रविवार, 5 सितंबर 2010

इक्कीसवीं सदी का पहला लाल सितारा-नेपाल : 5

घने कोहरे के पीछे छिपा है सुर्ख सूरज
हाल में 1 मई से 7 मई तक माओवादियों के आह्वान पर लाखों लोग इकट्ठे हुए। बेहद कामयाब हुई इस आम हड़ताल से यह तो साबित हुआ कि माओवादियों का जनाधार कमजोर नहीं पड़ा है और व्यापक जनता का विश्वास अभी भी उनके पक्ष में है, लेकिन साथ ही उसी वक्त यह भी देखा गया कि धीरे-धीरे युद्धविराम की इस स्थिति का लाभ उठाते हुए प्रतिक्रान्तिकारी ताकतें भी गोलबंद हो रहीं हैं। सात दिनों तक ठप पड़े जनजीवन का हवाला देकर हड़ताल और बंद का विरोध करते हुए तमाम छोटे-बड़े व्यवसाइयों, पूँजीपतियों और अपने आपको अराजनैतिक कहने वाले संगठनों के आह्वान पर 7 मई को आयोजित इस ‘‘शान्ति रैली’’ में 40-50 हजार लोग इकट्ठा हुए। ये लोग उस ‘‘राजनीति’’ को कोस रहे थे जो बंद का आह्वान करती है तो उनके करोड़ों-अरबों का व्यापार प्रभावित होता है; और उस राजनीति को जानबूझकर नजरंदाज करते हुए मौन समर्थन दे रहे थे जो भले मेहनतकश करोड़ों लोगों को भूखा रखती हो लेकिन उनके व्यापार को बदस्तूर चलाए रखती है।
जो लोग नेपाल की क्रान्ति को एक कामयाब क्रान्ति मानकर उत्सव की मनःस्थिति में हैं वे क्रान्ति के सामने आसन्न संकटों को नहीं देख पाने की भारी भूल कर रहे हैं, और जो नेपाल की क्रान्ति को उग्र वामपंथ की एक फौरी जीत मान रहे हैं, वह वर्षों तक चलाई गई एक सुनियोजित क्रान्तिकारी प्रक्रिया को कम करके आँकने की दूसरी तरह की भूल कर रहे हैं। नेपाल के माओवादी क्रान्तिकारी यह अच्छी तरह जानते हैं कि क्रान्ति कर लेना एक बात है, लेकिन उससे ज्यादा मुश्किल है उसे कायम रखना। वे क्रान्ति को कायम कैसे रखते हैं, कैसे अब तक के संघर्ष को आगे बढ़ाते हैं, और वे कामयाबी की दिशा में कितने कदम आगे बढ़ते हैं, इसके बारे में कोई भी पूर्वानुमान बचकाना होगा। लेकिन जो हुआ है, वह कम नहीं हुआ है कि माओवादी नेपाल को राजशाही के घेरे से बाहर निकालकर लाए हैं, उसे कमतर आँकना भी एक बड़ी भूल होगी।
आज नेपाल की क्रान्ति जिस दलदल में फँसी है, जाहिर है उससे बाहर निकालने के लिए वहाँ की क्रान्तिकारी ताकतों को बाहर से कोई मदद हासिल नहीं होने वाली। न दूर से और न ही पास से। ऐसे में उनके पास जो संभावनाएँ हैं वे बहुत सीमित हैं। ऐसे में यह आशा करने के साथ ही कि जिस तरह नेपाल के माओवादी असंभव लगती परिस्थितियों के बीच से क्रान्ति को कुछ कदम आगे लाए हैं, वैसे ही उनकी अनुभव आधारित सूझबूझ उन्हें आगे भी सही रास्ते पर ले जाएगी, हमें, दुनिया भर में मौजूद वामपंथियों को, और खासतौर पर हिन्दुस्तान में अपने आप को वाम कहने वालों को मूक दर्शक बनने के बजाए नेपाल के माओवादियों का अधिकाधिक संभव सहयोग करना चाहिए। नेपाल की इस भूमिका को इक्कीसवीं सदी के समाजवादी इतिहास में आकाश में जगमगाने वाले सबसे पहले तारे की माफिक सम्मानित करना चाहिए। मौजूदा वैश्विक और क्षेत्रीय घटनाओं के मद्देनजर यह असंभव लगे तो बेशक लगे। ज्ञानेन्द्र को राजसिंहासन से अलग करना ही कौन सा मुमकिन कार्य लगता था। और फिर हिन्दुस्तान के प्रखर माक्र्सवादी विद्वान और नेपाल के माओवादियों के लिए भी उतने ही सम्मान्य प्रोफेसर
रणधीर सिंह कहते हैं कि राजनीति दरअसल असंभव लगने वाली परिस्थितियों को संभव बनाना ही तो है।

-विनीत तिवारी
मोबाइल-09893192740
लोकसंघर्ष पत्रिका सितम्बर 2010 अंक में प्रकाशित
(समाप्त)

2 टिप्‍पणियां:

दीपशिखा वर्मा / DEEPSHIKHA VERMA ने कहा…

"ये लोग उस ‘‘राजनीति’’ को कोस रहे थे जो बंद का आह्वान करती है तो उनके करोड़ों-अरबों का व्यापार प्रभावित होता है; और उस राजनीति को जानबूझकर नजरंदाज करते हुए मौन समर्थन दे रहे थे जो भले मेहनतकश करोड़ों लोगों को भूखा रखती हो लेकिन उनके व्यापार को बदस्तूर चलाए रखती है।...

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लेकिन जो हुआ है, वह कम नहीं हुआ है कि माओवादी नेपाल को राजशाही के घेरे से बाहर निकालकर लाए हैं, उसे कमतर आँकना भी एक बड़ी भूल होगी।
आज नेपाल की क्रान्ति जिस दलदल में फँसी है, जाहिर है उससे बाहर निकालने के लिए वहाँ की क्रान्तिकारी ताकतों को बाहर से कोई मदद हासिल नहीं होने वाली। न दूर से और न ही पास से। ऐसे में उनके पास जो संभावनाएँ हैं वे बहुत सीमित हैं। ऐसे में यह आशा करने के साथ ही कि जिस तरह नेपाल के माओवादी असंभव लगती परिस्थितियों के बीच से क्रान्ति को कुछ कदम आगे लाए हैं, वैसे ही उनकी अनुभव आधारित सूझबूझ उन्हें आगे भी सही रास्ते पर ले जाएगी."


बहुत अच्छा है हर बार कि तरह , मुझे नहीं पता था वाम पंथी कहीं सकारात्मक क्रांति भी ला सकते हैं , पर नेपाल का उदहारण दे कर आपने साबित कर दिया कि मार्क्सवाद , कोम्मुनिस्ट्स आज भी जिंदा हैं क्युकी कुछ पहलु उसके अभी भी प्रभावशाली हैं परिस्तिथि को बदलने हेतु ..

ये सवाल यहाँ बंद लगने पर भी सुलगा था, शोभा डे ने भी यही कहा था ..बंद एक सही तरीका नहीं है विरोध का इससे कहीं ना कहीं देश की आर्थिक गाडी के पहिये घिसते हैं .मेरा भी उस बंद को ले कर यही मानना था .

निर्मला कपिला ने कहा…

विचारणीय पोस्ट। आभार।

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