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शुक्रवार, 17 अप्रैल 2015

राजनैतिक विचारधारा और इतिहास की व्याख्या

यद्यपि भारतीय उपमहाद्वीप के सभी निवासियों का सांझा इतिहास है तथापि विभिन्न राजनैतिक विचारधाराओं में यकीन करने वाले अलग.अलग समूह, इस इतिहास को अलग.अलग दृष्टि से देखते हैं। दिल्ली में सरकार बदलने के बाद से, कई महत्वपूर्ण संस्थानों की नीतियों में रातों.रात बदलाव आ गया है। भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद ;आईसीएचआर व राष्ट्रीय शैक्षणिक अनुसंधान व प्रशिक्षण परिषद ;एनसीईआरटी, उन अनेक संस्थाओं में शामिल हैं, जिनके मुखिया बदल दिये गये हैं और नए मुखिया, संबंधित विषय में अपने ज्ञान से ज्यादा, शासक दल की विचारधारा के प्रति अपनी वफादारी के लिए जाने जाते हैं। ये वे संस्थान हैं जो इतिहास व शिक्षा सहित समाजविज्ञान के विभिन्न विषयों से संबंधित हैं। इन संस्थानों की नीतियों व नेतृत्व में परिवर्तन,भाजपा के पितृसंगठन आरएसएस के इशारे पर किया गया प्रतीत होता है। आरएसएस की राजनैतिक विचारधारा हिंदू राष्ट्रवाद है, जो कि भारतीय राष्ट्रवाद और भारतीय संविधान के मूल्यों के खिलाफ है। आरएसएस के सरसंघचालक ने हाल ;3 मार्च 2015 में कहा था कि भारतीय इतिहास का'भगवाकरण' होना चाहिए। उनका समर्थन करते हुए भाजपा नेता और पूर्व केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री मुरली मनोहर जोशी ने कहा कि भारतीय इतिहास का भगवाकरण समय की आवश्यकता है और संबंधित मंत्री को इतिहास की पुस्तकों पर भगवा रंग चढाने में गर्व महसूस करना चाहिए।
इतिहास की किताबों के भगवाकरण से क्या आशय है ? भगवाकरण शब्द को प्रगतिशील व तर्कवादी इतिहासविदों और बुद्धिजीवियों ने तब गढ़ा था, जब वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ;1998 में मानव संसाधान विकास मंत्री मुरली मनोहर जोशी ने शिक्षा, इतिहास व अन्य समाजविज्ञानों के पाठ्यक्रमों और पाठ्यपुस्तकों में व्यापक परिवर्तन करने शुरू किए। जो किताबें मुरली मनोहर जोशी के कार्यकाल में लागू की गईं थीं उनमें कई तरह की आधारहीन बातें कही गईं थीं जैसे, चूंकि हम मनु के पुत्र हैं इसलिए हम मनुष्य या मानव कहलाते हैं,वैज्ञानिक यह मानते हैं कि पेड़.पौधे अजीवित होते हैं परंतु हिंदू, पेड़.पौधों को जीवित मानते हैं और जब बंदा बैरागी ने इस्लाम कुबूल करने से इंकार कर दिया तो उसके लड़के की हत्या कर उसका कलेजा निकालकर, बंदा बैरागी के मुंह में ठूंसा गया। इन पुस्तकों में सती प्रथा को राजपूतों की एक ऐसी परंपरा के रूप में प्रस्तुत किया गया थाए जिस पर हम सब को गर्व होना चाहिए। मध्यकाल के इतिहास को भी जमकर तोड़ामरोड़ा गया। जैसे,यह कहा गया कि कुतुबमीनार का निर्माण सम्राट समुद्रगुप्त ने किया था और उसका मूल नाम विष्णुस्तंभ था। इन पुस्तकों में शिवाजी और अफजल खान, अकबर और महाराणा प्रताप, गुरू गोविंद सिंह और औरंगजैब़ के बीच हुए युद्धों.जो केवल और केवल सत्ता हासिल करने के लिए लड़े गये थे.को सांप्रदायिक रंग देते हुए उन्हें हिंदुओं और मुसलमानों के बीच युद्ध के रूप में प्रस्तुत किया गया।
इन परिवर्तनों की पेशेवर, प्रगतिशील, धर्मनिरपेक्ष इतिहासविदों ने तार्किक आधार पर आलोचना की। उन्होंने इतिहास के इस रूप में प्रस्तुतिकरण के लिए 'शिक्षा का भगवाकरण' शब्द इस्तेमाल करना शुरू किया। परिवर्तनों की आलोचना का जवाब देते हुए मुरली मनोहर जोशी ने कहा ;अप्रैल 2003 कि यह भगवाकरण नहीं बल्कि इतिहास की विकृतियों को ठीक करने का प्रयास है। लेकिन अब, बदली हुई परिस्थितियों और परिवर्तित राजनैतिक समीकरणों के चलते, वे उसी शब्द.भगवाकरण.को न सिर्फ स्वीकार कर रहे हैं वरन् उस पर गर्व भी महसूस कर रहे हैं।
भारत में इतिहास का सांप्रदायिकीकरण,अंग्रेजों ने शुरू किया। उन्होंने हर ऐतिहासिक घटना को धर्म के चश्मे से देखना और प्रस्तुत करना प्रारंभ किया। अंग्रेजों के रचे इसी इतिहास को कुछ छोटे.मोटे परिवर्तनों के साथ, हिंदू और मुस्लिम सांप्रदायिक तत्वों ने अपना लिया। हिंदू सांप्रादयिक व राष्ट्रवादी तत्व कहते थे कि भारत हमेशा से एक हिंदू राष्ट्र है और मुसलमान व ईसाई, भारत में विदेशी हैं। मुस्लिम सांप्रदायिक तत्वों के लिए इतिहासए आठवीं सदी में मोहम्मद.बिन.कासिम के सिंध पर हमले से शुरू होता था। उनका दावा था कि चूंकि मुसलमान भारत के शासक थे इसलिए अंग्रेजों को इस देश का शासन मुसलमानों को सौंपकर यहां से जाना था। इतिहास के इसी संस्करण का किंचित परिवर्तित रूप पाकिस्तान में स्कूलों और कालेजों में पढ़ाया जाता है।
इसके विपरीत,जो लोग धर्मनिरपेक्ष, प्रजातांत्रिक भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के प्रति प्रतिबद्ध थे उन्होंने जोर देकर कहा कि किसी राजा का धर्म, उसकी नीतियों का निर्धारक नहीं हुआ करता था। यही बात स्वाधीनता आंदोलन के सर्वोच्च नेता महात्मा गांधी ने भी कही। अपनी पुस्तक 'हिंद स्वराज' में वे लिखते हैंए 'मुस्लिम राजाओं के शासन में हिंदू फलेफूले और हिंदू राजाओं के शासन में मुसलमान। दोनों पक्षों को यह एहसास था कि आपस में युद्ध करना आत्मघाती होगा और यह भी कि दोनों में से किसी को भी तलवार की नोंक पर अपना धर्म त्यागने पर मजबूर नहीं किया जा सकता। इसलिए दोनों पक्षों ने शांतिपूर्वक, मिलजुलकर रहने का निर्णय किया। अंग्रेजों के आने के बाद दोनों पक्षों में विवाद और हिंसा शुरू हो गई.क्या हमें यह याद नहीं रखना चाहिए कि कई हिंदुओं और मुसलमानों के पूर्वज एक ही थे और उनकी नसों में एक ही खून बह रहा है? क्या कोई व्यक्ति मात्र इसलिए हमारा दुश्मन बन सकता है क्योंकि उसने अपना धर्म बदल लिया हैक्या मुसलमानों का ईश्वर, हिंदुओं के ईश्वर से अलग है? धर्म, दरअसल,एक ही स्थान पर पहुंचने के अलग.अलग रास्ते हैं। अगर हमारा लक्ष्य एक ही है तो इससे क्या फर्क पड़ता है कि हम अलग.अलग रास्तों से वहां पहुंच रहे हैं? इसमें विवाद या संघर्ष की क्या गुंजाईश है'
स्वाधीनता के बाद अंग्रेजों द्वारा रचे इतिहास को कुछ समय तक पढ़ाया जाता रहा। शनैः शनैः, इतिहास की पुस्तकों को तार्किक आधार देते हुए उनमें इतिहास पर हुये गंभीर शोध के नतीजों का समावेश किया जाने लगा। एनसीईआरटी के गठन के बाद,उन स्कूलों में, जिनमें एनसीईआरटी का पाठ्यक्रम लागू था, इतिहास की सांप्रदायिक व्याख्या वाली पुस्तकों के स्थान पर एनसीईआरटी की पुस्तकें पढ़ाई जाने लगीं। फिर, सन् 1998 में भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए गठबंधन के सत्ता में आने के बादए डॉ.जोशी ने पाठ्यक्रम के सांप्रदायिकीकरण और शिक्षा के भगवाकरण का सघन अभियान चलाया। सन् 2004 में एनडीए सत्ता से बाहर हो गई और कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए ने केंद्र में सत्ता संभाली। इसके बाद, कुछ हद तक, स्कूली पाठ्यपुस्तकों में वैज्ञानिक सोच और तार्किक विचारों की वापसी हुई और पुस्तकों को सांप्रदायिकता के जहर से मुक्त करने के प्रयास भी हुए। चाहे वह पाकिस्तान हो या भारत,इतिहास के सांप्रदायिक संस्करण का इस्तेमाल,धार्मिक राष्ट्रवाद को मजबूती देने के लिए किया जाता है। इसलिए भारत में ताजमहल को तेजो महालय नामक शिव मंदिर बताया जाता है और स्वाधीनता संग्राम को मुसलमानों के खिलाफ लड़ा गया धार्मिक युद्ध। मुस्लिम राजाओं को मंदिरों का ध्वंस करने व हिंदुओं को जबरदस्ती मुसलमान बनाने का दोषी बताया जाता है। इस विभाजनकारी पाठ्यक्रम का इस्तेमाल राजनैतिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए होता है। पाकिस्तान में पढ़ाई जाने वाली पुस्तकों में मुस्लिम राजाओं का महिमामंडन किया जाता है और हिंदू राजाओं की चर्चा तक नहीं होती।
आरएसएस स्कूलों की एक विस्तृत श्रृंखला का संचालन करता है जिनमें सरस्वती शिशु मंदिर, एकल विद्यालय और विद्या भारती शामिल हैं। इन स्कूलों में इतिहास का सांप्रदायिक संस्करण पढ़ाया जाता है। वर्तमान सरकार की यही कोशिश है कि आरएसएस के स्कूलों का पाठ्यक्रम ही सरकारी शिक्षण संस्थाओं में लागू कर दिया जाए। जाहिर है कि यह खतरनाक कदम होगा। इससे विविधताओं से भरे हमारे बहुवादी देश में विघटनकारी ताकतें मजबूत होंगी।
-राम पुनियानी

गुरुवार, 27 मार्च 2014

लेखक का असली परिचय वही है जो वह लिखता है.

मध्य प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ की इन्दौर इकाई की तरफ से रविवार 2 फरवरी को प्रीतमलाल दुआ सभागृह में समकालीन हिन्दी कहानी लेखन पर व्याख्यान आयोजित किया गया जिसमें हिन्दी कहानी के सुपरिचित हस्ताक्षर श्री रमाकांत श्रीवास्तव जी ने शिरकत की. इसी अवसर पर तेलुगु से हिन्दी में अनुवादित कहानियों की पुस्तक “ताजमहल और अन्य कहानियां” का भी विमोचन किया गया.जिसमें  किताब के लेखक श्री वल्लुरु शिवप्रसाद एवं अनुवादक श्री के. व्ही. नरसिंह राव भी उपस्थित थे. तथा आन्ध्रप्रदेश से प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष एव अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ के सचिव श्री लक्ष्मीनारायण रेड्डी भी शामिल हुए. अनुवादक श्री नरसिंह राव जी ने किताब के हवाले से बताया कि श्री शिवप्रसाद जी पिछले 30 वर्षों से निरंतर लेखन के क्षेत्र में सक्रिय हैं और अब तक अनेकानेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रमुखता से प्रकाशित हो चुके हैं. आप नाटक लेखन में भी समान रूप से ख्यातिप्राप्त हैं. सुश्री सारिका निलोसे जी ने कहानी संग्रह में से “विदाई” कहानी का पाठ किया.

श्री रमाकांत श्रीवास्तवजी ने समकालीन हिन्दी कहानी के चरित्र पर प्रकाश डाला और हिन्दी कहानी लेखन में कथ्य और शिल्प को समझाते हुए कहा कि आज के परिद्रश्य में कथा के शिल्प के साथ ही कथ्य पर भी ध्यान देने की अत्यंत आवश्यकता है. श्री श्रीवास्तव ने अपने व्याख्यान में कहा कि हिन्दी कहानी की आज की स्थिति पर यदि गम्भीरता पूर्वक विचार किया जाये तो एक बात उभर कर सामने आती है और वो ये कि आज के लेखक में पूंजीवादी ताकतों के खिलाफ एक द्रढ निश्चित किस्म का विरोध तो दिखलाई पडता है, लेकिन साथ ही उस विरोध का शिल्प उसी पूंजीवादी तबके द्वारा विकसित दायरे के भीतर ही संघर्श करता हुआ दिखता है. आज नियमित ढांचे को तोडकर ना कि सिर्फ शिल्प पर चर्चा और विमर्श जरूरी है, साथ ही कथ्य पर भी उतना ही ध्यान देना आवश्यक है. लेखक का असली परिचय वही है जो वह लिखता है. उन्होंने कहा कि समकालीन समय 50-60 वर्ष से भी अधिक है. साथ ही उन्होंने कहा कि हर भाषा का कथाकार अपने परिवेश से कुछ लेकर ही लिख रहा है. शिल्प के साथ ही कथ्य पर पुनः ज़ोर देते हुए रमाकांत जी कहते हैं कि कट्टरता और जातिवाद का विरोध करती कहानियाँ आपकी राजनीति स्पष्ट करती हैं. मराठी लेखकों ने कलम के बल पर आंदोलन खडा किया था जो बाद में हिन्दी प्रदेशों में भी हुआ. बाज़ारवाद जो कि भूमण्डलीकरण की संतान है ने इस दुनिया को एक ध्रुवीय बना दिया है. साहित्य का अपना प्रजातंत्र होता है. साहित्य असहमति का परिसर है. शिवप्रसादजी की कहानियों के बारे में रमाकांतजी ने कहा कि आपकी कहानियाँ अंतर्धारा और करुणा से भरी हैं. साथ ही इनमें असहमति का स्वर है. लेकिन इस असहमति में आक्रोश कम और मार्मिकता अधिक है. शिवप्रसादजी का ह्रदय प्रेमयुक्त और संवेदनशील है और यही बात इनकी कहानियों में दिखलाई पडती है. इनकी कहानियाँ हमें गुरिल्ला लडाई की ओर संकेत करती हैं और इनमें गाँव, प्रक्रति, मानवीय पहलू और मनुश्य उपस्थित है. इस कहानी संग्रह का लोकार्पण हमारे शहर और प्रदेश में होना गर्व की बात है.
कार्यक्रम में विशेष रूप से उपस्थित मध्य प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव श्री विनीत तिवारी ने लोगों को सम्बोधित करते हुए कहा कि मराठी, तमिल, तेलुगु, मलयालम, सिंधी, उर्दू सभी भाषाओँ में प्रतिशील लेखक संघ के लोग अपने-अपने क्षेत्र से जुडी समस्याओं, जनसंघर्षों के बारे में लिख रहे हैं, हर भाषा में. हर क्षेत्र में प्रगतिशील साहित्य लिखा जा रहा है लेकिन वो केवल अपने ही क्षेत्र तक ही सीमित है जबकि इसका आदान-प्रदान होना बहुत जरुरी है. और हम बहुत समय से इसके लिए प्रयास भी कर रहे हैं, कोशिश करते रहे हैं कि प्रगतिशील लेखक संघ के उत्तर-पूर्व से लेकर सुदूर तक के रचनाकारों और उनकी रचनाओं का, साहित्य का आपस में आदान-प्रदान और मेल-मिलाप होते रहना बहुत  जरुरी है. और आज हमारा ये प्रयास इस कार्यक्रम के रूप में आपके सामने है. उम्मीद है कि आज हमारा ये प्रयास एक पुल कि तरह काम करेगा और रचनाकारों चेतना को, रचना को अगले स्तर तक ले जायेगा. 
उन्होंने tamilnadu में प्रगतिशील रचनाकारों के मध्य होने वाले एक कार्यक्रम के बारे में जानकारी देते हुए बताया कि उस क्षेत्र के सारे प्रगतिशील विचारधारा के लोग हर साल तीन दिन तक पूरे प्रदेश से प्रोफ़ेसर, विद्यार्थी और प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े स्वतंत्र पत्रकार समंदर किनारे इकट्ठे होते हैं और किसी न किसी मुद्दे पर चाहे वो राजनीति का हो, महिलाओ, दलितों, आदिवासियों का या लेस्बियन या गे का हो, गाँव से लेकर शहर तक के लोग इकट्ठे होते हैं,  इनके मसलों पर चर्चा करते हैं, और इतना ही नहीं वो अपना खाना भी स्वयं ही पकाते हैं, हर काम के लिए ये आपस में ही छोटी-छोटी कमेटियां बनाते हैं. हमें भी अपने यहाँ इस प्रकार के मुद्दों पर कार्यक्रम करने कि जरुरत है.
श्री तिवारीजी ने वाल्लुरु शिवप्रसाद के कहानी संग्रह "ताजमहल और अन्य कहानियों" पर चर्चा करते हुए कहा कि ये कहानियां पुरे तेलुगु साहित्य का, कहानी का प्रतिनिधि चेहरा है . इनकी कहानियां एक वर्ग विशेष कि स्थिति को बयान करती हैं जिसमें पात्र अपनी मेहनत से आत्मविश्वास प्राप्त करते हैं, और सच्चाई को बयां करते हैं छुपाते नहीं हैं. इनकी कहानियां समाज कि और उस समाज में रहने वाले लोगों कि सच्चाई को बयान करती हैं.
कार्यक्रम की समाप्ति करते हुए अध्यक्ष श्री एस. के. दुबे ने सभी सम्मान्य अतिथिगण और उपस्थित साथियों का आभार व्यक्त किया.
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