शनिवार, 21 दिसंबर 2024

समाजवाद की लाश लेकर घूम रहे लोग

समाजवाद की अंत्येष्टि ******************************* समाजवाद के साथ ही कट्टर राष्ट्रवाद का ढोल भी समाजवादियों ने खुब पीटा है। डा. राममनोहर लोहिया तो इसके चैंपियन ही थे। राष्ट्रवाद और पौराणिक कथाओं के धालमेल के साथ समाजवाद का जो तड़का उन्होंने भारतीय राजनीति में लगाया, उसमें राष्ट्रवाद और प्रतिक्रियावाद तो रह गये, पर समाजवाद सिरे से गायब हो गया। हां, समाजवाद की लाश लेकर घूमते रहे, और लोगों को जाति के नाम पर समझाते, लुभाते और फुसलाते रहे कि समाजवाद अभी जिंदा है। कभी गैर-कांग्रेसवाद, कभी संविद सरकार, कभी सामाजिक न्याय और कभी मंडल के नारे के साथ समाजवाद को जिंदा करने की कोशिश तो होती रही, पर लाश भी कहीं जिंदा होती है? अंततः समाजवाद अपनी सभी धाराओं और उपधाराओं सहित ब्रह्मा के कमंडल में समाहित हो गया। अब भला कोई भी नदी समुद्र में मिलने के बाद अपनी स्वतंत्र इयत्ता कहां बचा पाती है। एक बार सागर में मिलने के साथ ही उसका अस्तित्व हमेशा के लिए समाप्त हो जाता है। वैसे समाजवाद की मर्सिया पढ़ने वाले अभी भी तट पर इंतजार कर रहे हैं कि एक न एक दिन समाजवाद संघ की गोद से उतरकर भारत में अपना जलवा दिखलायेगा। कांग्रेस और कम्युनिस्टों के प्रति घोर संदेह और घृणा के कारण समाजवादी चाहकर भी संघ और भाजपा की गोद से बाहर नहीं निकल सकते। पर, अभी भी वे समाजवाद के विभिन्न झंडे तले समाजवाद की गुहार लगा रहे हैं, मानो पितरों को प्रसन्न करने के लिए पिंडदान कर रहे हों। मायावती, नवीन पटनायक, मुलायम सिंह यादव, नीतीश कुमार, रामबिलास पासवान और उनके पारिवारिक कुनबे, जीतनराम मांझी, उपेन्द्र कुशवाहा के साथ ही अनगिनत समाजवादी जुठे पत्तल चाटने के लिए संघ और भाजपा की ओर टकटकी लगाए देखते रहे हैं, और आज भी देख रहे हैं। रोटी के टुकड़े के लिए ये आपस में तो लड़ सकते हैं, पर आपस में मिलकर संघ और भाजपा से लड़ नहीं सकते। जातीय और क्षेत्रीय अस्मिता के आधार पर आखिर कब-तक ये लोग समाजवाद की दुहाई देते रहेंगे। सचमुच ही भारतीय राजनीति को इस दुर्दशा और पतनशीलता के स्तर तक लाने में समाजवादियों की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका रही है। आज भी समाजवादियों का बड़ा समूह किसी न किसी रूप में भाजपा और मोदी सरकार से जुड़ा हुआ है और उसी में अपना राजनीतिक भविष्य सुरक्षित देख रहा है। भारत को दयनीयता की इस स्थिति तक पहुंचने की अपनी जिम्मेदारी से समाजवादी चाहकर भी बच नहीं सकते। ऐसे ही अवसरवादी समाजवादियों के सहारे जर्मनी में हिटलर आया था, और भारत में भी मोदी जैसे फासीवादी को लाने का श्रेय भी इन्हीं समाजवादियों को ही है। इनके पास समाजवाद का सिर्फ चोला है, पर वैचारिक स्तर पर ये किसी भी रूप में फासीवाद से अलग नहीं है। समाजवादी दल मूलतः पूंजीपतियों का वैसा दलाल है, जो दुनिया में मेहनतकश मजदूरों की एकता को तोड़ने के लिए यूरोप में पूंजीपतियों ने स्थापित किया था। आज भी इनकी वही भूमिका है। -राम अयोध्या सिंह

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