बुधवार, 23 अक्तूबर 2024

शापुरजी सकलतवाला: टाटा परिवार के कम्युनिस्ट विचार वाले वो सदस्य जो ब्रिटेन में बने सांसद

शापुरजी सकलतवाला: टाटा परिवार के कम्युनिस्ट विचार वाले वो सदस्य जो ब्रिटेन में बने सांसद -शेरिलान मोलान पदनाम,बीबीसी न्यूज़, मुंबई शापुरजी सकलतवाला जमशेदजी नुसरवानजी टाटा के भांजे थे, जिन्होंने टाटा समूह की स्थापना की थी। शापुरजी सकलतवाला का नाम शायद इतिहास की किताबों से निकलकर लोगों के सामने नहीं आए. लेकिन अतीत की किसी भी अच्छी कहानी की तरह एक कपास व्यापारी के बेटे, सकलतवाला की कहानी काफी दिलचस्प है. सकलतवाला भारत के सबसे अमीर परिवार, टाटा के सदस्य थे. लेकिन वो कभी भी कारोबार को चलाने के लिए सामने नहीं आए. शापुरजी की कहानी के हर मोड़ पर ऐसा लगता है कि उनका जीवन निरंतर संघर्ष, चुनौती और ज़िद से भरा हुआ था. न तो उनका सरनेम उनके अपने अमीर चचेरे भाइयों जैसा था और न ही उनका नसीब उनके जैसा था अपने भाईयों के विपरीत वो कभी टाटा समूह को चलाने के लिए आगे नहीं आए. टाटा समूह आज दुनिया के सबसे बड़े करोबारी विरासतों में से एक है और जगुआर, लैंड रोवर और टेटली टी जैसे प्रतिष्ठित ब्रिटिश कंपनियों का मालिक है. कारोबार संभालने की बजाय शापुरजी एक मुखर और प्रभावशाली राजनेता बने. उन्होंने भारत पर शासन करने वाली उपनिवेशवादी ताकत के केंद्र, यानी ब्रिटिश संसद में स्वतंत्रता के लिए पैरवी की और यहां तक कि महात्मा गांधी के साथ भी टकराव मोल लिया.? लेकिन सवाल यह है कि सकलतवाला एक व्यवसायी परिवार में पैदा हुए थे, इसके बावजूद उन्होंने अपने परिजनों से इतर अपने लिए अलग रास्ता क्यों और कैसे चुना? सवाल यह भी है कि उन्होंने ब्रिटेन के पहले एशियाई सांसदों में से एक बनने के लिए रास्ता कैसे बनाया? इसका जवाब उतना ही जटिल है जितना कि सकलतवाला का अपने परिवार के साथ रिश्ता. मामा जमशेदजी के साये में गुज़रा बचपन सकलतवाला, कपास व्यापारी दोराबजी और जेरबाई के बेटे थे. उनकी मां जेरबाई, टाटा समूह के संस्थापक जमशेदजी नुसरवानजी टाटा की सबसे छोटी बेटी थीं. जब सकलतवाला चौदह साल के हुए तो उनका परिवार मुंबई के एस्प्लेनेड हाउस (टाटा परिवार का घर) में शिफ्ट हो गया और जेरबाई के भाई और उनके परिवार के साथ ही रहने लगा. जेरबाई के भाई का नाम भी जमशेदजी था. सकलतवाला के माता-पिता उनके बचपन में ही अलग हो गए थे, जिसके बाद उनके मामा जमशेदजी उनके लिए पिता समान बन गए. सकलतवाला की बेटी सेहरी ने अपने पिता की जीवनी ‘द फ़िफ्थ कमांडमेंट’ में लिखा है, “जमशेदजी हमेशा शापुरजी के लिए बहुत प्रिय रहे और वो बहुत कम उम्र से शापुरजी के अंदर क्षमता और संभावनाएं देखा करते थे. उन्होंने शापुरजी पर बहुत ध्यान दिया. उन्हें उनके बचपन और जवानी के दौरान उनकी क्षमताओं पर बहुत विश्वास था.” लेकिन सकलतवाला के लिए जमशेदजी के प्यार और लगाव के कारण, जमशेदजी के बड़े बेटे दोराब को सकलतवाला से नाराज़गी हो गई. सेहरी लिखती हैं, “बचपन और युवावस्था के दौरान दोनों एक-दूसरे के प्रति मनमुटाव के साथ रहे. दोनों के बीच ये दरार कभी नहीं मिट सकी.” इसकी वजह से दोराब को पारिवारिक व्यवसाय में सकलतवाला की भूमिका कम कर दी और अंत में सकलतवाला को अलग रास्ता अपनाना पड़ा. 1890 के दशक के अंत में बम्बई (आज के वक्त की मुंबई) में ब्यूबोनिक प्लेग से हुई तबाही से सकलतवाला बहुत प्रभावित थे. उन्होंने देखा कि महामारी की वजह से ग़रीब और मज़दूर वर्ग काफी प्रभावित हुए, जबकि समाज के उच्च वर्ग के लोग, जिनमें उनका परिवार भी शामिल है, इससे अधिक प्रभावित नहीं हुआ. सकलतवाला उन दिनों कॉलेज स्टूडेंट हुआ करते थे. उन्होंने एक रूसी वैज्ञानिक वाल्देमर हाफ़किन के साथ मिलकर काम किया. हाफ़किन को अपनी क्रांतिकारी और रूसी शासन प्रणाली विरोधी राजनीति के कारण अपना देश छोड़कर भागना पड़ा था. हाफ़किन ने प्लेग से निपटने के लिए एक वैक्सीन बनाई और सकलतवाला ने घर-घर जाकर वैक्सीन लेने के लिए लोगों को मनाया. सेहरी अपनी किताब में लिखती हैं, “दोनों के नज़रिए में बहुत समानता थी और इसमें कोई संदेह नहीं है कि एक आदर्शवादी बुज़ुर्ग वैज्ञानिक और युवा और दयालु छात्र के बीच इस घनिष्ठ संबंध ने शापुरजी के विश्वास को बनाने में और उन्हें मूर्त रूप देने में मदद की होगी.” इसके अलावा सैली मार्श नाम की एक महिला के साथ शापूरजी के रिश्ते ने भी उनपर काफी प्रभाव छोड़ा. सैली एक वेट्रेस थीं, जिनसे शापूरजी ने साल 1907 में शादी की थी. सैली मार्श अपने माता-पिता की 12 संतानों में से चौथी थीं. उन्होंने बचपन में ही अपने पिता को खो दिया था. मार्श के परिवार के लिए गुज़ारा करना मुश्किल था, जिसकी वजह से परिवार में सभी को कड़ी मेहनत करनी पड़ती थी. लेकिन धनी परिवार से आने वाले सकलतवाला, मार्श की ओर आकर्षित हुए. दोनों के प्रेम-संबंध के दौरान मार्श के जीवन के ज़रिए सकलतवाला को ब्रिटेन के मज़दूर वर्ग की कठिनाइयों के बारे में पता चला. सेहरी लिखती हैं कि मार्श के पिता भी जेसुइट पादरियों और ननों के निस्वार्थ जीवन से प्रभावित थे. इन्हीं लोगों की मदद से उन्होंने स्कूल और कॉलेज में पढ़ाई की थी. इस कारण 1905 में अपनी ब्रिटेन यात्रा के बाद सकलतवाला ने ख़ुद को राजनीति से जोड़ लिया. राजनीति में जाने का उनका उद्देश्य था कि वे ग़रीब और हाशिए पर रहने वाले वंचित वर्ग के लोगों की मदद कर सकें. उन्होंने 1909 में लेबर पार्टी ज्वाइन की और 12 साल बाद कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ले ली. वो भारत और ब्रिटेन में मज़दूर वर्ग के अधिकारों को लेकर गहरी चिंता करते थे. सकलतवाला का मानना था कि किसी साम्राज्यवादी शासन के बजाय केवल समाजवाद ही ग़रीबी को मिटा सकता है और लोगों को शासन में अपनी बात कहने का अधिकार दे सकता है. सकलतवाला के भाषणों की खूब सराहना होती थी. ब्रिटेन में वो जल्द ही एक लोकप्रिय चेहरा बन गए. साल 1922 में उन्हें पहली बार संसद के लिए चुना गया और बतौर सांसद उन्होंने क़रीब सात साल तक काम किया. इस दौरान उन्होंने भारत की आज़ादी के लिए जमकर वकालत की. उनके विचार इतने दृढ़ थे कि कंज़र्वेटिव पार्टी के एक ब्रिटिश-भारतीय सांसद ने उन्हें एक ख़तरनाक ‘कट्टरपंथी कम्युनिस्ट’ माना था. सांसद के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान सकलतवाला ने कई बार भारत की भी यात्रा की. भारत में दिए अपने भाषणों में उन्होंने मज़दूर वर्ग और युवा राष्ट्रवादियों से ख़ुद को मुखर करने और स्वतंत्रता आंदोलन को अपना समर्थन देने की अपील की. इस दौरान सकलतवाला ने जिन क्षेत्रों का दौरा किया, वहां भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को संगठित करने और बनाने में भी मदद की. अपने साझा दुश्मन यानी ब्रिटिश शासन को हराने के लिए साम्यवाद पर सकलतवाला के विचारों का टकराव अक्सर महात्मा गांधी के अहिंसा के प्रति दृष्टिकोण से होता था. सकलतवाला ने महात्मा गांधी को लिखे अपने एक पत्र में कहा था, “प्रिय कॉमरेड गांधी, हम दोनों ही इतने अनिश्चित हैं कि अपनी बात को स्वतंत्र रूप से और सही ढंग से रखने के लिए एक-दूसरे के साथ रूख़ा व्यवहार करने की अनुमति देते हैं.” इसके साथ ही उन्होंने महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन के प्रति अपनी बेचैनी और लोगों को उन्हें ‘महात्मा’ (एक पूजनीय व्यक्ति या साधु) कहने की अनुमति देने के बारे में भी खुलकर बात की.” इसी वजह से इन दोनों के बीच कभी समझौता नहीं हो सका. फिर भी वे एक-दूसरे के साथ सौहार्दपूर्ण बने रहे और ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकने के अपने साझा लक्ष्य के लिए एकजुट रहे. भारत में सकलतवाला के जोशीले भाषणों से ब्रिटिश अधिकारी परेशान हो गए और साल 1927 में उनपर भारत की यात्रा करने को लेकर प्रतिबंध लगा दिया गया. 1929 में उन्होंने ब्रिटिश संसद में अपनी सीट खो दी, लेकिन उन्होंने भारत की आज़ादी के लिए लड़ाई जारी रखी. 1936 में उनके निधन तक सकलतवाला ब्रिटिश राजनीति और भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन में एक महत्वपूर्ण व्यक्ति बने रहे. उनके अंतिम संस्कार के बाद उनकी अस्थियों को लंदन के एक कब्रिस्तान में उनके माता-पिता और जमशेदजी टाटा के बगल में दफ़ना दिया गया, जिससे वो एक बार फिर टाटा परिवार और उनकी विरासत के साथ जुड़ गए.

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