मंगलवार, 19 जून 2018

वामपंथी एवं कम्युनिस्ट एकता वक्त की ज़रूरत, जनवादी शक्तियों का साथ वक्त की मांग

पार्टी की कतारों में साथी सवाल पूछ बैठते हैं कि कामरेड बताएँ कि कम्युनिस्ट पार्टियों में उनकी एकता कब स्थापित होगी? या क्यों देश में एक ही कम्युनिस्ट पार्टी नही बन जाती?
मैं इसका जवाब देता हॅू कि ऐसा होगा तो जरूर परन्तु समय लग रहा है। पार्टी कतारों को और देशवासियों को गाँव और शहरों में मोदी राज कचोट रहा है, वह घुन की तरह खा रहा है। वह गरीब शोषित-पीड़ित जनता को बुरी तरह नोच-खसोट रहा है और इसके विपरीत कुबेर पतियों की तिजोरियों को भर रहा है। पूँजीपति वर्ग को छोड़ कर समाज का कोई भी मेहनतकश हिस्सा ऐसा नहीं है जिसके जीवन में इस राज का विपरीत प्रभाव न पड़ा हो। इस स्थिति से बाहर निकलने के लिए पार्टी कतारों और देश में आवाज उठ रही है। मोदी राज के विरुद्ध जनता जवाब भी दे रही है। गोरखपुर एवं फूलपुर के चुनावों ने दिखा भी दिया है। इन नतीजों का समाज में इतना जबरदस्त प्रभाव है कि मोदी राज के शोक सन्देश तक लिखे जा रहे हैं।
कम्युनिस्ट पार्टी का जन्म 1925 में कानपुर में हुआ था। 1964 में बँटवारा हो गया और सी.पी.एम बना ली गई। देश ने और पार्टी कतारों ने एक लम्बा दौर देखा है जिसमें सी.पी.आई और सी.पी.एम. के विचारों के द्वन्द्व खुल कर आम लोगों के सामने आए हैं। आज 2018 में तथा पिछले कुछ वर्षों से यह हालात नही हैं। विचारों में अन्तर तो है परन्तु उसकी कटुतापूर्वक अभिव्यक्ति नहीं है। जन महत्व के अधिकतर प्रश्नों पर समान सोच भी है।
यह समान सोच ही किसी दिन कम्युनिस्ट एकता में सहायक होगी। देश में 2014 से पहले कभी भी पूर्ण बहुमत वाली दक्षिणपंथी साम्प्रदायिक सरकार को केन्द्र में नहीं देखा था। यद्यपि 1977 की जनता पार्टी सरकार में जनसंघ के 2 मन्त्री शामिल थे और फिर 2004 तक 7 वर्षों तक चली श्री अटल बिहारी बाजपेई की सरकार को देश ने देखा था।
वर्तमान दक्षिण पंथी साम्प्रदायिक मोदी सरकार जो काम कर रही है वह भी तो देश ने कभी नहीं देखे थे। उसके कुकृत्यों से देश की आत्मनिर्भर मिश्रित अर्थव्यवस्था को निरन्तर आघात पर आघात लग रहे हैं। यद्यपि इस आत्मनिर्भर मिश्रित अर्थव्यवस्था को हुक्मरानां ने श्रीमती इन्दिरा गांधी के बाद से कमजोर करना शुरू कर दिया था। इसको यदि यूँ कहा जाए कि उक्त कार्य को करने हेतु कांग्रेस एक खच्चर पर बैठकर सफर कर रही थी तो भारतीय जनता पार्टी की मोदी सरकार उसी कार्य को सम्पन्न करने हेतु एक अरबी घोड़े पर सवार हो द्रुति गति से सफर कर रही है।
कांग्रेस का खच्चर की गति से चलना स्वाभाविक था क्योंकि आत्मनिर्भर मिश्रित अर्थव्यवस्था के निर्माण में देश और काल की उन परिस्थितियों में श्री जवाहर लाल नेहरू की सोच का योगदान था। इसके विपरीत बी.जे.पी का अरबी घोड़े पर सवार होना भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्र के विकास में किसी भी प्रकार के योगदान के न होने को ही व्यक्त करता है।
उसका रिश्ता न तो आत्मनिर्भर मिश्रित अर्थव्यवस्था से रहा है और न ही आजादी के संघर्ष से प्राप्त देश की मिली जुली आधुनिक सभ्यता एवं धर्मनिरपेक्ष मूल्यों से। वास्तव में भारतीय जनता पार्टी और उसका दिलो-दिमाग, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ एक असभ्य एवं संस्कृति विरोधी संगठन है।
उसकी पूरी विचारधारा जनतन्त्र विरोधी एवं फासिस्टवादी है। मोदी राज के 4 वर्षों में सामज में इन संगठनों की ओर से जो अभिव्यक्तियॉ हुई हैं वह उक्त बातों को चीख-चीख कर बोल रही हैं। लोकतंत्र एवं जनवाद को सीमित किया जा रहा है, लक्ष्य साधकर मुस्लिम अल्पसंख्यकों पर प्राणघाती हमले हो रहे हैं तथा उनके विरुद्ध सरकार की एजेन्सियाँ, सरकार से जुड़ा मीडिया और राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ का काडर नफरत का प्रचार कर रहा है। दलितों और आदिवासियों पर बर्बर हमले हो रहे हैं। महिलाओं के विरुद्ध घनघोर अत्याचारों में निरन्तर वृद्धि हो रही है। मजदूरों और किसानों पर गिन-गिन कर हमले किए जा रहे हैं।
मोदी सरकार और उसके प्रवक्ता उनके कारण सुविधानुसार अलग अलग बताते हैं। भारत का लोकतंत्र एव जनवाद एक खतरनाक मोड़ पर पहुँच गया है तथा देश का संविधान दाँव पर लग चुका है। सी.पी.एम एवं कम संख्या में सरकार में शामिल अन्य वामपंथी दल दो राज्यों को गँवा चुके हैं। पहले पश्चिम बंगाल एवं हाल ही में 25 वर्षों के निरन्तर शासन के उपरांत त्रिपुरा पर ऐसा हुआ क्यों? इसका तार्किक जवाब आधिकारिक दस्तावेजों में आंशिक ही मिलता है। संभवतः इसके जवाब कहीं और भी खोजने पड़ेंगें और शासक वाम पार्टियों के उत्तरों को भी निरपेक्ष भाव से समझना पड़ेगा। इसलिए नहीं कि किसी वामपंथी पार्टी का अपमान किया जाए परन्तु इसलिए कि वास्तविक सत्य को जाना जा सके, ताकि भविष्य की राह प्रशस्त हो। जब हम इस नतीजे पर पहुँच चुके हैं कि हमारा लोकतान्त्रिक-जनवादी देश एक खतरनाक मोहाने पर पहुँच चुका है तो हम इन परिस्थितियों को बदलने का उपाय क्या नही सोचेंगें?

सोचेंगें! अवश्य!! और अनिवार्यतः!!!

एक तो विकल्प है कि सारी वामपंथी पार्टियाँ एक हो जाएँ और समस्त जनवादी शक्तियों को एक करें, पर ऐसा निकट भविष्य में संभव नहीं हो सकता क्योंकि पार्टी कार्यक्रम की बंदिश और कुछ पुरानी आदतों के भारी बन्धक भी हैं वामपंथी। शायद इसलिए भी कि जिन पर जिम्मेदारी थी वे मार्क्सवाद द्वारा प्रदत्त विज्ञान के द्वारा विद्यमान ठोस ज़मीनी सामाजिक स्थितियों का विश्लेषण कर उसको देश के सम्मुख पेश करने में असफल रहे। दूसरा भी एक विकल्प है। वह वर्तमान परिस्थितियों में अनिवार्य भी है कि मोदी सरकार और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नवउदारवादी और फासिस्ट हमले को निष्फल करने के लिए सभी धर्मनिरपेक्ष, राजनैतिक और जनसंगठनों की यथासंभव लामबन्दी की जाए। समस्त वामपंथियों द्वारा उसकी पहल करनी चाहिए। समय की जरूरत है कि एक लड़ाकू जन प्रतिरोध खड़ा किया जाए। फासिस्ट हमले का मुकम्मल जवाब देने के लिए तमाम धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक और वामपंथी ताकतों के एक मंच का निर्माण जरूरी और अनिवार्य है।

-अरविन्द राज स्वरूप 
लोकसंघर्ष पत्रिका अप्रैल 2018 विशेषांक में प्रकाशित

कोई टिप्पणी नहीं:

Share |