कानपुर के कनपटीमार को शायद बुजुर्ग भी भूल चुके हैं, एक समय था जब वह बहुत चर्चित था, लोग भयभीत रहा करते थे, वह एकदम से निकलता जो मिलता, उसकी कनपटी पर ऐसा जोरदार तमाचा जड़ता कि वह तुरंत गिर कर मर जाता, इधर यह तुरंत गायब हो जाता, जब एक बार पकड़ में आया तो किसी मनोचिकित्सक ने उसका दिल टटोला, उसने सरलता से जवाब दिया कि इस से मुझे संतुष्टि मिलती है।
अमेरिका का यही हाल है, उसे दादागिरी करने, धौंस गांठने, युद्ध थोपने, बम बरसाने तथा हर जगह दखल देने में बहुत मजा आता है। इसका एक लम्बा इतिहास है- इधर बड़े व छोटे बुश की करतूत आप देख ही चुके हैं, अब ओबामा को देख रहे हैं, जिनसे दुनिया को बड़ी उम्मीदें थी। ठीक चुनाव बाद बिना किसी उपलब्धि के नोबल शांति पुरस्कार भी मिला- तब से अब तक शांति का एक भी काम नहीं किया। अब स्तिथि यह है कि दुनिया की छोडिये खुद उन्ही के देश में उनकी पोपुलारिटी का ग्राफ बहुत गिर गया है।
युद्धों पर इतना अनाप-शनाप खर्च कर दिया कि आर्थिक स्तिथि बेहद बिगड़ गयी। इसका अंदाजा इस बात से लगाइए कि ओबामा ने अभी जल्दी अपने एक कार्यक्रम में विश्व के देशों से यह साफ़ कह दिया कि वे अपने विकास के मॉडल बदल लें, क्यों की पूरी दुनिया का आर्थिक विकास अकेले अमेरिका के बल पर नहीं हो सकता। मनमोहन सिंह ने अभी अभी जो यह कहा कि हम निर्भरता को ख़त्म करेंगे तथा सब्सिडी समाप्त कर देंगे, यह बात शायद इसी क्रम में कही गयी है।
अमेरिका ने ईराक व अफगानिस्तान के युद्धों की शुरुआत इस दंभ में की थी कि इनको चुटकी बजाते जीत लिया जायेगा, दशक बीत गया परन्तु उद्देश्य पूरे न हो सके, आतंकी कम, आम जनता ज्यादा मारी गयी। पूरी दुनिया जानती है कि ईराक के तेल के लालच में उस पर हमला करने का झूठा बहाना बनाया कि उसके पास परमाणु हथियार हैं- अगर थे तो बरामद क्यों न हुए, जब कि वह देश अब तक अमेरिका के कब्जे में हैं ?
इधर अफगानिस्तान में पैर बुरी तरह फंसे हुए हैं, नाटो के देश सोचते थे कि जंग जीत कर बड़े-बड़े ठेके आपस में बाटेंगे, जब यह तमन्ना पूरी होती नहीं दिखी तो कुछ देश किसी न किसी बहाने से भाग निकले, विदेशी सैनिक इतने अधिक मारे गए कि जो हैं वह भयभीत हैं। करीब डेढ़ लाख सैनिक अमेरिका के हैं, दस हजार ब्रिटेन के हैं। लगभग 5000 जर्मनी के हैं, जिनको समझाने बुझाने तथा उनका हौसला बढ़ाने हेतु हेतु जर्मनी के रक्षा मंत्री कार्ल थ्योडोर स्वयं अभी अफगानिस्तान आये, यह वादा भी किया कि हर दो माह पर वह आया करेंगे।
अफगानिस्तान को लेकर इस तरफ पश्चिमी देशों में बड़ी हलचल है, एक तरफ वहां अफगान डोनर्स कांफ्रेंस कराई गयी जिसमें 70 से अधिक देश शामिल हुए, दूसरी ओर फ्रेंड्स आफ पकिस्तान की बैठक पकिस्तान में कराई गयी, अमेरिका के तीन दूत विदेश मंत्री हिलेरी, होलब्रूक तथा जोइंट चीफ आफ स्टाफ एडमिरल माइक मुलेन घूम फिर कर इधर के देशों के चक्कर काटते रहे। नाटो के सेक्रेटरी जनरल ने भी पकिस्तान का दौरा किया।
इस सब गहमागहमी के पीछे आखिर क्या है ? यही कि समय भी बहुत लगा गया, अमेरिका ही नहीं उसके साथी देशों का पैसा भी अथाह खर्च हो गया, युद्धरत देशों की जनता अपनी सरकारों से असंतुष्ट हुई जा रही है, उनके यहाँ के विकास कार्य अवरुद्ध हुए जा रहे हैं, अमेरिकी मंदी ने उसके साथी देशों को भी बहुत प्रभावित कर दिया - मगर अमेरिका उन सबको यही समझाता है कि अभी लगे रहो, अभी साथ न छोडो- यह भी खूब रही-
अमेरिका का यही हाल है, उसे दादागिरी करने, धौंस गांठने, युद्ध थोपने, बम बरसाने तथा हर जगह दखल देने में बहुत मजा आता है। इसका एक लम्बा इतिहास है- इधर बड़े व छोटे बुश की करतूत आप देख ही चुके हैं, अब ओबामा को देख रहे हैं, जिनसे दुनिया को बड़ी उम्मीदें थी। ठीक चुनाव बाद बिना किसी उपलब्धि के नोबल शांति पुरस्कार भी मिला- तब से अब तक शांति का एक भी काम नहीं किया। अब स्तिथि यह है कि दुनिया की छोडिये खुद उन्ही के देश में उनकी पोपुलारिटी का ग्राफ बहुत गिर गया है।
युद्धों पर इतना अनाप-शनाप खर्च कर दिया कि आर्थिक स्तिथि बेहद बिगड़ गयी। इसका अंदाजा इस बात से लगाइए कि ओबामा ने अभी जल्दी अपने एक कार्यक्रम में विश्व के देशों से यह साफ़ कह दिया कि वे अपने विकास के मॉडल बदल लें, क्यों की पूरी दुनिया का आर्थिक विकास अकेले अमेरिका के बल पर नहीं हो सकता। मनमोहन सिंह ने अभी अभी जो यह कहा कि हम निर्भरता को ख़त्म करेंगे तथा सब्सिडी समाप्त कर देंगे, यह बात शायद इसी क्रम में कही गयी है।
अमेरिका ने ईराक व अफगानिस्तान के युद्धों की शुरुआत इस दंभ में की थी कि इनको चुटकी बजाते जीत लिया जायेगा, दशक बीत गया परन्तु उद्देश्य पूरे न हो सके, आतंकी कम, आम जनता ज्यादा मारी गयी। पूरी दुनिया जानती है कि ईराक के तेल के लालच में उस पर हमला करने का झूठा बहाना बनाया कि उसके पास परमाणु हथियार हैं- अगर थे तो बरामद क्यों न हुए, जब कि वह देश अब तक अमेरिका के कब्जे में हैं ?
इधर अफगानिस्तान में पैर बुरी तरह फंसे हुए हैं, नाटो के देश सोचते थे कि जंग जीत कर बड़े-बड़े ठेके आपस में बाटेंगे, जब यह तमन्ना पूरी होती नहीं दिखी तो कुछ देश किसी न किसी बहाने से भाग निकले, विदेशी सैनिक इतने अधिक मारे गए कि जो हैं वह भयभीत हैं। करीब डेढ़ लाख सैनिक अमेरिका के हैं, दस हजार ब्रिटेन के हैं। लगभग 5000 जर्मनी के हैं, जिनको समझाने बुझाने तथा उनका हौसला बढ़ाने हेतु हेतु जर्मनी के रक्षा मंत्री कार्ल थ्योडोर स्वयं अभी अफगानिस्तान आये, यह वादा भी किया कि हर दो माह पर वह आया करेंगे।
अफगानिस्तान को लेकर इस तरफ पश्चिमी देशों में बड़ी हलचल है, एक तरफ वहां अफगान डोनर्स कांफ्रेंस कराई गयी जिसमें 70 से अधिक देश शामिल हुए, दूसरी ओर फ्रेंड्स आफ पकिस्तान की बैठक पकिस्तान में कराई गयी, अमेरिका के तीन दूत विदेश मंत्री हिलेरी, होलब्रूक तथा जोइंट चीफ आफ स्टाफ एडमिरल माइक मुलेन घूम फिर कर इधर के देशों के चक्कर काटते रहे। नाटो के सेक्रेटरी जनरल ने भी पकिस्तान का दौरा किया।
इस सब गहमागहमी के पीछे आखिर क्या है ? यही कि समय भी बहुत लगा गया, अमेरिका ही नहीं उसके साथी देशों का पैसा भी अथाह खर्च हो गया, युद्धरत देशों की जनता अपनी सरकारों से असंतुष्ट हुई जा रही है, उनके यहाँ के विकास कार्य अवरुद्ध हुए जा रहे हैं, अमेरिकी मंदी ने उसके साथी देशों को भी बहुत प्रभावित कर दिया - मगर अमेरिका उन सबको यही समझाता है कि अभी लगे रहो, अभी साथ न छोडो- यह भी खूब रही-
खुद तो डूबे हैं, मगर यार को भी ले डूबेंगे ।
- डॉक्टर एस.एम हैदर
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3 टिप्पणियां:
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
आज दिनांक 10 अगस्त 2010 के दैनिक जनसत्ता में संपादकीय पेज 6 पर समांतर स्तंभ में आपकी यह पोस्ट हम तो डूबेंगे ही शीर्षक से प्रकाशित हुई है, बधाई। स्कैनबिम्ब देखने के लिए जनसत्ता पर क्लिक कर सकते हैं। कोई कठिनाई आने पर मुझसे संपर्क कर लें।
आज दिनांक 10 अगस्त 2010 के दैनिक जनसत्ता में संपादकीय पेज 6 पर समांतर स्तंभ में आपकी यह पोस्ट हम तो डूबेंगे ही शीर्षक से प्रकाशित हुई है, बधाई। स्कैनबिम्ब देखने के लिए जनसत्ता पर क्लिक कर सकते हैं। कोई कठिनाई आने पर मुझसे संपर्क कर लें।
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