भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) का राष्ट्रीय सम्मेलन 2-4 
अक्टूबर 2016 में इंदौर में होना तय हुआ है। उसी तारतम्य में से ये भी तय 
किया गया कि इप्टा द्वारा इंदौर में प्रतिमाह विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन
 किया जायेगा। 08 अप्रेल 2016 को इस कड़ी में परिचर्चा के रूप में दूसरे 
 कार्यक्रम का आयेजन किया गया जिसमें मुख्य वक्ता थे सुबोध मोरे और विषय था
 ‘‘दलित, वामपंथी और प्रगतिशील आंदोलन की साझा चुनौतियाँ।’’
 सुबोध
 मोरे जनवादी लेखक संघ के सक्रिय सदस्य होने के साथ ही साथ विद्रोही 
सांस्कृतिक मंच के राष्ट्रीय महासचिव रहे हैं और अभी भी सक्रिय हैं। मूलतः 
सुबोधजी एक्टिविस्ट कहलाना ही पसंद करते हैं। मुम्बई में जब बस्तियों का 
विस्थापन हुआ तब उसके खिलाफ चलाए आंदोलन में कॉमरेड सुबोधजी की महत्तवपूर्ण
 भूमिका रही है। अम्बेडकर साहित्य की गहरी पैठ होने के अलावा सुबोधजी ने 
दलित रचनाकारों द्वारा रचित रचनाओं का भी गहरा अध्ययन किया है। उन्होंने 
अनेक नाटकों, जनगीतों का मंचन, प्रदर्शन  किया  चुके हैं उनका इप्टा से 
पुराना और गहरा रिष्ता है और महाराष्ट्र इप्टा में भी सक्रिय भूमिका है।
सुबोध
 मोरे जनवादी लेखक संघ के सक्रिय सदस्य होने के साथ ही साथ विद्रोही 
सांस्कृतिक मंच के राष्ट्रीय महासचिव रहे हैं और अभी भी सक्रिय हैं। मूलतः 
सुबोधजी एक्टिविस्ट कहलाना ही पसंद करते हैं। मुम्बई में जब बस्तियों का 
विस्थापन हुआ तब उसके खिलाफ चलाए आंदोलन में कॉमरेड सुबोधजी की महत्तवपूर्ण
 भूमिका रही है। अम्बेडकर साहित्य की गहरी पैठ होने के अलावा सुबोधजी ने 
दलित रचनाकारों द्वारा रचित रचनाओं का भी गहरा अध्ययन किया है। उन्होंने 
अनेक नाटकों, जनगीतों का मंचन, प्रदर्शन  किया  चुके हैं उनका इप्टा से 
पुराना और गहरा रिष्ता है और महाराष्ट्र इप्टा में भी सक्रिय भूमिका है। 
सुबोध
 मोरे ने अपनी बात शुरु करते हुए कहा कि वाम और दलित आंदोलन दोनों के बीच 
की दूरी पाटने के लिए एक पुल बनाना जरूरी है। हमें दलित-आदिवासी और शोषितों
 की लड़ाई मिल कर लड़ना होगी, हमने मुम्बई में इसकी शुरुआत भी की है। हम सन् 
1992 से विद्रोही सांस्कृतिक मंच के जरिए हर वर्ष एक बड़़ा सम्मेलन करते हैं
 जिसमें अम्बेडकरवादी और प्रगतिषील सोच के साहित्यकार, दलित-आदिवासी, युवा,
 महिलाएं और हर जाति, समाज, धर्म के साहित्य से जुड़े लोग सम्मिलित होते 
हैं। हमें इस तरह के कार्यक्रम हर क्षेत्र में करने और सबको एक मंच से 
जोड़कर काम करने की जरूरत है। साथ ही हमें दलित साथियों द्वारा रचित साहित्य
 को पढ़ने, उस पर विचार करने और उसे विस्तारित करने की जरूरत भी है जिससे 
लोगों की सोच में बदलाव लाया जा सके।
वामपंथियों को अम्बेडकर, 
महात्मा फूले जैसे समाज उत्थानकों और विचारकों के विचारों को समझना और 
लोगों के बीच लाना जरूरी है। कबीर, अम्बेडकर और पेरियार के विचारों को एक 
करके समझने की जरूरत है। अम्बेडकर हों या ज्योतिबा-सावित्री फूले हों या 
प्रगतिषील साहित्यकार अन्नाभाऊ साठे इन सबकी इमेज को एक समाज या जाति के 
दायरे में कैद कर दिया गया है जबकि ये सब विचारक हैं। इनके विचार सारे 
शोषित तबके के लिए हैं लेकिन उनको जाति या समाज के दायरे में बांधकर सीमित 
कर दिया गया है। 
दलित विचारक आज के परिदृष्य से गायब कर दिए गए 
हैं। हम महात्मा फूले, अन्नाभाऊ साठे जैसे विचारकों को याद ही नहीं करते। 
ज्योतिबा फूले की जयंति अब केवल माली समाज मनाता है। कहने का तात्पर्य केवल
 वोट बैंक का जरिया बना दिया गया है। 
महात्मा फुले ने उस समय 
कहा था कि ‘‘हमारी लड़ाई किसानों, संास्कृतिक आजादी, श्रमिकों, शोषितों के 
लिए है।’’ ‘‘हमारी लड़ाई सेटजी, फटजी और लाटजी इनके खिलाफ है।’’ सेटजी मतलब 
उस वक़्त का अमीर या पूंजीपति, लाटजी मतलब गरीबों को लूटने वाला, साहूकार 
और फटजी मतलब ब्राह्मणवाद, वो किसी विशे ष जाति ना होकर सारे सवर्णों के 
खिलाफ कहा गया था और यही बात 1938 में अम्बेडकर ने मुम्बई रेल्वे मजदूरों 
के आंदोलन में अपने भाषण में भी कही थी कि मजदूरों के दो शत्रु हैं एक है 
पूंजीवाद तथा दूसरा ब्राह्मण्यवाद। वामपंथ भी इन्हीं दोनों के खिलाफ लड़ता 
है। जब दोनों के उद्देष्य समान है तो अलग-अलग संघर्ष क्यों? ये हमें सोचना 
बहुत आवष्यक है। ‘‘ब्राह्मण्यवाद’’ शब्द, व्यवस्था के खिलाफ है ना कि किसी 
जाति के लेकिन इस शब्द को बहुत तोड़-मरोड़ करके लोगों के सामने रखा जाता है। 
हमें चार व्यवस्थाओं सामंतवाद, पूंजीवाद, छुआछूत और पुरुषप्रधान समाज इनके 
खिलाफ इकट्ठे मिलकर लड़ना होगा, संघर्ष करना होगा।
20 मार्च 1927 
को हुए महाड सत्याग्रह की जानकारी देते हुए कॅामरेड सुबोध ने बताया कि महाड
 के जिस तालाब का पानी पीकर सत्याग्रह किया था, सत्याग्रह के बाद सवर्णों 
ने उस तालाब में 108 घड़े गौमूत्र डालकर उसे शुद्ध किया और इतना ही नहीं जिन
 दलितों ने इस सत्याग्रह में भाग लिया था उनके साथ बहुत मारा-पीटी भी की 
गई। लेकिन महाड के सत्याग्रह में दलित समाज से आर.बी. मौर्य थे तो सुरबन्ना
 तिपिन्स, सहस्त्रबुद्धे (जिन्होंने मनुस्मृति का दहन किया था) जैसे मध्यम 
वर्गीय सवर्ण भी उनके साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर साथ खड़े थे। लेकिन ये 
बातें जन साधारण तक पहुंचती ही नहीं हैं। चाहे अम्बेडकर की बात करें या 
फूले के आंदोलन की, दोनों के साथ महाराष्ट्र का सवर्ण वर्ग भी साथ रहा है। 
ये
 महज एक इत्तेफाक था लेकिन सन् 1848 में जब कार्ल मार्क्स का कम्यूनिस्ट 
मेनिफेस्टो लोगों के सामने आया तब उसी वर्ष 3 जनवरी को भारत के महाराष्ट्र 
में अछूतों और महिलाओं के लिए ज्योतिबा और सावित्री बाई फूले ने पहला 
विद्यालय खोला था और इस विद्यालय हेतु जमीन वहां के ब्राह्मण समाज ने ही दी
 थी।   जब 16 अगस्त 1936 में, तब मुम्बई राज्य हुआ करता था, अम्बेडकर ने 
अपनी अलग राजनीतिक पार्टी बनाई और उनकी पार्टी से तेरह एमएलए चुनकर आए थे, 
वो उस समय की बड़ी पार्टी थी। जिसमें से चार ऊंची जाति के लोग थे। उनमें से 
ही एक श्यामराव पोडेकर उस पार्टी के डिप्टी लीडर थे जो बाद में कम्यूनिस्ट 
पार्टी में आए, जो किसान सभा के बड़े लीडर हुए। परुलेकर जो आदिवासी सभा के 
लीडर थे, बाद में कम्यूनिस्ट पार्टी के मेम्बर बनें। 
ये सब 
बताने का तात्पर्य यह है कि हमें इतिहास से सीखना होगा जिस तरह महाराष्ट्र 
में जब मजदूरों के विरोध में बिल आया था जो काला कानून के नाम से जाना जाता
 था या किसानों का संघर्ष हुआ तब, जमींदार प्रथा के खिलाफ कम्यूनिस्टों और 
बाबा साहेब ने साथ मिलकर इन लड़ाइयों को लड़ा और सफल रहे उसी तरह के सामंजस्य
 की जरूरत हमें आज बहुत तीव्रता के साथ जरूरत है। दोनों के काम करने के 
तरीके में अंतर हो सकता है लेकिन उद्देष्य एक हैं। आज जो हमला हो रहा है वह
 इन दोनों विचारधाराओं पर ही हो रहा है क्योंकि ये सांप्रदायिक ताकतें 
जानती हैं कि यही दोनों ताकतें उनके खिलाफ अडिग होकर खड़ी रह सकती हैं। ये 
दोनों शक्तियां हैं जो चुनौती दे सकती हैं। पूंजीवादी ताकतों ने इन दोनों 
विचारधाराओं के बारे में अनेकों अर्नगल धारणाएं फैलायीं। यही काम उन्होंने 
बुद्ध और मार्क्सवाद के मध्य भी किया।
आज यदि हम कमजोर पड़े हैं 
तो उसकी एक वजह ये भी है कि हमें अपने सांस्कृतिक पक्ष को मजबूत करके रखना 
था जो हम नहीं रख पाए। एक समय था जब इप्टा ने देश में एक बड़ा रोल अदा किया 
था। फिर एक ऐसा फेज भी आया कि जिसमें सांस्कृतिक पक्ष बहुत कमजोर हो गया। 
महाराष्ट्र में दलित साहित्य की शुरुआत करने वालों में अन्नाभाऊ साठे, 
बाबूराव बाबुल का नाम लिया जाता है और ये दोनों ही लोग वामपंथी और अम्बेडकर
 विचारधारा दोनों के समर्थक रहे हैं जिसका प्रभाव इनके द्वारा रचित साहित्य
 में स्पष्ट दिखता है। क्योंकि ये दोनों जिस क्षेत्र माटुंगा लेबर केम्प 
में काम कर रहे थे वहां इन दोनों ही विचारधाराओं का बहुत प्रभाव था। इंदौर 
के एक पुराने शायर थे ‘‘मजनूं इंदौरी’’, शंकर शैलेन्द्र (जिन्होंने बाद में
 राजकपूर की फिल्मों के गाने भी लिखे), शाहिर अमर शेख और गवाणकर ये सभी इसी
 लेबर केम्प में काम करते थे और सांस्कृतिक पक्ष में भी जाने माने नाम हैं।
 शेख ने इप्टा द्वारा बनाई पहली फिल्म ‘‘धरती के लाल’’ के लिए गीत लिखे और 
बाद तक इप्टा से जुड़े रहे। अन्नाभाऊ साठे दलित साहित्य संगठन के पहले 
अध्यक्ष रहे। उन्होंने लाल झंडे के भी गाने लिखे, मजदूरों के भी गाने लिखे 
और दलित आंदोलन के भी गाने लिखे। वे इप्टा के अॅाल इंडिया के प्रेसीडेन्ट 
भी रह चुके हैं। इन्होंने अनेक उपन्यास, नाटक, कहानियां, फिल्म पटकथाएं भी 
लिखीं। मजनूं इंदौरी जो रेल्वे मजदूरों के बीच और ट्रेड यूनियन में काम 
करते थे जिनकी किताब ‘‘जिंदगी’’ पर आचार्य अतरे और कैफी आजमी ने भूमिका 
लिखी थी।  सत्तर के दषक के नामदेव ढसाल, दया पवार जैसे साहित्यकारदोनों ही 
विचारधाराओं से जुड़े रहे हैं। आज शायद ही किसी को याद होगा कि अन्नाभाऊ 
साठे इप्टा के राष्ट्रीय सदस्य भी रहे हैं।
वर्तमान में रोहित 
वेमुला के बाद जो राजनीतिक माहौल बना है ये अच्छे संकेत हैं और हमारे लिए 
दलित और वामपंथी ताकतों को मिलाने का अच्छा अवसर है। हमें उसका फायदा उठाते
 हुए सक्रिय रूप से काम करते की जरूरत है ऐसा मैं समझता हूं। साथ ही 
दबे-कुचले और शोषित तबके को लामबंद करने की जरूरत है और रफ्तार हमें और तेज
 कर देना चाहिए। इस समय हमें कोई भी मौका नहीं चूकना चाहिए। 
यदि
 हमें इन फासीवादी ताकतों को षिकस्त देनी है तो मिलकर साथ आना होगा। ये 
फासीवादी ताकतें समरसता की बात करती हैं जिसमें हमारा आस्तित्व ही मिट जाता
 है, हमारी अस्मिता ही खतम हो जाती है जबकि हम समता की बात करते है। हम आज 
भी ये नहीं समझते हैं कि ये लड़ाई जातिगत हिन्दू चेतना और सर्वहारा वर्ग के 
बीच की लड़ाई है। आज भी जाति चेतना, वर्ग चेतना की तुलना में अधिक शक्तिषाली
 है। हमें इस वर्ग चेतना को जाति चेतना से अधिक शक्तिषाली बनाना होगा।
सत्तासाीन
 सरकार की नीतियां अब जन साधारण के सामने भी उजागर हो गई हैं। अब लोगों में
 इतनी राजनीतिक चेतना आ गई है कि वे ये समझने लगे हैं कि वर्तमान सरकार 
जाति के आधार पर लोगों में फूट डाल रही है। ऐसे लोग जो दलित के नाम पर अपनी
 रोटियां सेंकने की कोषिष कर रहे हैं लोग अब उनकी इन चालों को समझने लगे 
हैं।
बाबा साहेब ने उस समय लिखा था कि यदि बीजेपी या संघ सत्ता 
में आते हैं तो सांप्रदायिक ताकतें तेज हो जायेंगी और ये बात होती आज हम 
देख भी रहे हैं। भले ही दलित और वामपंथी विचारों के बीच मतभेद हो सकते हैं 
लेकिन हमें उन मुद्दों पर एक होकर काम करने की सख्त जरूरत है जिनमें हम 
एकमत हैं। 
पुरस्कार वापसी के सिलसिले में महाराष्ट्र में सबसे 
पहले पुरस्कार वापस करने वाले साहित्यकार दया पवार ही थे जो कि दलित समाज 
से ताल्लुक रखते हैं।
भारतीय जन नाट्य संघ, इंदौर की इस बैठक में
 सवाल-जवाब भी हुए। इप्टा के साथियों महिमा, सूरज, मृगेन्द्र, नितिन, आमिर 
के साथ साथ वरिष्ठ एवं युवा कॅामरेड एस. के. दुबे, कैलाश  गोठानिया, ब्रजेश  
कानूनगो, दुर्गादास सहगल, भवानी सिंह, तपन भट्टाचार्य, सुभद्रा खापर्डे, 
नेहा, तौफीक की विशेष उपस्थिति रही।

 
 
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