रविवार, 10 अक्तूबर 2010

नव पूँजीवाद का जघन्यतम चेहरा

विगत कई एक वर्षों के प्रकाशकों का लेखा, जोखा, रुझान, पुस्तक मेला में हुई खरीद, फरोख्त का ब्यौरा आदि को यदि ध्यान से देखें तो विशेषकर एक बात उभरकर सामने आती है कि सूचनात्मक, ज्ञानवर्द्धक, सामाजिक, आर्थिक जैसे विषयों के उभार का यह समय है। साहित्यिक विद्या की पुस्तकें कविता, कहानी, उपन्यास, समीक्षा आदि की क्रय शक्ति इनकी अपेक्षा कमतर हुई है। यह मान्यता मेरी निजी नहीं बल्कि अखबारी सर्वेक्षण और प्रत्येक मेले के बाद प्रकाशकों द्वारा जारी किए गए संयुक्त बयान का संक्षिप्त सार है।
इस कथन से साहित्यिक और साहित्येतर विषयों के कद को यदि छोटा, बड़ा करके दिखने दिखाने की रस्साकसी में न पड़ें तो भी इससे एक बात बहुत स्पष्ट है कि पाठकों की पठनीयता के रुझान में
इधर तेजी से परिवर्तन आया है। यही कारण है कि आज की तारीख में अरुन्धती राय, मेघा पाटेकर, महीप सिंह, मुद्राराक्षस, विमल जालान, प्रभृत अनेकशः लेखक अपने साहित्यिक लेखन की तुलना में साहित्येतर लेखन के कारण चर्चा के केन्द्र में अधिक रहे हैं।
इसी श्रृंखला की एक सशक्त कड़ी के रूप में बहुमुखी प्रतिभा के धनी कवि, कहानीकार, प्रखर विचारक, सामाजिक आर्थिक विषयों के विश्लेषक अशोक कुमार पाण्डेय की पुस्तक ‘शोषण के अभ्यारण्यः भूमण्डलीकरण के दुष्प्रभाव और विकल्प का सवाल (शिल्पायन प्रकाशन, शहादरा, दिल्ली, मूल्य 200रु0) को देखा, पढ़ा और समझा जा सकता है।
सामाजिक आर्थिक विषयों की वे पुस्तकें जो प्रायः विषय विशेषज्ञों के द्वारा तैयार की जाती हैं, उनके अपठनीय होने के साथ विषय बोझिल होने की शिकायत अक्सर रहती हैं। जबकि अशोक कुमार पाण्डे की यह पुस्तक किसी हद तक एक विषय विशेषज्ञ के ज्ञान को अपने में समाहित करते हुए भी उनसे भिन्न, पढ़ने में दिलचस्प, रोचक एवं विचारोत्तेजक भी है। जो एक साथ साधारण और असाधारण दोनों कोटि के पाठकों को संतुष्ट करने में सक्षम है। इस पुस्तक का सबसे बड़ा गुण आद्यन्त पठनीयता है। इस पुस्तक में लेखक ने आँकड़ों की बाजीगरी न दिखाकर उसके सटीक प्रयोग द्वारा सामाजिक, आर्थिक मुद्दों में समता, विषमता को विश्लेषित करने में किया है। जिसके कारण लेखों की विश्वसनीयता पाठक के हृदय में धीरे-धीरे घर कर जाती है। मसलन, लैंगिक भेद का आईना, भारतीय महिला मुक्ति संघर्षों का लाइट हाउस, हताशा के दौर में संघर्ष की उजली कहानी ऐसे ही लेख हैं। जो भारत की आधी आबादी नारी के प्रति हो रहे आर्थिक भेदभाव पूर्ण नीति को आईना दिखाते है, और अन्ततः महिला सशक्तीकरण में अपना विश्वास व्यक्त करते हुए उसे जमीनी धरातल पर रूपायित करते हैं न कि कोरा वाग्विलास। हताशा के दैनिक संघर्ष की उजली कहानी में वे हाण्डा प्रबन्धन और मजदूरों के बीच की कहानी को पर्त दर पर्त उघाड़ते हुए पूँजीशाही के घिनौने चरित्र को पेशकर उसके प्रति वितृष्णा व नफरत पैदा करते हैं तो दूसरी ओर ‘दुनिया के मजदूरों एक हो’ जैसे नारे में विश्वास व्यक्त करते हुए वहाँ के मजदूरों के अदम्य संघर्ष और साहस का सच प्रस्तुत करते हुए उनका मनोबल भी ऊँचा करते हैं। किसी भी लेखक की यह एक बड़ी जिम्मेदारी होती है कि वह पाठकों को अपने विचारों के पक्ष मंे या बिल्कुल सच के करीब पहुँचाए, इस कार्य को भी अशोक कुमार पाण्डेय ने बखूबी अंजाम दिया है। इसे इस किताब की सफलता का रहस्य भी कह सकते हैं।
शोषण के अभ्यारण्य’ पुस्तक एक औसत भारतीय मेघा के चिंतन और विशिष्ट वैचारिकी के तालमेल से सृजित है।
यह कहने में कोई संकोच नहीं कि इसमें लेखक ने समाज में व्याप्त विभिन्न रूपों में पूँजीवाद के नये पुराने चरित्र को उद्घाटित करते हुए उसके शोषण के नए-नए, क्रूर, वीभत्स, चेहरों को अंग्रेजों के औपनिवेशिक काल से लेकर, अधुनातन समय के नव साम्राज्यवाद तक, उसके तह में जाकर पर्याप्त मंथन के बाद अनावृत किया है। किन्तु इनके बीच पिस रहे मजदूर, किसान और बेरोजगार, नौजवान का संघर्ष तथा पीड़ा उनकी दृष्टि से कहीं भी ओझल नहीं होता हैं। वे पूँजीवाद के पतन और एक नये समाजवाद में विश्वास व्यक्त करते हैं। यह पुस्तक आने वाले समाज के भयावह सच से रूबरू कराती है। जहाँ वैश्विक गाँव की परिकल्पना में किसान आत्महत्या को मजबूर हैं, बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ के हाथों उनकी जमीन औने-पौने बेचने की सरकारी, गैरसरकारी क्रूर कोशिशें हैं, कृषि योग्य घटती जमीने हैं, खाद्यान्न की अकूत कमी के भावी संकेत हैं, आम जन के खुदरा बाजार पर भी कब्जा करने को आतुर ये कम्पनियाँ सुरसा सा मुँह बाए हैं। बड़े-बड़े माॅलों की चमक, रीयल स्टेट की बहुमंजली इमारतंे, मुट्ठीभर पढ़े, लिखे को रोजगार की कीमत पर शेष 90 प्रतिशत बेरोजगारों की फौज का आखिर क्या होगा? रोजगार के अवसर, निरन्तर घट रहे हैं। क्या इन्हीं कारणों के परिप्रेक्ष्य में नक्सली या नक्सलवाद तो नहीं पनप रहा हैं।
इन अनेकशः नई समस्याओं को केन्द्र में रखकर अशोक कुमार पाण्डेय ने ग्यारह शीर्षकों को बीस उपशीर्षकों में बाँटकर अपनी पुस्तक को एक सुन्दर कलेवर दिया है। नई सदी के ज्यादातर विषयों पर उनकी दृष्टि गई है। यह पुस्तक रिजर्व बैंक के गवर्नर विमल जालान की पुस्तक ‘भारत की अर्थ नीति 21वीं सदी की ओर’ कतिपय सन्दर्भों से जोड़कर भी देखी, पढ़ी जा सकती है। यदि दोनों पुस्तकों का तुलनात्मक
अध्ययन किया जाए तो कुछ नए और दिलचस्प नतीजे भी मिल सकते हैं।

-महंत विनय दास
मोबाइलः 9235574885

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