सोमवार, 27 जून 2016

देश का पिछड़ा वर्ग: भूत, वर्तमान और भविष्य


 “We must shape our course ourselves and by ourselves." -Babasaheb Ambedkar

  भारतीय वर्ण-जाति आधारित सामाजिक व्यवस्था के दुष्प्रभाव इतने गहरे और प्रभावी हैं कि तमाम संवैधानिक उपचारों और लंबे समय तक चलने वाले जनसंघर्ष और सामाजिक न्याय के आंदोलनों के बाद भी अभी तक कोई स्वस्थ सामाजिक संरचना देश में निर्मित नहीं की जा सकी है। देश का पिछड़ा वर्ग यहाँ की विशालकाय आबादी है। भिन्न-भिन्न जातियों के समूह इस वर्ग में सम्मिलित हैं यद्यपि जातीय अस्मिताओं में जी रहे इस वर्ग में रंचमात्र भी वर्गबोध होता तो यह आज इस देश का प्रभु वर्ग होता। यह वह वर्ग है जिसने औपनिवेशिक भारत में दलितों और अंत्यजों के साथ दोहरीगुलामी झेली है। ये अंग्रेजों के गुलाम तो थे ही साथ ही साथ देश की सवर्ण जातियों के गुलाम अलग से थे। सवर्ण जातियों का अपना एक अलग एजेंडा रहा है। विदेशी आक्रमण कारियों के शासन से लेकर मुगलों ब्रिटिशों तक वे अपने हितों और स्वार्थों के लिए तत्काल सत्ता के साथ हो जाते थे। उन्हें देश की बहुसंख्यक आबादी से कोई सरोकार नहीं था। भारत की सवर्ण जातियों ने अनेक मुस्लिम, तुर्क, गुलाम शासकों की दीवानी और दरबारी की। वे मुगलों के दरबार में उनके सेनापति और नवरत्न बनकर रहे, उनसे रोटी-बेटी का संबंध रखा। अंग्रेजों से ठेके लेने और राय बहादुर तथा राजा के खिताब पाने के लिए वे उनके भी चापलूस बने रहे। सवर्णों ने भारत की दलित-पिछड़ी जातियों को हाशिए पर
धकेल कर अंग्रेजों से प्राप्त न केवल आर्थिक उत्पादन के स्रोतों पर बल्कि राजनैतिक सत्ता पर भी अधिकार कर लिया। वही रंग आज भी विभिन्न राजनैतिक पार्टियों में दिखता है। ये केवल सत्ता के साथ रहना ही जानते हैं।  दूसरी तरफ पिछड़े वर्ग की कोई सांस्कृतिक अस्मिता नहीं रही। दलितों ने फिर भी एक दीर्घकालीन आंदोलन चलाया। क्योंकि उनके तो अस्तित्व पर ही संकट था। वे तो अमानवीय स्थितियों में जी रहे थे। उनके पास अंबेडकर जैसे नेता भी थे और उन्होंने लंबी लड़ाई लड़कर अपनी खोई हुई अस्मिता को प्राप्त किया। आज सरकारी नौकरियों से लेकर प्रत्येक क्षेत्र में दलितों का संतोषप्रद प्रतिनिधित्व है। लेकिन यदि सिरे से कोई गायब है तो वह हैं पिछड़े। पिछड़े वर्ग की कई सांस्कृतिक, राजनैतिक समस्याएँ हैं। इनके अस्तित्व पर कोई संकट नहीं था न ये अस्पृश्यता के शिकार थे। जिसका फायदा उठाकर सवर्ण हिन्दुत्व और ब्राह्मणवाद ने इन्हें सवर्ण बनाने का सफल प्रयास जारी रखा तथा दलितों का उत्पीड़न करने और अल्पसंख्यकों के खिलाफ सांप्रदायिक राजनीति में इन्हें राजनैतिक औजार की तरह इस्तेमाल किया। जबकि अपनी मूल सामाजिकता में भारत की पिछड़ी जातियाँ सांप्रदायिक नहीं हैं। ब्राह्मण धर्म के चंगुल में फँसने के कारण इनका और भी बुरा हश्र हुआ। देश के मंदिर-मठों में सबसे अधिक चढ़ावा यही चढ़ाते हैं क्योंकि इनकी आबादी देश की कुल आबादी की लगभग साठ फीसदी है। इनके द्वारा किए गए धार्मिक दान और चढ़ावे के बल पर ही इस देश का ब्राह्मणवाद फलता-फूलता और मुटाता है। पिछड़े व्यवसाय के स्तर पर किसान, पशुपालक, कामगार और खेतिहर मजदूर हैं। इसी तरह पसमांदा मुसलमानों में पिछड़ी जातियाँ नाई, जुलाहे, कसाई, घोसी, धुनिया आदि हैं। लक्ष्यार्थ यह कि देश में सबसे अधिक मेहनत का या शारीरिक श्रम का कार्य भी यही करते हैं क्योंकि सवर्ण जातियों ने पूर्णतया स्वयं को शारीरिक श्रम से दूर कर रखा है। प्रकारांतर से भारत की 15 प्रतिशत सवर्ण आबादी देश की पचासी प्रतिशत दलित, पिछड़ी, अल्पसंख्यक और आदिवासी जनता के श्रम पर न केवल जीती है बल्कि उसी की प्रदान की गयी शक्ति से उसको शासित और शोषित भी करती है। पिछड़े आज भी सवर्णों के लठैत बने हुए हैं। स्वतंत्रता के बाद जमींदारी उन्मूलन ने कुर्मी और यादव जैसी जातियों को थोड़ी बहुत जमीन अवश्य दिला दी लेकिन कहार, लोहार, निषाद, महरा, केवट, माली, नाई और कुम्हार जैसी पिछड़ी जातियाँ लगभग भूमिहीन ही रहीं। ये अभी भी गाँवों में रहती हैं। बीसवीं सदी के अंतिम दशक तक भारत की सवर्ण जातियाँ पूरी तरह से शहरों में बस चुकी थीं। जमींदारी उन्मूलन ठीक से न होने की वजह से इनके पास पर्याप्त भूमि थी जिसे या तो इन्होंने बेच दिया या फिर शहर में रहकर ही खेतिहर मजदूरों से उस पर कृषि कराते रहे। उनके खेतिहर मजदूर भी पिछड़ी जाति के थे। इससे उन्हें दोहरा लाभ हुआ एक तो वे शहर में अंग्रेजी शिक्षा पाकर महत्वपूर्ण सरकारी पदों पर काबिज हो गए और दूसरी तरफ कृषि के उत्पादन का लाभ भी उन्हें मिला जिससे उनकी स्थिति निरंतर सुदृढ़ होती गई और सामाजिक असमानता बढ़ती रही। दलितों का भी एक बड़ा जनसमूह शहरों की तरफ निकल गया। अंबेडकर ने दलितों को शहरों की ओर जाने का नारा दिया, उनकी नजर में भारतीय गाँव ‘जातीय भेदभाव का नर्क’ थे। इससे दलितों को लाभ भी हुआ। वे न केवल सरकारी नौकरियों में स्थान बना सके बल्कि एक समझदार, जागरुक मध्यवर्ग और उनके हितों-अधिकारों के लिए लड़ने वाला एक दलित बुद्धिजीवी वर्ग भी अस्तित्व में ला सके। पिछड़े वर्ग का दुर्भाग्य रहा कि वह सवर्णवाद के झाँसे में आ गया और स्वयं को श्रेष्ठ हिन्दू मानने (क्षत्रिय आदि) एवं अपने आंतरिक ब्राह्मणवाद के चक्कर में फँसकर ही उसकी स्थिति आज इतनी सोचनीय हो गई है। पिछड़ा वर्ग केवल वोट बैंक बना रहा। स्वतंत्र भारत में सामाजिक न्याय की गति अत्यंत धीमी रही है। पिछड़ों के लिहाज से और भी धीमी। अंग्रेजों से सत्ता का जो हस्तांतरण हुआ वह भारत की सवर्ण जातियों को हुआ। भारत का पहला प्रधानमंत्री और भारत के सभी राज्यों के मुख्यमंत्री ब्राह्मण थे। उन्होंने सामाजिक न्याय को लेकर कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई क्योंकि यह उनके वर्चस्ववादी हितों के खिलाफ थी। मण्डल कमीशन की रिपोर्ट को लंबे समय तक कांग्रेस के सवर्ण नेतृत्व ने दबाए रखा। जब तक इसे लागू किया जाता तब तक देश की सरकारी नौकरियों पर पूरी तरह से सवर्ण काबिज हो चुके थे। देश की दूसरी सवर्णवादी पार्टी भाजपा ने सांप्रदायिक सवर्ण हिन्दू संगठन आरएसएस के सहयोग से मण्डल के विरोध में कमंडल की राजनीति प्रारम्भ की और देश को सांप्रदायिकता की आग में झोंक दिया। यह सत्य है किं मण्डल कमीशन के पश्चात पिछड़ों को जो 27 फीसदी आरक्षण मिला उससे उनकी राजनैतिक मानसिकता में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ। मुंगेरीलाल, कर्पूरी ठाकुर, लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव, नीतीश कुमार जैसे बड़े सामाजिक क्रांतिकारी नेता भी पिछड़े वर्ग में सामने आए। किन्तु आज भी केंद्रीय सरकारी नौकरियों में उनका प्रतिनिधित्व केवल 12 फीसदी है जबकि उनकी आबादी लगभग 60 फीसदी है। हालात बहुत बुरे हैं। जितने सोचे जा रहे थे उससे अधिक ! देश के केंद्रीय विश्वविद्यालयों में केवल एक प्रोफेसर और एक वाइस चांसलर पिछड़ी जाति का है। देश के शीर्ष बीस अरबपतियों में एक भी पिछड़ा नहीं है। इसी तरह मीडिया, फिल्म, न्याय पालिका, कारपोरेट और साहित्य में भी पिछड़ों का यही हाल है। यह महज इत्तिफाक नहीं है कि आजादी के आधी सदी से अधिक का समय बीतने के बाद भी पिछड़ों की इतनी बुरी हालत है। इसके पीछे भयानक सवर्ण, वर्चस्ववादी, यथास्थितिवाद है। पिछड़ों को कई कानूनी दाँव-पेचों से समाज की मुख्य
धारा में आने से रोका जा रहा है। सवर्णवाद और हिन्दुत्व की बूटी से पिछड़े अपने वोट बैंक की ताकत को भी भूल जाते हैं और यही ब्राह्मणवाद की सफलता है। किन्तु अब पिछड़ों में एक नई चेतना देखी जा रही है। उन्होंने अपने कबीर, फुले, अंबेडकर और पेरियार जैसे नायकों को पहचान लिया है। ललई सिंह यादव और रामस्वरूप वर्मा जैसे विचारकों को भी पिछड़ों ने समझ लिया है। इन्हें अपनी वोट की ताकत को पहचानना होगा और अपने हक की लड़ाई के लिए सड़क पर उतरना होगा। सबसे पहले तो जातिवार जनगणना के आँकड़ों को सार्वजनिक करने की माँग करनी होगी। इससे पता चल जाएगा की इनकी आबादी की वास्तविक स्थिति क्या है। तभी ये अपनी आबादी के अनुपात में
प्रतिनिधित्व माँग सकेंगे। हालाँकि इस विषय पर भाजपा और कांग्रेस दोनों ही दलों का ढुलमुल रवैया है क्योंकि दोनों ही सवर्णवादी राजनीति करती हैं। प्रधानमंत्री मोदी स्वयं को पिछड़ा बताकर वोट मांगते हैं लेकिन पिछड़ों के हक की बात पर मौन धारण कर लेते हैं क्योंकि ऐसा करने के लिए ब्राह्मणवादी मोहन भागवत उन्हें निर्देश देते हैं। इसमें संदेह नहीं कि पिछड़ों का वोट ही भारतीय राजनीति का भविष्य तय करता है लेकिन पिछड़ों का भविष्य और वर्तमान हमेशा हाशिए पर क्यों रखा जाता है? इस प्रश्न पर पिछड़ों को विचार करना चाहिए। राष्ट्रीय अन्य पिछड़ा आयोग को अभी तक संवैधानिक दर्जा नहीं दिया गया है। आरक्षण एक्ट के लिए पिछड़ों को माँग करनी चाहिए। आरक्षण एक्ट के तहत यह कानून होना चाहिए कि, किसी संस्था में आरक्षण के नियमों का विधिवत पालन न होने पर उस संस्था के प्रमुख को कड़ी से कड़ी सजा दी जाय। क्योंकि व्यवस्था में बैठे हुए सवर्ण साजिश करके पिछड़े वर्ग की सीटों को सामान्य में बदलकर उस पर स्वजातीय भर्ती कर लेते हैं। यह सब खुले आम हो रहा है। पिछड़ों को सोचना चाहिए के वे इस देश में सबसे अधिक मेहनत करने वाले वर्ग की श्रेणी में हैं, जिसकी मेहनत का कोई और मजा लूट रहा है। सांप्रदायिकता और उग्र हिन्दुत्व से इन्हें दूर रहना चाहिए क्योंकि यह सारा ढोंग इन्हीं का हक लूटने के लिए किया जाता है। जातीय और धार्मिक भेदभाव को भूल कर पिछड़ों को एक वर्ग के रूप में सामने आना चाहिए तभी वे अपने अधिकार प्राप्त कर सकेंगे। हिंदुओं के पिछड़े और मुसलमानों के पसमांदा मुसलमान एक जैसे ही हैं। उनकी उनके धर्म में एक जैसी ही हालत है। इसलिए पिछड़ा, पिछड़ा एक समान होना चाहिए वह हिन्दू हो या मुसलमान! हजारों साल से भारतीय सामाजिक व्यवस्था में जड़ें जमाए हुए सवर्णवाद और ब्राह्मणवाद को उखाड़ फेंकने के लिए एकजुट होना होगा। दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक तो पहले से ही पिछड़ों के साथ हैं।
   -संतोष अर्श
मोबाइल: 09033510239
लोकसंघर्ष  पत्रिका  के जून अंक 2016  में प्रकाशित

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