मंगलवार, 28 अक्टूबर 2025

भारतीय राजनिती के नैतिक पतन के जनक डा. लोहिया..और मैदान बिहार प्रदेश ...

भारतीय राजनिती के नैतिक पतन के जनक डा. लोहिया..और मैदान बिहार प्रदेश .... आजाद भारत की राजनिति के नैतिक पतन की शुरूवात भी इसी बिहार से ही हुई थी। जहाँ समाजवादी, जनसंघ जो आज खाल बदलकर वही बीजेपी बन गयी है तथा कम्युनिस्ट जो अपने को जनसंघ विरोधी कहते हैं, जो आज cpi, cpm cpi ( ml ) के टुकड़ों में बंटकर रह गये हैं , सबने मिलकर कांग्रेस को हटाने के लिये एक मंच पर आकर 1967 में 10 राज्यों में अनैतिक गठबंधन करके संविद सरकार बनाये। बिहार उसमे सबसे ज्यादा अनैतिक सरकार थी । जिसमे दो घोर विरोधी विचारधारा की पार्टी जनसंघ और वामपंथी एक मंच पर आकर सरकार मे शामिल हुये. सबसे आश्चर्य एक विधायक वाली पार्टी का विधायक महामाया प्रसाद सिन्हा मु मंत्री बने । इस सरकार के Architect डा. लोहिया रहे। नयी पीढ़ी के लोग इन समाजवादियों और कम्युनिस्टों का चरित्र नही जानते हैं। कांग्रेस को हटाने के लिये ये सब गांधी के हत्यारों से भी हाथ मिलाने में शर्म महसूस नही किये। आज समाजवादियों का एक कुनबा लालू यादव और कम्युनिस्टों का टुकड़ों में बंटा गिरोह कांग्रेस से मिलकर बीजेपी को हटाने का ढोंग कर रहे है और समाजवादियों का दूसरा कुनबा नीतीश के नेतृत्व में अलटी- पलटी का खेल खेल रहे हैं। वस्तविकता जनता को भी पता है कि लालू - नीतीश दोनों एक ही थैली के चट्टे बट्टे है, हम नही तो तुम , तुम नही तो हम। दोनों को न बीजेपी से लेना देना है , न कांग्रेस से । दोनों का लक्ष्य एक है बीजेपी - कांग्रेस को बिहार की सत्ता से दूर रखना। दोनों समाजवाद के खोल मे जाति के गिरोह बंदी के खिलाड़ी हैं। दोनों का आधार पिछड़ी जातियां है। मुसलमान 17% होकर भी दोनों के लिये बंधुआ से ज्यादा नहीं । लालू यादव 14% यादवों के मसीहा है तो नीतीश कुमार 3.50% कुर्मी तथा 18% अति पिछड़ो के खेवनहार । बीजेपी किसी कीमत पर लालू यादव को सत्ता से बाहर रखना चाहती है क्यूंकि लालू यादव बीजेपी के लिये सबसे खतरनाक । वैसे ही लालू यादव बीेजेपी को सत्तापर देखना नहीं चाहते क्यूंकि लालू यादव अपनी दुर्गति के लिये बीजेपी को ही दोष देते हैं। नीतीश को आगे करके बीेजेपी सत्ता मे हिस्सा लेकर अपने को मजबूत करती है और लालू यादव को सत्ता से दूर रखती है। वहीं नीतीश लालू यादव का भय दिखाकर बीजेपी को समर्थन देने को मजबूर करते रहे हैं, नहीं तो 74 सीट पाकर बीजेपी और 80 सीट पाकर लालू सत्ता के लिये तरसते और 43 सीट पाकर नीतीश कालिया नाग के फन पर बैठकर चैन की वंशी बजाते । आज भी बिहार में कोई ज्यादा परिवर्तन नहीं। दिल्ली में एक तड़िप्पार चाणक्य बैठे हैं वे बिहार को महाराष्ट्रा , हरियाना समझकर बिहार में आये हैं , जो चाणक्य जब प्र. मंत्री चुनना हो तो संसदीय दल के सांसदों से प्र.मंत्री का चुनाव नही कराते हैं और पिछले दो बार 2015 -2020 मे विधायक दल से मु.मंत्री नहीं चुने । इस बार जे डी यू के दलालों को मिलाकर नीतीश को महाराष्ट्रा की तरह किनारे लगाने की चाल चल रहे थे। इनको महाराष्ट्रा बिहार में अंतर समझ नहीं आया। एक ही झटके मे नीतीश ने सभी चाणक्यगीरी पिछवाड़े घुसेड़ दिया । पूरी बिहार की बीेजेपी और चिराग , माझी, उपेंदर कुशवाहा नीतीश नीतीश का गायन करने लगे। संघ मौन है , रंगा - बिल्ला को अपनी औकात समझ में आ गयी। कल से नीतीश ने मोदी- शाह के साथ मंच शेयर करने से इंकार कर दिया है।आगे देखते जाईये, " हम नही तो तुम " का विकल्प खुला है। अब आईये चलते है १९६७ में... सुविधा और दलबदल की राजनिती के जनक डा. लोहिया... सुविधा और दलबदल की राजनीति जिसने 1967 के चुनावों से भारत के राजनीतिक जीवन को त्रस्त कर दिया है और भारतीय लोकतंत्र को आपदा के कगार पर ला दिया है, बिहार के साथ शुरू हुआ । डॉ. लोहिया की संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी बिहार में 1967 के चुनाव में मुख्य विपक्षी दल के रूप में उभरी थी, जिसमें 68 सीटें पायी थीं। जनसंघ और भाकपा को 25-25 मिले। कांग्रेस हालांकि अकेली सबसे बड़ी पार्टी बनी रही, लेकिन वह स्पष्ट बहुमत हासिल करने में नाकाम रही । इससे डॉ लोहिया को बिहार राज्य में सबसे पहले अपनी एक गैर-कांग्रेसी गठबंधन मंत्रालय के प्रस्ताव को लागू करने की कार्रवाई की कोशिश करने के लिए प्रोत्साहित किया , जिसमें कम्युनिस्ट पार्टी और जनसंघ दोनों को भागीदार होना चाहिए था। ऐसी अनैतिक कोशिश को जनसंघ और वामपंथियों द्वारा एकमुश्त अस्वीकार कर दिया जाना चाहिए था, जिस जनसंघ ने तो अप्रैल १९६६ में जलंधर में आयोजित अपने पूर्ण सत्र में कम्युनिस्ट पार्टी के साथ किसी भी आकार के रूप में सहयोग के खिलाफ मतदान किया था । यह कम्युनिस्ट पार्टी के लिए भी उतना ही प्रतिकूल था कि फासिस्ट सोच वालों के साथ कैसे दे सकते हैं । लेकिन वामपंथियों में घुसपैठ करने या उन्हें खाने की वस्तु के साथ बिल्कुल अलग और विपरीत दलों के साथ संयुक्त मोर्चों का गठन कम्युनिस्ट पद्धति का एक अच्छी तरह से मान्यता प्राप्त हिस्सा है जो "साधनों को न्यायोचित ठहराने के सिद्धांत" पर आधारित है। इसके अलावा प्रस्तावित गठबंधन के सरगना एस. एस. पी .के साथ भाकपा के संबंध काफी सौहार्दपूर्ण माने जाते थे और उन्होंने चुनाव में भी सहयोग किया था। लेकिन जहां तक जनसंघ का सवाल था, एस.एस.पी .के लिए भी उसका कोई प्यार खतम नहीं हुआ था ( प्रीत पुरातन लखई न कोई .. वाली स्थिति ) । इसने एस.एस.पी . को कांग्रेस पार्टी के प्रत्याशित क्षय और विघटन से उत्पन्न वैक्यूम को भरने की दौड़ में अपना मुख्य प्रतिद्वंद्वी मानता था । इसलिए जब यह घोषणा की गई कि बिहार जनसंघ प्रस्तावित गठबंधन में शामिल होगा तो सभी डेमोक्रेट्स के लिए यह दुखद आश्चर्य की बात थी . यह जानकर और ज्यादा हैरानी जनसंघ के उस समय के अध्यक्ष को हुई कि इस निर्णय को आरएसएस आलाकमान का आशीर्वाद भी मिला है । बिहार मे हरी झंडी मिलते ही पंजाब, उ. प्र. और हरियाना, मध्य प्रदेश में गठबंधन सरकार का रास्ता खुल गया। लेकिन कम्यनिस्टों के साथ मिलने पर भी उ.प्र. , म. प्रदेश, हरियाना और पंजाब मे विरोधियों की सरकार नहीं बन पा रही थी तो इसका उपाय कांग्रेस पार्टी में जयचंद खोजकर किया गया। उ.प्र. से चौ. चरन सिंह, मध्य प्रदेश से जी. यन .सिंह और हरियाना से राव वीरेंद्र सिंह, बंगाल मे अजय मुखर्जी जय चंद मिले और जाहिर है सभी जयचंद मुख्य मंत्री बन गये , महान लोहिया के कृपा से। लोहिया की नेहरू, इंदिरा के घृणा का परिणाम भारतीय राजनिति के लिये बड़ा भयावह साबित हुआ। आज की दिल्ली की सरकार और बिहार की नीतीश की सरकार उसी लोहिया के महानता का परिणाम है। इस पंचमेल गठबंधन सरकार का आधार कोई वैचारिक धरातल तो था नहीं, यह ईर्ष्यां , द्वेष , घृणा, रूपया और कुर्सी के लोभ का परिणाम था। अत: बहुत ही जल्दी इसके आंतरिक अंतर्विरोध सामने आने लगे और एक एक करके सभी सरकारे गिरने लगी। गठबंधन सरकार की सफलता की जो भी कंडीशन थी उसे कभी भी पूरा नहीं किया गया और गठबंधन के विभिन्न विचार के दल एक दूसरे की टांग खीचने का कोई मौका जाया नही करते थे। सबको पता था कि मध्यावती चुनाव कभी भी हो सकते थे, अत: सभी अपने को मजबूत और दूसरे को कमजोर करने का कोई मौका हाथ से जाने नही देते थे। सरकार गिरने पर जब मध्यावती चुनाव हुआ तो सबसे ज्यादा नुकसान जनसंघ का हुआ , सभी जगह उसकी सीटे घट गयी, उदाहरण के तौर पर U.P. में जनसंघ कि ९८ सीटें थी , चौ. चरन सिंह १६ विधायक लेकर आये थे , चुनाव में वे भारतीय क्रांति दल बनाकर लड़े । जनसंघ ९८ से ४७ पर सिमट गयी और चौ. चरन सिंह ९९ पाकर मुख्य विरोधी दल बन गये। इस प्रकार लोहिया सुविधा की राजनिति और दल बदल के गेम के जनक बन गये और चौ. चरन सिंह उसके महान खिलाड़ी बनकर प्रधान मंत्री की कुर्सी तक उसी रास्ते से प्राप्त किया। नयी पीढ़ी को इन महान लोगों के बारे में कुछ पता नहीं ..... drbn singh.

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