गुरुवार, 30 जुलाई 2020

प्रशांत भूषण पर कार्रवाई न्याय व्यवस्था पर लाकडाउन है।

प्रशांत भूषण पर अवमानना की कार्यवाही लोकतंत्र की मूल भावना के खिलाफ

मशहूर वकील और मानव अधिकार कार्यकर्ता प्रशांत भूषण पर ट्विटर की गई
टिप्पणियों के लिए अवमानना की कार्यवाही शुरू करने का फैसला अफसोसनाक है.
लोकतांत्रिक चेतना से लैस किसी भी व्यक्ति के लिए ये खबर परेशान करने वाली और
चिंताजनक है. यह उल्लेखनीय है कि सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में अपनी तरफ से
पहल करते हुए (Suo Motu) कार्रवाई शुरू की है. इसमें न्यायालय ने असामान्य
तत्परता दिखाई. इसके लिए तीन जजों की बेंच गठित की गई. बेंच पहली नजर में
(prima facie) इस निष्कर्ष पर पहुंची कि ट्विटर पर की गई उल्लिखित टिप्पणियों
से न्याय प्रक्रिया का अपमान हुआ है. ये टिप्पणियां आम लोगों की निगाह में
सुप्रीम कोर्ट, और खासकर प्रधान न्यायाधीश के पद की गरिमा एवं प्राधिकार
(Authority) को कमजोर (undermine) करने में सक्षम हैं.

तीन जजों की बेंच ने प्रशांत भूषण की दो टिप्पणियों का जिक्र किया. इसमें एक
यह हैः प्रधान न्यायाधीश नागपुर स्थित राजभवन में बीजेपी नेता की 50 लाख रुपये
की मोटर साइकिल पर बिना मास्क या हेल्मेट पहने बैठे- एक वैसे समय में जब
उन्होंने सुप्रीम कोर्ट को लॉकडाउन में रखा है, जिससे नागरिक न्याय पाने के
अपने मौलिक अधिकार से वंचित हो रहे हैं.

बेंच ने कहाः इसके अलावा आज टाइम्स ऑफ इंडिया अखबार में छपा है कि प्रशांत
भूषण ने 27 जून को एक दूसरे ट्विट में कहा था- इतिहासकार जब पिछले छह वर्षों पर
गौर करेंगे, तो देखेंगे कि कैसे बिना औपचारिक आपातकाल का एलान किए भी भारत में
लोकतंत्र को नष्ट किया गया है. वे विशेष रूप में इस विनाश में सुप्रीम कोर्ट की
भूमिका रेखांकित करेंगे और उसमें भी खासकर पिछले चार प्रधान न्यायधीशों की
भूमिका को.

लोकतांत्रिक दायरे में प्रशांत भूषण की इन टिप्पणियों से असहमत होने या उनकी
आलोचना करने की पर्याप्त गुंजाइश है. मगर इन टिप्पणियों से न्याय करने की
प्रक्रिया में कैसे रुकावट आई, इसे समझना कठिन है. लोकतंत्र के विकास-क्रम में
यह राय पुख्ता हुई है कि जब तक कोर्ट रूम में भौतिक और हिंसक रूप से न्याय करने
की प्रक्रिया में बाधा ना डाली जाए, कोर्ट की अवमानना की कार्यवाही का आधार
नहीं बनता. अभिव्यक्ति की आजादी लोकतंत्र का मूल सिद्धांत है. अतः इसे सिर्फ उन
स्थितियों के अलावा सीमित नहीं किया जा सकता, जिन्हें सार्वजनिक बहस के बाद
तार्किक समझा गया हो. जबकि ट्विटर जैसे सोशल मीडिया पर या सार्वजनिक दायरे में
की गई टिप्पणियों को न्याय करने की प्रक्रिया में रुकावट मानने का तर्क समझ
पाना कठिन है. इसे समझ पाना भी मुश्किल है कि ऐसी टिप्पणियों से न्यायपालिका या
न्यायाधीश की गरिमा या ऑथरिटी कैसे कमजोर हो सकती है?

प्रशांत भूषण ने प्रधान न्यायाधीश पर जो टिप्पणी की, वह किसी न्यायिक निर्णय
लेने और उसे सुनाने की प्रक्रिया (यानी उनके judicial conduct) से संबंधित नहीं
थी. भारत में लोकतंत्र के कथित विनाश में सुप्रीम कोर्ट और पूर्व प्रधान
न्यायाधीशों के बारे में उनकी टिप्पणी भी सामान्य प्रकृति है. इस तरह की राय
सार्वजनिक चर्चाओं में अनेक लोग- जिनमें कई पूर्व जज और न्यायविद् भी शामिल
हैं- जताते रहे हैं.       

कोर्ट के विवादास्पद फैसलों और न्यायाधीशों के आचरण पर सार्वजनिक चर्चाओं को
प्रतिबंधित नहीं किया जाना चाहिए. इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय को इस कथन को
अवश्य में ध्यान में रखना चाहिए कि धूप ही सर्वोत्तम किटाणुनाशक होता है
(sunlight is the best disinfectant). इस संबंध में हम सुप्रीम कोर्ट के पूर्व
न्यायाधीश जस्टिस कृष्ण अय्यर की इस टिप्पणी को भी उद्धृत करना चाहेंगे कि जज
अपमान से बचें, इसका सर्वोत्तम तरीका अवमानना कार्यवाही के जरिए सज़ा देना
नहीं, बल्कि अपने काम मे बेहतरीन प्रदर्शन करना है.

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