बुधवार, 9 जुलाई 2025
जयशंकर प्रसाद और आजीवक
प्रसाद की कृतियों में आजीवक प्रसंग: पुदीना कश्यप
हिंदी साहित्य के प्रमुख उन्नायक जयशंकर प्रसाद के नाटक 'चंद्रगुप्त' के प्रारंभिक संस्करण में आजीवक प्रसंग में तीन दृश्यों में आया है, जो उनके अगले संस्करण से हटा दिया गया है। यह दृश्य कब और क्यों अलग किया गया, यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। यह निर्णय नाटककार की सहमति से क्या लिया गया? कश्यप का यह शोधपरक दस्तावेज़ न केवल आजीवक सिद्धांत के क्रांतिकारी महत्व को दर्शाता है, बल्कि साहित्य और विकिपीडिया के अध्ययन की भी व्याख्या करता है। प्रस्तुत है.
अरुण देव द्वारा
प्रसाद की कृतियों में आजीवक प्रसंग
मित्र कश्यप
जशंकर प्रसाद की महिमा ऐतिहासिक-सांस्कृतिक, उपन्यासकार और नाटककार कवि की रही है। उनका नाटक चंद्रगुप्त की गिनती हिंदी के बहुप्रतिष्ठित नाटकों में से एक है। प्रसादजी के अन्य प्रमुख नाटक अजातशत्रु, स्कंदगुप्त, ध्रुव-स्वामिनी आदि की तरह चंद्रगुप्त भी ऐतिहासिक नाटक हैं। उनके केन्द्रीय पात्र चन्द्रगुप्त मौर्य के देशी-विदेशी सभी ग्रन्थों का उल्लेख है। भारतीय इतिहास में थोड़ा बड़ा सैन्यबल चंद्रगुप्त का था, किसम और राजा का नहीं रहा। यही नहीं भारत की सीमा का विस्तृत विस्तार चंद्रगुप्त के शासनकाल में हुआ, वह भी कभी नहीं आश्वस्त जा सका। आज जिसे वृहत्तर भारत कहा जाता है, असल में वह चंद्रगुप्त मौर्य के शासनकाल का सीमांकन है। ऐसे महान सम्राटों के बारे में चर्चा करना स्वतः ही विराट भारत के गौरवशाली राष्ट्रीयताबोध से जुड़ना है।
'चंद्रगुप्त' नाटक का लुप्तप्राय अध्याय
चन्द्रगुप्त मौर्य को केन्द्र में रखा गया पहला नाटक डेमोक्रेट नाम के नाटककार द्विजेन्द्रलाल राय ने 1911 में लिखा था। 1917 में उन्होंने हिंदी में अनुदित कहानी भी कही थी। प्रथम संस्करण के प्रकाशक से पता चलता है कि द्विजेन्द्रलाल राय का नाटक प्रकाशित होने से पहले ही जयशंकर प्रसाद, मौर्यकालीन इतिहास और संस्कृति के विशद अध्ययन की शुरुआत हुई थी। चंद्रगुप्त नाटक का पहला संस्करण प्रेमचंद के सरस्वती प्रेस से छपा था। उनके प्रकाशक से दो महत्वपूर्ण सूचनात्मक संकेत मिलते हैं, जिनमें यहाँ दी गई असफलताएँ शामिल हैं -
प्रसादजी ने 1908 में चंद्रगुप्त मौर्य शीर्षक से जो ग्रंथ लिखा था, उसमें डॉक्युमेंट नाटक के प्रथम संस्करण को शामिल किया गया था। उन्हें भारती भंडार, अल्लाहाबाद द्वारा प्रकाशित चंद्रगुप्त का संस्करण में देखा जा सकता है।
1912 में उन्होंने कल्याणी परिणय शीर्षक से रूपक लिखा था। 1929 में नाटक सरस्वती प्रेस में जेपी के बाद प्रसादजी ने कहा कि रूपक को भी 'यथाप्रसंग' में बदल दिया गया और 'परिविभाजित कर' चंद्रगुप्त के प्रस्ताव में शामिल किया गया। कह सकते हैं कि दो साल के अंतराल के बाद यह नाटक 1931 में, जब पहले संस्करण के रूप में बाजार में आया, तो प्रसादजी उनकी कथ्य और शिल्प से जुड़े थे।
प्रकाशन में देरी से प्रसाद वाङ्मय के संपादक रत्नशंकर प्रसाद ने स्पष्ट किया कि चंद्रगुप्त प्रसादजी का छठा नाटक था। इसका लेखन स्कन्दगुप्त से पहले हो चुका था, दूसरा प्रकाशन संवत 1988 (ईस्वी 1931) में हुआ था। उनका दो साल पूर्व इसे प्रेस में दे दिया गया था। सरस्वती प्रेस की हालत भी कुछ ऐसी नहीं थी कि वह बड़ा काम जल्दी कर दे। दैनंदिन खर्च छोटी-छोटी चपाइयों से बने थे इसलिए उन्हें पहले मजबूत बनाए रखा गया था। चन्द्रगुप्त को अन्यत्र देना भी संभव नहीं था क्योंकि वह मुंशी प्रेमचंद की प्रेस के साथ रैना लेखक और प्रकाशक भारती भंडार के स्वामी रायकृष्णदास के निजी संपर्क में थे... पाण्डु लिपी 1929 से दो वर्षों तक अमुद्रित पाद राही और 1931 के मध्य में गुप्त कृति। लेखन में भी पर्याप्त समय लगना संभव है, कुछ नए कलाकारों के शामिल होने की प्रतीक्षा हो रही है। [1]
ये नए तथ्य क्या रहे होंगे? पहले संस्करण के प्रकाशक से इतना पता चलता है कि प्रसादजी ने नाटक में कल्याणी परिणय को परिवर्तित-परिभाषा कर चंद्रगुप्त का हिस्सा बनाया है, दूसरे संस्करण के प्रकाशक से प्रसादजी ने उसे इतना बदल दिया है कि प्रसंग के और कोई साम्य नज़र नहीं आता।
चन्द्रगुप्त नाटक का पाठ
इस समय प्रसाद के नाटक चन्द्रगुप्त के दो पाठ मौजूद हैं। प्रथम प्रसाद जन्मशती पर उनके पुत्र रत्नशंकर प्रसाद के संपादन में पाँच खण्डों में प्रसाद न्यास के आन्धिया वाराणसी से प्रसाद वाङ्मय के दूसरे खण्ड में प्रकाशित किया गया। इस पाठ में कुल संतलिस के दृश्य हैं।
द्वितीय ग्रन्थ भारती भंडार, वाराणसी द्वारा प्रकाशित चन्द्रगुप्त मौर्यकालीन देखा जा सकता है। इसमें केवल चवालीस दृश्य शामिल हैं। कैपिराइट फ्री के बाद इस नाटक को अन्य प्रकाशकों ने भी छापा है। लेकिन बौद्ध सिंह द्वारा संपादित जयशंकर प्रसाद ग्रंथावली , सत्यप्रकाश मिश्र द्वारा संपादित प्रसाद के संपूर्ण नाटक और एकांकी सहित बाकी सभी संस्करणों में चावालीस दृश्यों वाला पाठ ही है। विभिन्न स्टार्टअप के पाठ्यक्रम में पढ़ाई चल रही है।
निकाले गए तीन दृश्य वे हैं जिनमें आजीवक नामक पात्र शामिल हैं। आजीवक प्रावैदिक भारत की श्रमण परम्परा के उत्तराधिकारी थे तथा घोर अपनी अपरिग्रही प्रथा एवं कठिन व्रतों के लिए जाते थे। जैन एवं बौद्ध ग्रंथों में उनका बार-बार उल्लेख हुआ है। नाटक में आजीवक की उपस्थिति युगीन परिदृश्य के दर्शन के साथ-साथ हास्य के सृजन का विकास हुआ है। समुद्र-तट पर आजीवक दर्शन का भी संकेत मिलता है। प्रश्न यह है कि आजीवक प्रसंग वाले तीन दृश्यों को कब, क्यों और हटाया गया था। नाटककार की सहमति के लिए क्या था? नाटक के लिए प्रसादजी की अलग से भूमिका नहीं लिखी गई थी, इसकी पुष्टि रत्नाकर प्रसाद ने भी की है। संभवतः 1908 में चंद्रगुप्त मौर्य ग्रंथ शीर्षक से ही उनकी भूमिका मानी गयी थी।
आजीवक दर्शन
आजीवक दर्शन भारत का प्राचीनतम भौतिक दर्शन है। जैन और बौद्ध ग्रंथों से पता चलता है कि महावीर और बुद्ध के समय, आजीवक दर्शन के कम से कम पाँचवें प्रमुख तीर्थंकर मौजूद थे। दीघनिकाय में बुद्ध ने अपनी बहुत प्रशंसा की है। जैन ग्रंथों में उनका उल्लेख विरोधी मतावलंबी के रूप में किया गया है। दर्शन के अलावा वे गणित, ज्योतिष और आयुर्वेद के पंडित थे। उनके गणित संबंधी ज्ञान की पुष्टि भास्कर प्रथम द्वारा आर्यभटीय की टिप्पणियों से भी होती है। मठविदौ मकरीपुराण तीर्थ में आजीवक दर्शन के दो प्रमुख तीर्थस्थल, मकरारी (मखलि गोसाल) और पूरन कस्सप की प्रशंसा शामिल है। भास्कर प्रथम के अनुसार भूमिति अर्थात चतुर्भुजाकार शिखरों के अभिलेखों की खोज के लिए वे ही की थी।
चरक संहिता के लेखक अग्निवेषायन के बारे में बताया गया है। आर्थर एल. बॉशम ने अग्निवेशायन को मखलि गोसालक के पूर्व आजीवक के बारे में बताया है। इंडिका और अन्य यूनानी संसाधनों में जिन अचेलक (एनएजीएन) श्रमिकों का उल्लेख है, उनके गुण आजीवकों से मेल खाते हैं। जैन ग्रंथों में ऐसे कई संदर्भ हैं जो आजीवकों के आयुर्वेद और ज्योतिष संबंधी ज्ञान की पुष्टि करते हैं। विद्वानों की बात यह है कि औपनिषदिक युग का सबसे महत्वपूर्ण एवं प्रभावशाली दर्शन होने के बावजूद संस्कृत वाङ्मय में आजीवकों का अपवाद-स्वरूप ही दिखाई देता है। महाभारत में आजीवकों को वर्णसंकर और रेशम के समकक्ष राखे के लिए मृत्युदंड की सलामी दी गई है। [2]
आजीवकों की पैठ मुख्यतः शिल्पकार, किसान और श्रमिक वर्गों के बीच थी। वायुपुराण में आजीवक दर्शन को अपने श्रम-कौशल के पर अजीवकोपार्जन बल करने वालों का धर्म-दर्शन कहा गया है।
जैनग्रंथों के अनुसार मगध के वैभवशाली सम्राट महानंद आजीवक मतावलंबी थे। उनके राज्य में आजीवकों का काफी सम्मान था। उनमें यह भी पाया गया कि नंद के दरबार से सूर्यास्त के समय चाणक ने आजीवक वेष का ही सहारा लिया था। इसके बावजूद उसके मन में अचेलक श्रमिकों के प्रति प्रयास बनी रही।
अर्थशास्त्री आजीवक में जैन आदि भिक्षुओं को घर पर भोजन के लिए आमंत्रित कर 100 पैन की रियायती व्यवस्था का निर्देश दिया गया है। आधुनिक, कर्नाटक शताब्दी, आन्ध्रप्रदेश आदि से चौथी-पाँचवीं शताब्दी तक के ऐसे कई अभिलेख मिले हैं जो आजीवकों पर कर लगाने की पुष्टि करते हैं। बुद्ध के समय आजीवक तर्क के लिए जाते थे। चातुर्मास ठीक हो जाता है और वे हमेशा जीवित रहते हैं। उनके भिक्षाटन संबंधी नियम अत्यंत कठोर थे। कोशल नरेश प्रसेनजीत ने अपने लिए कुटागारशालाओं का निर्माण करवाया था। जहाँ वे सैद्धांतिक विषयों पर संवाद करते थे।
आजीवक यज्ञ और कर्मकांडों के आलोचक थे। इस कारण ब्राह्मण धर्मग्रंथों में उन्हें पाखंड, नास्तिक, मूर्ख आदि कहा गया है। ब्राह्मणों ने आजीवकों को लोकस्मृति से गायब करने के लिए पहले अपना लोक दर्शन कहा , फिर चार्वाक कहावत शुरू हुई। पुराणों में कहीं उसे वेन का दर्शन कहा गया है, कहीं मायामोह का। कहीं बृहस्पति को उनका श्रेय दिया गया, तो कहीं इंद्र को उनका उपाख्यान बताया गया।
चन्द्रगुप्त और आजीवक
चंद्रगुप्त को हालांकि जैन ने बताया है, उनके बचपन के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है। उस समय अधिकांश शिल्पकार और पेशेवर जातियाँ आजीवक दर्शन में विश्वास करती थीं, इसलिए हम उन्हें अशोक का पैतृक दर्शन कह सकते हैं। चंद्रगुप्त का पुत्र और अशोक का पिता बिंदुसार अपने पैतृक धर्म (आजीवक) में वापस आता है। चंद्रगुप्त के जैन का दावा भी हो रहा है. लेकिन सिद्धांत यह है कि जैन दर्शन की प्रथम संगीति पाटलिपुत्र में चंद्रगुप्त मौर्य के शासनकाल के अंतिम वर्षों में हुई थी, उन्होंने जैन होने का बड़ा दावा पेश नहीं किया था। वैसे भी बड़े राज्य का गठन और उसे लैपटॉप रखना आसान काम नहीं था. अपने धार्मिक-दार्शनिक अभिरुचियों को परिष्कृत कर सके, इतना समय शायद ही उसके पास होगा। इतना तय है कि उनके शासनकाल में आजीवक धर्म मगध में उत्तर, उत्तर-पश्चिम और दक्षिण भारत का सबसे बड़ा धर्म था। यह स्तर अशोक के शासनकाल तक बना रहता है। अशोक आजीवक मतावलंबी भले न रहे हो, लेकिन उसके आजीवक दर्शन से सहानुभूति थी, इसके कई प्रमाण हैं।
चंद्रगुप्त ऐतिहासिक नाटक है, इसलिए प्रसाद नाटककार युगीन सत्य के रूप में आजीवकों का उल्लेख नहीं किया गया है, या संबंधित साक्ष्य को पूरी तरह से हटाने की सहमति दे दी गई है, यह किसी भी दृष्टि से याद नहीं है। इस बात पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि नाटक की प्रमुख घटनाएँ नंद के समकालीन हैं, जब आजीवक दर्शन राज्य का धर्म था। चन्द्रगुप्त की विजय के साथ ही नाटक का समापन हो गया है। फिर तीन बिंदुओं को कब और हटाया गया, क्यों हटाया गया?
चंद्रगुप्त को कई फर्मों के पाठ्यक्रमों में शामिल किया गया है। तो क्या स्टूडेंट्स के सभी 'अवांछित' आर्टिस्ट को मोशन पिक्चर से नीरापद बनाने के लिए ऐसा किया गया था. या यह आज़ादी उन दिनों से पहले हुई थी, जब हिंदी-हिंदू का पुरुथानवादी दौर चल रहा था। अपने समय का सबसे महत्वपूर्ण दर्शन होने के बावजूद आजीवकों और उनके दर्शन को आलोचकों की निंदा का सामना करना पड़ा। सच तो यह है कि आजीवक दर्शन की चुनौती के बिना वे भारतीय जनमानस में पथ नहीं बना सकते थे। ब्राह्मण धर्मग्रन्थों में सदैव उसे आस्तिक दर्शन माना गया है।
हम इस पर आगे भी विचार करेंगे। पहले नाटक के वे दृश्य जो पहले संस्करण (1931) में शामिल थे, जिनमें बाद के संस्करण में लेखक की मात्रा या बिना सामग्री के ही भुगतान किया गया है।
चंद्रगुप्त नाटक का आजीवक प्रसंग
नाटक में आजीवक श्रमण का प्रवेश प्रथम अंक के पांचवें दृश्य से होता है। उनका परिचय 'बड़ी-बड़ी जटाओं वाला, बांस-सा बांस के लिए चंद्र ओढे आजीवक' शब्द से दिया गया है। आजीवक हाथ में बांस (मस्कर) रखे हुए थे, इसलिए पाणिनि ने उन्हें मस्करिन [3] कहा था। जैन और बौद्ध ग्रंथों के अनुसार आजीवक राखी अचेलक रहते थे। पाँच आजीवक शास्ताओं में से एक अजीत केशकाबली के शरीर पर बाल से डूबे हुए कमरे में रखे गए थे। आजीवक प्रकृतिवादी थे.
जैन ग्रंथों में इन्हें नियतिवादी कहा गया है। (आजीवक किसी भी व्यक्ति की परसत्ता के अनुभव से इनकार करते थे, उनके संदर्भ में सही शब्द नियतिवाद या नियतिवादी है)। नाटक का एक पात्र सार्थक धनदत्त भी नियुक्त है। सहसा वोल-सा बांस के लिए, चंद्रा ओधे एक आजीवक श्रमण उसका सम्मुख ज्ञान जोर से जोड़ता है। धनदत्त चिंतित है. आजीवक लौकने लगता है –
धनदत्त : (सक्रोध) तुम हँस रहे हो!
आजीवक : तो क्या राउंड?
धनदत्त : अरे नहीं-नहीं तुमने सोचा तो दिया ही अब यात्रा के समय रोने भी लगोगे।
आजीवक : फिर क्या होगा?
धनदत्त : कहीं राह में कुनवे सुख घोड़ा, घोड़ा-बैल मर्चेंडाइज, डाकू घेरे लें। तूफ़ान तूफान लागे. पानी बरसने लगे. रात को प्रेतों का आक्रमण हो, गाड़ियाँ उलटी?'
आजीवक : फिर
धनदत्त : 'तुम्हारा सर! मैं जा रहा हूँ. इतनी दूर, शकुन देखकर घर से निकला था। तुम पूरे व्यतिपात की तरह मेरी यात्रा में व्याघात बन रहे हो।' [4]
जैन ग्रंथों के अनुसार आजीवक शकुन-विचार द्वारा बकवास किया गया था। इससे पता चलता है कि प्रसादजी ने आजीवकों के बारे में अध्ययन किया था और उनके बारे में जो सामान्य बातें प्रचलित थीं, उनका ध्यान अपने नाटक में लगाया था। शकुन विचारक, निरा तंत्र-मंत्र या ज्योतिषीय कर्म नहीं था। इसे उन दिनों की सीज़न आधारित समीक्षाओं की ज़बरदस्ती भी कहा जा सकता है। लोग आने-जाने के लिए किसी अनुभवी व्यक्ति से सीज़न, मार्ग आदि की जानकारी लेकर आए थे।
चातुर्मास में हमेशा के लिए रहने वाले आजीवक श्रमण इस काम में उनकी निर्लोभ मदद करते थे। आगे इस क्षेत्र में नौकरानी लोगों का प्रवेश हुआ। लोगों के पैसे घोटाले के लिए उन्होंने शकुन विचार को कर्मकांडीय आयोजन बनाया। नाटक का एक अन्य पात्र चंदन संवाद को आगे ढूँढना है-
चंदन : पर जो अपशकुन हो गया। अब हम लोग न पीछे लौट सकते हैं।'
आजीवक : यही तो पुरुष कुछ नहीं कर सकता.
चंदन : (आश्चर्य से) क्यों?
आजीवक: क्योंकि इसमें न कर्तव्य है, न कर्म।
धनदत्त : है है...यह तुम क्या कहते हो?
आजीवक : यही तो इसमें वीर्य नहीं है।
धनदत्त : अरे चन्दन ! कोई उपाय बतायें क्या? वास्तु तो निकल ही गया. अब चैत्य-वृक्ष के नीचे विश्राम या घर ही वापसी चलूँ? फिर कोई दूसरा शकुन देखकर यात्रा होगी।
आजीवक : तुम नियति के क्रीड़ा कंद— कुछ न कर सकोगे?
आजीवक : नियति जो वही करता है वही मनुष्य के लिए मार्ग है। मूर्ख मनुष्य! वैकल्पिक अपना टांग अड़ाता है.
राजपुरुष : अकर्मण्य भिक्षु! यह क्या पाठ पढ़ रहा हो।'
चंदन : नियति अगर ढांचा टाँग तोड़ दे? साधुजी!
आजीवक : तो तुम मुझे अपनी पीठ पर लादकर मुझे कहाँ जाना है, लाओ दोगे।
चंदन : और थोक सामान ढोना मैं स्वीकारोक्ति नहीं?
आजीवक: तो कदाचित नियति तारा टांग भी टूट जाएगी।' [5]
नाटक के दूसरे अंक के दसवें दृश्य में एक बार फिर धनदत्त, चंदन, माधवी आदि आजीवक शामिल हैं। इस अंक प्रसादजी आजीवक दर्शन के एक और सिद्धांत को व्यक्त करते हैं—
धनदत्त : नियति क्या चाहती है? तुम बटालाओगे?
आजीवक : यह तो वही जाने! लाखों योनियों में यात्रा करते-करते वह पहुँचने वाले स्थान पर पहुँचता है। [6]
आजीवक मानव प्रयास की निस्सारता पर विश्वास करते थे। बुद्ध के समय 'मुक्ति' का प्रश्न बहुत बड़ा था। उस समय उसके चार प्रमुख समाधान या मार्ग निर्गत किये जा रहे थे।
जैनों का मानना था कि कर्म से धार्मिकता बहुतायत है। मुक्ति के लिए उन्होंने कर्म-निर्जरा की सलाह दी थी, जिससे निरंतर तपश्चर्या संभव हो सकती है।
बुद्ध संसार को दुःखमय माना गया। उनका कहना था कि चित्त-वृत्ति निरोध से इसी जीवन में निर्वाण प्राप्त किया जा सकता है।
ब्राह्मण ववी देवताओं के प्रमाण पर विश्वास करते थे। उनके लिए हजारों सीता की बलि देना उनका नाममात्र का कर्म था।
आजीवकों का कहना था कि प्रकृति अपने गुणों से आबिद्ध रहती है। कोई कुछ करे, ना करे, उसकी चाल नहीं कमजोर। कोई ऐसी बाहरी सत्ता नहीं जो उसे अपनी चाल बदलने के लिए मजबूर कर सके।
गोसाल के अनुसार जैसे आकाश में नकली सूत की गेंद तुम धीरे-धीरे अपनी खुलती हुई खो जाती हो—विचार ही जीवन के साथ भी होता है। [7]
नाटक में आजीवक का वर्णन, 'लाखों योनियों में यात्रा करते-करते वह जिस स्थान पर पहुँचता है, वह आजीवक है' में इस दर्शन की आधार-मान्यता की खोज है।
नाटक में आजीवक की तीसरी उपस्थिति तीसरे अंक के दसवें दृश्य में है। चंदन, धनदत्त, आदि एकता हैं। आजीवक धनदत्त से कहा गया है—
'सार्थवाह! अब मुझे नियति का आदेश है कि तू यहां से चल दे।' [8]
यहां नियति का आदेश नंद का शासन समाप्त होने का पूर्वाभास है।
अनसुलझी पहेली
नाटक का प्रथम प्रकाशन जिसमें सभी 47 दृश्य शामिल थे, 1931 में हुआ था। 95 वर्ष बाद भी बृहद हिन्दी समाज को यह नहीं पता कि आजीवक की उपस्थिति में तीन दर्शनीय स्थलों का कब्ज़ा और अवशेष हटा दिया गया था। इस पहेली के समाधान की दिशा में प्रो. कमलेश वर्मा की अभिनय प्रस्तुति होगी। नाटक से तीन अंक निकलने का कारण देखने के लिए वे काफी भिन्न हैं। यह अलग बात है कि उनके काफी प्रयास के बावजूद समस्या ज्यों की त्यों बनी हुई है। वर्माजी के लेख को शब्दबिरादरी पोर्टल पर डाउनलोड किया जा सकता है। [9]
वर्मा जी ने विश्वनाथ शर्मा की पुस्तक, प्रसाद के नाटकों का शास्त्रीय अध्ययन (1949) का ज़िक्र किया है। इस पुस्तक के अनुसार 1931 में चन्द्रगुप्त का पहला संस्करण आया, इसमें 47 दृश्य थे। दूसरे संस्करण में प्रसाद ने कुछ दृश्यों को मिलाकर कुल कुछ संख्याएँ घटायीं थीं। मगर शर्मा जी की इस पुस्तक में भी 'आजीवक' वाले प्रसंग की कोई चर्चा नहीं मिली। विकी स्रोत भारती भंडार, इलाहाबाद द्वारा प्रकाशित चंद्रगुप्त मौर्य (दूसरा संस्करण) का प्रकाशन वर्ष 1932 है। इसमें केवल 44 दृश्य शामिल हैं। क्रीज़ के स्केच के अलावा नाटक का शीर्षक भी बदल दिया गया था।
प्रसादजी ने नाटक का शीर्षक चन्द्रगुप्त रखा था। इस शीर्षक का उन्होंने स्वयं रेखांकन भी किया था, जिसे सरस्वती प्रेस द्वारा प्रकाशित पुस्तक के आरंभ में देखा जा सकता है। भारती भण्डार से प्रकाशित पुस्तक का शीर्षक था 'मधुर चन्द्रगुप्त मौर्य' । ऐसा क्यों किया गया? इसके लिए प्रसादजी की लीज क्या थी? यह आवेदन प्रक्रिया थी. जो नहीं. पुनश्च: भारती भंडार के संस्करण से तीन अंक निकलने की पुष्टि तो होती है, मिलाए जाने की नहीं। दोनों के शेष सामग्री में भी प्रथम दृष्टया कोई बदलाव नहीं है।
डॉ. वर्मा ने सिद्धनाथ कुमार की किताब 'प्रसाद के नाटक' का भी ज़िक्र किया है। बताया गया है कि इस पुस्तक के दूसरे संस्करण (1990) के पृष्ठ 37-38 पर अतिरिक्त दृश्यों की चर्चा है। नवीन के शब्दों में—
'1933 में 'चंद्रगुप्त' नाटक का प्रथम मंचन काशी रत्नाकर-रसिक-मंडल द्वारा 14-15 दिसंबर को काशी के न्यू सिनेमा हॉल में हुआ था। मंच की तैयारी और योजना का विवरण क्रम में राजेंद्र नारायण शर्मा का एक व्यापक सिद्धांत प्रस्तुत किया गया है। शर्मा जी का संदर्भ इस प्रकार है -
'लेखक: प्रसाद का अंतेवासी', नाट्य प्रशिक्षण शिविर- 1972, वाराणसी की स्मारिका, 1972।
राजेंद्र नारायण शर्मा के उस लंबे कथा के एक अंश में अतिरिक्त तीन दृश्यों के बारे में बताया गया है,
"...एक ब्रह्म संकल्प के साथ सबने प्रसादजी के 'चंद्रगुप्त' नाटक में अभिनय किया। रचना आपको मूल नाटक की कहानी के रूप में मिलती है। पारसी की प्रभुता के युग की मांग को इच्छा नदहे भी उन्होंने अपनी दी। हालांकि प्रहसन ने केवल नाटक के मंचन के बारे में लिखा था, लेकिन उन्होंने इस बात पर ध्यान दिया कि प्रहसन के पात्र और उनकी कथा जो इस युग के लेखक हैं दूसरा और तीसरा दृश्य श्री लक्ष्मीकांत झा ने लिखा है।”
(प्रसाद के नाटक - सिद्धनाथ कुमार, अनुपम प्रकाशन, पटना, 1990, पृष्ठ संख्या - 38)
राजेंद्र नारायण शर्मा की टिप्पणी हमारी समस्या का समाधान नहीं करें। उन्होंने नाटक का मंचन वर्ष 1933 बताया है, जबकि भारती भंडार के 1932 के संस्करण से पता चलता है कि चारों ओर के दृश्यों को पहले ही हटा दिया गया था। जैसा कि पहले भी कहा गया है, थ्री पॉइंट्स को दोनों संस्करणों की सामग्री में कोई अंतर नहीं है। यदि सांस्कृतिक टिप्पणी सच है तो बस इतना ही कहा जा सकता है कि प्रो सादाजी ने मंच की आवश्यकता को देखते हुए, नाटक के पाठ में तत्काल बदलाव किया हो, लेकिन वह विचारधारा और अवसर विशेष के लिए था। उनके आधार पर प्रकाशित सामग्री को संशोधित नहीं किया गया था। दूसरे नाटक में आजीवक की उपस्थिति केवल प्रहसन के लिए नहीं, बल्कि अस्तित्व सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश को प्रभावशाली बनाने के लिए है।
प्रो. कमलेश वर्मा, राजेंद्र नारायण शर्मा की टिप्पणी से 'प्रसाद वाङ्मय' के खंड-दो में शामिल किया गया है । इन दृश्यों को केवल उस समय के मंचन के लिए बोल्कर द्वारा लिखा गया था, इसलिए इसमें मूल पाठ शामिल नहीं किया गया था। ये भी है. प्रसाद ने मंचन से जुड़े शुभचिंतकों के प्रेमपूर्ण दबाव के कारण इन तीन फिल्मों को बोलकर लिखना स्वीकार कर लिया था इसलिए नाटक के पाठ का हिस्सा नहीं माना गया। इन पौराणिक दृश्यों की भाषा में अन्य दृश्यों की भाषा भी कम है। ऐसा इसलिए भी हुआ क्योंकि इनमें प्रहसन की फीलिंग थी।'
इस संबंध में मैं पूरी तरह से कहता हूं कि 'प्रसाद वाङ्मय' के खंड- दो चंद्रगुप्त नाटक का जो पाठ है उसमें संवत 1988(1931 ईस्वी) दर्ज है। सम्मिलित 47 दृश्य थे, इसकी पुष्टि जगन्नाथ प्रसाद की पुस्तक से भी होती है। वह नाटक का पहला संस्करण था। वह मंचन की बात संभव ही नहीं थी. तीन फिल्मों को निकाला गया और शीर्षक परिवर्तन कार्य भारती भंडार से दूसरे संस्करण में हुआ। रही के भाषा वकील का सवाल है तो सार्थक धनदत्त, उनकी पत्नी, चंदन और आजीवक श्रमण मूर्ति गैर-अभिजन समाज के प्रतिनिधि हैं। उनकी भाषा मागधी या स्थानीय रही होगी। प्रसादजी ने शैली के भाषा अंकोल का प्रयोग किया है। अन्य हास्य किसी भी नाटक का मुख्य भाग होता है। वह धीरे-धीरे सरल और सहज संप्रेषणीय होगा— जनसाधारण उसका निर्माण ही आनंद ले जाएगा। हम कह सकते हैं कि नाटककार ने प्रसंगानुकूल भाषा का चयन किया था।
एक और बात जो सिद्धनाथ कुमार, राजेंद्र नारायण शर्मा आदि के संदर्भ में कही गई है, वह यह है कि वे नाटक में बदलाव की बात करते हैं, मगर आजीवक का उल्लेख नहीं करते हैं। बुद्ध के समय आजीवक भारत का प्रमुख दर्शन था। उत्तर भारत में इसका शीर्षक अशोक के आरंभिक राजवंश तक बना रहा। उसके बाद यह दक्षिण में फला-फूला, जहां तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी तक इसके रहने के प्रमाण बने रहे। उत्तर भारत, अकबर के दरबार में आजीवक (नास्तिक) जिस राजनीतिक दर्शन की गवेषणा करता है, उसकी तुलना अरस्तु से रूस लेकरो, बैंथम सहित आधुनिक ईश्वरवाद के राजनीतिक दर्शन से की जा सकती है। इसके बावजूद इक्का-दुक्का अपवाद को किसी भी संस्कृत या हिंदू धर्मग्रंथ में आजीवकों या उनके दर्शन का उल्लेख नहीं किया गया है। उल्टे उनकी यादों को स्ट्राट्स के लिए लोकायत, चार्वाक, नास्तिक जैसे नाम दिए जा रहे हैं।
वैज्ञानिक उपन्यात 'इरावती' के अजीवक प्रसंग पर कभी चर्चा नहीं होती
प्रसादजी को पुरुथानवादी लेखक माना जाता है। उन्होंने कालखंड विशेष से संबंधित अजातशत्रु, चंद्रगुप्त, स्कंदगुप्त आदि अनेक नाटक लिखे, लेकिन अशोक को छोड़ दिया गया था। साक्षात यह है कि अशोक उनकी हिंदू पुरुथानवादी नीति का हिस्सा नहीं था। ऐसे में एक साक्षात्कार में यह स्पष्ट करना वृथा है कि उन्होंने पहले विस्मृति-गर्त में सामा आशिक आजीवक दर्शन की चर्चा में तत्संबंधी प्रसंग के लिए 'चंद्रगुप्त' का हिस्सा बनाया था।
अमृतोदय, वेणीसंहार, प्रबोधचन्द्रोदय आदि अनेक नाटकों में आजीवकों (नास्तिकों) का प्रत्यक्ष या दर्शन होता है। सभी नाटककारों की दृष्टि में उन्हें वैदिक धर्मों की तुलना में हे सिद्ध करने की रही है। युगीन परंपरा के संप्रदाय प्रसादजी की छात्रावास में भी आजीवकों के साथ विचारधारा ही सुलूक हुई है। लेकिन संस्कृत नाटककारों/लेखकों ने सीधे नाम लेने के बजाय जहां मायामोह, महामोह, पाशंड, चार्वाक, नास्तिक, बृहस्पति आदि प्रतीकों का प्रहसननुमा प्रयोग किया था- प्रसादजी ने उनके प्रतिनिधित्व के लिए सीधे आजीवक भिक्षुओं को नाटक का हिस्सा बना दिया है; और बीसवीं शताब्दी में अंग्रेजी में ईसाइयों को याद दिलाते हैं कि भारत में एक समय आजीवक नाम की भी श्रमण परंपरा थी।
कदाचित उन्हें लगा कि ऐसा करना नाटक की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को वास्तविकता के करीब ले जाएगा। वे गलत भी नहीं थे. नाटक का बड़ा हिस्सा नंद के शासन में घटता है, जब आजीवक राज्य का प्रमुख धर्म था, इस कारण इसे अन्यथा भी नहीं कहा जा सकता था। ऐसे में नाटक से इन दृश्यों का हटाया जाना कई प्रश्न छोड़ जाता है। इस पर नजर डाली गई कि पहले और दूसरे संस्करण के बीच एक साल का अंतर है। [10]
जहां तक प्रसादजी का सवाल है, उनमें तीन फिल्में 'आजीवक', 'धनदत्त', 'मणिमाला' और 'चंदन' से बहुत अनुराग बनी रहेंगी। ये चारों पात्र अपने एक ही विशिष्ट चरित्र के साथ उनके साहित्यिक उपन्यास 'इरावती' के पात्र का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। अधूरा होने के कारण यह दावा नहीं किया जा सकता है कि उपन्यास यदि लेखक के निबंध में पूरा हो गया है तो उसकी वर्तमान सामग्री ठीक उसी रूप में रहती है, जिस रूप में वह दिखाई देती है, लेकिन उनके द्वारा, आजीवक दर्शन के बारे में जानने के लिए जैन बौद्ध और ग्रंथों के गहन अध्ययन की पुष्टि की जाती है।
'इरावती' का विषयवस्तु उस दौर का है जब मौर्य शासन काल में यह तानाशाही हाथों में थी। उनका पुराना वैभव समाप्त हो रहा था। जिस कलिंग को जीतने के लिए अशोक ने भारी युद्ध किया था, वहां के शासक खारवेल सिर पर थे, और शासक शासक के पास मगध की जनता के मन में यवन आक्रमण का भय समाया हुआ था। वास्तविक सत्य सेनापति पुष्यमित्र शुंग के हाथों में थे। ब्राह्मण आश्रमों को सत्ता के विपरीत-गिरजाघरों की ताकत बढ़ाने में मदद मिली। आजीवक, जैन, बौद्ध जैसे श्रमण परंपरा के प्रमुख दर्शनों की गुर्जना पद से आलोचना की गई थी। उपन्यासों में आए 'कुकुरवृत्ति', पाखंड (पाखंड), 'नियतिवादी' जैसे शब्द सार समाज में श्रमण दर्शनों के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण का बोध कराते हैं।
उपन्यास की कथानायिका इरावती देवदासी है। देव-मंदिर के नृत्य गान। एक बार संपर्क उनका बौद्ध भिक्षु से होता है। उसके प्रभाव में उसने मंदिर छोड़ दिया; भिक्षु संघ में बिना दीक्षा-उपसंपदा का निवास है। वहां वह ज्यादातर दिन टिक नहीं पाता है। एक बार एक शैव साधु वहाँ आता है। इरवती संवाद संवाद करना है. वह शैव-साधक के आनंदवाद के दर्शन से अशामत था, फिर भी भिक्षु संघ की ओर से, 'अपरिचित पाखंड की पापमति से प्रभावित' होने के आरोप में प्रायश्चित को कहा जाता है। इरावती प्रायश्चित करने के बजाय संघ से प्रस्थान कर जाती है। [11]
यहां भिक्षु के मुंह से, दूसरे भिक्षु के लिए 'पाखंड' की मूर्ति से चौंकने की आवश्यकता नहीं है। जैसे आज अलग-अलग धर्मों में रेस्टोरेंट चलती है, उन दिनों भी चलती थी। बुद्ध ने बाकी सभी धर्मों को 'मिथ्यादृष्टि' कहा है। यही उनके धर्म के बारे में अन्य मतावलम्बियों का विचार था।
कथ्य की अनुकूलता
'इरावती' का धनदत्त 'चंद्रगुप्त' के धनदत्त ही धनाढ्य थे। उनके तीन भूगर्भ सोने से मिले थे, 'इरावती' के धनदत्त के पास भी ठीक-ठाक ही मिलता है। 'आजीवक भिक्षु अपने विश्वासी मित्र' थे, 'इरावती' के धनदत्त की भी आजीवक से मैत्री थी। 'चंद्रगुप्त' में धनदत्त की पत्नी मणिमाला कुछ समय के लिए लापता आजिवक की मदद से लौट आती हैं। 'इरावती' में भी ठीक यही घटना है. 'चंद्रगुप्त' का आजीवक-बात पर नियतिवाद की बात कहती है, 'इरावती' का आजीवक भी नियतिवाद की रात रहता है- 'मनुष्य कुछ कर नहीं सकता', 'मैं तो नियतिवादी हूं, जब सोना होगा तो सो जाएगा', 'आगे जाने नियति। 'लाखों योनियों में पर्यटन आकर्षण-कराते जैसे यहां तक ले आए हैं और जहां भी जाएंगे...', जैसा कि ईसा पूर्व पहली-दूसरी शताब्दी में वर्णित है, मक्खी गोसाल के प्रभाव की याद दिलाते हैं। यह स्वाभाविक था, क्योंकि श्रावस्ती से उजड़ने के बाद आजीवकों ने पाटलिपुत्र के दक्षिण में लगभग 70 किमी दूर स्थित बराकर पहाड़ी समूह को अपना गुप्तचर बनाया था। जहां अशोक और उनके पौत्र दशहरा मौर्य ने अपने लिए संगमरमर की छह गुफाओं का निर्माण करवाया था।
ऐसा लगता है कि प्रसादजी ने 'चंद्रगुप्त' के तीन दृश्यों में जो उपकथा सृजित की थी, उनका विमोचन का उन्हें मलाल था। इसलिए इरावती में उसे नए मंदिर के विस्तार की कोशिश की गई है। उपन्यास पूरा नहीं हो पाता. कहा जाता है कि 'इरावती' का लेखन कामायनी (1936) के बाद शुरू हुआ था। अगले ही साल उनका देवास हो जाता है। साफ है कि धनदत्त की उपकथा वे लंबे समय तक मानस में सुरक्षित रहे थे। 'इरावती' में भारत की श्रमण परंपरा के विभिन्न स्वरूप सामने आने की कोशिश की जाती है।
तरह-तरह के श्रम
'हर्षचरित्र' में राज्यश्री की खोज में हर्ष विभिन्न मतावलंबी श्रमणों और साधुओं से मिलता जुलता है। ऐसे ही इरावती की खोज में निक अग्निमित्र बौद्धों, शैव-साधुओं, पुनर्जन्मवादियों, कॉम्प्लेक्सकों, निर्ग्रंथों और आजीवकों के संपर्क शामिल हैं। इनमें से अधिकांश अंतरिक्ष आजीवक को मिला हुआ है। 'तपस्वी! तीर्थक! बड़ी-बड़ी जटा! 'तारी!' जैसे शब्दों से प्रसादजी आजीवक श्रमण-तीर्थंकर का मनो पूरा बिंब खड़ा कर देते हैं। [12] हालांकि ये सभी उपन्यासों के ऐतिहासिक स्थलों की प्रामाणिकता को प्रमाणित करने के लिए हैं, न कि किसी भी प्रकार की सहानुभूति के आजीवक दर्शन से-
तीसरे में एक आजीवक उसी स्थान पर ग्यान चंदन से लगाया गया- 'धर्मशाला कितनी दूर है, उपासक?'
धनदत्त कुढ़ रहा था. उन्होंने कहा- 'धर्मशाला होटल हैं आप?' डुबा मगध मंदिर ही तो है. कहाँ रहना चाहिए. पूछो क्या है, यही सुन कर तो सुदूर यवन-देश से बहुत-से मेहमान आ गए हैं।'
'मैं आपकी बात समझ नहीं सका।'
'आश्चर्य. 'इतनी छोटी-सी बात और इस ईश्वरीय सिद्धांत में नहीं आई।'
'नहीं भी हो सकता है. 'वैकल्पिक बात ही है, मुझे तो भोजन चाहिए, न होगा तो इसी सामने वाले चैत्य-वृक्ष के नीचे पड़ रहूँगा।'
'पड़ रहो. मैं पूछता हूं कि मगध में ही ऐसा अभागा देश है, जहां दरिद्र सिद्धांत उत्पन्न होते हैं? कौन सा सामान नहीं मिला। सोच लिया कि मां के गर्भ से क्या कपड़े पहने आए थे। बस एक सिद्धांत बन गया, पर्यटक घूमने लगे। कभी धोखे से कोई मच्छर भी शैतानों से खानदानकर चला गया, बस प्राण-हिंसा हो गई। संघपर वर्कशॉप रनवे लगे। गधा हो गया कांता. ढोंग ने बनाईं चींटियां दबती हैं। फिर तो हाथ में दार्शनिक वाले सिद्धांत! सिर नहीं घुघुआ— जटाधारी गुड़िया हुए, पानी गरम करके पीने लगे; और ये सब सिद्धांत बन गये! वाह रे मगध!' [13]
मार्क्सवादी परम्परा के प्रति कतिपय दर्शन देखे जा सकते हैं। आजीवक श्रमों को जटिल (जटाधारी) भी कहा गया है। जीवहत्या न हो इस कारण वे गर्म जल का सेवन करते थे। संघपर प्लास्टिक प्लांट वाले श्रमिकों से लेखक का काम जैन-मुनियों से है। उनके लिए निर्ग्रन्थ शब्द भी उपन्यास में आया है। पर्यटन वाले ईश्वरीय आजीवक और जैन थे। धनदत्त की पसंद अपनी पत्नी से बिछुड़ने की आखिरी तारीख थी। उसे बताया गया कि उसकी पत्नी मणिमाला किसी आजीवक के साथ चली गयी है। कुछ अंतर्विरोध के बाद मणिमाला आजीवक के साथ ही लौटती है—
'मैंने सुना था कि तू एक आजीवक के साथ कहीं चला गया!'
'चली गई नहीं, चली आई कहिए।' वह आजीवक भी साथ है, जापान की रक्षा में तो मैं जीवित रहूँगा।' उसने गाड़ी की ओर देख कर पुकारा, 'आइए आर्य।' गाड़ी से उतरकर एक आजीवक साधु आया। उसे देखते ही पहले आजीवक ने चिल्लाकर कहा—
'अरे मैं यह क्या देख रहा हूँ? मेरे गुरुदेव.'
'धनदत्त मैंने अंग्रेजी में कुछ नहीं लिया, यह सब लो। मैं अपनी नियति का भोगने से बहुत आगे हूं। आओ वत्स!' [14]
मणिमाला के आजीवक के साथ रीव्यू के प्रसंग का उल्लेख चंद्रगुप्त नाटक में भी है। वहाँ आजीवक नन्द की सगाई मणिमाला और धनदत्त की संपत्ति से जुड़ी है। [15]
आजीवक विरोधी सम्राट
आजीवकों को जो स्वतंत्रता नन्द के समय में थी, पुष्यमित्र के समय नहीं थी। बौद्ध मतावलंबियों और आजीवकों के लिए उन्होंने समय का विरोध किया था। कौटिल्य पूर्ण श्रमण परम्परा के आलोचक थे। यह आजीवक, बौद्ध आदि तीर्थयात्रियों को घर पर आमंत्रित कर भोज पर रखने वाले, शत्रु देशों के जासूस हो सकते हैं, 100 पैन का सामान जाने की सजावट 'अर्थशास्त्र' में थी। [16]
यह पूरी तरह से आजीवक, जैन, बौद्ध आदि श्रमण परंपरा के दर्शनों को कमजोर करने की नीति का हिस्सा था। जो गुप्तचर आजीवक, जैन आदि श्रमणों के वेश में जासूसी कर सकते थे, वे ब्राह्मण वेश में भी जासूसी कर सकते थे। अजातशत्रु के मंत्री वस्सकार ब्राह्मण वेष में ही अजातशत्रु की जासूसी हुई थी। 'अर्थशास्त्र' के उस समय के शिल्पकार वर्ग का अनुमान यह भी लगाया जा सकता है, जहां के बीच आजीवकों का बड़ा समर्थक वर्ग था—राज्य की सेवा के लिए मात्र 48 पैन वार्षिक वेतनमान था।
मगध में उस समय आजीवकों को लेकर प्रत्यक्ष विधान लागू था। ब्राह्मण पुष्यमित्र को आजीवकों के सफाये के लिए लगातार प्रोत्साहित करते रहे। उन्हें रास्ते का कांता बताया जा रहा था- ' सेनापति! पाखंड छद्यमवेशियों से तारा राजपुरी भरा हुआ है... यदि आप इन कंटकों का उपाय न करोगे तो विनाश में संदेह नहीं। ' [17]
उसके बाद महानायक अग्निमित्र के आदेश पर आजीवकों को गिरफ्तार कर लिया गया। उनके पिता सेनापति पुष्यमित्र आजीवकादि श्रमणों को भिक्षा देने पर दीक्षित हुए थे। राज्य के दबाव में धनदत्त को अजिवकोपासक के रूप में भी देखा जाता है-
'वह कुकुरव्रती सिद्धांत तो हटता ही नहीं।' एक ही तरह की गेंददुरी मारे दोनों केहुनियों के बल कुत्ते की तरह मिलती है।'
'पड़ा रहना दो.' अन्यमनस्क भाव से धनदत्त ने कहा।
'किंतु सेनापति की आज्ञा क्या भूल गए? ऐसे ही सस्ते पाखंडियों को अन्न देने के लिए उन्होंने बर्बाद कर दिया है।' चंदन ने कहा.
'हाँ, उनका उद्देश्य है कि ये सब स्वयं नगर के बाहर भोजन न पाएँ...' [18]
जैन ग्रंथों में आजीवकों की विचित्र साधनाशैलियों की चर्चा है। नवीन में से एक था भिक्षान्न को पथरी पर लेकर, बिना हाथ के उपकरण के बिना सीधे मुंह से खाना। कुछ ऐसे थे जो भिक्षान्न को जमीन पर रखवा लेते थे, फिर सीधे मुंह से निकलते थे। पहले लोगों को हाथ-चट्टा या पथरी चट्टा और दूसरी श्रेणी के श्रमण कुकुरावती कहे जाते थे। उपन्यास में बौद्धविहार को कुक्कुटाराम नाम दिया गया है। जबकि कुक्कुटाराम, कुक्कुट्टनगर आदि का संबंध बौद्ध धर्म से अधिकांश आजीवकों से था।
जिस दौर में प्रसाद ने इन कृतियों की रचना की, वह भी सांस्कृतिक-राजनीतिक उद्घाटित-विस्तार का था। आज़ादी की लड़ाई अपने अंतिम दौर में प्रवेश कर चुकी थी। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की प्रतिष्ठा में जातिवादी ताकतें सत्ता शिखरों को कब्ज़ा लेना चाहती थीं। तत्वज्ञानी एवं बुद्धिजीवियों के विशाल वर्ग का उन्हें समर्थन प्राप्त था। उनकी सारी कोशिश ब्राह्मणधर्म की पुनर्वापसी थी। ब्राह्मणवाद और उनकी उपकृत शक्तियां, बुद्धि और छल-बल विदेशी शासकों के काल में क्षति की भरपाई में लग गई। ऐसे में जाति-वाद विरोधी, विरोधी, वेद और याज्ञिक कर्म कांडों के विरोधी, पाप-पुण्य-तीर्थ-दान के धुर-विरोधी आजीवक दर्शन को, जो युद्ध से पहले यत्न डंक, तरह-तरह के लांछनों के साथ विचार-विमर्श से किया गया था-- सिद्धांत विमर्श के केंद्र में लाना, दूसरों की मेहनत पर पानी फेर देना जैसा था।
संभवतः 'चंद्रगुप्त' के लेखक की इच्छा/अनिच्छा से, नाटक का प्रकाशन हो जाने के बावजूद उसे हटा दिया गया/हटाया गया। इस लेखक की उपकथा और उसका गीतकार मोह था, जिसने उसे अप्रकाशित उपन्यास के हिस्सों के रूप में सुरक्षित रखा।
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