मंगलवार, 6 अक्तूबर 2020

राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 का मूल्यांकन! *राजेश


      राष्ट्रीय शिक्षा नीति(एन.इ.पी.) -2020 के नये ड्राफ्ट को  संसद में लोकतांत्रिक तरीके से चर्चा किए बगैर कैबिनेट की मंजूरी मिल गई है।फिरभी इस शिक्षा नीति को समाज के उच्च और उच्च-मध्यम वर्ग हिस्से में बड़ा समर्थन मिला है।बहुत सारे सरकार के आलोचक भी इस शिक्षा नीति का समर्थन करने में पीछे नहीं हटे। शशि थरूर ,योगेंद्र यादव , चंद्रबाबू नायडू समेत चर्चित पत्रकार जैसे राजदीप देसाई, ध्रुव राठी, आकाश बनर्जी ,एन.खान जैसे लोग भी कुछ पहलुओं को छोड़कर ज्यादातर बातों का समर्थन किए हैं।अफसोस है कि इसका प्रभाव देशभर में हर स्कूल ,कॉलेज, विश्वविद्यालय ,छात्र ,छात्रा, शिक्षक और पूरे समाज पर पड़ने वाला है,लेकिन वहाँ घोर चुप्पी है।इसका कारण जनता की शिक्षा नीति के प्रति अज्ञानता और प्रभुत्वशाली शासक वर्ग का जोर-शोर से प्रचार  बता देने वालों की तो कमी नहीं है । लेकिन  इसका सबसे बड़ा कारण  है जन-जन के बीच इस जनविरोधी शिक्षा नीति सहित तमाम  देशविरोधी, जनविरोधी,दमनकारी काले कानूनों,नीतियों व अध्यादेशों  पर  विचार-विमर्श चलाते हुए व्यापक लोकतांत्रिक, प्रगतिशील जनगोलबंदी,जनसंगठन तैयार  करने  मेंं कमीयां है।इसलिए जरूरी है कि पहले नीतियों की असलियत की समझ बना ली जाये और प्रभुत्वशाली शासक वर्ग के जनविरोधी कामों का पर्दाफाश किया जाय।

     वर्ष 1968 व 1986 के बाद तथाकथित आज़ाद भारत के इतिहास में  राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 तीसरी शिक्षा नीति है।  दूसरी शिक्षा नीति के वक्त  'शिक्षा मंत्रालय' का नाम बदलकर 'मानव संसाधन विकास मंत्रालय' किया गया था । लेकिन इस बार 'मानव संसाधन विकास मंत्रालय' का नाम बदलकर 'शिक्षा मंत्रालय' रख दिया गया है । शिक्षा नीति के पहले शैक्षणिक  ढांचा में 6 वर्ष की उम्र से लेकर 18 वर्ष की उम्र तक 10+2 की प्रणाली थी लेकिन अब 5+3+3+4 का नया शैक्षणिक ढांचा  बनाया जाएगा। जिसमें तथाकथित प्राईवेट पब्लिक स्कूल की तरह मात्र 3 वर्ष की उम्र के बच्चे स्कूल प्रणाली में शामिल और अनुशासित किए जाएंगे। पहले इस बाल्यावस्था देखभाल व शिक्षा( ईसीसीई) को आंगनबाड़ी महिलाएं  को घर-आंगन मेंं जाकर करने का जिम्मा सौंपा गया था। अब  स्कूल के अंदर ही बाल-वाटिका में   ईसीसीई करने को  आगनबाड़ी महिलाओं को सौंपा जाएगा।  शुरुआती 5 साल की पढ़ाई को फाउंडेशनल स्टेज(कक्षा2 तक), फिर आगे 3वर्ष की पढ़ाई को प्रीपरेटरी(तैयारी) स्टेज(कक्षा3से लेकर 5तक) और आगे 3वर्ष की पढ़ाई को माध्यमिक(मीडिल)चरण (कक्षा6-8)और आगे 4वर्ष की पढ़ाई  कक्षा9-12 तक को सेकेंडरी-स्टेज कहा गया है। फाउंडेशनल स्टेज   में परीक्षाएं नहीं होगीं, परीक्षाएं प्रिपेयरेट्री स्टेज यानी क्लास टू से शुरू होंगी। क्लास टू से बच्चों को इच्छा अनुसार मातृभाषा में भी पढ़ने का व्यवस्था होगी। क्लास 6 से 8 तक कंप्यूटर कोर्स , वोकेशनल (सिलाई, माली, बढ़ाई, रसोई, आदि), टेक्निकल कोर्स ,गणित ,विज्ञान, कला विषयों के साथ कोई भारतीय भाषा पढ़ा जा सकता है । अंतिम सेकेंडरी स्तर की पढ़ाई में दो बार बोर्ड परीक्षा प्रणाली से एग्जाम होगा। इसमें साइंस ,आर्टसाइंस का बंटवारा समाप्त कर दिया जाएगा। इसमें विदेशी भाषा भी पढ़ने का अधिकार होगा। ग्रेजुएशन अब 3 वर्षीय कोर्स की जगह 4 वर्षीय होगा , जिसमें बीए, बीएससी, बीकॉम का बंटवारा नहीं होगा। फर्स्ट ईयर के बाद ग्रेजुएशन सर्टिफिकेट , सेकंड ईयर के बाद डिप्लोमा का सर्टिफिकेट ,थर्ड ईयर के बाद डिग्री (नौकरी के योग्यता वाली )और फोर्थ ईयर में रिसर्च की डिग्री मिल जाएगी। पीजी यानि परास्नातक 1 से 2 वर्ष का होगा । एमफिल को समाप्त करके अब सिर्फ पीएचडी रखा जाएगा । इस बार के शिक्षा नीति में भी दोहराया गया है कि जीडीपी का 6% खर्च किया जाएगा । अब प्राइवेट स्कूलों के फीस को फिक्स करने की भी बात है। 108 पेज के   इस शिक्षानीति को पढ़ने के पहले भी शिक्षा नीतियों को पढ़ा जा चुका है।पता यही चलता है कि यह भी कोई नई शिक्षा नीति नहीं है।यह भी  ऐतिहासिक निरंतरता की अगली कड़ी भर है।


      हम देख रहें हैं कि इस शिक्षा नीति में व्यवसायिक शिक्षा(वोकेशनल कोर्स) और आनलाईन शिक्षा का बड़ा गुणगान किया गया है । चर्चा है कि देश में व्यवसायिक शिक्षा से कुशल कामगार (स्किल्ड लेबर )बढ़ेंगे और इससे विदेशी पूंजी निवेश  बढ़ेगा और भारत का आर्थिक विकास  तेज हो जाएगा ।लेकिन क्या देश में कुशल मजदूरों की कमी है? तब कुशल कामगार बेरोजगारी की मार क्यों झेल रहे हैं ? दरअसल उत्पादन में  पूंजीनिवेश में आ रही कमी का  तो बड़ा कारण कुल मांग  (aggregate demand ) में आयी कमी  है । और मांग की कमी का कारण मेहनतकश जनता की घट चुकी क्रयशक्ति  है। कुशल और अकुशल हर तरह के मजदूरों की छंटनी हो रही है।बेरोजगारी चरम पर है।50 फीसदी बी.टेक इंजीनियरिंग भी बेरोजगार हैं। दुनिया में  आर्थिक मंदी जिसे (भारत में बड़ी उदारता से अर्थव्यवस्था का स्लोडाउन बोला जा रहा है )के कारण पूंजीपति वर्ग भारी पैमाने पर दो काम करने पर आमादा है- पहला मजदूरों कर्मचारियों की छंटनी, दूसरा मजदूरी कम करते हुए वेतन की कटौती ।इन्हीं दो तरीकों से पूंजीपति वर्ग की रक्त पिपासु अति मुनाफा कमाने की हवस पूरी होती है । जिसके लिए काफी कानूनी और मजदूर संगठनों का विरोध का सामना करना पड़ता है लेकिन इस बार करोना के संकट ने  इसे भी आसान बना दिया। पिछले पांच-छह महीने के अंतराल में 45 करोड़ मजदूर की बेकार हो गए। प्राईवेट शिक्षक , फैक्टरियों ,शहरों के कुशल-मजदूर  गाँव-देहात में ही तथाकथित अकुशल मजदूरी खोजने लगे।


राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020  के 24वें अध्याय के पेज नं.97 पर  कहा गया है कि  वैश्विक महामारी, संक्रामक रोगों से नई परिस्थितियां और वास्तविकताओं में नई पहल लेने  है ।इसके लिए डिजिटल प्लेटफॉर्म , ऑनलाइन शिक्षा, वर्चुअल लैब ,कंप्यूटररिंग,डिजिटल इंडिया अभियान आदि की चर्चा की गई है। हम देख रहे हैं कोरोना संकट के इस दौर में अनलॉक डाउन मेंं बच्चों के पढ़ाई के लिए ऑनलाइन शिक्षा की शुरुआत हो चुकी है और बच्चे कितना पढ़ रहे हैं सभी लोग जानते हैं । उनकी परीक्षाएं भी शुरू हो गई हैं। पढ़ाई के लिए कौन लोग  ₹ 5000 -₹20000 का एंड्रॉयड मोबाइल खरीदेंगे?क्या वे लोग जो समय पर ₹500 फीस बच्चों का नहीं दे पाते? यदि  कुछ ने खरीद भी लिया तो हर महिने ₹200 का इंटरनेट के लिए रिचार्ज कहां से भरवां पाएंगे? यदि कुछ ने भरवा लिया भी तो क्या आनलाईन कक्षाओं  के लिए हमेशा इंटरनेट नेटवर्किंग भी ठीक रहेगा?उक्त हानियों को कम करने के लिए  निःशुल्क इंटरनेट,कम्प्यूटर, मोबाईल का लाभ देते हुए औपचारिक शिक्षा पर कोई ध्यान  ही नहीं । सीखने के सामाजिक, भावनात्मक व साइकोमोटर आयामों को सिकोड़कर  क्या  इस तरह से बच्चे घर बैठे शिक्षा, ज्ञान, समझ हांसिल कर पाएंगे या स्कूल के फीस के साथ होम ट्यूशन का भी अतिरिक्त बोझ उठाने के लिए मजबूर हो जाएंगे? एक आकलन के अनुसार देश के केवल 8% परिवार हैं जिनके यहां इंटरनेट, कंप्यूटर की पहुंच है । इतने सीमित दायरे मेंं इंटरनेट या कंप्यूटर की पहुंच और वह भी उनके घर में नहीं बल्कि पड़ोस में दुकान पर, कस्बे के साइबर कैफे के जरिए या स्कूल में यानी 8 फ़ीसदी भी बमुश्किल है। वर्ष2017-18 एन.एस.एस. की रपट बताती है कि मध्य प्रदेश में ग्रामीण स्तर पर कंप्यूटर 2.3 और शहर स्तर पर 17.2 फीसदी थे और इंटरनेट ग्रामीण स्तर पर 9.7 फ़ीसदी और शहरी स्तर पर 35.4 फ़ीसदी थे। जब कंप्यूटर और इंटरनेट की पहुंच इतनी कम है तो किस आधार पर हमारे देश की सरकार ऑनलाइन शिक्षा से गुणवत्ता बढ़ाने का दावा ठोक रही है। यानी  12वीं कक्षा तक जिन मेहनतकश लोगों के  90 फ़ीसदी बच्चे स्कूली  शिक्षा से बाहर  (बहिष्करण)होते थे  तो अब स्कूली शिक्षा से उनके बच्चों का बहिष्करण और बढ़ जाएगा, और राष्ट्रीय शिक्षा नीति  'राष्ट्रीय बहिष्करण नीति' साबित होगा। यानी कुछ खास लोग ही शिक्षा ले पाएंगे।  शिक्षा अब  मुट्ठीभर अभिजात्य वर्गों तक केंद्रित हो जाएगी। एकलव्यों का जो अंगूठा मांगना पड़ जाता था , अबतो एकलव्य तैयार ही नहीं होगें।दूसरे तरफ शिक्षा  से भरपूर मुनाफा बटोरने का  अवसर मोबाईल,कम्प्यूटर, इंटरनेट कम्पनियों को मिल गया।एक अनुमान से शिक्षा का  यह धंधा एक लाख करोड़ रूपये का है।शिक्षा के नाम पर यह  धंधा सिर्फ प्राईवेट स्कूलों के अभिभावकों के जरिये ही नहीं  सरकारी विद्यालयों में दीक्षा, स्वयम् व स्वयंप्रभा जैसे  ई-लर्निंग कार्यक्रमों, अभियानों के नाम पर टबलेट्स,कम्प्यूटर, मोबाइलों की सरकारी धन से खरीद-परोख्त के जरिये(जो अप्रत्यक्ष रूप से जनता का ही पैसा है)भी सम्पन्न होगा। कोरोना महामारी के बाद तथाकथित नई परिस्थितियों में छात्रों, शिक्षकों व समाज को कितना बड़ा लाभ होगा यह तो वक्त बताएगा लेकिन इसका अतिलाभ(सुपरप्राफिट) तो पक्का है कि सबसे पहले साम्राज्यवादी देशों और उनके दलाल नौकरशाह पूंजिपतियों को जायेगा।


    कितना दोहरापन हैं जिस  देश में तक्षशिला, नालंदा ,विक्रमशिला और वल्लभी जैसे प्राचीन विश्वस्तरीय शिक्षण संस्थान रहे हैं ।जहां शिक्षा को सामाजिक सरोकार का विषय था न कि मुनाफाखोरी के धंधे का ।आज शिक्षा नीति में बार-बार प्राचीन भारतीय संस्कृति की बात करने वाले  ही शिक्षा को बहुराष्ट्रीय कंपनियों और साम्राज्यवादी लोगों के लूट का धंधा बनाने पर तुले हुए हैं। 

  दरअसल प्राचीन भारतीय संस्कृति के नाम पर ये प्राचीन जातिआधारित सामंंती संस्कृति की परम्परा   और प्राचीन जातिविरोधी सामंती संस्कृति की परम्परा के बीच भी विभेद करते हैं। (जबकि उस वक्त दोनों परंपरा के बीच  काफी संवाद और बहस रहा है।)इसीलिए तो  इस तथाकथित राष्ट्रीय शिक्षा नीति में  चरक,सुश्रुत, आर्यभट्ट, बराहमिहिर, भास्कराचार्य, ब्रह्मगुप्त, चाणक्य, चक्रपाणि दत्ता, माधव,पाणिनि, पतंजलि, नागार्जुन, गौतम, पिंगला, शंकरदेव, मैत्रेयी, गार्गी और थिरुवल्लूवर जैसे महान विद्वानों का जिक्र किया गया है लेकिन गौतम बुद्ध, महावीर स्वामी, चर्वाक का  कही जिक्र तक नहीं है।नया शिक्षा शास्त्र देने वाले गौतम बुद्ध को कैसे भुलाया जाये,जिन्होंने कार्य-कारण सम्बंध की व्याख्या दी और बताया कि किसी भी बात की सत्यता के लिए तर्क की कसौटी पर कसो। इसीतरह जैन धर्म के प्रवर्तक महावीर स्वामी  भी जाति के साथ पितृसत्ता के खिलाफ थे।चर्वाक ने ग्रंथ लिखा कि किसी भी चीज को पहले देखो,जानो,समझो तब कोई निष्कर्ष या परिणाम निकालो।उन्होंने ज्ञान तक पहुंचने की एक पूरी पध्दति को स्थापित किया।दुनिया को समझने का एक नजरिया दिया।





 राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के अध्याय 6 के पेज नंबर 39 में समतामूलक और समावेशी शिक्षा- सभी के लिए अधिगम तथा अध्याय 14 में पेज में उच्च शिक्षा में क्षमता और समावेशन को मुख्य विषय बनाया गया है शुक्र है कि समता शब्द आया समरसता नहीं । अध्याय 6 के 20 बिंदुओं को पढ़ने से लफ्फाजी  और धूर्तता का साजिश समझ में आती है ।समता से दूरी बनाने के लिए ही  समतामूलक,समानता व समावेशन की  लफ्फाजियां की गई है। देश में 90 फ़ीसदी मेहनतकश आबादी जिसमें  सबसे ज्यादा एससी,एसटी, ओबीसी और अल्पसंख्यक वर्ग के हैं उन्हें स्कॉलरशिप और यदि नहीं तो शैक्षणिक लोन (कर्जखोरी) लेने की व्यवस्था की जाएगी । क्या समानता और समावेशी शिक्षा का लक्ष्य बनाने वालों को नहीं पता कि भारत में हजारों वर्षों से सामंती ,भूस्वामी वर्ग और अंग्रेजों के बाद बड़े दलाल पूंजीपति  वर्ग ने मिलकर  देश की सारी संपत्ति पर  मालिकाना बनाए रखा है और आज प्राइवेट हो या सरकारी नौकरियों में उसी की कब्जेदारी है। अधिकांश प्राइवेट स्कूल, कॉलेजों का मालिक भी वही हैं। उन्हीं के  एक पाकिट में लक्ष्मी और दूसरे में सरस्वती निवास करती हैं । सरकार  क्यों नहीं "एक समान स्कूल प्रणाली" के तहत सभी प्राइवेट स्कूलों को खत्म करके उनको अपने कब्जे में लेकर उनका भी सरकारीकरण कर देती है? समानता को यदि लक्ष्य बना ही लिए हैं तो क्यों नहीं भूमि-क्रांति संपन्न करके पहले भूमि में समानता लाने पर जोर देते हैं? आखिर क्यों राजनेताओं, अफसरों के बेटों को वहीं पढ़ने भेजा जाता, जिस प्राईमरी स्कूलों में मजदूर-किसानों के बेटे  पढ़ने को बाध्य हैं?आखिर क्यों नहीं वजीफा और लोन (कर्ज)के चक्कर में छात्रों, अभिभावकों को फंसाने के बजाय  "चाहे हों मजदूर की संतान, या हों राष्ट्रपति की संतान! शिक्षा हो एकसमान !!"   नारे को हकीकत में बदला जा सकता है? यदि इतनी रहमदिल सरकारें  हैं तो 73 वर्षों में आर्थिक-समानता क्यों नहीं ला दिये या इसका अबसे भी प्रयत्न करते या करने देते?  दरअसल   इस शिक्षा नीति के जरिए "केजी से पीजी तक समानता और भेदभाव से मुक्ति" के संवैधानिक-सिद्धांतों को नकारकर  अर्ध्दसामंती-अर्ध्दऔपनिवेशिक समावेशन की विकृत धारणा को लागू करने की कोशिश की जा रही है । आखिर शिक्षा के लिए छात्र कर्ज लेगा तो कर्जा लेने के लिए गिरवी रखने की जमीन कहां से आएगी? यह उत्पीड़ित और शोषित मेहनतकश वर्ग का  मजाक नहीं तो क्या है? और यदि कोई किसी तरह से कर्ज ले भी लिया तो वह वापस करने के लिए रोजगार की गारंटी कौन देगा? दरअसल शैक्षणिक-कर्जखोर बनाना भी शासक वर्ग का नई शिक्षा नीति के नाम पर एक नया नहीं पुराना ही धंधा है , जिसे रिजर्व बैंक ने भी घाटे का सौदा बताया था। इसलिए ध्यान रहे गैरबराबरी और भेदभाव को कर्जखोरी और वजीफा से खत्म नहीं किया जा सकता, यह व्यवस्थाजनित समस्या है और इसे व्यवस्था-परिवर्तन से ही खत्म किया जा सकता है। इस व्यवस्था परिवर्तन का पहला कार्यक्रम होगा -भूमिक्रांति । दुनिया के क्रांतियों का इतिहास बतलाता है गैरबराबरी वाले समाज में भूमि क्रांति के जरिए मुट्ठीभर सामंती-भूस्वामियों और दलाल पूंजीपतियों के मालिकाने की मोनोपोली को  नेस्तनाबूद किया जा सकता है और सचमुच में स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे वाला नया जनवादी भारत निर्माण हो सकता है,जिसमें एकसमान शिक्षा व स्वास्थ्य प्रणाली के तहत सर्वसुलभ निःशुल्क शिक्षा व चिकित्सा सम्भव हो सकती है।लेकिन अभी  हमारे समाज में   ज्यादातर शिक्षा का उद्देश्य   'अपने आप से मतलब रखें',  'पढ़-लिखकर कमाऊपूत  बन जाने'- तक सीमित है।  अभी भी मौजूदा व्यवस्था में ही जुगाड़-पानी लेने की जुगत की होड़ मची हैं।ऐसे में धारा के विरुद्ध चलकर असली शिक्षा के उद्देश्य को चुनना चाहिए।  'उत्पीड़ितों का शिक्षाशास्त्र' नामक किताब में पाब्लो फ्रेरा ने  कहा है, शासक वर्ग के द्वारा लोगों को मौजूदा व्यवस्था का हिस्सा बनाए रखने के लिए शिक्षा का इस्तेमाल किया जाता है। दरअसल शिक्षा का उद्देश्य समाज के लोगों की आजादी और मुक्ति होनी चाहिए इसका मतलब है लोगों को शिक्षा का इस्तेमाल अपने आसपास की जिंदगी को समझने और इसमें बदलाव लाने के लिए करना चाहिए।"

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