शुक्रवार, 22 अगस्त 2025
बिहार में वाम का 'अमृत काल', आजादी से लेकर अबतक के सफर
बिहार में वाम का 'अमृत काल', आजादी से लेकर अबतक के सफर
बिहार की राजनीति में कभी वामपंथी दलों का लोहा माना जाता था. जहां किसानों और मजदूरों के हक की लड़ाई जोर-शोर से लड़ी जाती थी, लेकिन समय के साथ उनका प्रभाव घटता गया. अब 2025 के विधानसभा चुनाव में यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या ये दल फिर से अपने पुराने जोश और ताकत के साथ लौटेंगे, या इतिहास के पन्नों में ही समा जाएंगे?
बिहार में वाम की राजनीति: आपको बता दें कि बिहार में वामपंथी दल कभी मजबूत ताकत माने जाते थे.नब्बे के दशक के अंत तक विधानसभा में इनके 30 से अधिक विधायक थे. जनआंदोलनों, मजदूर-किसान संघर्षों और शिक्षा के मुद्दों पर इनकी पकड़ मजबूत थी. जैसे-जैसे मंडल राजनीति, पहचान की सियासत और क्षेत्रीय दलों का वर्चस्व बढ़ा, वामपंथी दल पीछे होते गए. 2015 के चुनाव में उन्हें सिर्फ 3 सीटें और 3.5% वोट ही मिल सके.
बड़े गठबंधनों में हाशिए पर वाम: हालांकि, 2020 में उन्होंने छात्र आंदोलनों, किसान मुद्दों और गरीब तबकों की लड़ाई के जरिए 16 सीटों पर जीत हासिल की और वोट प्रतिशत बढ़ाकर 4.6% तक पहुंचाया. CPI(ML) की अगुवाई में ये पार्टियां एक बार फिर जनसरोकारों से जुड़ने की कोशिश कर रही हैं. बावजूद संसाधनों की कमी, बड़े गठबंधनों में हाशिए पर धकेल दिए जाने और जातीय समीकरणों की राजनीति के चलते इन्हें कठिन चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है.
बिहार में गहरा जनाधार: बिहार में वामपंथ की वापसी संभव है, लेकिन इसके लिए लगातार जमीनी मेहनत, नेतृत्व की एकता और वैकल्पिक राजनीति का मजबूत खाका पेश करना जरूरी होगा. बिहार की राजनीति में वामपंथी आंदोलन का एक गौरवशाली इतिहास रहा है. 1950-60 के दशक में यह राज्य वाम विचारधारा का मजबूत केंद्र था. मिथिलांचल, शाहाबाद, मगध और पूर्णिया जैसे क्षेत्रों में इनका गहरा जनाधार था. पटना जैसे शहरी इलाकों में भी वाम दलों की मजबूत मौजूदगी देखी जाती थी.
जनता के बीच अपनी खोई जमीन: हालांकि, समय के साथ जातीय राजनीति और क्षेत्रीय दलों के उभार ने वामपंथ को हाशिए पर पहुंचा दिया. अब 2025 के विधानसभा चुनावों में बड़ा सवाल यही है कि क्या ये दल फिर से जनता के बीच अपनी खोई जमीन हासिल कर पाएंगे या फिर उनकी वापसी 2020 तक ही सीमित रह जाएगी.
बिहार में सीपीआई की स्थापना और वामपंथ का उदय: कामरेड रामनरेश पांडे के अनुसार, बिहार में 20 अक्टूबर 1939 को मुंगेर में सीपीआई की स्थापना हुई थी. उस समय बिहार-झारखंड अलग नहीं था, लेकिन हर जिले में सीपीआई का मजबूत संगठन था. आजादी के बाद 1956 में बरौनी विस उपचुनाव में सीपीआई के चंद्रशेखर सिंह की जीत ने बिहार में वामपंथ की ताकत को उजागर किया. उस समय सभी अखबारों ने लिखा था कि 'बिहार में एक लाल सूर्य का उदय हुआ है'. इस जीत के बाद वामपंथ ने राज्य में अपनी पकड़ और मजबूत की.
बिहार में 1970 के दशक में वामपंथी ताकत का विस्तार: कामरेड रामनरेश पांडे के अनुसार 1970 के दशक में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) बिहार में मजबूत हुई. 1972 में पार्टी ने 35 सीटें जीतीं. पार्टी के संस्थापक सुनील मुखर्जी बिहार में विरोधी दल के नेता बने. वामपंथी दलों ने राजद के साथ गठबंधन किया और 8 सांसद लोकसभा पहुंचे. आज भी सीपीआई बिहार के 38 जिलों में सक्रिय और प्रभावशाली है.
" 1972 के विधानसभा चुनाव में पार्टी ने 35 सीटों पर जीत दर्ज की. बिहार पार्टी के संस्थापक कॉमरेड सुनील मुखर्जी को उस समय विरोधी दल के नेता के रूप में मान्यता मिली, जिससे पार्टी को राजनीतिक मुख्यधारा में बड़ी पहचान मिली."-रामनरेश पांडे, राज्य सचिव, सीपीआई
ई टी वी से साभार
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