रविवार, 10 अगस्त 2025
हुक्मरां हो गए कमीने लोग-हबीब जालिब ख़ाक में मिल गए नगीने लोग
हुक्मरां हो गए कमीने लोग
ख़ाक में मिल गए नगीने लोग
हर मुहिब्ब-ए-वतन ज़लील हुआ
रात का फ़ासला तवील हुआ
आमिरों के जो गीत गाते रहे
वही नाम-ओ-दाद पाते रहे
रहज़नों ने रहज़नी की थी
रहबरों ने भी क्या कमी की थी
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मैं बाग़ी हूँ मैं बाग़ी हूँ
जो चाहे मुझपे ज़ुल्म करो.
इस दौर के रस्म-रिवाजों से,
इन तख्तों से इन ताजों से;
जो ज़ुल्म की कोख से जानते हैं,
इंसानी खून से पलते हैं;
जो नफरत की बुनियादें हैं,
और खूनी खेत की खादें हैं;
मैं बाग़ी हूँ मैं बाग़ी हूँ,
जो चाहे मुझपे ज़ुल्म करो.
वो जिन के होंठ की ज़म्बिश से,
वो जिन की आँख की लर्जिश से;
कानून बदलते रहते हैं,
और मुजरिम पलते रहते हैं;
इन चोरों के सरदारों से,
इन्साफ के पहरेदारों से;
मैं बाग़ी हूँ मैं बाग़ी हूँ,
जो चाहे मुझपे ज़ुल्म करो.
"मज़हब के जो व्यापारी हैं,
वो सबसे बड़ी बीमारी हैं;
वो जिनके सिवा सब काफिर हैं,
जो दीन का हर्फ़-ए-आखिर हैं;
इन झूठे और मक्कारों से,
मज़हब के ठेकेदारों से;
मैं बाग़ी हूँ मैं बाग़ी हूँ,
जो चाहे मुझपे ज़ुल्म करो."
मेरे हाथ में हक का झंडा है,
मेरे सर पे ज़ुल्म का फन्दा है;
मैं मरने से कब डरता हूँ,
मैं मौत की खातिर जिंदा हूँ;
मेरे खून का सूरज चमकेगा,
तो बच्चा बच्चा बोलेगा.
मैं बाग़ी हूँ मैं बाग़ी हूँ
जो चाहे मुझपे ज़ुल्म करो
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