गुरुवार, 30 अप्रैल 2009
समंदर की पहचान है ..
जिस्म इतने खुले रूह तक संदली हो गई।
भाव रस के बिना गायकी पिंगली हो गई।
खून से भीगते बेजुबां आंचलों ने कहा-
सभ्य इंसान की आत्मा जंगली हो गई॥
स्वार्थ के सामने भावना व्यर्थ है।
स्वार्थ सर्वोच्च है चाहना व्यर्थ है।
कलियुगी युग में सब राम ही राम है।
एक हनुमान को खोजना व्यर्थ है॥
पाप है इसलिए पुण्य का मान है।
रात है इसलिए दिन का गुण गान है।
है तो छोटी बहुत बूँद पर दोस्तों -
बूँद है तो समंदर की पहचान है ॥
आस्थाओं को फिर से गगन कीजिये ।
प्राण - पन से उदय का जतन कीजिये ।
तृप्ति में लोभी भवरें मगन राम जी -
पीर कलियों की फिर से शमन कीजिये॥
डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल 'राही'
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