चिर मौन हो गई भाषा...
द्वयता से क्षिति का रज कण ,
अभिशप्त ग्रहण दिनकर सा।कोरे षृष्टों पर कालिख ,
ज्यों अंकित कलंक हिमकर सा॥सम्पूर्ण शून्य को विषमय,
करता है अहम् मनुज का।दर्शन सतरंगी कुण्ठित,
निष्पादन भाव दनुज का ॥सरिता आँचल में झरने,
अम्बुधि संगम लघु आशा।जीवन,
जीवन-
घन संचित,
चिर मौन हो गई भाषा॥-
डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल '
राही'
3 टिप्पणियां:
सरिता आँचल में झरने,
अम्बुधि संगम लघु आशा।
जीवन, जीवन- घन संचित,
चिर मौन हो गई भाषा॥
बहुत अच्छी लगी आपकी यह कविता.और भाव
हार्दिक बधाई.
चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर
www.cmgupta.blogspot.com
सरिता आँचल में झरने,
अम्बुधि संगम लघु आशा।
जीवन, जीवन- घन संचित,
चिर मौन हो गई भाषा॥
wah! maun ho gayi bhasha..... bahut khoob.........
बहुत अच्छी लगी आपकी यह कविता.और भाव
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