सोमवार, 2 अगस्त 2010

परसत मन मैला करे, सो मैदा जर जाए।

आज कल अखबारों में मोटे अनाजो की पौष्टिकता एवं उपयोगिता की बड़ी चर्चा हो रही हैचूंकि व्यक्ति एवं समाज में 'स्टेटस सिंबल' की एक झूठी मानसिकता ने अपना स्थान बना लिया है, इसलिए अनाजो को भी छोटा बड़ा इस आधार पर माना गया कि उसका भाव क्या है और उसे कौन खता हैआज से लगभग चर सौ साल पूर्व रहीम के एक दोहे से भी चने और मैदे के अंतर का यह भाव झलकता है- कारण उस समय जो भी रहा हो -

रहिमन रहिला की भली, जो परसै मन लगाय,
परसत मन मैला करे, सो मैदा जर जाए

मैं अपने बचपन की बात बताता हूँ, जब चना सस्ता और गेंहू महंगा था, गरीब तो बेचारा सस्ती चीज ढूंढता है, अत: वह चने की रोटी खाता थाइसलिए चने को बहुत हेय द्रष्टि से देखा जाता था, यदि हमारे घर में कभी चने की रोटी पकती थी तो घर का दरवाजा बांध कर दिया जाता था
कोदों का भात भी गरीब खाते थे, इसके लिए मुहावरे तक बन गए थे, जब कोई पढ़ लिख कर भी बेवकूफी की बात करता था तो उसे बोर करने के लिए कहते थे कि ' क्या कोदो देकर पढ़ा है।'
अब अखबार ने मोटे अनाजों के नाम गिनाये हैं- जै, जौ, रागी, बाजरा, ज्वार- फिर यह बताया कि कम लागत से ये अनाज पैदा किये जा सकते हैं, गेंहू चावल की अपेक्षा इनमें पौष्टिकता अत्यधिक पाई गयी हैदो चीजें मुझे भी याद रही हैंजिनका नाम अखबार वाले भूल गए- एक अनाज मोथी था दूसरा था सांवाएक चीज तिलहन के रूप में थी, जिसे इस क्षेत्र में बर्रे कहा जाता थाइनमें से कई अनाज अब फाइव स्टार होटलों में शौकिया खाए जाते हैं, ये क्रेज इसलिए जगा कि ये अब महंगे हैंगरीब की पहुँच से दूर हैंखाद्य समस्या को सुलझाने तथा जन-जन तक पौष्टिकता को पहुंचाने हेतु व्यापार स्तर पर इनके उत्पादन की आवश्यकता है- गरीब फिर बोल उठेगा-
मोटा-मोटा खाय के ठंडा पानी पीव

-डॉक्टर एस.एम हैदर

1 टिप्पणी:

Vinashaay sharma ने कहा…

बिलकुल सही बात कही है ।

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