गुरुवार, 17 अप्रैल 2025

वक्फ संशोधन कानून पर उच्चतम न्यायालय में सुनवाई

मैं अंदर थी — आज सुप्रीम कोर्ट में सिर्फ कानून नहीं, क़ौम खड़ी थी” पैर रखने की जगह नहीं थी। मैं ये बात ऐसे नहीं कह रही जैसे भीड़ की कोई खबर बता रही हूं — मैं खुद अंदर थी। कोर्ट नंबर 1 में। और मैं ये गवाही अपने वजूद से दे रही हूं। 200 से ज़्यादा वकील और याचिकाकर्ता थे अंदर। और जितने अंदर थे, उतने ही बाहर इंतज़ार में। कुछ बैठे थे, कुछ खड़े थे — पीठ की तरफ पीठ लगाए, दीवार से टेक लगाए — कोई वहां तमाशा देखने नहीं आया था। हर कोई जानता था कि आज जो हो रहा है, वो किसी भी आम दिन जैसा नहीं है।ये खुद वकीलों ने कहा ⸻ 2 बजकर 8 मिनट पर सुनवाई शुरू हुई। Bench में मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना थे, जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस पीबी वरले साथ बैठे थे। पहला सवाल CJI खन्ना ने ही उठाया — “क्या यह मामला बेहतर होगा कि High Courts को भेजा जाए? हर राज्य की स्थिति अलग है, तो क्या राज्यवार सुनवाई होनी चाहिए?” यह एक वाजिब सवाल था — लेकिन उसकी ज़मीन ज़हर से भरी थी। अगर ये केस High Courts को भेजा जाता, तो ये लड़ाई बंट जाती। एक आवाज़ — जो आज कोर्ट में एक साथ गूंज रही थी — 73 याचिकाएं मिलकर जो एक ताक़त बनी थीं — वो सब टुकड़ों में बदल जातीं। ⸻ और फिर उठे कपिल सिब्बल। खड़े हुए — और खामोशी टूटी। “माई लॉर्ड, ये वक्फ की ज़मीन का मसला नहीं है। ये इस्लाम की रूह की पहचान का मामला है। ये हमारी मस्जिदों, कब्रिस्तानों, मदरसों की हिफाज़त का मामला है। और सबसे अहम बात — ये भारत के संविधान के अनुच्छेद 25, 26, 29 और 30 की हिफाज़त का मामला है। इसे High Court को देकर टुकड़े-टुकड़े मत करिए। ये इंसाफ़ का मामला है — इसे यहीं सुनिए, यहीं फैसला करिए।” ⸻ पूरे कोर्ट में सन्नाटा था। लेकिन उस सन्नाटे में तहरीर लिखी जा रही थी। फिर बहस आई सबसे विवादित हिस्से पर — धारा 3(r): वक्फ बाय यूज़र। जिस ज़मीन को सदियों से लोग नमाज़ पढ़ने, दुआ करने, ताज़ियत पढ़ने, कब्र बनाने के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं — अगर वो सरकार के रिकॉर्ड में नहीं है — तो अब वो वक्फ नहीं मानी जाएगी? “क्या इतिहास को सिर्फ रिकॉर्ड की मोहताज बना दिया जाएगा?” “क्या दुआओं का कोई दस्तावेज़ होता है, माई लॉर्ड?” “क्या मज़ार पर लगे चादर का कोई रजिस्ट्रेशन होता है?” सिब्बल की आवाज़ भारी थी — लेकिन रुक नहीं रही थी। ⸻ धारा 107 का मुद्दा आया। सरकार कह रही है — अगर कोई 30 साल से किसी वक्फ ज़मीन पर कब्जा कर के बैठा है, तो अब उसे चुनौती नहीं दी जा सकती। “तो क्या अब क़ब्ज़ा ही इंसाफ़ है?” “क्या जो मस्जिद कल तक आपकी थी — आज अगर कोई उसे दबा ले, और आप खामोश रहें — तो क्या वो मस्जिद अब आपकी नहीं?” “क्या इंसाफ़ की भी एक्सपायरी डेट होती है, माई लॉर्ड?” ⸻ Bench ने कहा: “हम समझते हैं कि कुछ प्रावधानों को लेकर संवैधानिक चिंता है, लेकिन हमें यह भी देखना होगा कि हर मामले को ‘धरोहर’ न मान लिया जाए।” सिब्बल बोले: “कब्रिस्तान, मस्जिद, मदरसा — ये धरोहर नहीं, जिम्मेदारी हैं। ये सिर्फ इमारतें नहीं, ये हमारी इबादत हैं। और इन पर हक़ है हमारा — ये हमसे कोई कलेक्टर या रजिस्ट्रार नहीं छीन सकता।” ⸻ मैं आज अंदर थी। मैंने सिर्फ बहस नहीं सुनी — मैंने इंसाफ़ की सांसें सुनीं। मैंने उन आंखों को देखा — जो Bench की तरफ नहीं, खुदा की तरफ देख रही थीं — कि आज, इंसाफ़ उसी के हाथ में है। मैंने उन हाथों को देखा जो कोर्ट की दीवार को छू रहे थे — जैसे कह रहे हों: “बस हमें सुना जाए — और सही फैसला हो जाए।” ⸻ मैं आज वहां गवाह बनकर खड़ी थी। मैंने देखा कि मुसलमान डरने नहीं आया था — वो लड़ने आया था — दस्तावेज़ों से, दलीलों से, संविधान से। और मैं आज ये पोस्ट इसलिए लिख रही हूं — क्योंकि कल जब कोई ये कहेगा कि “ये सिर्फ एक केस था” — तो मेरा ये लिखा हुआ कहेगा — “नहीं। ये उस क़ौम की मौजूदगी थी — जो कभी अदालतों से नहीं डरती, बल्कि वहीं अपना हक़ लेती है।” -खुश्बू गीता अख्तर #LiveFromSupremeCourt

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