बुधवार, 11 जून 2014

घृणाजन्य अपराध और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण

मोदी सरकार को सत्ता संभाले तीन हफ्ते से ज्यादा हो गए हैं। एक ओर जहां समाज के कुछ तबकों को इस सरकार से ढेरों आशाएं हैं वहीं दूसरी ओर, इस सरकार के बारे में जो भय और आशंकाएं पहले से व्यक्त की जा रही थींए वे सच होती दिख रही हैं। बालठाकरे और शिवाजी के रूपांतरित चित्र, सोशल वेबसाईटों पर अपलोड होने के कुछ समय बाद ही पुणे में अल्पसंख्यकों पर योजनाबद्ध हमले शुरू हो गए। हिंसक भीड़ ने शहर को मानो अपने कब्जे में ले लिया। कई मस्जिदों को नुकसान पहुंचाया गया और कम से कम २०० सरकारी व निजी वाहनो को आग के हवाले कर दिया गया। इस हिंसा का सबसे भयावह पक्ष था मोहसिन शेख नाम के एक आईटी कंपनी में कार्यरत पेशेवर की सार्वजनिक रूप से हत्या। धनंजय देसाई के नेतृत्व में 'हिंदू राष्ट्र सेना'के कार्यकर्ताओं ने इस जघन्य कृत्य को अंजाम दिया। यह घटना बताती है कि नफरत हमें किस हद तक क्रूर और अमानवीय बना सकती है। जहाँ इस घटना से अल्पसंख्यक समुदाय सकते में हैं और कई नागरिक समूहों ने इसकी कड़ी निंदा की हैए वहीं भारत के प्रधानमंत्री इस मुद्दे पर चुप हैं। महाराष्ट्र की सरकार इस घटना को एक सामान्य अपराध मान रही है। यह समझना कठिन है कि किसी व्यक्ति को केवल उसके धर्म के कारणए सड़क पर घेरकर, पीट.पीटकर मार डालने को केवल एक सामान्य हत्या कैसे समझा या बताया जा सकता है? वैसे भीए मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से ही अल्पसंख्यक समुदाय के लोग आशंकित और भयग्रस्त हैं। पुणे और आसपास के इलाकों में पिछले दो हफ्तों में अल्पसंख्यकों के घरों व उनके धर्मस्थलों पर अनेक हमले हुए हैं। भाजपा की विचारधारा में यकीन करने वालों की हिम्मत बहुत बढ़ गई है। पुणे के आईटी पेशेवर की हत्याए उन लोगों के लिए एक चेतावनी का संकेत है जो सांप्रदायिक सद्भाव व राष्ट्रीय एकता के लिए संघर्षरत हैं और जो इस बात के हामी हैं कि अल्पसंख्यकों को समाज में सम्मान के साथ जीने का और आगे बढ़ने के समान अवसर प्राप्त करने का हक है।
पुणे की घटना को हम उत्तरप्रदेश के मुजफ्फरनगर से जोड़कर भी देख सकते हैं। वहां भी चुनाव के पहले सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए हिंसा भड़काई गई थी। यह मात्र संयोग नहीं है कि महाराष्ट्र में भी जल्द ही चुनाव होने वाले हैं। उत्तरप्रदेश में एक सड़क दुर्घटना के बाद हुई मारपीट को'हमारी महिलाओं की इज्जत से खिलवाड़' का स्वरूप दे दिया गया था। 'लव जिहाद' की चर्चा होने लगी और सांप्रदायिक खेमे के एक विधायक ने एक नकली वीडियो क्लिप अपलोड कर आग में घी डालने का काम किया। इस सबके बाद, पूरे इलाके में भयावह हिंसा हुई। हिंसा की कोख से जन्मा सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और इसके बाद, उत्तरप्रदेश में भाजपा को भारी विजय हासिल हुई। उत्तरप्रदेश में भाजपा की जीत का श्रेय अमित शाह को दिया जा रहा है। वे ही अमित शाह अब महाराष्ट्र जा रहे हैं जहां वे आगामी चुनाव में भाजपा को जीत दिलवाने के लिए काम करेंगे। और इसके ठीक पहले,हिन्दू राष्ट्र सेना जैसी ताकतों ने अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा का तांडव शुरू कर दिया है।
हमारे देश में लंबे समय से सांप्रदायिक हिंसा और सांप्रदायिक अपराधों का इस्तेमाल धार्मिक ध्रुवीकरण करने के लिए  किया जाता रहा है। हालिया लोकसभा चुनाव में, सतही तौर पर देखने पर ऐसा लग सकता है कि मोदी को उनके विकास के एजेण्डे ने जीत दिलाई। परंतु सच यह है कि मोदी की जीत की पृष्ठभूमि में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण ही था। इसी ध्रुवीकरण की खातिर मोदी ने चुनाव प्रचार के दौरान अनुच्छेद ३७०, बांग्लादेशी घुसपैठियों और पिंक रिवोल्यूशन आदि की बातें कीं। नतीजे में हुए धार्मिक ध्रुवीकरण ने मोदी की जीत में कितनी भूमिका अदा कीए यह कहना मुश्किल है।
कुल मिलाकर,सांप्रदायिक ध्रुवीकरणए सांप्रदायिक पार्टियों का एक प्रमुख हथियार है। गुजरात में हमने देखा कि किस तरह,गोधरा ट्रेन आगजनी के बाद हुए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण ने बड़े पैमाने पर हिंसा भड़कायी, जिसमें मारे जाने वालों में से ८० प्रतिशत मुसलमान थे। इस हिंसा ने ध्रुवीकरण को और गहरा किया और भाजपा सरकार, जो उस समय डगमगा रही थी, बहुमत से सत्ता में वापिस आ गई।
सांप्रदायिक हिंसा और ध्रुवीकरण के लिए जिन मुद्दों का इस्तेमाल किया जाता हैए वे समय के साथ बदलते रहे हैं। ब्रिटिश काल में मस्जिदों के सामने बैंड बजाना, मस्जिदों में सुअर का मांस और मंदिरों में गाय का मांस फेंकना, दंगे शुरू करवाने के पसंदीदा तरीके थे। गोधरा में मुसलमानों को हिंदू कारसेवकों को जिंदा जलाने का दोषी ठहराया गया तो मुंबई में बाबरी मस्जिद के ढहाए जाने का उत्सव मनाकर अल्पसंख्यकों को भड़काया गया। जहां ये मुद्दे हिंसा शुरू करवाने में मदद करते हैं वहीं लोगों के दिमागों में जहर भरने का काम लगातार चलता रहता है। मुस्लिम राजाओं की क्रूरता के किस्से बयान किए जाते हैंए यह बताया जाता है कि किस तरह मुसलमान बादशाह, मंदिरों को जमींदोज किया करते थे और अपनी हिंदू प्रजा पर जजि़या थोपते थे। यह भी कहा जाता है कि इस्लाम को तलवार की नोंक पर भारत में फैलाया गया। इसके अलावाए धारा ३७० व मुसलमानों की'तेजी से बढ़ती' आबादी आदि जैसे मुद्दों पर भी भड़काऊ और झूठी बातें कही जाती हैं। इतिहासविद् व सामाजिक कार्यकर्ता चाहे लाख कहते रहें कि ये बातें सही नहीं हैं और सच कुछ और है तब भी उनकी कोई नहीं सुनता। केवल कुछ लोग, जो कि दूसरों की बातें आँख मूंदकर मानने में विश्वास नहीं रखते,तार्किकता और सत्य की आवाज को सुन पाते हैं। अधिकांश लोग आरएसएस के अतिप्रभावकारी व शक्तिशाली प्रचारतंत्र के जाल में फंस जाते हैं। आरएसएस ने पिछले कई दशकों से चले आ रहे अपने दुष्प्रचार के जरिये यह सुनिश्चित कर लिया है कि देश के अधिकांश हिंदू, मुसलमानों के बारे में गलत धारणाएं पाल लें। नोम चोमोस्की ने राज्य द्वारा 'सहमति के निर्माण' की बात कही थी। यहां, हिन्दू राष्ट्रवादी संगठन,'सामाजिक मान्यताओं'का उत्पादन कर रहे हैं और इन मान्यताओं को आम लोगों के दिमागों में बिठा रहे हैं। इन मिथकों और गलत धारणाओं का इस्तेमाल, धार्मिक ध्रुवीकरण करने और सांप्रदायिक हिंसा भड़काने के लिया किया जाता रहा है।
सांप्रदायिक ताकतों के हथियारों के जखीरे में सोशल मीडिया एक नए व अत्यंत पैने हथियार के रूप में उभरा है। इसकी पहुंच व्यापक है। जहां अखबार व पत्र.पत्रिकाएं अपने लेखन में कम से कम कुछ संतुलन व परिपक्वता रखते हैं वहीं सोशल मीडिया में कोई भी, कुछ भी लिख सकता है और उसे लाखों लोगों तक पहुंचा सकता है। मुजफ्फरनगर में हिंसा भड़काने के लिए मुसलमानों के पारंपरिक परिधान पहने हुए लोगों द्वारा, पाकिस्तान ने दो चोरों की पिटाई की वीडियो क्लिप का इस्तेमाल किया गया। ऐसा बताया गया कि यह मुसलमानों द्वारा हिंदू लड़कों को मारने के दृश्य हैं। बजरंग दल के कार्यकर्ता, हैदराबाद के मंदिरों में गौमांस फेंकते हुए और कर्नाटक में पाकिस्तान का झंडा फहराते हुए पकड़े जा चुके हैं। हिंदू राष्ट्र सेना जैसे संगठन सोशल मीडिया का इस्तेमाल समाज को बांटने के लिए कर रहे हैं। इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री मोदी की चुप्पी,उनकी असली सोच व इरादे को जाहिर करती है। महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव आसन्न हैं और इस तरह की घटनाओं से भाजपा को वोटों की फसल काटने में मदद मिलेगी। यह आवश्यक है कि महाराष्ट्र सरकार चुनावी समीकरणों की परवाह करे बगैर विघटनकारी ताकतों को पूरी तरह से कुचल दे। इसके साथ हीए विभिन्न धार्मिक समुदायों के बीच आपसी प्रेम व सद्भाव को बढ़ावा देने की जरूरत भी है। अल्पसंख्यकों के बारे में गलत धारणाओं,मिथकों और पूर्वाग्रहों को दूर किया जाना भी उतना ही जरूरी है। यह भी उतना ही आवश्यक है कि हम आमजनों को यह समझाएं कि हमारे देश की विविधवर्णी संस्कृति और उसके बहुवाद का सम्मान करके ही हम आगे बढ़ सकते हैं।
-राम पुनियानी

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