मंगलवार, 20 सितंबर 2022

जाना होगा सर्वे के उस पार

- शकील सिद्दीकी उत्तर प्रदेश में ग़ैर मान्यता प्राप्त मदरसों का सर्वे का अभियान ऐसे समय चलाया गया है जब अधिकांश मदरसों में तब्दीली की बयार बह रही है। गंभीर आर्थिक संकट, साधनों की कमी तथा कई प्रकार के आरोपों से घिरे होने के बावजूद वह थोड़ा संकोच से ही सही अपेक्षित बदलावों के लिए खिड़कियां और दरवाज़े खोल रहे हैं। पाठ्यक्रम में सामयिक विषयों को शामिल करने की कोशिशें जारी है। यही वजह है कि पिछले कुछ वर्षों में सैकड़ों की संख्या में मदरसों से शिक्षित बच्चे प्रतियोगी परीक्षाओं में अच्छे परिणामों के कारण डाक्टर और इन्जीनियर बन पाये हैं। वह प्रशासनिक सेवाओं में भी गए हैं आई0टी0 सेक्टर में भी उनकी उपस्थिति देखी जा सकती है। इनमें छात्राएं भी हैं फिर भी स्थिति संतोषजनक नहीं है। साधनों का अभाव और शंकाओं का घेरा शैक्षणिक माहौल को प्रभावित कर रहा है। सकारात्मक सोच व रचनात्मक दृष्टिकोण पर आधारित सर्वे निश्चय ही हालात को बदल सकता है। आवश्यकता है सर्वे से प्राप्त निष्कर्षों पर ठोस त्वरित कार्यवाई करने की। सर्वे को पूर्व मदरसों के विरुद्ध वातावरण बनाने की कार्यवाइयों के कारण इस शिक्षा व्यवस्था से जुड़े लोगों का सशंकित होना स्वाभाविक है। धार्मिक (इस्लामी) शिक्षा का प्रसार मदरसों की स्थापना का प्रमुख कारण रहा है। विपरीतताओं के बावजूद मदरसों ने यह काम किया भी किया है। अनेक मदरसों की शैक्षणिक गुणवत्ता ने उनकी प्रतिष्ठा व ख्याति को दूर देशों तक पहुॅचाया। ऐसे मदरसों में अनेक विदेशी छात्र अध्ययन करते दिख जाएंगे। जैसे कि लखनऊ के नदवतुल उलेमा में। न तो मदरसे नए हैं, न उनमें प्रचलित पाठ्यक्रम में तब्दीली की चर्चा। बेगम रज़िया सुल्तान ने अपने शासनकाल में एक ऐसे मदरसे की स्थापना महरौली (दिल्ली) में की जिसमें लडकियां भी शिक्षा प्राप्त कर सकती थीं। लम्बे कालांतर के उपरांत देश में ऐसे अनेक मदरसे कायम हुए जहॉ लड़कों के साथ लड़कियों की शिक्षा पर भी ध्यान दिया गया, केवल लड़कियों की शिक्षा तक सीमित रहने वाले मदरसे भी कायम हुए। इनके अलग-अलग स्तर हैं। स्त्री छात्रावास की सुविधा वाले मदरसे भी स्थापित हुए। प्रचलित पाठ्यक्रम में तब्दीली, उन्हें समकालीअपेक्षाओंके अनुरूप अधिक व्यवहारिक व उपयोगी बनाने की चर्चा भी कई सौ वर्ष पुरानी है। बादशाह औरंगज़ेब ने बहुत तेरी बदनामी के बावजूद नाराज़गी का खतरा मोल लेते हुए फ़िरंगी महल, लखनऊ के मौलाना निज़ामुद्दीन को मदरसों के लिए एक सुसंगत, बच्चों को अधिक जिज्ञासु व सामर्थ्यवान बना सकने वाला पाठ्यक्रम बनाने की ज़िम्मेदारी सौंपी, मौलाना निज़ामुद्दीन के वालिद साहब औरंगज़ेब के उस्ताद रह चुके थे। बाराबंकी के कस्बा सुहाली में एक विवाद में उनकी हत्या हो गई थी। इस कारणवश बादशाह बहुत आहत हुए और उन्होंने उनके परिवार की न केवल आर्थिक मदद की बल्कि लखनऊ में सुरक्षित रहने के लिए उनके पुत्र को फिरंगी महल परिसर भी एलाट कर दिया जो पहले फ्रांसीसी अश्व व्यापारियों के क़ब्जे में था। मुल्ला निज़ामुद्दीन ने 1727 के आस-पास परिश्रमपूर्वक पाठ्यक्रम तैयार किया जो दर्से निज़ामी के नाम से जाना गया और व्यापकता में प्रशंसित हुआ तथा मुसलमानों के सभी सम्प्रदायों, विश्वासों को शिक्षविदों ने इसे स्वीकार किया। यहॉ यह तथ्य ध्यान देने योग्य है कि मुल्ला निज़ामुद्दीन अरबी सुन्नी थे फिर भी शिया मदरसों ने भी उसे मान्यता दी। सन् 2000 में जब मैं विद्वान मुहम्मद मसूद को साथ लखनऊ के एक अति प्रसिद्ध शिया मदरसे में गया तो बताया गया कि पाठ्यक्रम के रूप में उनके यहॉ दर्से निज़ामी ही स्वीकृत है। दर्से निज़ामी की उल्लेखनीय विशेषता उसमें इस्लामी शिक्षा के साथ ‘‘उलूमे अक़लिया’’ (बौद्धिक ज्ञान) के लिए अधिक होशियार होना था। इस्लामी इतिहास कुरआन, हदीस, फ़िक के साथ ही अरबी-फ़ारसी भाषा, तर्क शास्त्र , दर्शन, चिकित्साशास्त्र, ज्योमिति, खगोलशास्त्र, हिसाब व ज़मीन की पैमाइश और इल्मेकलाम यानी बातचीत का तरीक़ा भी सिखाया-पढ़ाया जाता था। औरंगज़ेब क्योंकि स्वयं को दी गई और मुग़ल शहज़ादों को दी जाने वाली शिक्षा से संतुष्ट नहीं था, कारणवश बेहतर शिक्षा व्यवस्था के लिए उसकी चिन्ता स्वाभाविक थी। मौलाना निज़ामुद्दीन ने लखनऊ में दर्से निजामी के आधार पर एक मदरसा, मदरसा ए निज़ामिया भी आरंभ किया। ख़ालिद रशीद के मुताबिक यह देश का पहला मदरसा था। ‘‘दर्से निज़ामी’’ 18वीं सदी के पूर्वाद्ध में निर्मित हुआ जब बौद्धिक बेचैनियों की 19वीं सदी की दस्तक का आभास होने लगा था। इस सदी का उत्तरार्द्ध आते-आते मुल्ला निज़ामुद्दीन के बनाये निसाब (पाठ्यक्रम) को लेकर सवाल उठने लगे। यह 1857 के बाद का समय था। 1890 के आस-पास दर्से निज़ामी के निसाब में वक़्त की ज़रूरतों के हिसाब से मुनासिब तरमीम के साथ एक नये दारुलउलूम (नदवतुल उलेमा) के कयाम की चर्चा जोर पकड़ने लगी। यही वह दौर था जब मुस्लिम बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाने तथा मकतब-मदरसों में हिन्दी की तालीम के समर्थक मुखर हो रहे थे। सर सैयद अंग्रेज़ी के हिमायती थे तो शिबली नोमानी हिन्दी तालीम के पक्षधर मौलाना अबुल कलाम आजाद भी तब्दीली की में प्रस्तुत थे। 1857 के महाविद्रोह के दौरान और बाद में मुसलमानों के खिलाफ़ चले भयानक दमनचक्र के कारण पैदा हुई गहरी हताशा और अन्तर्रोन्म खता के दिनों में इस्लाम के ही मजबूत कवच होने की धारणा व्यापक होती गई। 1866 ई0 ख़ास दीनीउलूम की तालीम की ग़रज़ से कायम दारुलउलूम देवबन्द (संस्थापक मौलाना मुहम्मद क़ासिम) का प्रभाव इतना गहरा था कि उससे एकदम अलग राह इख़्तियार करना आसान नहीँ रह गया। औपनिवेशिक ग़ुलामी से मुक्ति के लिए अंग्रेज़ों के खि़लाफ़ छिड़े जुझारू संघर्ष में वहॉ तथा अन्य संस्थानों के आलिमों -छात्रों, नौजवानों ने अप्रतिम के कुर्बानियां दी थीं। प्रतिवाद का विकल्प अंग्रेजों तथा उनसे जुड़ी तमाम चीजों से शदीद नफरत बहिष्कार तथा इस्लाम के प्रति उससे ज़्यादा शदीद अक़ीदत में देखा गया। बच्चों के लिए विशुद्ध इस्लामी शिक्षा इसी प्रतिवाद का एक रूप है। मस्जिदों में मकतब कायम हुए और मदरसे खोले गये। लखनऊ के ‘दारुलउलूम नदवतुलउलेमा’ (1894 ई0) ने इस्लाम के प्रति समर्पित रहते हुए इस शिद्दत को थोड़ा हल्का किया। फ़तेहपुर के मौलाना मर्गूब अली इसके प्रमुख संस्थापकों में थे। शैक्षणिक कट्टरवाद से परहेज़ करते हुए इसने इस्लामी शिक्षा के क्षेत्र में ऐतिहासिक कारनामा अन्जाम दिया। कम्प्यूटर शिक्षण को भी बहुआयामी बनाया। यूनिवर्सिटी जैसा मदरसा नदवतुलउलेमा भी मान्यता प्राप्त नहीं है। उसने अपने संसाधनों का विकास अपने तरीके से किया। उसे अति समृद्ध ओर विशाल पुस्तकालय होने का गौरव भी प्राप्त है। ग़ैर मान्यताप्राप्त मदरसों में आमतौर पर कोई फीस नहीं ली जाती अथवा बहुत कम ली जाती है। निजी मदद समय से न मिल पाने तथा बन्दरबांट के कारण भी वह गंभीर आर्थिक संकट से घिरे रहते हैं। शिक्षक-शिक्षिकाओं को अपेक्षा से कम वह भी समय से वेतन न मिल पाना भी गंभीर समस्या के रूप में उपस्थित रहती हैं। यहॉ शिक्षिकाओं के साथ सर्वाधिक अन्याय होता है। मजबूरी में वह बहुत कम वेतन में पढ़ाने को तैयार हो जाती है उन्हें दूसरे काम भी करने पड़ते हैं। कम वेतन तथा अन्य सुविधाओं के अभाव में प्रशिक्षित टीचर्स इस प्रकार के मदरसों से दूर रहते हैं। सच्ची नीयत अथवा रचनात्मक सोच पर आधारित सर्वे मदरसे को इन समस्याओं से मुक्ति दिलाकर बेहतर शैक्षिक परिवेश के निर्माण में सहायक हो सकता है। आय के अपवित्र या अनुचित स्रोतों तक पहुॅच पाना भी संभव हो सकेगा। यदि वह है तो फीस न होने या कम होने, ड्रेस कोड की पाबन्दी से मुक्त होने के कारण भी ग्रामीण अंचलों व छोटे शहरों में मदरसे ग़रीब बच्चों के लिए आकर्षण का केन्द्र बने । इसमें सन्देह नहीं होना चाहिए कि मदरसों ने देश की एक बड़ी ग़रीब आबादी के बच्चों को शिक्षित होने का मूल्यवान अवसर प्रदान किया है। इसे देश सेवा नहीं तो क्या मानेंगे। मदरसा शिक्षा की सर्वाधिक गंभीर व जटिल समस्या ‘‘पाठ्यक्रम में केन्द्रीयता’’ के न होने की ओर किसी का ध्यान नहीं जा रहा है। इलेक्ट्रानिक समाचार चैनल्स वालों का भी नहीं। पाठ्यक्रम तथा पाठ्य सामग्री के चयन में मनमानी के दर्शन किये जा सकते हैं । मुस्लिम बच्चों की कुल आबादी का तीन प्रतिशत मात्र मदरसों में शिक्षा प्राप्त कर रहा है। फिर भी उन्हें गंभीर ख़तरे के रूप में प्रचारित किया जा रहा है। मदरसों की सामाजिक भूमिका कम अवश्य हुई है परन्तु समाप्त नहीं हुई। -शकील सिद्दीक़ी मो0 9839123525

कोई टिप्पणी नहीं:

Share |