रविवार, 31 मई 2009

छद्म पूँजीवाद बनाम वास्तविक पूँजी-5

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छद्म पूँजी बनाम उत्पादक पूँजी

सन 2005-08 के दौरान अमेरिका में वित्तीय संस्थाओ की क्रियाशीलता बेहद बढ़ गई । संपत्ति बाजार में पैसा लगाया जाने लगा । संपत्ति की कीमतों में पागलपन की हद तक वृधि हुई । लोग और कंपनिया अंधाधुंध कर्जे लेने और देने लगे। कंपनियों ने अपनी मूल पूँजी के 25-30 गुना अधिक पूँजी कर्ज पर लेकर निवेश करना आरम्भ किया। अमेरिका के वित्तीय केन्द्र तथा सबसे बड़े स्टॉक बाजार ''वाल स्ट्रीट '' तथा अमेरिका की विशालतम चार सबसे बड़ी वित्तीय संस्थाओ ने अकूत पैमाने पर शेयर बाजार,प्रतिभूति बाजार ,गिरवी बाजार इत्यादि में भारी पैमाने पर पूँजी लगा दी ।

उधर उत्पादक उद्यम और उत्पादक पूँजी अपेक्षित कर दी गई।
ऐसे में वित्तीय अर्थव्यवस्था के ''बैलून'' को कभी न कभी फूटना ही था।
इस बार ''अति उत्पादन '' का संकट उतना स्पष्ट नही दिखाई सेता है क्योंकि वितरण एवं सेवा दोनों का चक्र बड़ी तेजी से काम कर रहा है।

संकट और मंदी का चक्र अब उत्पादन के क्षेत्र में प्रवेश कर रहा है। 'बेल आउट' और राज्य द्वारा हस्तक्षेप

1929-33 की महामंदी के दौरान और उसके बाद जान मेनार्ड केन्स और शुम्पीटर जैसे पश्चिम के पूंजीवादी अर्थशास्त्रियो ने संकट से उभरने के लिए राज्य के हस्तक्षेप का सिधान्त प्रस्तुत किया था। खासतौर से केन्स इस सिधान्त के लिए जाने जाते है । द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद , खासतौर पर पिछले दो दशको में पश्चिम में तथाकथित उदारवादी सिधान्तो की बाढ़ आई हुई है जिसके तहत राज्य से अर्थतंत्र से बहार जाने के लिय कहा गया। उससे पहले और अब आर्थिक मंदी के दौर राज्य से फिर अर्थतंत्र के हस्तक्षेप करने का अनुरोध किया गया है। साम्राज्यवादी राजनैतिक अर्थशास्त्र भी चक्रीय दौर से गुजरता है।

सर्वविदित है की अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशो में सरकारें खरबों डॉलर का विशेष कोष लेकर बड़े इजारेदार उद्यमों और वित्त पूँजी को बचने मैदान में उतर रही है। इस राहत कार्य को 'बेल-आउट' कहा जा रहा है। चीन की सरकार भी 600 अरब डॉलर का कोष बना चुकी है।

छद्म पूँजी पर अंकुश की आवश्यकता

दूसरे शब्दों में पूंजीवादी और साम्राज्यवाद का संकटाप्रन्न आर्थिक चक्र आज इस मंजिल में पहुँच गया है जहाँ राज्य और सरकारों द्वारा वित्तीय पूँजी पर अंकुश लगाना बहुत जरूरी हो गया है। वित्त पूँजी अर्थात छद्म पूँजी तथा उस पर आधारित 'कैसीनो' पूँजीवाद का प्रभुत्व कम करने और उन पर अंकुश लगाने के लिए राज्य द्वारा उत्पादन को सहायता देना आवश्यक है साथ ही अर्थतंत्र के उत्पादक हिस्सों कल कारखानों ,उद्यमों ,खेती,इत्यादि का विकास और उत्पादन जरूरी है। तभी जाकर मुक्त मुद्रा को वस्तुओं द्वारा संतुलित किया जा सकता है।

जाहिर इस दिशा में सम्पूर्ण आर्थिक नीतियाँ बदलने की आवश्यकता है।
भारत जैसे देशो ने दर्शा दिया है कि सार्वजानिक क्षेत्र का निर्माण देश के अर्थतंत्र के लिए कितना महत्वपूर्ण है। आज सार्वजनिक क्षेत्र और आधुनिक मशीन तथा ओद्योगिक एवं कृषि उत्पादन का निर्माण और विकास विश्व आर्थिक संकट से बचने के सबसे अच्छी उपाय है।

छद्म पूँजी के बनिस्बत वास्तविक पूँजी का विकास आवश्यक है ।

-अनिल राजिमवाले
मो नो -09868525812

लोकसंघर्ष पत्रिका के जून अंक में प्रकाशित ।

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