गुरुवार, 26 जुलाई 2012

स्तालिन बचाव के मुँहताज नहीं


आज जब पूंजीवादी अर्थव्यवस्था गंभीर संकट में है और आर्थिक संकट का समाधान नहीं हो पा रहा हैसमाजवादी अर्थ तंत्र के विशेषज्ञ जोजेफ स्तालिन ने अपनी अंतिम रचना में समाजवादी अर्थतंत्र के समस्यायों के निदान के सम्बन्ध में चर्चा की थीइस पुस्तक को जोसेफ स्तालिन के मरने के बाद पुन: प्रकाशित नहीं होने दिया गया थाइस पुस्तक का अनुवाद श्री सत्य नारायण ठाकुर ने किया है जिसके कुछ अंश: यहाँ प्रकाशित किये जा रहे हैंआप के सुझाव विचार सादर आमंत्रित हैं
-सुमन
लो क सं घ र्ष !

अनुवादकीय


इतिहास किसी का बचाव नहीं करता। स्तालिन किसी के बचाव के मुँहताज भी नहीं। स्तालिन के निधन के बाद सभी सोवियत शासकों ने स्तालिन पर लगातार प्रहार किए। स्तालिन ने जितने दिनों तक शासन किया उससे ज्यादा दिन उनके मरे हुए हो गए, तब भी स्तालिन जिंदा हैं, क्योंकि स्तालिन की कृति जिन्दा है।
स्तालिन ने जिस समाजवादी अर्थ तंत्र की नींव डाली, उसे खुरश्चेव सुधार नहीं सका, ब्रेझनेव का भार नहीं दबा सका, उससे टकराकर गोर्बाचोव की अनूठी क्रान्ति ध्वस्त हो गई और अभी बोरिस येल्त्सिन लहू-लुहान हो चले हैं।
मार्गरेट थैचर और जार्ज बुश खारिज हो गए। जानमेजर, हेलमेट कोल, फ्रांसिस मितरां, बिल क्लींटन सिर खुजा रहे। उनकी योजनाओं के वांछित परिणाम नहीं आ रहे हैं। अमरीकी अर्थ क्रान्तियों के नुस्खे काम नहीं कर रहे हैं। पाँच सौ दिनों में पूँजीवाद स्थापित करने की शौक थेरापी का दिवाला पिट गया और अब समाजवाद को स्तालिनवादी मॉडल कहकर फूँक मारने वालों की बोलती बंद है।
इसका क्या जवाब है कि सामूहिक फार्म को तोड़ा गया तो अनाज का उत्पादन चौपट हो गया, राजकीय उद्योगों के शेयर निजी हाथों में बेचे गए तो उत्पादन रसातल चला गया, साझा बाजार और स्टाक एक्सचेंज खोले गए तो सटोरिये और उचक्कों की चाँदी हो आई, मुक्त बाजार व्यवस्था लागू की गई तो काला बाजार और मुनाफा खोर उन्मुक्त हो गए, अपराध और सेक्स खुला अट्टहास करते हैं, चोरी, डकैती, खून और लूटपाट की घटनाएँ बेलगाम हैं तथा कथित कम्युनिस्ट तानाशाही के स्थान पर वास्तविक खूनी गुंडाशाही कायम हो गई।

सच क्या है?

अपनी प्रारंभिक रचनाओं और बाद की रचनाओं के कतिपय विरोधाभासों के बारे में पूछे जाने पर कार्लमार्क ने कहा कि उनकी बाद की रचनाएँ ज्यादा प्रमाणिक हैं। यही बात स्तालिन पर लागू होती है। स्तालिन ने स्वयं भी अपनी कई पूर्व की प्रस्थापनाओं को छोड़ दिया। उन्होंने अपने जीवन के अंतिमकाल में एक पुस्तिका लिखी- ‘‘सोवियत संघ में समाजवाद की आर्थिक समस्याएँ’’ एक सौ चार पृष्ठों की यह पुस्तिका सोवियत संघ में समाजवादी प्रयोग के अनुभवों और उपलब्धियों की सैद्धांतिक विवेचना तथा भावी कार्यक्रम की रूपरेखा है। पार्टी की उन्नीसवीं कांग्रेस में कमजोर स्वास्थ्य के कारण स्तालिन कोई अन्य दस्तावेज पेश नहीं किए। किन्तु इसे उन्होंने स्वयं एक ‘मंतव्य’ के रूप में कांग्रेस के सामने प्रस्तुत किया। इससे पता चलता है कि उन्होंने इसका कितना महत्व दिया। सच मुच उनकी यह अंतिम कृति एक अमर कृति के रूप में विख्यात है।
लेनिन के निधन के बाद स्तालिन मृत्युपर्यन्त संपूर्ण संसार की राजनीति के धुव्र में रहे। उनके मरने के बाद विरोधियों ने जितना ही उन्हें छोटा दिखाने का प्रयत्न किया वे उतना ही बड़ा होते चले गए। ‘‘सामूहिक फार्म’’ और ‘‘औद्योगी करण’’को लेकर और फिर द्वितीय विश्व युद्ध काल की उनकी नीतियों के बारे में जितना कुछ दिखाया व लिखा गया हैं, उतना आज तक संसार के किसी एक राजनेता के बारे में नहीं लिखा गया। फिर भी यह आश्चर्यजनक है कि उनकी इस अंतिम कृति के बारे में उनके विरोधियों ने क्यों श्मसान की चुप्पी साध ली। तो निकिता खुराश्चेव ने, और मिखायल गोर्बाचोव ने दुनिया के प्रथम समाजवादी अर्थ तंत्र के रचनाकार की इस अंतिम पुस्तक में व्यक्त अवधारणाओं के बारे में कभी मुँह खोला और इसके बारे में एक भी शब्द कहीं लिखा। शायद इसलिए कि जो कुछ ये कर रहे थे, वह उक्त पुस्तक में दी गई चेतावनियों के विरुद्ध था और उलटा अपनी विफलताओं की जिम्मेदारी स्तालिन के मत्थे मढ़ रहे थे। यह पहले सिरे की बेइमानी थी।
मिखायल गोर्बाचोव ने जब ‘परेस्त्रोइका’ और ‘ग्लासनोस्त’ (खुलापन) की घोषणा की तो इन पंक्तियों के लेखक ने उन्हें पत्र लिखकर स्तालिन की रचनाओं को प्रकाशित कराने और सोवियत पुस्तकालयों में उपलब्ध सूचना भी नहीं मिली। यह अजीबो गरीब ‘खुलापन’ था जहां स्तालिन की रचनाएँ प्रतिबंधित थीं।
द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद पश्चिमी अर्थ शास्त्रियों ने घोषणा कर दी कि सोवियत संघ को अपने पैर पर खड़े होने में पचास वर्ष लगेंगे किन्तु युद्ध जर्जर सोवियत संघ सिर्फ 6 वर्षों में पुननिर्मित होकर केवल खड़ा हो गया, बल्कि साम्राज्यवाद के एक छत्र विश्व बाजार को तोड़कर समानांतर एक नया समाजकवादी विश्व बाजार बना दिया। वर्ष 1951 में इन उपलब्धियों का मूल्यांकन, इसके सैद्धांतिक पक्ष का विवेचन तथा उच्च समाजवादी अवस्था की भावी रूप रेखा तैयार करने के लिए देश के अर्थ शास्त्रियों, एकेदमिसयानों, सामूहिक फार्मों और राजकीय उद्योगों के निदेशकों के बीच बहस चलाई गई। उस बहस का समापन करते हुए स्तालिन ने अपना एक मंतव्य प्रसारित किया। 19वीं पार्टी कांग्रेस में उस मंतव्य की सम्पुष्टि की गई। बाद में वहीं मंतव्य पुस्तिका के रूप में प्रकाशित हुआ, जिसकी चर्चा ऊपर की गई है।
यह पुस्तिका विदेशी भाषा प्रकाशन गृह मास्को द्वारा 1952 में छपी। किन्तु बाद में इसका पुनर्मुद्रण नहीं हुआ। सोवियत संघ के बिखराव के बाद इन दिनों यह पुस्तिका चर्चा में है। खोजने ढूँढने से अंग्रेजी में तो इसकी प्रति मिल जाती है, किन्तु हिन्दी में अप्राप्य है।
वर्ष 1951 की उस आर्थिक बहस में कुछ प्रमुख अर्थ शास्त्रियों की मान्यता थी कि सोवियत संघ साम्यवाद में प्रवेश करने की स्थिति में आ गया है। ऐसे विद्वानों ने ‘‘उत्पादक शक्तियों का मुक्ति युक्त समन्वय’’ और ‘‘प्रचुर उत्पादन’’ का सिद्धांत पेश किया। जाहिर है, ऐसे लोग सोवियत सफलताओं से अति उत्साहित थे।
किन्तु स्तालिन ऐसे विचारों के विरोधी थे। वे मानते थे कि एक देश में समाजवाद संभव हैं, किन्तु एक देश में साम्यवाद असंभव है। उन्होंने ऐसे लोगों को ‘‘आर्थिक दुःसाहसिकता’’ का शिकार बताया और चेतावनी दी कि अगर उनके विचारों को कार्यान्वित किया गया तो उसके विनाशकारी परिणाम होंगे। उन्होंने बताया कि समाजवादी उत्पादन का उद्देश्य ‘‘प्रचुर उत्पादन’’ नहीं, बल्कि ‘‘समाज की भौतिक एवं सांस्कृतिक आवश्यकताओं की अधिकतम संतुष्टि है।’’ वे लोगों की जीवनदशा सुधारने के साथ-साथ उनके सांस्कृतिक उन्नयन और नयामानव निर्माण के पक्षधर थे। उन्होंने कहा साम्यवाद केवल ‘‘घोषणाओं’’ से नहीं आएगा, बल्कि इसके लिए सोवियत समाज को अनेक ‘‘शिक्षण एवं पुनर्शिक्षण’ के लंबे दौर से गुजरना होगा।
इस पुस्तिका में एक-एक करके गिनाया गया है कि हमें क्या-क्या करना चाहिए और क्या-क्या नहीं करना चाहिए। पुस्तिका पढ़ने के बाद स्पष्ट ज्ञात होता है कि ख््राुश्चेव और बाद के सोवियत शासकों ने वही किया जो नहीं करना चाहिए और वह नहीं किया जो करना चाहिए था। इसका ज्वलंत प्रमाण है बीसवीं पार्टी कांग्रेस के बाद सोवियत संघ में कम्युनिस्ट स्थापित करने की ‘‘बीस साला योजना’’ की खुली घोषणा।
इसलिए यह उचित है कि सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी की 20वीं कांग्रेस से लेकर 28वीं कांग्रेस तक के कार्यकलापों की जांच की जाय। यह पुस्तक इस जांच का आधार प्रदान करती है। अपने जीवन के अंतिम काल में समाजवाद के प्रथम रचनाकार की लिखी बातों को अनदेखा नहीं किया जा सकता। इसके अभाव में समाजवाद का मूल्यांकन एकांगी और अधूरा ही रहेगा।
समाजवाद के आर्थिक नियमों का चरित्र, माल का उत्पादन, मूल्य के नियम, माल परिचालन, राजकीय उद्योग, सामूहिक फार्म, सम्पत्ति का सामाजिक स्वामित्व और उसका स्वरूप नगर और देहात का विभेद, मानसिक और शारीरिक श्रम का अंतर्विरोध और उसका विलोयन, समाजवाद से उच्च समाजवाद और फिर साम्यवाद में संतरण की समस्याओं, इत्यादि के बारे में यह पुस्तक बेबाक चित्रण और सटीक परिभाषाएँ देती है। पुस्तिका में विश्व पूँजीवाद का आम संकट और पूँजीवादी देशों के बीच युद्ध की अनिवार्यता का सिद्धांत प्रस्तुत किया गया है। यही नहीं इस पुस्तक में स्तालिन विश्वासपूर्वक भविष्यवाणी करते हैं कि पं0 जर्कनी और जापान (जो उस समय पददलित थे) फिर अमेरिका को चुनौती। देने के लिए उठ खड़े होंगे। खाड़ी युद्ध और बाद की अंतर्राष्ट्रीय घटनाएँ स्तालिन की भविष्यवाणी के अनुरूप हैं।
चीन में इन दिनों जो कुछ हो रहा है, उसे समझने के लिए भी इस पुस्तक को पढ़ना उपयोगी है। यह अकारण नहीं है कि माओत्जे तुंग के बाद देंग शिक्षाओं पिंग ने स्तालिन की रचनाओं का प्रकाशन जारी रखा।
मुझे विश्वास है कि सोवियत संघ के बिखरने के बाद उत्पन्न सैद्धांतिक शून्यता को भरने और नये विश्वास के साथ क्रिया के मैदान में उतरने में यह पुस्तक उत्प्रेरक साबित होगी।

सत्य नारायण ठाकुर
18 मार्च 1993, चन्द्रशेखर भवन, मुजफ्फरपुर

क्रमश:

4 टिप्‍पणियां:

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

पूरी पुस्तक पढ़ना चाहूंगा। वे वैज्ञानिक समाजवाद और भाषा समस्या के उत्तम शिक्षक थे।

Dr. Amar Jyoti ने कहा…

@ दिनेश जी- पुस्तक इंटरनेट पर उपलब्ध है.
http://www.marx2mao.com/Stalin/EPS52.html

asif ने कहा…

कुछ लोगों की नजर कमजोर थी और सावन में चली गई. उन्हें हमेशा हरा हरा ही दिखाई देने लगा.

vijai Rajbali Mathur ने कहा…

http://krantiswar.blogspot.in/2012/07/blog-post_24.html

कृपया इस लिंक पर लगी एक इमेज देखें जिसमे पंडित अरुण प्रकाश मिश्रा ने विदेश मे बैठ कर यह घोषणा की है कि,'स्टेलिन कम्युनिस्ट नहीं थे'और उन्होने स्टालिन की थ्योरी के विरुद्ध थीसिस लिख कर डाकटरेट हासिल की है।

क्या वह पंडित जी 'कम्यूनिज़्म के अधिकृत प्रवक्ता हैं?'

Share |