शनिवार, 29 अगस्त 2015

मजदूरों के खून से चेहरे की चमक

                                                        धर्म के नाम पर मानव का शोषण करने का यह मामला सदियों
से चल रहा है. हद तो तब हो गयी जब गीता प्रेस के प्रबंधक गण  कहते हैं कि पैसे की कमी नहीं है तो दूसरी तरफ सोशल मीडिया से लेकर प्रिंट मीडिया तक गीता प्रेस को बचाने के लिए अभियान चलाया जा रहा है . धर्म भीरु और धर्म परायण कोई भी आगे आकर यह कहने के लिए तैयार नहीं है की गीता प्रेस में श्रम कानूनों को लागू करो. मजदूरों को सम्मानजनक वेतन दो जिससे धार्मिक पुस्तकों के प्रकाशन में कोई बाधा न आये. पूँजीवाद मजदूरों के श्रम के शोषण के ऊपर फलता फूलता है उसी तरह से धार्मिक ट्रस्ट ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए मजदूरों को सम्मानजनक जीवन जीने ही नहीं देना चाहते हैं. उसी की चरम प्रणिति गीता प्रेस की ताला बंदी है.
                 हमारे छात्र जीवन में मोतीलाल-श्यामसुंदर लखनऊ की थ्री फेदर्स की अच्छी कापियां बिकती थी जिनके बारे में यह कहा जाता था की भारत सरकार द्वारा गीता प्रेस को किताबें छपने के लिए जो सस्ता कागज मिलता है, उसी को बचाकर यह कापियां तैयार करके बेचा जाता है, अब आगे का अंक गणित स्वयं लगा सकते हैं. 
 गीता प्रेस में काम करने वाले लोगों की संख्या लगभग 500 हैं। जिनमें 185 नियमित स्थाई  हैं और लगभग 315 ठेका और कैजुअल पर काम करते हैं।  शासनादेश दिनांक 24-12-06 जारी होने के बाद न्यूनतम मज़दूरी से अधिक पाने वाले मज़दूरों के मूल वेतन का निर्धारण शासनादेश के पैरा-6 के अन्तर्गत किया जाये। प्रदेश सरकार द्वारा स्पष्ट रूप से आदेश किया गया है कि शासनादेश जारी होने के पूर्व यदि किसी कर्मचारी का वेतन न्यूनतम पुनरीक्षित वेतन से अधिक है, तो इसे जारी रखा जायेगा तथा इसे उक्त न्यूनतम मज़दूरी अधिनियम के अन्तर्गत न्यूनतम मज़दूरी माना जायेगा।
 गीता प्रेस के प्रबन्धन द्वारा सभी कर्मचारियों के मूल वेतन को दो भागों में बाँटकर – एक भाग सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम मूल वेतन तथा दूसरे भाग में न्यूनतम से अधिक वेतन को एडहाक वेतन के अन्तर्गत रखा गया और इस एडहाक मूल वेतन पर कोई महँगाई भत्ता नहीं दिया जाता। किसी भी न्यूनतम पुनरीक्षित वेतन शासनादेश में एडहाक वेतन निर्धारण नहीं है। गीता प्रेस द्वारा मूल वेतन पर महँगाई भत्ता न देना पड़े इससे बचने के लिए मूल वेतन के हिस्से में कटौती करके कुछ भाग एडहाक में शामिल कर दिया गया। गीता प्रेस का प्रबन्धन शासनादेश का सीधा उल्लंघन कर रहा है।
  गीता प्रेस में  सभी कर्मचारियों को समान सवेतन 30 अवकाश दिया जाये, क्योंकि साल में किसी को 21 तो किसी को 27 सवेतन अवकाश दिया जाता है जो अनुचित है।  हाथ मशीनों में दबने, कटने और डस्ट आदि से बचने के लिए ज़रूरी उपकरण हो ।
 गीता प्रेस में लगभग 315 मज़दूर ठेके और कैजुअल पर काम करते हैं। इनकी कोई ईएसआई की कटौती नहीं की जाती। इनको  धर्म के नाम पर मज़दूरों की लूट का --- 4500 रुपये वेतन देकर 8000 रुपये पर हस्ताक्षर कराया जाता है। 'सेवा भाव' के नाम पर इनसे एक घण्टे बिना मज़दूरी दिये काम लिया जाता है। उक्त ठेके का काम गीता प्रेस परिसर में तथा प्रेस से बाहर सामने रामायण भवन तथा भागवत भवन नाम के बिल्डिंग में कराया जाता है। वेतन की पर्ची या रसीद तक नहीं दी जाती। ठेके व कैजुअल पर काम करने वाले सभी मज़दूरों को स्थाई करे । परमानेण्ट होने की अवधि से पहले ठेका कानून 1971 के मुताबिक उनको समान काम के लिए समान वेतन, डबल रेट से ओवरटाइम, पीएफ़, ईएसआई, ग्रेच्युटी आदि सभी सुविधाएँ दे  ।
  आसाराम, रामपाल, राधे माँ, रामदेव सहित तमाम सारे धार्मिक ट्रस्ट जनता की आस्था और विश्वास का लाभ उठा कर अपना-अपना व्यापार कर रहे हैं इस व्यापार में कोई कानून नियम, संविधान लागू नहीं हो सकता है क्यूंकि उनके समर्थकों के आस्था और विशवास का मामला होता है. कोई आयुर्वेदिक दवाओं का व्यापारी है तो कोई धार्मिक किताबों का व्यापारी है. यह व्यापार व्यापारिक नियमो से अलग हटकर होता है. मजदूरों का हक़ मारकर इनका व्यापार चलता है. मजदूरों के खून से ही इनके चेहरों के ऊपर सफेदी आती है और जितनी अधिक सफेदी आती है. भक्तगणों की भक्ति और अधिक बढ़ जाती है. यह खेल सदियों से खेला जा रहा है और धर्म का वास्तविक स्वरूप सिर्फ मछली को फ़साने के लिए यह शिकारी चारे के लिए इस्तेमाल करते हैं. धर्म अगर अपने मानने वालों को एक सन्देश यह सिखा दे की इमानदारी जीवन की सबसे अच्छी नीति है तो धर्म का स्वरूप उज्जवलमयी होगा समाज को लाभ भी होगा. 
              धर्म के नाम पर बहुत सारे धन्ना सेठो  से  बड़ी मात्रा में दान और चढ़ावा मिलता है । दैनन्दिनी, पंचांग पोस्टर ,किताबे  देश  और विदेशों में लाखों की संख्या में बिक्री करके  करोड़़ों रुपये की आय अर्जित करते है ।
 धर्म के नाम पर गीता प्रेस को टैक्स में भारी छूट लेता है। जिस तरह से भेड़िया खरगोश को खाने के लिए पाठ पढ़ता है की मेरे नजदीक आओ क्यूंकि  

अयं निज परोवेति गणना लघु चेतसाम .
उदार चरितानाम तु वसुधैव कुटुम्बकम्..

है. वास्वतिक मंशा यह है की खरगोश उसके नजदीक आये और वह उसका भक्षण कर अपनी क्षुधा को शांत कर सके लेकिन धर्म का स्वरूप यह नहीं है. 

सुमन 

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