बुधवार, 17 सितंबर 2025

प्रोफेसर आनंद कुमार के पचहत्तर साल पुरे होने के उपलक्ष्य में हार्दिक शुभकामनाएं

प्रोफेसर आनंद कुमार के पचहत्तर साल पुरे होने के उपलक्ष्य में हार्दिक शुभकामनाएं. प्रोफेसर आनंद कुमार आज अमृतमहोत्सवी वर्ष पूरा कर रहे हैं. मैं उन्हें भावी जीवन की यात्रा के लिए स्वस्थ रहने की प्रार्थना करता हूँ. क्योंकि भाभीसाहिबा का 5 साल पहले निधन होने के बाद, प्रोफेसर साहब के स्वास्थ्य ने अपना अस्तित्व दिखाना शुरू किया है. इसलिए वह बार-बार बोलते रहते हैं कि "मैं पार्किन्सन का मरीज हूँ. मुझे कोई जिम्मेदारी का पद नही दिया जाए. " लेकिन हमारी मान्यता है कि "वह सिर्फ बिमारी लेकर घर में बैठ जायेंगे तो पार्किन्सन या कोई और भी बिमारी से वह और भी निष्क्रिय बन जाने की संभावना है. इसलिए हम लोगों ने दिल्ली की लोकतांत्रिक राष्ट्र निर्माण के स्थापना की पहली बैठक में ही एक सावधानी के तौर पर उन्हें इस अभियान के संयोजक के पद पर जबरदस्ती से और सर्वसम्मति से चुना है. क्योंकि मेरी मान्यता है कि बाबा आमटे या गौरकिशौर घोष जैसे करीबी सामाजिक- साहित्यिक मित्रों के स्वास्थ्य ने उनके उम्र के पचास साल से ही अपना अस्तित्व बताने की शुरुआत की थी. लेकिन उन्होंने अपने स्वास्थ्य के इलाजो के साथ - साथ अपने काम यथावत जारी रखे. इसलिए और आधी जिंदगी का सफर उन्होंने पूरा किया. और इस बात को लेकर मुझे व्यक्तिगत रूप से दोनों के परिवार के सदस्यों के साथ मध्यस्थता करनी पड़ी थी. वही राय डाक्टर आनंद कुमार के बारे में भी होने की वजह से हम लोग उन्हें उनके स्वास्थ्य का ख्याल रखते हुए, सामाजिक- राजनीतिक कामो से दूर नहीं होने देंगे. क्योंकि प्रोफेसर आनंद कुमार के जैसे संतुलित विचार करते हुए, किसी भी प्रकिया को आगे बढ़ाने के लिए फिलहाल उनसे बेहतर साथी नही मिलेगा. इसिलिये लोकतांत्रिक राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया के साथ ही सिटिजंस फॉर डेमोक्रसी और समाजवादी समागम तथा भारत तिब्बत मैत्री संघ के भी नेतृत्व उन्हिको सभी साथियों ने मिलकर सौपा है. प्रोफेसर आनंद कुमार की वर्तमान जिम्मेदारीयो को देख कर मुझे याद आ रहा है की जयप्रकाश नारायण भी अपने जीवन की आखिरी पारी में लगभग सौ से अधिक विभिन्न संगठनों या संस्थाओके अध्यक्ष थे. यहां तक कि भारतीय नेत्रदान संस्था के भी. जयप्रकाश आंदोलन के दौरान प्रोफेसर आनंद कुमार जेएनयू के विद्यार्थी नेता थे. और इस कारण जेएनयू के विद्यार्थियों को भी उस आंदोलन में शामिल करने के लिए प्रोफेसर आनंद कुमार की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. भले ही अभी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसकी राजनीतिक ईकाई भाजपा जेएनयू को भारत विरोधी, टुकडे- टुकड़े गैंग, जैसे घटिया आरोप करते हूए टार्गेट कर रहे हैं. और कुछ विद्यार्थियों को जेल में तक बंद कर दिया है. लेकिन जेएनयू भारत की धड़कन है. और जिस तरह के गलत सत्ताधारी दल समय - समय पर रहे,और जब- जब उन्होंने गलत फैसले लिए है. तो जेएनयू के विद्यार्थियों ने ही ललकारा है. डॉ. मनमोहन सिंह जब प्रधानमंत्री थे. और प्रधानमंत्री ही जेएनयू के चांसलर रहते हैं. उसके बावजूद उनकी सरकारी नितियों के खिलाफ जेएनयू के विद्यार्थियों ने उन्हें कैंपस से बगैर कोई कार्यक्रम करते हूऐ वापस लौटाकर ही दम लिया. और उन्होंने इस बात का कुछ भी बुरा नहीं मानते हूऐ, जेएनयू के विद्यार्थियों की भावनाओं का सम्मान करते हुए, उनके उपर कोई भी कारवाई नहीं होने दी थी. यही जनतंत्र का तकाजा है. अन्यथा नेपाल होने की नौबत आती है. प्रोफेसर आनंद कुमार दूसरी पीढ़ी के समाजवादी परिवार से होने की वजह से, वह बचपन से ही लोकतांत्रिक - समाजवाद के प्रति प्रतिबद्ध साथियों में से एक रहे हैं . समाजवादियों में भी व्यक्तिवाद के वजह से किसी ने सिर्फ डॉ. राममनोहर लोहिया तो किसिने आचार्य नरेंद्र देव तो किसिने जयप्रकाश नारायण, तो किसिने किशन पटनायक का आखाडा बनाकर अपने- आप को कैद कर लिया है . प्रोफेसर आनंद कुमार सभी समाजवादी नेताओं को समान रूप से सम्मान देते हुए, और उन सभी के समाजवादी आंदोलन में दीया गया योगदानों की कद्र करते हूऐ. सही मायने में जनतांत्रिक - समाजवाद के प्रति समर्पित है. जो आज बहुत ही कम दिखाई देता है. समाजवादियों का टूटन का बहुत ही दुःखद इतिहास रहा है. लगता है कि, डॉ. राममनोहर लोहिया का सुधरो या टूटो सिंद्धांत से हमारे समाजवादी मित्रों ने सुधरो को भूल कर सिर्फ टूटो ही याद रख लिया है. लेकिन प्रोफेसर आनंद कुमार ने लोहिया जी का सुधरो को ज्यादा से ज्यादा आत्मसात करने की वजह से ही हम लोगों ने उन्हें लोकतांत्रिक राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए उनसे बेहतर नेतृत्व नही मिलेगा, ऐसा सोचकर ही उन्हें देख कर जिम्मेदारी सौंपी है. जिसे वह पिछले तीन सालों बखुबी निभाने की कोशिश कर रहे हैं. तिब्बत हमारा हजारों साल पुराना पडोसी देश है. और पिछले सत्तर साल से दलाई लामा तिब्बत से अपने साथियों के साथ भारत में आकर शरणार्थी बनकर रह रहे हैं. और यहां उन्होंने एक्साइल गवर्नमेंट हिमाचल प्रदेश में धर्मशाला में बनाकर रह रहे हैं. और खुद दलाई लामा बार - बार विश्व के विभिन्न देशों के जाकर तिब्बत की समस्या के बारे में सपोर्ट देने के लिए एड़ी-चोटी एक कर रहे हैं. लेकिन उस तुलना में उन्हें उतना सपोर्ट नही मिल रहा है. भारत में भी बहुत लोग उन्हें एक अध्यात्मिक गुरु के रूप में देखते हुए आदर - सम्मान तो करते हैं. इस कारण नोबेल पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया है. लेकिन उनके तिब्बत की मांग को नजरअंदाज करते हुए. लेकिन प्रोफेसर आनंद कुमार अपने विद्यार्थि जीवन से ही तिब्बत के सवाल पर जुड़े हुए हैं. और भारत में चंद लोग हैं. जो लगातार इस सवाल पर कुछ गतिविधियों में शामिल है. उनमें प्रोफेसर आनंद कुमार का सबसे प्रमुख नाम है. उसी तरह सांप्रदायिकता के सवाल पर भी वह बहुत ही शूरुआत के दौर से ही सक्रिय हैं. मै 1989 के भागलपुर दंगे के बाद से 35 सालो से भी अधिक समय से, लगातार "भारत का आने वाला पचास साल का राजनीति का मुख्य मुद्दा सिर्फ और सिर्फ सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के इर्द - गिर्द ही रहेगा." यह बात बोलने या लिखने का प्रयास करते आ रहा हूँ. उसको लेकर मेरे इस आकलन को समझने वाले देश के चंद लोगों मे एक प्रमुख नाम प्रोफेसर आनंद कुमार का है. और इसिलिये वह सांप्रदायिकता के विरोधी मंच से लेकर जनतंत्र समाज हो या पीयूसीएल जैसे मंचों में भी वह अपना बहुमूल्य समय दे रहे हैं. जेएनयू से शिक्षक के पद से सेवानिवृत्त होने के बाद, उन्होंने ग्वालियर के आईटीएम विश्वविद्यालय में साथी रमाशंकर सिंह के आग्रह पर 'स्कूल फॉर सोशलिज्म और गांधीयन स्टडीज' जैसे विषय पर एक पूरा कोर्स बनाकर पढ़ने - पढाने की शुरुआत की है. जहाँ तक मेरा भारत के अकादमिक क्षेत्र का अवलोकन हैं. उसमें शुध्द गांधीयन स्टडीज है. या एकाध दो जगह सोशलिज्म है. लेकिन 'स्कूल अॉफ सोशलिज्म और गांधीयन स्टडीज' की शुरुआत ग्वालियर में आईटीएम युनिवर्सिटी में एकमात्र जगह है. जिसे शुरू करने के लिए प्रोफेसर आनंद कुमार की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. और गोवा में भाभीजी की तबीयत के लिए छह साल पहले गऐ थे. लेकिन उनकी अकादमिक स्कॉलरशिप तथा उनके अनुभवों तथा विद्वत्ता को देख कर गोवा विश्वविद्यालय की सबसे सन्माननीय पोस्ट, गोंवा मुक्ति के नेता एवं पूर्व मुख्यमंत्री जो गोवा के सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री के पद पर रहे हूए स्वर्गीय दयानंद बांदोडकर चेयर, उन्हें ससम्मान गोवा विश्वविद्यालय ने सौंपी है. वैसे तो उन्होंने समाजशास्त्र में शिक्षा- दिक्षा करने की वजह से जेएनयू में इसी विषय पर पढाने का काम किया है. और साथ - साथ इस विषय पर लिखने का भी काम किया है. अतंरराष्ट्रीय स्तर पर भी कई देशों में पढ़ने और पढाने के काम में रहे हैं. हमारे देश में ज्यादातर बुद्धिजीवी सिर्फ पढ़ने लिखने के कामों में लगे रहते हैं. क्योंकि उनका मानना रहता है कि हम तो बुद्धिजीवी है . और हमारे काम तो खेल के अंपायर जैसा होना चाहिए कि हम किसी खेल मे शामिल रहेंगे तो क्या अंपायरिंग करेंगे ? हमारा काम तो सिर्फ बौद्धिक स्तर पर ही रहना चाहिए . इस तरह की सुविधाजनक भूमिका निभाने वाले ही ज्यादा है. लेकिन प्रोफेसर आनंद कुमार शायद ही कोई ऐसा समय होगा जिस समय जो भी गलत घटित हुआ और उसका उन्होंने सक्रिय विरोध नही किया हो.1975 के जून में आपातकाल की घोषणा के समय वह किसी अकादमिक काम के वजह से अमेरिका में थे. तो उन्होंने वहां पर सहमना साथियों के साथ मिल कर आपातकाल तथा सेंसरशिप के खिलाफ आवाज उठाने का काम किया है. वैसे ही हमारे देश की हजारों साल पुरानी सामाजिक बुराईयों को जिसमें जातीवाद, पूंजीवाद, सांप्रदायिकता, महिलाओं तथा दलित आदिवासियों के साथ सत्ताधारी और पुंजिपतियोंके द्वारा किया जा रहा शोषण तथा विकास की अवधारणा के सवालों को लेकर जमीन पर आकर आंदोलनों में अपनी हिस्सेदारी करते रहते हैं .और पचहत्तर साल के आगे का सफर भी इसी तरह से अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखते हुए सक्रिय रूप से पूरा करेंगे ऐसी उम्मीद करता हूँ. डॉ. सुरेश खैरनार, 15 सितंबर 2025, नागपुर.

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