शनिवार, 31 अक्तूबर 2020

कुंवर मुहम्मद अशरफ हमारे राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम के प्रमुख योद्धा-अनिल राजिमवाले

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कुंवर मुहम्मद अशरफ हमारे राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम के योद्धा, प्रकाण्ड
विद्वान, विख्यात मार्क्सवादी इतिहासकार तथा भारतीय कम्युनिस्ट
पार्टी के सुप्रसिद्ध नेता थे। इनका जीवन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम तथा जनवादी
आंदोलन के इतिहास का वह अध्याय है, जिससे नयी पीढ़ियां हरेक दिन प्रेरणा
प्राप्त करती रहेंगी।
आरंभिक जीवन 1
के.एम. अशरफ का जन्म उत्तरप्रदेश स्थित अलीगढ़ जिले की हाथरस
तहसील के दरियापुर गांव में 24 नवंबर 1903 को हुआ था। एक व्यक्ति
के रूप में अशरफ मिश्रित भारतीय संस्कृति के प्रतीक थे। वे मुस्लिम
राजपूत परिवार में पैदा हुए। हिन्दू तथा मुसलमान राजपूतों के कई रीति-
रिवाज एक जैसे ही थे। भिन्न धार्मिक विश्वासों के बावजूद दोनों के नाम भी
आमतौर पर एक तरह के होते थे। उन्नीसवीं शताब्दी में ठाकुर कुंॅवर
सिंह अलवर रियासत से आकर दरियापुर में बस गये। कुॅंवर सिंह को
एक बेटा हुआ जिसका नाम पड़ा ठाकुर मुराद अली खॉं। ठाकुर मुराद अली ने
कुछ अंग्रेजी पढ़ी और रेलवे में मुलजिम हो गए। पलटन में भी काम किया और
प्रथम महायु( में हिन्दुस्तान के बाहर
अफ्रीका, इराक आदि देशों में लड़े।
ठाकुर मुराद अली की शादी मथुरा
जिले के गहनपुर गांव के पॅंवारे में ठाकुर
नन्हू सिंह की लड़की अंची से हुई।
कुॅंवर मुहम्मद अशरफ उन्हीं के बेटे
थे। अशरफ तीन-चार ही साल के हो
पाये थे कि उनकी मांॅ चल बसी। पिता
के प्रति इतना गहरा स्नेह था कि बालक
को मॉं का अभाव खला नहीं।
मेधावी छात्र और राजनीति
अशरफ की पढ़ाई दरियापुर के
अपर प्राइमरी स्कूल में हुई। पिता के
बाद अशरफ पर सबसे ज्यादा असर
पंडित रामलाल का पड़ा जो उनके
शिक्षक थे। अशरफ ने 7वीं कक्षा तक
हिन्दी पढ़ी। कुछ और बड़ा होने पर
पिता ने अशरफ का अलीगढ़ धर्मसभा
हाई स्कूल में नाम लिखाया। वहॉं अपने
बहनोई के संसर्ग में उन्हें आर्य समाज
का भाषण सुनने का अवसर मिला।
लेकिन आर्य समाज की धार्मिक बातों
का बालक अशरफ पर कोई अधिक
कम्युनिस्ट नेताओं की जीवनी-28
कुंॅवर मुहम्मद अशरफः प्रकांड मार्क्सवादी
इतिहासकार और भाकपा नेता
प्रभाव नहीं पड़ा। उन दिनों आर्य समाज
राष्ट्रीय आजादी और स्वदेशाभिमान का
जबरदस्त प्रचारक था। अशरफ को
उन उपदेशों से देशभक्ति के प्रथम पाठ
उन्हें अवश्य मिले।
मुराद अली की बदली होने पर
वह मुरादाबाद आ गये, तो वहां उन्होंने
मुस्लिम हाई स्कूल में अशरफ का नाम
लिखाया। अशरफ पहले संस्कृत और
हिन्दी लेकर पढ़ रहा था। यहां
संस्कृत-हिन्दी की पढ़ाई की व्यवस्था
नहीं हो सकने के कारण उन्हें
फारसी-उर्दू लेनी पड़ी।
अशरफ ने 1918 में फारसी के
साथ मैट्रिक पास किया। अशरफ के
दिल में देश-सेवा के विचार पनपने
लगे। दरियापुर में शंकर लाल और
ठाकुर मुराद अली के घर का बहुत
अच्छा संबंध था। शंकर लाल की भावज
ने मातृविहीन अशरफ को पुत्र की तरह
पाला था! शंकर लाल एक राजनीतिक
हत्या में लपेट लिये गये थे। इससे
बालक अशरफ की भावना का उधर
प्रेरित होना स्वाभाविक था। मौलाना
अब्दुल्ला सिद्दिकी और एनी बेसेन्ट की
नजरबंदी की खबर ने अशरफ के
राजनीतिक भाव को जगाने का काम
किया।
अशरफ 1918 में एम.ए.ओ.
कॉलेज, अलीगढ़ में दाखिल हुए। उस
वक्त इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से ही
परीक्षाएंॅ ली जाती थीं। अशरफ ने अरबी
तर्कशास्त्र और इतिहास विषय अध्ययन
के लिये चुने। अशरफ मुरादाबाद में ही
एक ओजस्वी वक्ता के रूप में उभरने
लगे। अलीगढ़ आने पर बहस और
व्याख्यान का शौक और बढ़ गया।
इतिहास और दर्शन उनके प्रिय विषय
थे।
अशरफ 1920 में बी.ए. में
दाखिल हुए। इसी समय असहयोग,
खिलाफत और महात्मा गांधी की आवाज
देश में गूंजने लगी। 1921 में अशरफ
ने मौलाना मुहम्मद अली तथा अन्य
के साथ अलीगढ़ में जामिया मिलिया
कायम की जो राष्ट्रीय शिक्षा का प्रतीक
बन गया। राष्ट्रीय आंदोलन में
छात्र-जीवन से ही अशरफ खुलकर
काम करने लगे। तिलक स्वराज-फंड
के लिए चंन्दा जमा करना, खादी प्रचार
और हिन्दू-मुस्लिम एकता का प्रचार
अशरफ का प्रधान काम था। 1923
में उन्होंने जामिया से बी.ए. पास किया।
1924 में फिर अलीगढ़
मुस्लिम-यूनिवर्सिटी में नाम लिखाया।
मुस्लिम तसुव्वफ मुस्लिम दर्शन और
इतिहास उनके विषय थे। उन्होंने
1926 में एल.एल.बी. प्रथम श्रेणी में
पास करने के साथ ही उन्होंने यूनिवर्सिटी
में रिकॉर्ड स्थापित किया।
सक्रिय राजनीति में प्रवेश
वे 1920-21 के
असहयोग-आंदोलन में काम कर चुके
थे। 1922 में शौकत उस्मानी से
परिचय हुआ। शौकत उस्मानी ने उनसे
सोशलिज्म की बातें की। गया कांग्रेस
के बाद 1923 में कलकत्ता जाने पर
अशरफ ने मुजफ्फर अहमद और
कुतुबउद्दीन से भेंट की। 1925 में
यूनिवर्सिटी में पढ़ते समय ही उनके
विचार समाजवाद की ओर कुछ
आकर्षित हुए लेकिन अब भी समाजवाद
का, उनका ज्ञान धुंधला-सा था।
1926 में एम.ए. करने के बाद वह
अलवर गये। राजा की ओर से भी
उनका सम्मान हुआ और वह राजकीय
मेहमान बनकर ठहरे। अशरफ ने
सामन्ती व्यवस्था को बहुत निकट से
देखा।
मुजफ्फरनगर में तीन माह में एल.
एल.बी. होने के बाद अशरफ ने वकालत
भी की। अलवर रियासत के महाराजा
ने अशरफ को अपनी रियासत के काम
में खींचना चाहा। अशरफ ने विलायत
जाकर और पढ़कर आने की शर्त रखी।
अलवर की राजकीय स्कॉलरशिप
लेकर, वह विलायत के लिए रवाना
हुए।
विदेश यात्रा
अशरफ 1927 में लंदन पहुंॅचे।
बैरिस्टरी की पढ़ाई शुरू की। उनकी
इच्छा हिन्दुस्तान के सामाजिक जीवन
का अध्ययन करने थी। लन्दन
यूनिवर्सिटी में 1200-1550 तक
भारत का सामाजिक जीवन ‘‘पी.एच.
डी.’’ के लिए अपना विषय चुना।
शापुरजी सकलतवाला, सज्जाद जहीर,
महमुदुज्जफर, मुहम्मद अली आदि
कितने ही भारतीयों से उनकी घनिष्ठता
हुई। अशरफ अब कम्युनिस्ट विचारधारा
के साथ पूर्णतः प्रतिब( हो गये थे।
1929 में अलवर महाराज की
जुबिली थी। अशरफ अलवर की
स्कॉरलशिप से पढ़ते थे। महाराजा का
पत्र गया और वह अलवर पहॅुंच गये।
अशरफ उस समय महाराजा के प्राइवेट
सेक्रेटरी थे। जुबिली समारोह ने अशरफ
की ऑंखे खोल दी। एक सप्ताह के
भीतर पन्द्रह लाख रुपये साफ कर
लिये गये। लार्ड इरविन उस समारोह
में भाग लेने आए थे। महाराजा के
प्राइवेट सेक्रेटरी के रूप में तीन माह में
अशरफ ने भारत के रियासती सामंतवाद
और उपनिवेशवाद को निकट से देखा।
अशरफÛ अपने विद्रोही मन को दबा
नहीं सके। महाराजा की फरमांॅबरदारी
उनके लिए असह्य हो गयी। वह अलवर
छोड़कर घर चले आये। 1930 के
शुरू में घर से रुपया लेकर अशरफ
फिर लन्दन चले गये और 1932 में
पी.एच.डी. होकर भारत लौटे।
लंदन में अशरफ मार्क्सवादी और
राष्ट्रीय गतिविधियों में सक्रिय हो गए।
श्रीनिवास अय्यंगर, का. अली, और
शापुरजी सकलतवाला के साथ मिलकर
उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की
लंदनकमिटि का गठन किया।
स्वतंत्रता आंदोलन में
वामपक्ष के नेता
1932 में भारत लौटने पर
डॉक्टर कुॅंवर मुहम्मद अशरफ सक्रिय
राजनीति में भाग लेने लगे।
1933-34 में एक वर्ष के लिए
उन्होंने मुस्लिम यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर
का काम किया। कानपुर में मजदूर
कॉन्फ्रेंस हुई। डॉ. अशरफ उसमें शामिल
हुए। मथुरा में किसानों के आंदोलन
और बेगÛारी के विरोध में होने वाले
हरिजनों के आंदोलन में उन्होंने खूब
भाग लिया। डॉ. अशरफ ने राजनीतिक
क्षेत्र में बड़ी ख्याति प्राप्त कर ली।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में वामपक्ष के
नेता के रूप में उन्होंने राष्ट्रीय स्थान
प्राप्त कर लिया।
वे कांग्रेस तथा कांग्रेस सोशलिस्ट
पार्टी में शामिल हो गए।
1934 में कॉंग्रेस सोशलिस्ट पार्टी
की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में जयप्रकाश
नारायण, आचार्य नरेन्द्रदेव, ई.एम.एस.
नाबूदरीपाद, डॉ. जेड.ए. अहमद,
सज्जाद जहीर, डॉ. राममनोहर लोहिया,
अशोक मेहता आदि के साथ डॉं. कुॅंवर
मुहम्मद अशरफ भी चुने गये। 1936
में कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन के
अवसर पर वे अखिल भारतीय कांग्रेस
कमिटी के एक सचिव चुने गये।
तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष पं.
जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें मुस्लिम
जनसंपर्क का कार्यभार सौंपा।
जवाहरलाल नेहरू द्वारा सौंपे गये
काम के लिए डॉ. अशरफ सर्वथा योग्य
थे। उन्हें फारसी तथा अरबी भाषाओं
का पूर्ण ज्ञान था। मध्यकालीन और
दर्शन के अधिकारी विद्वान थे। दो
दशकों तक वे स्वाधीनता संग्राम के
मुस्लिम नेताओं के निकट संपर्क में रहे
थे।
वे इलाहाबाद में ए.आई.सी.सी.
कार्यालय में काम करने लगे। उन्होंने
कांग्रेस के पक्ष में मुसलमानों के बीच
अभियान चलाया।
ए.आई.एस.एफ. से संपर्क
डॉं. अशरफ अखिल भारतीय
कांग्रेस समिति में कम्युनिस्ट दल के
प्रवक्ता बन गये। वे अखिल भारतीय
छात्र संघ ;एआईएसएफद्ध में भी
दिलचस्पी लेने लगे। अखिल भारतीय
छात्र संघ के कलकत्ता अधिवेशन
;जनवरी 1939द्ध की अध्यक्षता और
1940 में नागपुर के ऐतिहासिक
अधिवेशन का उद्घाटन उन्होंने किया।
देश के विभिन्न हिस्सों में छात्र संघ
द्वारा आयोजित सभाओं में वे प्रबल
आकर्षण के केंद्र बन गये। वे ए.आई.
एस.एफ. में कम्युनिस्ट फ्रैक्शन के
इन्चार्ज भी थे। उन्होंने निर्देशन में
महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। 1940
में तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष मौलाना
अबुलकलाम आजाद के विशेष आग्रह
पर डॉ. अशरफ ने उनके सचिव के
रूप में भी कार्य किया।
दूसरे विश्वयु( के दौरान उन्हें भी
अन्य कम्युनिस्टों तथा वामपंथियों के
साथ देवली के यातना-शिविर में
गिरफ्तार कर बंद कर दिया गया। यहां
अन्य कैदियों के साथ उन्होंने तीस दिनों
तक भूख हड़ताल की। इस भूख हड़ताल
से उनका स्वास्थ्य बुरी तरह गिर गया।


1943 में जेल से रिहा होने पर
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के तत्कालीन
केंद्रीय मुख्यालय में रहकर काम करने
लगे। पार्टी-पत्रों में लिखना और देश
के विभिन्न हिस्सों में जनता के बीच
प्रचार अभियान तक व्यस्त रहना
कामरेड अशरफ के प्रधान काम हो
गया।
विश्वयु( के बाद वे आर.डी.
भारद्वाज की बीमारी के कारण
अनुपस्थिति के बाद कांग्रेस में
कम्युनिस्ट प्रवक्ता बन गए।
यु(ोत्तर काल में जन उभार का
और पार्टी की नीतियों के सशक्त प्रचार
के रूप में संघर्ष को शक्ति पहुंचाते रहे।
1946 में वे दिल्ली आये और
दरियागंज पार्टी कम्यून में मात्र 8 रु.
मासिक और भोजन भत्ता लेकर पूरा
वक्ती की तरह काम करने लगे। कम्यून
में रहने वाले सभी नौजवान थे। डॉ.
अशरफ ही सबसे ज्यादा उम्रवाले,
सर्वाधिक अनुभवी और परिपक्व थे। वे
कम्यून जीवन में हमेशा अत्यंत विनम्र,
अनुशासित और साथियों के प्रति स्नेही
बने रहें। वे बड़े जिन्दादिल स्वभाव के
थे। हास्य, विनोदप्रियता और
हाजिर-जवाबी कूट-कूट कर भरी थी।
भारत विभाजन के बाद
 1947 में भारत विभाजन के
समय कॉ. अशरफ दिल्ली में ही थे।
उस समय की सांप्रदायिक घटनाओं और
हिंसात्मक कार्यवाईयों ने उन्हें बहुत
अस्तव्यस्त कर दिया। बंॅटवारे के बाद
हिन्दू-मुस्लिम दंगे अत्यंत लोमहर्षक
और वेदनापूर्ण थे। कॉ. अशरफ बहुत
ही संवेदनशील व्यक्ति थे। पार्टी की
दिल्ली प्रदेश कमेटी ने व्यक्तिगत सुरक्षा
के ख्याल से अशरफ और दूसरे मुस्लिम
साथियों को दरियागंज कम्यून से
हटाकर जामा मस्जिद के पास प्रांतीय
दफ्तर में जाने का आग्रह किया। जब
कॉमरेडों के पहरे में डॉक्टर कुॅंवर
मुहम्मद अशरफ कम्यून छोड़ रहे थे,
तब उनकी ऑंखों से ऑंसू की धारा
फूट पड़ी। वर्षों तक इस क्षेत्र में रहने
के बाद केवल मुस्लिम होने के कारण
उन्हें यह जगह छोड़नी पड़ रही थी।
डॉ. अशरफ विशेष रूप से दुःखी थे।
हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए उन्होंने
लंबे समय तक संघर्ष किया था।
पार्टी की शक्तियों को फिर से
गोलबंद करने और विभाजन के बाद
दंगों की वजह से जनता से टूटे संबंधों
को जोड़ने में कॉ. अशरफ ने बड़ी अहम
भूमिका अदा की। जब पार्टी-केंद्र ने
दिल्ली से उर्दू दैनिक ‘‘आवामी दौर’’
निकालने का फैसला किया तब डॉ.
कुंॅवर मुहम्मद अशरफः प्रकांड मार्क्सवादी...
अशरफ उसके संपादक और कॉ.
टीकाराम सखुन सहायक संपादक बनाये
गये। एक पार्टी हमदर्द ने धन का
इंतजाम किया और कनॉट प्लेस में
दफ्तर खोला गया। फिर भी अपने
अल्पकाल में ही ‘‘आवामी दौर’’ ने
अच्छी भूमिका अदा की और पाठकों के
बीच में अपना स्थान बना लिया।
पाकिस्तान में
‘‘आवामी दौर’’ बंद हो जाने पर
पाकिस्तान में पार्टी संगठन के लिए
1948 में पार्टी के आदेश पर के.एम.
अशरफ को जाना पड़ा। विभाजन के
बाद पाकिस्तान में पार्टी की अत्यंत
क्षति हुई। पार्टी के अनुशासित सिपाही
होने के नाते उन्होंने इस कठिन काम
को अपने हाथ में लिया। पाकिस्तान में
पार्टी पर घोर दमन हुआ। पार्टी पर
पाबंदी लगा दी गयी थी। कॉ. अशरफ
भूमिगत रहकर काम करते थे। बाद में
गिरफ्तार कर लिये गये। उन पर आरोप
था कि भारतीय नागरिक होकर
गैरकानूनी रूप से पाकिस्तान आये है।
जेल में उनकी शारीरिक स्थिति
चिंताजनक हो गई। कुछ पुराने मित्रों
के हस्तक्षेप से वे इस शर्त पर रिहा हुए
कि उन्हें फौरन पाकिस्तान छोड़ना
पड़ेगा। भारत भी उन्हें स्वीकार करने
को तैयार नहीं था। भारतीय नागरिकता
समाप्त हो गई थी।
भारतीय स्वाधीनता संग्राम में एक
महान यो(ा का कोई देश नहीं था।
कुछ मित्रों की सहायता से वे इलाज के
लिए इंगलैंड पहुंचे। जब तबीयत कुछ
सुधरी तो उन्होंने मार्क्सवादी दृष्टिकोण
से मध्यकालीन भारत के इतिहास पर
ब्रिटिश संग्रहालय में शोधकार्य प्रारंभ
कर दिया। जीवन-यापन के लिए पर्याप्त
धन न होने पर भी उन्होंने कठिन परिश्रम
किया। ब्रिटिश संग्रहालय में सुबह घुसने
वाले वे प्रथम तथा शाम को निकलने
वालों में अंतिम व्यक्ति होते थे।
भारत वापसी
डॉ. कॅुंवर मुहम्मद अशरफ के मन
में इस दौरान अपने प्यारे देश भारत
लौटने की बात हमेशा उठती रही। छठे
दशक के मध्य में एक देशविहीन
नागरिक के रूप में वे भारत वापस
आये। प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल
नेहरू और शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल
कलाम आजÛाद से निकट संबंध रहने
के बावजूद भारत सरकार ने उन्हें
नागरिकता देने में दो वर्ष गुजार दिये।
पं. नेहरू ने इस दिशा में बड़ी कोशिशें
कीं। कॉ. अशरफ से उन्होंने आग्रह किया
कि कश्मीर की जनता का इतिहास
लिखने की योजना में वे श्रीनगर में
रहकर काम करें। दो वर्ष बाद दिल्ली
यूनिवर्सिटी के किरोड़ीमल कॉलेज में
इतिहास विभाग के अध्यक्ष बनाये गये।
डॉ. अशरफ का व्यक्तित्व मिश्रित भारतीय
संस्कृति का प्रतीक था। उन्हें अपने
भारतीयपन और राजपूत वंश परंपरा
का गौरव था। इंगलैंड से भारत लौटने
पर जब उन्होंने भारतीय नागरिकता के
लिए पं. जवाहरलाल नेहरू और मौलाना
अबुलकलाम आजाद, दोनों से भेंट कर
अपने आग्रह के लिए तर्क पेश किया
और नेहरू ने मजाक में यह कहकर
अशरफ को नाराज कर दिया कि ‘‘अब
आप भारतीय नहीं हैं।’’ इस पर डॉ.
अशरफ ने गुस्से से जवाहरलाल नेहरू
से कहा थाः ‘‘मैं आपसे ज्यादा भारतीय
हूं। मैं राजपूत हूं’’।
उन्होंने भारतीय इतिहास कांग्रेसों
में कई पेपर प्रस्तुत किए।
1969 में विश्व विख्यात हम्बोल्ट
यूनिवर्सिटी में अतिथि-प्रोफेसर के रूप
में डॉ. अशरफ बर्लिन गये। बर्लिन में
दो वर्ष के प्रवास काल में अपने प्रिय
विषय पर उन्होंने गंभीर शोध और
अध्ययन किया। ‘‘मध्ययुग में भारत
की जनता की सामाजिक और
सांस्कृतिक स्थिति’’ के अध्ययन के
लिए इस बीच मास्को और ताशकंद
भी गये। उन्होंने प्रचुर सामग्री एकत्रित
की। इतिहास लिखने के अत्यंत
महत्वपूर्ण और बहुमूल्य कार्य को
असामयिक मृत्यु ने पूरा नहीं होने दिया।
56 वर्ष की उम्र तक देश की
आजÛादी और श्रमजीवी जनता के संघर्ष
में व्यस्त रहते हुए 1962 के 7 जून
को जर्मन जनवादी गणतंत्र की
राजधानी बर्लिन में हृदयगति रूक जाने
से उनकी जीवन-यात्रा का अंत हो
गया। उनकी मृत्यु का शोक व्यापक
राजनैतिक और शैक्षणिक क्षेत्रों में मनाया
गया।


डॉ. के.एम. अशरफ को अपने देश
की संस्कृति और इतिहास की खोज का बहुत शौक था। वह भारत को
राजनीतिक आजÛादी के साथ-साथ आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक
तौर पर संपन्न और विकसित देखना चाहते थे। समाजवाद उनके जीवन का लक्ष्य था।
उनका जीवन पार्टी और देश के लिए समर्पित था। उनका बलिदान, पार्टी
तथा जनता के लिए उनका योगदान कॉ. अशरफ अपने देश का एक
प्रामाणिक इतिहास लिखना चाहते थे। राजा-रानियों का इतिहास नहीं, जनता
का इतिहास, समाज का इतिहास, जीवन के हर एक अंश का इतिहास। इतिहास
संबंधी बहुत-सी सामग्री एकत्रित कर, इतिहास लिखने की जवाबदेही नयी
पीढ़ी पर सौंप कर वह चले गये। वह स्वयं इतिहास के एक विषय बन गये।

1 टिप्पणी:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (01-11-2020) को    "पर्यावरण  बचाना चुनौती" (चर्चा अंक- 3872)        पर भी होगी। 
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
--   
सादर नमन...! 
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 
--

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