रूपनारायण राय और रतनलाल ब्राह्मण विजयी हुए थे। इस चुनाव में मोनी सिंह कांग्रेसी उम्मीदवार से पराजित हो गए, जबकि तत्कालीन महामंत्री पी सी जोशी मोनी सिंह के चुनाव प्रचार में गए थे। मोनी सिंह के क्षेत्र में इस प्रचार ने तूल पकड़ लिया कि" भारत छोड़ो" का विरोध कर के पार्टी ने विश्व युद्ध को" जन युद्ध " का नारा दिया था। बाद में खुद मोनी सिंह ने बताया कि 23 मार्च 1973 को नक्सलियों ने रूप नारायण राय की हत्या कर दी।राजनीति को व्यापार मंडी में तब्दील करने वालों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि अत्यंत ऐश्वर्यशाली रूप नारायण राय की सारी जमीन राजनीति में खत्म हो गई, उनके पुत्र दिहाड़ी मजदूर बन कर रह गए।
बंगाल का तेभाग आंदोलन 1946 और 1947 में परवान चढ़ा। तेभागा का अर्थ था, फसल का दो भाग किसान को और एक भाग जमीन के मालिक को। तेभागा आंदोलन ने प्रचंड रूप धारण कर लिया। बहुतेरे जगहों पर इस आंदोलन में जबरदस्त हिंसा हुई। आसन्न बंटवारे ने मुस्लिम लीग सरकार के मंत्रियों के मन में यह धारणा बिठा दिया कि यदि तेभागा आंदोलन का निर्ममता से दमन नहीं किया गया तो कम्युनिस्ट पार्टी बलशाली हो जायेगी।
आजादी के बाद सी पी आई का दूसरा अधिवेशन कोलकाता में फरवरी 1948 में हुआ। देश विभाजन के बावजूद पार्टी अविभक्त थी। 632 प्रतिनिधियों में से पूर्वी पाकिस्तान से 125 और पश्चिमी पाकिस्तान से मात्र 05 सदस्य उपस्थित थे। यहीं 6 मार्च 1948 को पाकिस्तान की कम्युनिस्ट पार्टी का गठन किया गया। इस पार्टी में नौ सदस्यीय केंद्रीय समिति गठित की गई। नौ सदस्य थे, सज्जाद ज़हीर, अता मोहम्मद,जमालुद्दीन बुखारी,इब्राहिम, खोका राय,नेपाल नाग,कृष्ण विनोद राय, मंसूर हबीब और मोनी सिंह।संयुक्त पाकिस्तान कम्युनिस्ट पार्टी की यह पहली और आखरी बैठक साबित हुई। 1950 में मंसूर हबीब और कृष्ण विनोद राय भारत चले आए। पूर्वी पाकिस्तान के जेल में बंद मंसूर हबीब कैदियों पर हुई गोलीबारी में आहत हो गए थे। वह भारत चले आए और बाद में पश्चिम बंगाल विधान सभा के स्पीकर और मंत्री भी बने।
सज्जाद ज़हीर को पश्चिम पाकिस्तान में कम्युनिस्ट पार्टी को मजबूत बनाने के लिए भेजा गया। वहां जा कर वह फैज़ अहमद फैज़ और दीगर लोगों के साथ रावलपिंडी षडयंत्र कांड में फंस गए, और कारावास झेला। चूंकि सज्जाद साहब एक कुलीन मुस्लिम घराने से ताल्लुक रखते थे, और ऊंची पैरवी के बल पर ही वह रिहा हो कर भारत आ पाए। कारावास की सजा ने सज्जाद ज़हीर के मार्क्सवादी नजरिए को कुंद कर दिया। फिर शायद ही उन्होंने यह जोखिम उठाया हो। पाकिस्तान कम्युनिस्ट पार्टी के वह सदर थे।
इसके उलट मोनी सिंह तमाम प्रतिकूल यातनाओं को झेलते रहे, कम्युनिस्ट पार्टी को गतिशील बनाने के लिए हर चंद चेष्टा करते रहे। बी टी रणदीवे की लाइन ,"आजादी झूठी है। पूंजीवादी सरकार को उखाड़ फेंको" की तर्ज पर ही पाकिस्तान की कम्युनिस्ट पार्टी चलने लगी। भारत की तरह यहां भी क्रूर दमन हुआ, पार्टी प्रतिबंधित हो गई। भारी जान और मॉल का नुकसान हुआ। जनता अभी इसके लिए तैयार नहीं थी, और दुस्साहस भरा आह्वान कर दिया गया। बाद में मोनी सिंह ने इसे बचकाना कार्रवाई करार दिया। दमन ने पूरी पार्टी को हिला कर रख दिया।
चूंकि धर्म के नाम पर पाकिस्तान वजूद में आया था, इसलिए अल्पसंख्यक वर्ग पर भीषण दमन हुआ। हिंदुओं का पलायन भारी तादाद में होने लगा। बड़े बड़े क्रांतिकारी शूरमा पलायन करने लगे।गोरे अंग्रेज हुकूमत से तो यह क्रांतिकारी हंसते खेलते लड़ते हुए फांसी पर झूल गए, मगर अपने ही हमवतनों गैर धर्मी से लड़ न पाए। चाट्टगांव कांड के अधिसंख्य क्रांतिकारी और कम्युनिस्ट पलायन कर गए। लोकनाथ बल और अंबिका चक्रवर्ती तो भारत आ कर विधायक बने। गणेश घोष सांसद बने। प्रिय रंजन दास मुंशी ने सगर्व कहा था, " मैंने गणेश घोष को हराया, जिन्हें सब आदर से पैर पूजते हैं।" अनंत सिंह, कल्पना दत्त और अनेकानेक उदाहरण हैं। ज्योति बाबू तो मुख्यमंत्री बरसों तक रहे। हमलोगों के श्रद्धेय दिनेश दास गुप्ता भी बंटवारे के कुछ साल तक पूर्वी पाकिस्तान में रहे मगर उन्हें भी भारत आना पड़ा। एक बार मैंने दादा से पूछा था,
" दादा आप जन्मभूमि छोड़ कर क्यों आए? बंटवारे के बाद तो पाकिस्तान में समाजवादी राजनीति की जरूरत थी। धार्मिक देश में सेकुलर पॉलिटिक्स करना ज्यादा मुश्किल है। अनुकूल जगह में राजनीति करना सुविधाजनक होता है। आप जैसों की तो जरूरत पाकिस्तान में थी।" दादा इस पर मौन धारण किए रहे। हमारे वरेण्य अशोक सेकसरिया जी ने मुझसे कहा था, " आपको यह नहीं पूछना चाहिए था।" मुझे भी पश्चाताप हुआ था। हर व्यक्ति की सहने की एक सीमा होती है।
मगर मोनी सिंह लंबा लंबा कारावास झेलते हुए, पाकिस्तान में ही रहे। वह चाहते तो आसानी से भारत आ सकते थे, उनके कई रिश्तेदार भारत में थे। यहां आकर अनुकूल भावभूमि पर राजनीति करते हुए इत्मीनान से विधायक सांसद बन सकते थे। मुक्ति वाहिनी के दिनों में मोनी सिंह राजशाही के जेल में थे। वहां जेल तोड़ कर वह मुक्ति वाहिनी को दिशा देने आ गए थे। अंतरिम सरकार के सलाहकार मंडल में थे। बांगला देश बनने पर उन्होंने नए सिरे से कम्युनिस्ट पार्टी को जमाने का काम किया। आज भी राजधानी ढाका में उनके नाम की एक सड़क है, जहां कम्युनिस्ट पार्टी का दफ्तर है। कुल जमा नब्बे बरस का संघर्षपूर्ण जीवन मोनी सिंह ने पाया था। आराम उनके जीवन में कहीं नजर नहीं आता है।Robert Frost की कविता बिलकुल मोनी सिंह पर फिट बैठती है,
The woods are lovely dark and deep
But, I have promise to keep
And, miles to go before I sleep
And, miles to go before I sleep
मोनी सिंह ने इकतीस दिसंबर 1990 को आखरी सांस ली। इधर कुछ दिनों से मोनी सिंह का स्मरण मुझे शिद्दत से हो रहा था।दिवंगत मोनी सिंह को मैं अपनी आदरांजलि भावांजलि अर्पित करता हूं।
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1 टिप्पणी:
ऐसे साहसी निर्भीक और कर्मठ साथी को कोटिश नमन लाल सलाम
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