गुरुवार, 29 नवंबर 2012

पूँजीवादी विकास भूत के पांव की तरह

 समाज में जाति और वर्ण व्यवस्था जितनी पुरानी है, उसका विरोध भी उतना ही पुराना है। पूँजीवादी विकास भूत के पांव की तरह है। विकास के भ्रम में हम विनाश को बढ़ावा दे रहे हैं। भारत में शोषण का मूल ढांचा सामंतवाद और पितृसत्ता है, इस पर प्रहार करने से, वायवीय ढाँचा, यानी पूँजीवाद अपने आप टूट जाएगा। पूँजीवाद के खिलाफ हम लेखकों को समाज के ऐसे सभी तबकों को साथ में लाने की भूमिका निभानी चाहिए जो सामाजिक, आर्थिक रूप से वंचित और शोषित हैं। चूँकि बाजार का हमला पहले से तेज है इसलिए उसकी जवाबी कार्रवाई की जरूरत भी आज पहले से कहीं ज्यादा है।
मध्यप्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ के 11वें राज्य सम्मेलन में सागर में इकट्ठा हुए सैकड़ों लेखकों ने दो दिन के विचार विमर्श में इस आशय का चिंतन किया और संकल्पित हुए कि समाज की प्रगतिशील ताकतों को संकीर्णता छोड़कर व्यापक परिवर्तनकामी लक्ष्य की दिशा में वंचित अस्मिताओं के साथ मिलजुलकर आगे बढ़ना होगा।
17-18 नवंबर को सागर में हुए इस दो दिवसीय सम्मेलन के दौरान तीन सत्रों में देश-प्रदेश के करीब 200 कवि, कथाकार, पत्रकार, रंगकर्मी शरीक हुए। सम्मेलन में मप्र प्रलेस की 21 ईकाइयों ने शिरकत की। इस दौरान उद्घाटन सत्र से पूर्व सभी रचनाकारों ने शहर में एक लंबी रैली निकाली, जिसमें जनगीत गाये गए और नारे लगाए गए। स्थानीय लोगों ने भी लेखकों के साथ उत्साह के साथ हिस्सेदारी की। रचनाकारों की ऐसी रैली सागर शहर के बाशिंदों के लिए अभूतपूर्व थी जिसमें सड़कों पर पोस्टरों पर लिखी धूमिल और पाश की कविताएँ, कलम पकड़े हाथ के झण्डे और प्रेमचंद, सज्जाद जहीर, परसाई और कमाप्रसाद व भगवत रावत को जिंदाबाद कहते हुए लेखक और रचनाकार सड़क पर बेखौफ साम्प्रदायिकता, जातिवाद और पूँजीवाद को अपने निशाने पर ले रहे थे। विभिन्न सत्रों की शुरुआत में अशोकनगर इप्टा, दमोह इप्टा एवं अन्य साथियों ने जनगीत गाये। सम्मेलन स्थल पर दो द्वार बने थे जिनका नामकरण श्री कमलाप्रसाद औश्र श्री भगवत रावत के नाम पर किया गया था।
सम्मेलन का उद्घाटन हिंदी के सुप्रसिद्ध विद्वान डाॅ. विश्वनाथ त्रिपाठी (दिल्ली) को करना था लेकिन वे अकस्मात बने अपरिहार्य कारणों से नहीं आ सके। उनकी अनुपस्थिति में उनका लिखा संदेश सम्मेलन में वितरित किया गया और उद्घाटन का दायित्व निभाया प्रलेसं के राष्ट्रीय महासचिव डाॅ. अली जावेद (दिल्ली) ने। डाॅ. अली जावेद ने अपने उद्घाटन वक्तव्य में कहा कि आज भारत में भी लेखकों को अनेक तरह से बाँटने की साजि़शें बारीक तौर पर चल रहीं हैं। प्रगतिशील लेखक संघ किसी भी तरह की तंगनजरी और फिरकापरस्ती का विरोध करता आया है और करता रहेगा। आज उर्दू को सिर्फ मुसलमानों की जुबान बनाकर प्रचारित किया जा रहा है बकि यह गलत है। खुद प्रेमचंद से लेकर ऐसे लेखकों की आजतक मुसलसल जारी एक लंबी कतार है जो उर्दू के काबिल और मशहूर रचनाकार हुए लेकिन जो मुसलमान नहीं हैं। एक मायने में उर्दू ने हमेशा फिरकापरस्ती का विरोध किया है। उर्दू प्रगतिशील परंपरा की भाषा है। यह गालिब और मीर की परंपरा को सामने लाती है। उन्होंने कहा कि भाषा का कोई धार्मिक आधार नहीं होता। जिस तरह धार्मिक कर्मकांड की भाषा बनाकर संस्कृत को नष्ट कर दिया गया, उसी तरह उर्दू को मदरसों को जोड़कर उसे खत्म करने की साजिश अंजाम दी गई। धर्म से जोड़ने के कारण इन दोनों भाषाओं के साहित्य को भी खत्म करने की साजिश रची गई। नानक, बुल्ले शाह और ढेर सारा सूफी साहित्य साहित्य की प्रगतिशील भारतीय परंपरा की धरोहर है जिसे हमें हर हाल में संकीर्ण हमलों से बचाना है। उन्होंने विभिन्न उदाहरणों के जरिये भाषाओं को हर तरह के हमलों से बचाकर उनकी परंपरा और साहित्य को जीवंत बनाए रखने की जरूरत पर बल दिया।
सम्मेलन के दौरान तीन सत्रों में विभिन्न विषयों पर विचार-विमर्श किया गया। मप्र प्रलेस के महासचिव श्री विनीत तिवारी ने कहा कि एक समय में ट्रेड यूनियन, किसान संगठन आदि इप्टा व प्रलेसं जैसे सांस्कृतिक संगठनों को सहयोग और समर्थन देते थे और वह दौर प्रगतिशील आंदोलन की सक्रियता व सार्थकता का सबसे अच्छा दौश्र रहा। आज मज़दूरों-गरीब किसानों, आदिवासियों, दलितों, गांव और शहर के गरीबों, आदिवासियों, दलितों और औरतों-बच्चों पर शोषक नीतियों का कहर टूटा है। आज उनके आंदोलन भी पहले जितने मजबूत नहीं हैं तब यह सांस्कृतिक संगठनों की जिम्मेदारी है कि वे अपनी ओर से पहल कर योजनाबद्ध तरह से उनके बीच जाएँ, उन्हें मजबूत करने में अपनी भूमिका निभाएँ। उन्होंने कहा कि यह सम्मेलन सागर में रखने की वजह भी यही है कि हम अपने लेखकों को भी और आम लोगों को भी यह संदेश दे सकें कि बुंदेलखण्ड में छोटे किसानों, खेत मजदूरों, सामंती व्यवस्था से पीडि़त दलितों-महिलाओं की स्थिति के प्रति हम सजग और चैकस हैं और जानते हैं कि हमारी कलम को किनके साथ खड़ा होना है। बुंदेलखण्ड में किसान आत्महत्याएँ हो रहीं हैं, अनेक जिलों में बांध, सड़क, सेज और विकास के नाम पर जमीनें हड़पी जा रही हैं। लोग लड़ रहे हैं और लोगों की इस लड़ाई में हमें साथ रहना है वर्ना हम प्रेमचंद, सज्जाद जहीर और फैज की उस विरासत को खो देंगे जिसके जरिये उन्होंने साहित्य और संस्कृति के सौंदर्य के पैमाने बदलकर मेहनतकशों और उपेक्षितों को केन्द्र में लाया था।
17 नवंबर को सम्मेलन के पहले सत्र में ‘‘वंचितों का समाज और साहित्य’’ विषय पर सुप्रसिद्ध कथाकार एवं उपन्यासकार सुश्री नूर जहीर (दिल्ली) की अध्यक्षता में विमर्श किया गया। इस सत्र में मुख्य वक्तव्य महाराष्ट्र के नंदुरबार से आये आदिवासी विद्रोही चेतना के सुविख्यात कवि श्री वाहरू सोनवणे और बनारस से आये हिंदी के वरिष्ठ आलोचक प्रो. चैथीराम यादव ने दिया। श्री सोनवणे ने कहा कि आज साहित्य के साथ एक समस्या यह है कि जो साहित्य लिपिबद्ध नहीं है, उस पर बात ही नहीं हो रही है। आदिवासी समाज का विशाल साहित्य लिपिबद्ध ही नहीं हुआ है। आज साहित्यकारों का दायित्व है कि वे आदिवासी साहित्य को लिपिबद्ध करें, इसके लिए सामूहिक प्रयास ही कारगर होंगे।
उन्होंने कहा कि आज लेखन का सबसे जरूरी सवाल है कि हम किसके लिए लिखते हैं। यह सवाल हर लेखक को अपने आप से पूछना होगा। वह समूह के लिए लिखता है, उसके दर्द को समझने और समझाने के लिए लिखता है, या फिर व्यक्तिगत उपलब्धि के लिए लिखता है। उन्होंने कहा कि आदिवासियों के साथ नाइंसाफी हर जगह हुई है। साहित्य में तो उन्हें राक्षस की संज्ञा तक दी गई। आखिर यह देखना चाहिए कि जो ऋषि मुनि जंगल में यज्ञ-हवन करते थे, उसे वे लोग क्यों नहीं होने देते थे। असल में तो जंगल के मूल निवासियों के जीवन पर वह पहला अतिक्रमण था, जो उन्हें जंगल से बेदखल करके किया जा रहा था। आदिवासियों के पास न तो सेना थी, और न ही संसाधन, तो वे यज्ञ-हवन में विघ्न डालकर ही अपना गुस्सा जाहिर करते थे। इन्हीं सुदूर प्रदेशों के राजाओं को, हमारे साहित्य ने राक्षस बना दिया। वे नरभक्षी नहीं थे, उनके भी बच्चे थे, जिन्हें वे पालते-पोसते थे। उन्होंने कहा कि आदिवासियों के प्रति हमारे साहित्य का नजरिया गलत रहा है। आदिवासियों से अन्याय के उदाहरणों की भरमार है, एकलव्य तो महज उसकी शुरूआत है। एकलव्य से लेकर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम तक, ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं। गांधी का जिक्र आता है, तिलक का आता है, बोस का भी स्वतंत्रता संग्राम में योगदान याद किया जाता है, लेकिन आदिवासी समाज उस समय क्या कर रहा था, इसके प्रति इतिहास चुप है? ऐसा क्यों है? इसे समझना चाहिए।
उन्होंने कहा कि आदिवासी समाज के गीतों में साहित्य के जो सरोकार दिखाई देते हैं, वह समतामूलक समाज के सरोकार हैं। इनमें दहेज विरोध भी है, और संघर्ष की बात भी है। वंचित समाज के प्रति हमे अपने दृष्टिकोण को बदलना होगा, जो सामंती मूल्य दिमाग में पैठ बना चुके हैं, उनसे लड़ना होगा, उन्हें पहचानना होगा। जीवन व्यवहार में मूल्यों को अहमियत देकर ही हम वंचित समाज के पक्ष में खड़े हो सकते हैं।
प्रो चैथीराम यादव ने कहा कि हमारे समाज में जाति और वर्ण व्यवस्था जितनी पुरानी है, उसका विरोध भी उतना ही पुराना है। साहित्य से लेकर समाज तक सामंती-ब्राम्हणवादी व्यवस्था का लगातार विरोध होता रहा है। कबीर ने 600 साल पहले वंचितों के दुख के लिए जिम्मेदार लोगों की शिनाख्त की थी, यह लोग थे- पंडे, पुरोहित, मुल्ला और मौलवी। कबीर ने बताया कि शोषण आधारित व्यवस्था को यही लोग पुष्ट करते हैं। साथ ही यह भी साफ किया कि शोषण का विरोध करने वालों को समाज से ही लगातार प्रताडि़त होना पड़ता है। उन्होंने कहा कि 600 साल बाद धूमिल ने अपने समय के शोषक वर्ग की पहचान की। फिर नागार्जुन ने भी उनकी शिनाख्त की। नागार्जुन ने बताया कि कैसे संसद में पहुंचने के बाद जनता के लोगों का भी चरित्र बदल जाता है। वे उसी व्यवस्था में शामिल हो जाते हैं, जो अन्याय, शोषण को बढ़ाती है। 70 के दशक में नागार्जुन ने लिखा- ‘‘आग उगलते थे, जो साथी, उनके चिकने गाल हो गए...’’
उन्होंने कहा कि जाति और लिंग भेद शोषण के प्रमुख हथियार हैं। लिंग भेद से स्त्री पर पुरुष की श्रेष्ठता को, और जाति भेद से पुरुष पर पुरुष की श्रेष्ठता पर आधारित शोषण को खाद-पानी मिलता है। स्त्री के शोषण के लिए अन्य तरह से भी मजबूत किया गया, उसके सौंदर्य की प्रशंसा और पतिव्रता के खोल बना दिये गए।
प्रो यादव ने कहा कि सवाल उठता है कि आखिर वह कौन सी भारतीय संस्कृति है, जो पुरुष को हर तरह की स्वछंदता देती है, और स्त्री पर सभी प्रकार से नियंत्रित करती है। मानसिकता में बदलाव लाए बिना हम स्त्री के शोषण और उसके दुख को नहीं समझ सकते।
श्री राजेश जोशी (भोपाल) ने कहा कि पूंजीवाद के चंगुल में फंसकर अस्मिता विमर्श बेहद खतरनाक बिंदु पर आ गए हैं। वे कभी भी समाज को बदलने की बड़ी राजनीति का हिस्सा बने हों, ऐसा दिखाई नहीं देता है। ऐसा हुआ भी नहीं है। इन सवालों पर भी गंभीरता से विचार करना चाहिए।
श्री ओमप्रकाश शर्मा (ग्वालियर) ने कहा कि आज जीवन मूल्य बदल रहे हैं, इसके साथ ही दलित, स्त्री प्रश्न भी उभर रहे हैं। इन पर तथ्यात्मक दृष्टि से विचार करना होगा। श्री महेंद्र सिंह ने कहा कि हालिया लेखन में कृषि और मजदूर समाज हाशिए पर डाले जा रहे हैं। एक वायवीय प्रणाली विकसित हो रही है, जिसमें मूल मुद्दे बेहद सफाई से पीछे धकेले जा रहे हैं। मूल मुद्दा किसान-मजदूरों का है, जबकि उनके बारे में लिखे जा रहे साहित्य की मात्रा बेहद कम है। आज किसान-मजदूरों का बहुसंख्यक समाज निहत्था अपनी लड़ाई लड़ रहा है, लेखकों से यह अपेक्षा की जानी चाहिए कि वे उनके अस्त्र बनें और लड़ाई में साझेदारी करें।
सुश्री सुसंस्कृति परिहार (दमोह) ने कहा कि बुंदेली समाज भी आदिवासी समाज की ही तरह लोक से परिपूर्ण है। वंचितों की मुक्ति की बात करते हुए अपने घर से ही इसकी शुरूआत करनी होगी। अपनी लड़ाई कोई दूसरा नहीं लड़ सकता, इसलिए स्त्रियों को अपना लेखन, अपनी बात स्वयं करनी होगी। स्त्रियों को आदिवासी समाज से इसकी प्रेरणा लेनी चाहिए।
श्री अभय नेमा (इंदौर) विभिन्न राजनीतिक उदाहरणों के तहत स्त्री, दलित और आदिवासी आंदोलनों के अंतद्र्वंद्व सामने रखे। उन्होंने कहा कि आदिवासी समुदाय में उप समूहों का लोप हो रहा है, उनकी पहचान मिट रही है। महाराष्ट्र में दलित आंदोलन मजबूत रहा है, उसकी राजनीति से भी संबंद्धता है, लेकिन वहां कोई भी दलित सत्ता में नहीं है।
श्री योगेश दीवान (होशंगाबाद) ने कहा कि वंचित तबकों की जो लड़ाई है, उसका आर्थिक नजरिया अब तक विकसित नहीं हो सका है? उन्होंने सवाल उठाया कि यह महज पहचान की ही लड़ाई क्यों बनी रह गई। उन्होंने कहा कि अस्मिता तोड़ने का काम करती है। देश में अलग-अलग अस्मिताओं की लड़ाई चल रही है, जबकि मूल सवाल भिन्न है। खदान, जमीन के सवालों को केंद्र में लाकर अस्मिता संघर्षों को एक साथ लाया जा सकता है, जो बड़े बदलाव की भूमिका तैयार कर सकते हैं। उन्होंने कहा कि पहचान की लड़ाई में एक किस्म की कट्टरता भी होती है, यह गर्व की भाषा को प्रश्रय देती है, जो अन्य सवालों को गौण कर देती है। समझना होगा कि विस्थापित की पहचान विस्थापित क्यों नहीं है, या फिर मजदूर की पहचान मजदूर ही क्यों नहीं है। अस्मिता संघर्ष को वर्ग की लड़ाई से जोड़ना आज का प्रमुख कार्यभार है।
उद्भावना के संपादक श्री अजेय कुमार (दिल्ली) ने दक्षिण अफ्रीका का उदाहरण देते हुए बताया कि रंग भेद की लड़ाई ने भी वर्ग भेद को नहीं मिटाया है। आज भी अफ्रीका में बाजार, अर्थ, और राजनीति पर गोरों का ही कब्जा है। उन्होंने 1952 के तेलंगाना का उदाहरण देते हुए कहा कि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और डाॅ अंबेडकर ने कम्यूनिस्ट सरकार की जमीन बांटने की मुहिम को अंजाम तक नहीं पहुंचने दिया। उन्होंने कहा कि हमारे संविधान में भी राइट टू प्रापर्टी है, लेकिन राइट टू एजुकेशन राइट टू फूड, राइट टू हाउसिंग नहीं है। उन्होंने कहा कि कमाई के साधनों का जब तक सही बंटवारा नहीं होता, तब तक वर्ण भेद की लड़ाई का कोई अर्थ नहीं है। वर्ग की लड़ाई के जरिए ही वंचित समूहों की लड़ाई को अंजाम तक पहुंचाया जा सकता है।
श्री विनीत तिवारी ने कहा कि साहित्य के जरिये वंचितों से संवेदनात्मक समन्वय कायम करना होगा, और लेखक समुदाय को वंचितों के साथ जीवंत रिश्ता बनाना होगा। सैद्धांतिकी को इस समाज के अनुभवों के भीतर रिश्ता खोजना जरूरी है। यह हमारे समाज का सच है कि यहां अस्मिताएं हैं, उन्हें नकारा नहीं जा सकता। अस्मिताओं के संघर्ष का गलत इस्तेमाल होने के खतरे तो बने रहेंगे, यह हमें तय करना है कि इस संघर्ष के सहभागी कैसे बनें, जिससे कि इन फर्कों का इस्तेमाल स्वार्थी ताकतें न कर सकें। अस्मिता संघर्ष का इस्तेमाल पूंजीवाद अपने ढंग से करता रहा है, और कर रहा है। जरूरत इस बात की है कि हम अपने सवालों के साथ वंचितों के बीच जायें और वहीं उनके जवाब खोजें। शुरुआत से ही हम अविश्वास के साथ जाएँगे तो वे भी हमें अविश्वास से ही देखेंगे और यह तो कोई नहीं कह सकता कि उनके पास ऐसा कुछ नहीं जिनसे हम कुछ सीख न सकते हों।
अध्यक्षीय भाषण में प्रख्यात कथाकार सुश्री नूर जहीर ने कहा कि आज हाशिये के लोगों की परिभाषा बदलने की जरूरत है। वंचितों का दायरा लगातार बढ़ता जा रहा है, उनके शोषण करने के तरीके भी बदलते जा रहे हैं। नए तरीकों में कम लोग ज्यादा लोगों का शोषण कर रहे हैं, वंचितों की संपत्ति पर अधिकार रखने वाला समूह, जो पहले ही मुट्ठी भर था, शोषण के नए औजारों के साथ और कम होता जा रहा है। यानी खाई बढ़ती जा रही है। वंचितों की संपत्ति पर कम से कम लोगों का अधिकार शोषण को अधिक भयावह बना रहा है। पूंजीवाद अपने ढंग से यह शोषण कर रहा है। शहरी जिंदगी में अलगाववाद के जरिये समूहों को भी तोड़ा जा रहा है।
उन्होंने उदाहरण के साथ बताया कि कैसे पहले सामूहिक उत्सवों में ज्यादा से ज्यादा लोग शरीक होते थे, जो अब एक बिल्डिंग या एक घर तक ही सीमित हो गए हैं। त्यौहार मनाने वाले समूह के सदस्य भी सीमित होते जा रहे हैं। पूरे समाज के एक साथ उत्सव मनाने की परंपरा को छोटे-छोटे समूहों में बांट दिया गया है।
उन्होंने हाल में हाजी अली की दरगाह पर महिलाओं के प्रतिबंध का उदाहरण देते हुए बताया कि स्त्रियों के मिलने-जुलने के स्थानों को भी लगातार सीमित किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि भाषाओं के साथ भी यही हो रहा है, उर्दू जो साझा संस्कृित की, इस्मत और मंटो की भाषा थी, उसे आज मदरसों की भाषा बना दिया गया है। उन्होंने सवाल उठाया कि क्यों मुसलमान औरतों की पहचान बुरका बनायी जा रही है?
उन्होंने कहा कि आदिवासी साहित्य लिखा जाए, पढ़ा जाए इस बात का सभी समर्थन करते हैं, लेकिन सवाल यह भी है कि क्या हममें उसे उच्च और महान मानने का साहस भी है? उन्होंने एक किन्नौरी कहानी का उदाहरण देते हुए बताया कि यह लोककथा सीता हरण की नई व्याख्या प्रस्तुत करती है। इस कहानी में बताया गया है कि रावण ने सीता का अपहरण नहीं किया था, बल्कि जब वह जंगल में पखावज बजा रहा था, तो सीता उसकी थाप पर नृत्य करने लगती हैं। नृत्य करती सीता को देखकर रावण उस पर मोहित हो जाता है, लेकिन वह जबरदस्ती उन्हें अपने साथ नहीं ले जाना चाहता है। वह पखावज बजाते हुए धीरे-धीरे अपने विमान की ओर बढ़ता है, और संगीत के सहारे सीता भी खिंची चली आती हैं। उन्हे सुध तब आती है, जब वे पुष्पक विमान तक पहुंच जाती हैं।
सुश्री नूर ने कहा कि इस आदिवासी कहानी से पंाच प्रमुख बातें सामने आती हैं। पहली कि सीता जंगल में अकेली थीं और संगीत से उन्हें सुकून मिलता है। दूसरी, शूर्पणखा जैसा कोई किरदार नहीं है, जिसका बदला लेने के लिए रावण ने सीता का अपहरण किया हो। यह उस सामंती सोच पर भी चोट है, जिसमें स्त्री के अपमान का बदला स्त्री से लिया जाता है। तीसरी, रावण कोई खलनायक नहीं है, सीता पर रीझा था, उसका अपहरण नहीं किया था। चैथी, कि लक्ष्मण रेखा जैसी कोई लकीर नहीं है, जो पुरुषवादी मर्यादा में स्त्री को बांधती हो। पांचवी और सबसे महत्वपूर्ण बात, सीता को पास अपना चुनाव करने का हक है। उन्होंने कहा कि हमेें अपने साहित्य को आदिवासी नजरिये से भी देखनेे की जरूरत है। आखिर विचार बदलते हैं, तभी समाज बदलता है। सत्र का संचालन श्री तरूण गुहा नियोगी (जबलपुर) ने किया।
इसी दिन शाम में दूसरे और औपचारिक उद्घाटन सत्र में ‘‘शोषण के नये चेहरे और विकल्प की संस्कृति’’ विषय पर विचार-विमर्श किया गया। इस सत्र की अध्यक्षता वरिष्ठ आलोचक प्रो. चैथीराम यादव ने की एवं उद्घाटन वक्तव्य प्रलेसं के राष्ट्रीय महासचिव डाॅ. अली जावेद ने दिया। सम्मेलन को अपनी शुभकामनाएँ और कमलाप्रसादजी व भगवत रावतजी को अपनी श्रद्धांजलि देने के लिए जनवादी लेखक संघ मध्यप्रदेश के सचिव श्री राम प्रकाश त्रिपाठी व राजेश जोशी (दोनों भोपाल), तथा जनसंस्कृति मंच के राष्ट्रीय सह सचिव श्री सुधीर सुमन (दिल्ली) भी सागर आये। उन्होंने तथा प्रलेसं के राष्ट्रीय सचिव मंडल के सदस्य श्री राजेन्द्र राजन (बिहार) एवं प्रो चैथीराम यादव ने भी संबोधित किया।
शुरूआत में स्वागताध्यक्ष श्रीमती मीना पिंपलापुरे का स्वागत वक्तव्य सीमा राजोरिया (अशोकनगर) ने पढ़ा। इसके बाद श्री महेंद्र फुसकेले (सागर) ने स्वागत भाषण दिया। इस दौरान दो लघु फिल्मों ‘‘गांव छोड़ब नाही’’ और ‘‘अमेरिका-अमेरिका’’ का प्रदर्शन किया गया। इससे पहले रामरतन यादव (सागर) ने बुंदेली कवि ईसुरी और कबीर के गीत गाए। दमोह प्रलेस से के सबसे नन्हे सदस्य 8 वर्षीय बाल गायक दक्षेस सिंह परिहार ने भी जनगीत गाए।
इसके बाद भोपाल से प्रकाशित पत्रिका ‘‘राग भोपाली’’ के प्रलेस के वरिष्ठ कथाकार व मध्य प्रदेश प्रलेसं के अध्यक्ष श्री पुन्नीसिंह पर केंद्रित अंक का लोकार्पण किया गया। साथ ही सहारनपुर से प्रकाशित पत्रिका ‘‘शीतलवाणी’’ के कमला प्रसादजी पर केंद्रित अंक का लोकार्पण किया गया। इसके अलावा राम आसरे पांडे ‘‘विद्रोही’’, रामशंकर मिश्र, केबीएल पांडे, कृष्णकांत निलोसे आदि की किताबों का लोकार्पण किया गया।
उद्घाटन भाषण में प्रलेस के राष्ट्रीय महासचिव डाॅ. अली जावेद ने कहा कि आज भारत में भी लेखकों को अनेक तरह से बाँटने की साजि़शें बारीक तौर पर चल रहीं हैं। प्रगतिशील लेखक संघ किसी भी तरह की तंगनजरी और फिरकापरस्ती का विरोध करता आया है और करता रहेगा। आज उर्दू को सिर्फ मुसलमानों की जुबान बनाकर प्रचारित किया जा रहा है बकि यह गलत है। खुद प्रेमचंद से लेकर ऐसे लेखकों की आजतक मुसलसल जारी एक लंबी कतार है जो उर्दू के काबिल और मशहूर रचनाकार हुए लेकिन जो मुसलमान नहीं हैं। एक मायने में उर्दू ने हमेशा फिरकापरस्ती का विरोध किया है। उर्दू प्रगतिशील परंपरा की भाषा है। यह गालिब और मीर की परंपरा को सामने लाती है। उन्होंने कहा कि भाषा का कोई धार्मिक आधार नहीं होता। जिस तरह धार्मिक कर्मकांड की भाषा बनाकर संस्कृत को नष्ट कर दिया गया, उसी तरह उर्दू को मदरसों को जोड़कर उसे खत्म करने की साजिश अंजाम दी गई। धर्म से जोड़ने के कारण इन दोनों भाषाओं के साहित्य को भी खत्म करने की साजिश रची गई। नानक, बुल्ले शाह और ढेर सारा सूफी साहित्य साहित्य की प्रगतिशील भारतीय परंपरा की धरोहर है जिसे हमें हर हाल में संकीर्ण हमलों से बचाना है। उन्होंने विभिन्न उदाहरणों के जरिये भाषाओं को हर तरह के हमलों से बचाकर उनकी परंपरा और साहित्य को जीवंत बनाए रखने की जरूरत पर बल दिया।
जनवादी लेखक संघ मध्यप्रदेश के सचिव श्री रामप्रकाश त्रिपाठी ने कहा कि आज जब आसुरी शक्तियां पूंजीवाद, साम्राज्यवाद, भूमंडलीकरण एकजुट होकर नये हथियार विकसित कर रही हैं, तो शोषण के चेहरे में भी बदलाव आया है। नाम वही हैं, लेकिन तौर-तरीके बदल गए हैं। इनकी षड़यंत्रकारी ताकत बढ़ गई है। जनविरोधी ताकतें एक हो गई हैं, और वे जनता की चेतना पर सबसे तीखा प्रहार कर रही हैं। टीवी, इंटरनेट के जरिये नए-नए औजारों से यह हमले हो रहे हैं, और हम सावधान नहीं हैं। उन्होंने कहा कि इस शोषण से निपटने के लिए आंतरिक तैयारी की जरूरत है, तभी इस लड़ाई में निर्णायक जीत हासिल की जा सकती है।
जनसंस्कृति मंच के राष्ट्रीय सह सचिव श्री सुधीर सुमन ने कहा कि पहचान के विमर्श यदि सचमुच मुक्ति की दिशा में बढ़ेंगे, तो वे लोगों जोड़ेंगे ही, जिससे एकता हासिल की जा सकेगी। उन्होंने कहा कि जनता की लड़ाई में इस एकता की नैतिक और सामाजिक कसौटियां तय करनी होंगी। वंचना, शोषण, उत्पीड़न, भेदभाव जहां-जहां है, उसका प्रतिरोध करना लेखक का दायित्व है। उसी से हमारी शक्ति का निर्माण होगा। उन्होंने कहा कि साम्राज्यवाद की वैचारिकी विभिन्न ढंगों से आ रही है, उससे लेखक को लड़ना होगा।
बेगूसराय से आए सुप्रसिद्ध लेखक श्री राजेंद्र राजन ने कहा कि भाषा की गुलामी शोषण करने वाली ताकतों को मजबूत करती है। भाषा गुलाम नहीं होगी, तो कोई समाज गुलाम नहीं बनाया जा सकता। हम अपनी भाषाओं की हिफाजत करना भूल गए हैं, इसलिए हमारी आजादी खतरे में है। उन्होंने कहा कि रंगभेद और वर्गभेद का अंतर समझना आज जरूरी हो जाता है। साम्राज्यवादी-पूंजीवादी गठजोड़ का सरगना अमेरिका भी रंगभेद को हथियार की तरह इस्तेमाल कर रहा है। वहां काले समुदाय के एक व्यक्ति को पहली बार सत्ता के सर्वोच्च पद पर बैठाया जाता है, आखिर देखना चाहिए कि कैसे ओबामा अन्य अमेरिकी राष्ट्रपतियों से भिन्न हैं? यह नस्लभेद का अंतर नहीं है। उन्होंने कहा कि पूंजी का रंग नहीं बदला है, और इसी संदर्भ में पूंजीवाद का रंग भी नहीं बदला है। अटल बिहारी वाजपेयी हों, या फिर मनमोहन सिंह, दोनों ही साम्राज्यवाद के आगे नतमस्तक हैं।
उन्होंने कहा कि आज वाम लेखकों ने कई घर बना लिये हैं। इस घर में भी दीवारें खींच ली हैं। आज जरूरत इस बात की है कि यह दीवारें तोड़ी जाएं। उन्होंने उदाहरण के साथ कहा कि किसी कवि का नाम हटाकर उसकी रचना को पढ़ें, तो यह फर्क ही नहीं रह जाता है कि वह जसम का है, या जलेस का, या फिर प्रलेस का, तब यह दीवारें क्यों हैं?
सत्र की अध्यक्षता करते हुए  प्रो. चैथीराम यादव ने कहा कि आज शोषण के ऐसे कई चेहरे हैं, जिनकी शिनाख्त मुश्किल है। किसानों की आत्महत्या के बारे में हाल ही में कई खबरें आईं, लेकिन असल में यह हत्याएं थीं। पूंजीवाद ने उनकी हत्या की है। पहले पूंजी की ललक पैदा की गई, और जब इससे वे कर्ज के तले दब गए, तो कोई और रास्ता सामने न पाकर आत्महत्या को मजबूर हुए। इस खतरे की पहचान करनी जरूरी है। भूमंडलीकरण, उदारीकरण और निजीकरण की त्रयी का जो अदृश्य भूत है इसके पांव पीछे की ओर हैं। जिस तरह भूत जब उत्तर की ओर चलता है, तो दक्षिण की ओर जाता दिखाई देता है, और पूर्व की ओर चलने पर पश्चिम में जाने का भ्रम पैदा करता है, उसी तरह विकास की ओर जाता दिखाई दे रहा साम्राज्यवाद का भूत समाज को शोषण के अंधकार की ओर ले जा रहा है। यूरोपीय साम्राज्यवाद के पांव दिखाई देते थे, लेकिन वाशिंगटन से संचालित पूंजी व्यवस्था के पांव दिखाई नहीं दे रहे हैं, इनकी शिनाख्त आज का महत्वपूर्ण काम है। इस सत्र का संचालन श्री विनीत तिवारी ने किया।
दूसरे दिन के पहले सत्र की शुरूआत अशोकनगर इप्टा के साथियों और दमोह के साथियों द्वारा प्रस्तुत जनगीतों से हुई। ‘प्रगतिशील सांस्कृतिक संगठनों की जरूरत और उनके कार्यभार’ विषयक सत्र की भूमिका रखते  हुए श्री विनीत तिवारी ने कहा कि पिछले कुछ समय से यह शोर बहुत बढ़ गया है कि अब सांस्कृतिक संगठनों की जरूरत नहीं रह गई है। यह शोर मचाने वाले वे तो हैं ही जो कभी संगठन के हिस्से नहीं रहे और जिन्होंने निजता के नाम पर व्यक्तिवादी संस्कृति का हमेशा पक्ष लिया, लेकिन इनमें कुछ ऐसे अवसरवादी भी हैं जिन्होंने संगठन से जितना फायदा उठाना था,  उठाया और उसके बाद सांस्कृतिक संगठनों की अप्रासंगिकता पर लेख लिखने लगे। इससे हमारे ऐसे लेखक साथी जो नये हैं और जिन्होंने विचारधारा को ठीक तरह से नहीं समझा है, भ्रमित हो जाते हैं। लेकिन इन चीजों के फौरी जवाब नहीं होते। हमने सभी इल्जामों के बीच अपने वैचारिक व सांगठनिक काम को जारी रखे रहे और आज हम कह सकते हैं कि प्रदेश के कोने-कोने से यहाँ अपने खर्च पर आये और मिलजुलकर सम्मेलन के लिए संसाधन इकट्ठा करने वाले लेखक संगठन की प्रासंगिकता का सबसे बड़ा जवाब हैं। हमें और काम करना है और वह हम रचना शिविरों और विचार शिविरों के माध्यम से करते रहेंगे। हमारी रचनात्मक सक्रियता ही सही जवाब होती है और कमलाप्रसादजी और भगवत रावतजी को यह सम्मेलन समर्पित करना कोई औपचारिकता भर नहीं है बल्कि वाकई जिस तरह इन दोनों और उनके साथ अन्य अनेक साथियों ने वैचारिक रचनात्मकता का वातावरण बनाया था, हम उसे और आगे बढ़ाएँगे। उन्होंने कहा कि आज हम अपने कार्यभार सिर्फ अपने लिखने और अपने सुनाने तक सीमित नहीं रख सकते, हमें मैदान में उतरना पड़ेगा। आज भी हमारे बीच प्रतिबद्ध साथी हैं और वामपंथी विचारधारा वाले ही कबीर की तरह अपना घर फूंककर भी दुनिया बदलने के लिए लड़ता रह सकता है, लेकिन हमें अपने आप पर और अपने इतिहास पर विश्वास करने और गौरव रखने की जरूरत है। यह वक्त निराश होने का नहीं, मिलजुलकर पूंजीवाद पर जोरदार हमला बोलने का है क्योंकि इस वक्त वह सबसे ज्यादा कमजोर भी है।
जलेसं की ओर से श्री राम प्रकाश त्रिपाठी ने कहा कि इस वक्त विचार पर सीधे हमले हो रहे हैं। उन्होंने कहा कि मध्यप्रदेश में खेती का रकबा घटा है, जबकि खेती के संसाधन बढ़े हैं, समर्थन मूल्य भी बढ़ा है, इस बीच बड़े किसानों की हालत भी सुधरी है। छोटे किसान और मजदूरों की हालत खस्ता हुई है। उनके सामने आत्महत्या की नौबत आ गई है। यह ऐसे समय में है, जब सरकार की ओर से जारी आंकड़ों में उत्पादन सरप्लस है। लेखक संगठन इस विरोधाभास को सामने लाकर हस्तक्षेप के लिए सक्रिय नहीं हो रहे हैं। उन्होंने कहा कि प्रगतिशील संगठन युवाओं को आकर्षित नहीं कर पा रहे हैं, इसी वजह से हम मुकाबला करने में कमजोर हुए हैं। इस बारे में हमारे प्रयास भी सीमित, छोटे और नाकाफी हैं।
प्रख्यात कवि और प्रलेस मध्यप्रदेश के अध्यक्ष मंडल के सदस्य श्री कुमार अंबुज (भोपाल) ने कहा कि प्रतिरोध की जगह आज लगातार कम हो रही है। प्रगतिशील संगठनों के सामने महज वहीं समस्याएं नहीं हैं, जो सीधे संबोधित हैं, बल्कि समाज के संकटों की पहचान भी आज का जरूरी कार्यभार है। लेखक संगठनांे के साथ ही स्त्री, किसान, ट्रेड यूनियन, दलित आदि से संबंधित प्रगतिशील संगठनों की समस्याएं भी हैं। समस्याएं हर तरफ हैं, इनसे हमें ही निपटना है।
उन्होंने कहा कि विचार की भी अनुवांशिकी होती है। जिस तरह फसल के बीज की अनुवांशिकी होती है। मनुष्य की प्रजाति की जो अनुवांशिकी है, उसकी प्रोडक्टिविटी को भी बचाने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि युवाओं के विचलन भी इस दौर में अलग ढंग के हैं। साथ ही किसी लेखकीय लाभ के लिए हमारे 50 की उम्र के आसपास के साथी भी विचलन का शिकार हुए हैं। उन्होंने महात्मा बुद्ध का उदाहरण देते हुए कहा कि संसार में दुख हैं, तो उसके कारण भी हैं, और उनके उपाय भी हैं। उन्होंने कहा कि रचना और जीवन अलग नहीं होते हैं। जीवन और रचना के बीच की दूरी कम करने हुए हमें दिखना चाहिए। हमें अपने सहयोगियों की पहचान भी करनी चाहिए। उन्होंने रचना शिविर की जरूरत पर बल देते हुए कहा कि लेखन सामाजिक कर्म है, जो कलावादी हैं, उन्हें भी कहानी, कविता का कथ्य लेने के लिए दुनिया के पास आना पड़ता है। लेखन कर्म किसी अकेली जगह पर दुनिया से कटकर संभव नहीं है। उन्होंने कहा कि सवाल अमर होते हैं, और जवाब समकालीन होते हैं, इसलिए हमें अपने समय में इन सवालों के ईमानदार जवाब खोजने की जरूरत है।
उद्भावना के संपादक श्री अजेय कुमार ने कहा कि इस वक्त में संकट तो हैं, यह बात साफ है। मसला यह है कि हमें करना क्या है? हम किस प्राथमिकता के तहत जनता के बीच जाते हैं, यह सवाल महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा कि जब कोई व्यक्ति दूसरे को अपने पांव की जूती समझता है, तो हमें गुस्सा आता है, लेकिन जब एक देश, दूसरे देश को अपने पांव की जूती समझ लेता है, तो हम चुप रहते हैं। उन्होंने कहा कि अमेरिका के जुल्म को आज किसी टीवी सीरियल की तरह देखा जा रहा है, जिसके एक एपिसोड में सद्दाम का खात्मा हुआ, दूसरे में गद्दाफी को मार डाला गया, संभवतः तीसरे में अहमदीनेजाद को खत्म कर दिया जाएगा। अमेरिका ने पिछले दशक में जिन छह लाख लोगों की जिंदगी को तबाह किया है, वह हमारे मीडिया में नहीं है। मीडिया में इराक, अफगानिस्तान की किसी रोती हुई स्त्री, या अकेले अनाथ बच्चे का चित्र दिखाई नहीं देता, क्योंकि जो लोग तेल को नियंत्रित कर रहे हैं, वही मीडिया को भी नियंत्रण में लिये हुए हैं। अपने कार्यभार तय करते समय हमें साम्राज्यवाद विरोध की धुरी को भी याद रखना है। उन्होंने लेखक और मध्यवर्ग के रिश्तों को रेखांकित करते हुए कहा कि ज्यादातर लेखक मध्यवर्ग से ही आए हैं, और इसी मध्यवर्ग का बड़ा वर्ग अमेरिका प्रेमी है। इस मध्यवर्ग के भीतर अमेरिका ने जिस ढंग से घुसपैठ बनाई है, उसे देखना चाहिए। दुनिया की सबसे बड़ी आतंकी घटना के बारे में आम राय यह बना दी गई है कि वह 11 सितंबर का हमला था, जिसमें करीब 2500 लोग मारे गए थे। इस बात को दरकिनार कर दिया गया है कि हिरोशिमा पर गिराया गया परमाणु बम दुनिया की सबसे बड़ी आतंकी घटना थी, जिसमें एक पूरा शहर एकाएक तबाह कर दिया गया। अमेरिका की इस आतंकी घटना में नींद के आगोश में लाखों लोगों से एक साथ उनकी जिंदगी छीन ली गई थी। आतंकी घटनाओं के बारे में भी मध्यवर्ग की एक खास समझ विकसित कर दी गई है। आज आतंकी घटना उसे ही माना जाता है, जिसमें मुसलमान, बम, आरडीएक्स जैसे तथ्य सामने आएं, इसके अलावा मनुष्य की जान लेने वाली कार्रवाइयों को आतंकी घटना माना ही नहीं जाता। इस तरह के सरलीकरण के खिलाफ माहौल तैयार करने की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी लेखक समाज पर है।
श्री कुंदन सिंह परिहार (जबलपुर) ने कहा कि आज लेखक संगठनों में युवा कम हो रहे हैं। हमें युवाओं की समस्याओं की ओर भी ध्यान देना होगा। आज युवाओं का जीवन सरल नहीं है। जीवन यापन की जरूरी ईकाई पढ़ाई में उसका काफी समय जाता है। यह बदलाव का समय है, जिसमें समस्याएं नए ढंग से सामने आ रही हैं, इसके उपचार खोजना आज के जरूरी कार्यभार में शामिल है।
श्री बहादुर सिंह परमार (छतरपुर) ने कहा कि जब लेखक जन से जुड़ेंगे, तभी जनता उनसे जुड़ेगी। जीवन में पारदर्शिता सबसे बड़ी पूंजी है। इस पूंजी को लेखक संगठनों को कम किया है, जिससे काफी नुकसान हुआ है। लोक हर तरफ से देखता है, वह देखता है, कि कौन उसके साथ खड़ा है, और कौन लेखकीय फायदे के लिए उसके करीब रहने का भ्रम पैदा कर रहा है।
श्री संतोष खरे (सतना) ने कहा कि हमारे समय में हनुमान मंदिरों की संख्या में इजाफे से लेकर कुंभ मेलों में जाते जनसमूह तक पर जिस तरह की संस्कृति थोपी जा रही है, वह अपनी तरह का खतरा है। आज सारे शासकीय तामझाम के साथ कार्यालयों में वंदे मातरम् का गान कराया जाता है, लेकिन इसके तुरंत बाद ही अधिकारी-कर्मचारी रिश्वत लेने में मशगूल हो जाते हैं, तो ऐसे गान का क्या अर्थ है? उन्होंने स्कूलों में सूर्य नमस्कार से लेकर योग आदि तक कटाक्ष करते हुए कहा कि इस सरकारी संस्कृतिकरण के खतरे को पहचान इसके खिलाफ मजबूती से खड़ा होना, लेखकीय समाज की जिम्मेदारी है।
श्री सत्यम पांडे (जबलपुर) ने कहा कि हमारे कार्यभार बड़े हैं। हमें वंचित तबकों के दर्द को अपनी रचना प्रक्रिया में शामिल करना होगा। विस्थापन के सवाल पर भी लेखकों को सामने आना होगा। उन्होंने कहा कि मेहनतकश गरीब के सवालों को लेखन के केंद्र में लाये बिना किसी भी तरह के जनजुड़ाव की कल्पना करना बेमानी है।
श्री दिनेश भट्ट (छिंदवाड़ा) ने कहा कि यदि हम समाज को बहुत ज्यादा नहीं बदल सकते तो जो जहां है, वहीं से काम करे। छोटी-छोटी कोशिशें आज महत्वपूर्ण हैं। उन्होंने अपनी रचना प्रक्रिया के उदाहरण के साथ बताया कि अपने आसपास के माहौल को ही रचनात्मक अभिव्यक्ति देने से सक्रियता आती है।
श्री पंकज दीक्षित (अशोकनगर) ने कहा कि लेव तोलस्ताय की मौत पर मजदूरों ने स्वप्रेरणा से हड़ताल की थी, तब लेनिन ने कहा था कि मजदूरों का अपना लेखक मिल गया है। इससे साफ होता है कि लेखक अपनी जनता नहीं चुनता, बल्कि जनता अपना लेखक चुनती है। उन्होंने कहा कि हम संवेदनशीलता से दूर होते जा रहे हैं, और इसी क्रम में जनता से दूर हटते जा रहे हैं। अगर कुछ पा लेने की कोशिश या ख्वाहिश नहीं है, तो आम जन लेखक से जरूर जुड़ता है। उन्होंने एक गांव में किए गए नाटक के उदाहरण से बताया कि लोगों के भीतर बेचैनी है, और वे अपनी बात कहने वाले रचनात्मक समूहों को पूरी शिद्धत से तलाश रहे हैं। अगर हम जनता के सवालों पर पूरी ईमानदारी से काम करें, तो निश्चित ही जनता के बीच से आवाज आएगी।
श्री ओमप्रकाश शर्मा (ग्वालियर) ने कहा कि जब छात्र आंदोलन थे, तो युवाओं की संख्या भी प्रगतिशील संगठनों में खासी अच्छी थी। व्यवस्था ने छात्र आंदोलनों को खत्म कर दिया है और इसीलिए युवाओं और प्रगतिशील संगठनों के बीच का पुल टूट गया है। स्टूडेंट फेडरेशन के स्टडी सर्किल ने कई युवाओं की वैचारिक धार को तेज किया था। आज वह सब खत्म हो गया है। युवाओं से जुड़ने के नए तरीके खोजना आज का महत्वपूर्ण कार्यभार है। अगर प्रगतिशील संगठन यह काम नहीं करेंगे, तो जिस तरह अपने सबसे बड़े दुश्मन धर्म की सबसे बड़ी समर्थक महिलाएं होती जा रही हैं, युवा भी इस दुष्चक्र में फंसा रहेगा।
श्री गफूर तायर (दमोह) ने कहा कि एफडीआई के आने से छोटी-छोटी ईकाइयों के मजदूर बेमौत मारे जाएंगे। इस सवाल पर प्रगतिशील ताकतों को एकजुट होकर हमला बोलना चाहिए। यह सवाल सिर्फ मजदूरों से ही नहीं जुड़ा है, एफडीआई के साथ अन्य कई बुराइयां आएंगी।
श्री अरविंद श्रीवास्तव (जबलपुर) ने कहा कि कोई भी आंदोलन जनता से जुड़ा न हो यह संभव नहीं है। अगर लेखक की भाषा का जनता से जुड़ाव नहीं है, उसके सरोकार नहीं हैं, तो वह जनता से दूर ही रहेगा। जनता से दूर रहकर आंदोलन नहीं हो सकता। आज लेखकीय अभिव्यक्ति पर लगातार हमले हो रहे हैं। जबलपुर में नाटक नहीं होने दिया जाता, आए दिन पुस्तकें जलाने की खबरें मिलती हैं। उन्होंने कहा कि लेखक को एक्टिविस्ट बनना होगा, तभी जनता के सवालों से वह सीधे संपर्क बना सकता है।
श्री महेंद्र फुसकेले ने कहा कि आज मुख्यधारा की बात लगातार की जा रही है। जानना चाहिए कि यह मुख्यधारा कहां है? मुख्यधारा क्या है? मुख्यधारा किसने बनाई है? उन्होंने कहा कि मुख्यधारा इस देश में रहने वाले आदिवासी और शूद्र हैं। इसके अलावा जो भी मुख्यधारा दिखाई देती है, वह भ्रम है। उन्होंने कहा कि वर्ण व्यवस्था का सबसे पहले विरोध बौद्ध और जैन भिक्षुओं ने किया था, इस बात को झुठलाया नहीं जा सकता।
श्री अश्विनी दुबे (पन्ना) ने कहा कि पिछले 20 वर्ष में कोई बड़ा प्रगतिशील आंदोलन खड़ा नहीं हो सका है, इस बात पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। श्री हरनाम सिंह ने कहा कि माक्र्सवाद ने आलोचना और आत्मालोचना की सीख दी है। आज प्रगतिशील संगठनों को अपने अंतर्विरोधों की पड़ताल करनी चाहिए। हम अपने अंतर्विरोध दूर नहीं कर पाए हैं। इसके लिए धरातल पर विचार करना आवश्यक है।
श्री वीएस नायक (पन्ना) ने कहा कि साहित्यकार को उन फूलों  को चुनने की जरूरत है, जो जनता के जीवन में खुशबू बिखेर सकें। श्री अभिषेक तिवारी (अशोकनगर) ने कहा कि हिंदी पट्टी में सांप्रदायिकता के खिलाफ लगातार कार्य हुआ है, इसे सतत करने की जरूरत है। अकेले चलने के अपने खतरे हैं, जनता के बीच जाकर उसका हिस्सा बनकर ही प्रगतिशील शक्तियां ताकत हासिल कर सकती हैं।
श्री सचिन श्रीवास्तव (भोपाल) ने कहा कि पूंजीवादी साम्राज्यवाद ने जिस ढंग से मीडिया, फिल्म, बाजार आदि को औजार की तरह इस्तेमाल किया है, उससे यह भ्रम पैदा हो गया है कि असली दुश्मन यही हैं। इस बात को समझते हुए पूंजीवाद के औजारों पर धीरे-धीरे और लंबी रणनीति के तहत कब्जे की तैयारी करनी चाहिए। उन्होंने कहा कि अकेली लकड़ी के जल्दी टूट जाने की सीख को हमें फिर याद करना होगा, और प्रगतिशील संगठनों को अपनी एकता को कायम कर विरासत से सीख लेने की जरूरत है।
वरिष्ठ कवि श्री नरेश सक्सैना (लखनऊ) ने कहा कि आज किताबों की बिक्री घट रही है। 500 और 600 की संख्या में किताबों के संस्करण निकल रहे हैं। कोई किताब बहुत ज्यादा चर्चित हो जाए, तो भी हजार-1500 से अधिक बिकने की कल्पना नहीं की जा सकती। हिंदी पढ़ने की प्रवृत्ति कम होते जाना एक बड़ा खतरा है, और इसके लिए लेखकों को एकजुट प्रयास करने चाहिए। आज मध्यवर्ग हिंदी से नफरत कर रहा है, और जैसे-तैसे अंग्रेजी में अपने कार्य करने की अधूरी कोशिश कर रहा है। इस टूटते समाज में अंग्रेजी ने विचार प्रक्रिया को भी बाधित किया है। उन्होंने कहा कि आज सारा जोर कथ्य पर है, जबकि शिल्प पर कम ध्यान दिया जा रहा है। कथ्य अपने आप में बड़ी चीज है, लेकिन शिल्प के जरिये उसे अधिक संप्रेषणीय बनाया जा सकता है। इस सत्र का संचालन श्री विनीत तिवारी ने किया।
इसी दिन दूसरे दिन प्रदेश की नई कार्यकारिणी भी गठित हुई। कार्यकारिणी में सर्वसम्मति से वसुधा के संपादक और वरिष्ठ साहित्यकार श्री राजेन्द्र शर्मा को अध्यक्ष एवं कवि व सामाजिक कार्यकर्ता श्री विनीत तिवारी को महासचिव चुना गया। श्री राजेन्द्र शर्मा ने संगठन और ‘वसुधा’ के संबंधों को मजबूत करने और अधिक जीवंत बनाने की जरूरत पर जोर दिया और संगठन निर्माण के पक्ष में उसकी संभव भूमिका को रेखांकित किया।
सम्मेलन के दौरान लघु फिल्मों का प्रदर्शन, पुस्तक प्रदर्शनी और प्रलेसं की विभिन्न इकाइयों से संबंद्ध 12 पुस्तकों एवं दो पत्रिकाओं का विमोचन भी किया गया। समापन अवसर पर हुए अनूठे काव्यपाठ का संयोजन प्रख्यात कवि कुमार अंबुज और महेंद्र सिंह ने किया जिसमें विभिन्न जगहों से आये 31 कवियों ने पूरे अनुशासन के साथ एक-एक कविता का पाठ किया। कविता पाठ की अध्यक्षता की श्री नरेश सक्सेना ने। सम्मेलन के दौरान प्रख्यात चित्रकार पंकज दीक्षित, मुकेश बिजौले और अशोक दुबे की ओर से चित्र प्रदर्शनी लगाई गई थी। सम्मेलन स्थल को सुनील जाना, सोमनाथ होड़ व चित्तप्रसाद के चित्रों से भी सजाया गया था। दो दिन तक के इस रचनात्मक माहौल को हमेशा के लिए यादगार बनााने हेतु सम्मेलन में आये प्रतिभागियों व सहयोगियों का आभार ज्ञापित किया सागर इकाई के अध्यक्ष श्री टीकाराम त्रिपाठी, सचिव डाॅ. दिनेश साहू व कोषाध्यक्ष सुश्री दीपा भट्ट ने।
-सीमा राजोरिया

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