शनिवार, 6 मई 2017

*क्या करें क्या न करें*


     मैंने तो 2007 में एक लेख "बसपा का घटता जनाधार" लिखकर स्पष्ट कर दिया था कि सुश्री मायावती जी का जनाधार गिर रहा है और अगला दसक उनका आखिरी दसक होगा। बस दुखद ये है कि ये बहुजन का भी वह दसक है जो इसे घोर कठिनाइयों में घसीट रहा है। इसके बाद, यह दसक डा.आम्बेडकर के क्रांतिकारी मूल विचारों को भी वाट लगाने का प्रारंभिक वर्ष है।
     अब जातिप्रथा उन्मूलन शब्द का उच्चारण करना होगा। ब्राह्मणवाद शब्द कहना-लिखना दलितों-बहुजनों-मूलनिवासियों को बंद करना पड़ेगा। इस शब्द के उच्चारण से ब्राह्मण वर्ग अपने को अधिक गोलबंद करने में सफल हुआ है और दलितों पर इल्जाम आसानी से मान लिए जाने लगे हैं। इस शब्द की प्रतिक्रियात्मक शक्ति रक्तबीज की तरह बढ़ जाती है और दलित बलहीन-मतहीन-वोटहीन होता जाता है।
     जातिप्रथा के दोष को बता कर दलित सवर्णों को भी कन्विंस कर सकता है, यह कि हम सब के जाति के नेता अपने वोट ध्रुवीकरण के लिए हमारा प्रयोग तो करते हैं किन्तु हमारे बच्चों के शिक्षा, रोजगार, आवास, मेडिकल, हमारी आवश्यक आवश्यकताओं को बिल्कुल ध्यान नहीं रखते हैं। हम उन्हें चुनते हैं, बस हमारा उतना ही अधिकार व हित है।
     हमारे जाति ध्रुवीकरण को भय के रूप में प्रोजेक्ट करके अन्य जातियों को भयभीत करने के लिए प्रयोग में रखते हैं। और, ऐसा हर जाति के नेता सत्ता में आने पर करते हैं।
     वास्तव में, सत्ता पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमिटी होती है और सत्ता का मुखिया उसका मैनेजर।
     ऐसी स्थिति में सिर्फ और सिर्फ एक बात ही काम की हो सकती है कि हम संसदीय लोकतंत्र के दौरान ईमानदारी और वैचारिक क्राँति के द्वारा बहुजन वैचारिक रूप से ईमानदार होकर चुनाव के लिए सक्षम, ईमानदार और चरित्रवान नेता पैदा करे, उसे जिताए, और बारगेनिंग की शक्ति प्रदान करे। किन्तु उस खतरे के लिए भी विमर्श करते रहें जो सत्ता में आए हुए संत्री-मंत्री पर अंकुश रख सके। नहीं तो वही सब घटेगा जो आज बसपा के साथ घटा है।
    किन्तु मैं संसदीय राजनीति को सिर्फ बहुजन को मजबूत करने तक ही उचित मान रहा हूँ। जैसे ही बहुजन मजबूत हो,  बिना किसी हीलाहवाली के उसे इस संविधान को बहुजन लायक बनाने के लिए क्राँति करनी होगी, क्योंकि संसदीय राजनीति में बहुमत दल सुन्दर से सुन्दर मानवहित के शर्तों-सिद्धांतों को बदल देता है। केवल नया संविधान ही मानव हित-बहुजन हित की रक्षा का प्रबंध कर सकता है।
     एक और अंतिम बात यह कि ऐसा हम सिर्फ दलितों के लिए ही नहीं कर रहे होते हैं, बल्कि सवर्णों के लिए भी हम शोषण विहीन मूल्यों को स्थापित करेंगे। हाँ, जातिप्रथा उन्मूलन की लड़ाई शुरू तो दलित करेगा, परन्तु फ़ाइनल दलित नहीं करेगा। फ़ाइनल करने के लिए हमें हर जातियों के क्रांतिकारी लोगों को साथ में लेना पड़ेगा। यहाँ भी बहुजन अथवा सर्वहारा संस्कृति के बात को नहीं भूलना चाहिए। सांस्कृतिक क्रांन्ति लगातार चलना पड़ेगा। सभी जातियों के क्रांतिकारी लोगों को माफ़िया-बाहुबलियों-गुंडों-जाति
वादी नेताओं-पूँजीपतियों और अपने जाति-धर्म के विरुद्ध जुझारू संघर्ष करते रहना पड़ेगा।
     बसपा को तो 22 प्रतिशत वोट मिले हैं। ऐसा नहीं कह सकते हैं कि आप के लोगों ने वोट नहीं दिया है, किन्तु दूसरों के वोट लेने से आप वंचित रहे और यह आप की नपुंसकता के कारण नहीं हुआ है बल्कि वैचारिक कमजोरी की वजह से हुआ है। सुश्री मायावती जी के माफ़िया ब्राह्मणों को साथ लेने की वजह से हुआ है। ऐसे ब्राह्मणों को साथ लेने की वजह से हुआ है जो दलितों को राजनैतिक हरवाह बनाने के लिए खुली छूट पा गए। हमारे नेता पैदा होने से रोक दिए गए। ऐसा इस नाते हुआ कि सुश्री मायावती ने सभी 403 विधानसभा सीटों पर बीएसपी कैंडिडेट्स के जातिगत आंकड़े अनाउंस किए थे। इसमें 87 (21%) दलित, 97 (24%) मुस्लिम, 106 (26%) ओबीसी और 113 (28%) (ब्राह्मण 66, ठाकुर 36, बनिया-वैश्‍य-कायस्‍थ 11) सवर्ण कैंडिडेट्स शामिल हैं। बसपा का अब तक का गणित यही रहा है कि दलित और मुस्लिम एकजुट होकर अगर उसके पक्ष में वोट करते हैं तो दूसरे दलों को परेशानी उठानी पड़ सकती है। उत्तरप्रदेश में करीब 19 फीसदी मुस्लिम और 22 फीसदी दलित हैं। वहीं, कुल 54 फीसदी पिछड़ी जाति का वोट बैंक है। 70 विधानसभा क्षेत्रों में मुस्‍लिमों की संख्या 20 फीसदी से ज्‍यादा है। ईस्ट यूपी की 20, वेस्ट यूपी की 10, सेंट्रल यूपी की 5 और बुंदेलखंड की एक सीट पर मुस्लिम वोटर्स की संख्या 55 से 60 फीसदी है। सुश्री मायावती जी 22.5 प्रतिशत दलित मत और 19 प्रतिशत अल्पसंख्यक मत तथा कुछ सवर्ण और कुछ ओबीसी तथा अन्य ओबीसी को मिलाकर जीत का पक्का हिसाब जोड़ रखी थीं।
    भारत में 24.39 करोड़ परिवार में रहते है। उनमें से 17.91 करोड़ परिवार ग्रामीण इलाकों में रहते है। अनुसूचित जाति-जनजाति के 3.86 करोड़ परिवार, यानी 21.53 प्रतिशत ग्रामीण भारत में रहते है। 2.37 करोड़ (13.25 प्रतिशत) ग्रामीण एक कमरें मे रहते है और उनके घर के छप्पर और दीवारें पक्की नही हैं। 65.15 लाख ग्रामीण परिवारों में 18.59 वर्ष आयु वर्ग के पुरुष सदस्य नहीं हैं। 68.96 लाख परिवारों की प्रमुख महिलाएं हैं। 5.37 करोड़ (29.97 प्रतिशत परिवार भूमिहीन है व मजदूरी करके जीते है। 17.91 करोड़ परिवारों में से 3.3 करोड़ यानी 18.46 प्रतिशत परिवार अनुसूचित जातियों से हैं तो 1.9 करोड़ (10.97 प्रतिशत) अनुसूचित जनजातियों के। अनुसूचित जाति के 1.8 करोड़ (54.67 प्रतिशत) परिवार भूमिहीन हैं और आदिवासियों के 70 लाख यानी 35.62 प्रतिशत। अनुसूचित जाति और जनजाति को शैक्षणिक संस्थानों और नौकरियों में आरक्षण होते हुए भी 3.96 प्रतिशत अनुसूचित जाति और 4.38 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति के लोग ही नौकरी में हैं। सार्वजनीक क्षेत्र की नौकरियों में अनुसूचित जाति यों की भागीदारी 0.93 प्रतिशत है जबकि अनुसूचित जनजाति की 0.58 प्रतिशत है। निजी क्षेत्र की नौकरियों में अनुसूचित जातियों की भागीदारी 2.42 प्रतिशत है तो अनुसूचित जनजाति का 1.48 प्रतिशत है।
ग्रामिण भारत में रुपये 5000 प्रतिमाह में जीवन जीने वाले अनुसूचित जाति के 83.53 प्रतिशत परिवार हैं और अनुसूचित जनजाति के 86.56 प्रतिशत। शेष लोगों में 5000 रूपये में बसर करने वाले परिवार 74.49 प्रतिशत हैं। 0.46 प्रतिशत अनुसूचित जाति, 0.97 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति तथा 2.46 प्रतिशत शेष परिवारों के पास चार पहिया गाडिय़ां हैं। नौकरियों में भागीदारी का निम्न विवरण है :
ऊंची जाति: ७६.८%
ओबीसी:   ६.९%
अनुसूचित जाति:  ११.५%
अनुसूचित जनजाति: ४.८%  
जब तक इन बिंदुओं पर चर्चा-परिचर्चा नहीं होगा, तब तक आप न दलित हित में कुछ कर पाएंगे और न सवर्ण के गरीबी का कोई अनुमान लगा पाएंगे। वैसे तो सवर्ण हर जगहों पर अधिक कब्ज़ा करता हुआ दिखता है किन्तु वास्तविक मूल्याङ्कन यह नहीं है। वास्तविक मूल्यांकन में खोज का विषय यह है कि कितने सवर्ण गरीब है जिनको कोई भी सवर्ण नेता कुछ नहीं देता है, न राजनैतिक रूप से न आर्थिक रूप से। जबकि सामाजिक सर्वोच्चता का मुकुट पहना कर उनका दोहन बिना चारा-पानी दिए करते रहते हैं। और, गरीब दलिरों का आंकड़ा देखकर सक्षम दलितों को और बसपा सुप्रिमों सुश्री मायावती को ईमानदारी से गरीबों के उत्थान के लिए योजनाएं बना कर चुनावी रणनीति तैयार करनी चाहिए।
-आर डी आनंद

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