यद्यपि मैं कोई धर्माधिकारी नहीं हूँ, फिर भी विश्यनता करके समयानुकूल रोजे की प्रकृति, उद्देश्य एवं वर्तमान बदलाव के सम्बन्ध में कुछ व्याख्या करना चाहता हूँ।
जैसा कि अनेक सज्जन जानते हैं, पैगम्बर मोहम्मद साहब को अपने निवास मक्का को 53 वर्ष की आयु में छोड़ना पड़ा, तथा उम्र के आखिरी १० वर्ष तक मदीना में अकर रहे, यहीं से इस्लामी कलेंडर- 'हिजरी' सन् का आरम्भ हुआ। इस सन् के नौवे माह का नाम 'रमजान' है, जिसके पूरे मास 29 या 30 दिन तक रोजा, सुबह अजान से पूर्व से लेकर सुरस्त तक रखा जाता है। इस दरमियाँ अच्छे काम करने तथा बुरे काम न करने के निर्देश दिए गए हैं, जिसमें खाना, पीना, धुम्रपान सहित अनेक कार्यों को न करने को कहा गया है। व्रत और फास्ट भी यही है, परन्तु अंतर भी है।
पवित्र कुरान के सूरा 'बकरह' आयत 183 में रोजे का उद्देश्य 'मुत्तकी' हो जाना बताया गया है, जिसका अर्थ 'एहतियात' या 'परहेज' करने वाले के हैं। अंग्रेजी में इसे काशन (कौतिओन्स) कह सकते हैं। हिंदी में अनेक शब्द हैं- सावधान, चौकस, सचेत या सतर्क। इसके द्वारा मनसा, वाचा, कर्मणा का अच्छा रूप अपना कर व्यक्तित्व एवं सामाजिक आचरण में परिवर्तन अपेक्षित है। ये चाह गया है कि रोजेदार को शारीरिक एवं मानसिक लाभ तो मिले ही, मुख्य रूप से उसमें अध्यात्मिक एवं नैतिक बदलाव आ जाए। केवल खाना पीना जीवन का लक्ष्य न बने।
जब मरीज, डॉक्टर से 'परहेज' के बारे में पूछता है तो वह कुछ बातों के लिए मन करता है, यह अधूरी व्याख्या है। इस शब्द में नकारात्मक सहित सकारात्मक पहलु भी शामिल हैं। हमको इन्द्रियों को काबू में करना है और मन, आँख , कान, मूंह, हाथ पैर से गलत काम नहीं करना है। गुस्सा, द्वेष दूसरों की बुरे करने से बचना है। मुंह द्वारा परहेज यह है कि हराम माल पेट में न जाने पाए। यदि इस पर अमल हो जाए तो चोरी, रिश्वत, भ्रष्टाचार की समस्या हल हो जाए। पैगम्बर साहब का कहना है कि यदि यह सब बातें नहीं होती हैं तो केवल भूख प्यास से कोई लाभ नहीं। रोजा नहीं मन जायेगा। मोहम्मद साहब की एक 'हदीस' का उल्लेख कर दूं, कहते हैं कि मुसलमान वह है जिसकी जबान और हाथ से किसी को कोई कष्ट न पहुंचे। इसका परिधि असीमित है। केवल मुसलमान के लिए नहीं, यह बात पूरी सृष्टि के लिए कही गयी है। रोजेदारों से अपेक्षा नहीं है कि केवल रमजान के माह भर अच्छे बने रहिये बाकी ग्यारह महीने छुट्टा घूमिये। दर असल यह एक प्रशिक्षण मॉस है- कि जो भूल गए हों, याद आ जाए ताकि आगे आप परिवार, समाज सहित सदाचरण करते रहिये। उसके अंतर्गत परोपकार एवं दान (फ़ित्र आदि) पर बहुत जोर दिया गया है।
यहाँ तक तो बातें ठीक हो गयीं। मैं ने वाही लिखा जो इस्लामी किताबों में लिखा है। परन्तु असल चीज मुसलमान का अमल या आचरण है , जिसको देख कर फैसला किया जाता है। हम अपने प्रति इतना खुश फ़हमी में हैं कि हमारी हिम्मत नहीं, कि अपनी सूरत आईने में देखें। हम सभी को नहीं कहते हैं, अनेकानेक बहुत अच्छे हैं परन्तु अनेकानेक ऐसे भी हैं, जिन्होंने ने धर्म को आडम्बर में बदल दिया है। धर्म रुपी शरीर की आत्मा कहीं पलायन कर गयी है। जो चारित्रिक पतन हुआ है- उसकी कौन कौन सी बातें लिखी जाएँ ? आप उन बातों को गुप्त नहीं रख सकते, सभी देख रहे हैं, सभी जान रहे हैं। प्रत्यक्ष कि प्रमाणम।
बात रोजे की हो रही है, देखिये कि इस्लाम ने इन्द्रियों पर काबू की बात की है परन्तु हम आप कैसे दिख रहे हैं- गुस्से से भरे हुए हैं, हम रोजा रख रहे हैं किसी पर एहसान तो नहीं कर रहे हैं- मगर भूख के कारण हमारा आचरण आक्रामक हो जाता है। 'इबादत' बड़ी अच्छी चीज है मगर इसका भी दिखावा कर रहे हैं, दूसरों पर हावी होना चाहते हैं, घमंड से भर गए हैं- न हँसते है न मुस्कराते हैं।
इस्लाम चाहता है, आप परिश्रमी, पराक्रमी बने, रोजा आप को मुसीबत झेलने का आदि बनाये, आप का यह हाल है कि आराम फरमा रहे हैं, जो काम करते थे वह भी छोड़ दिया।
मस्जिदों में लाउड स्पीकर लगवा कर देर देर तक सहर में आवाजें बुलंद करके दूर दूर तक के लोगों को कष्ट देते हैं। अनेक फिरको के आलिमो ने इसे गलत कहा है और एक बयान देवबंद से भी आया है कि ऐसा नहीं करना चाहिए।
अब जरा इफ्तार पार्टियों पर नजर डालिए- रोजेदार पीछे हैं, झूठे रोजेदार या रोजा न रखने वाले मिथ्याचारी आगे-आगे हैं। यह भी स्टेटस सिम्बल बन गयी। इसके बहाने अपने स्वार्थ सिद्ध किये जा रहे हैं। अमीर पार्टी दे रहे हैं, अमीर ही खँ रहे हैं। गरीब का कोई पूछने वाला नहीं। मैंने शिया- सुन्नी मस्जिदों के अन्दर बहार देखा है, अन्दर इफ्तार हो रहा है। अपने-अपने पेट भरने की उचल कूद चल रही है। गरीब बैठा हुआ ललचाई नज़रों से देख रहा है- गरेबान में झांकिए, क्या अल्लाह रसूल के यही पैगाम था ?
इस्लाम खानपान को नियंत्रित एवं संयमित करना चाहता, मुसलमान इस सादगी को वैभव में बदल रहा है।
डॉक्टर एस.एम हैदर
जैसा कि अनेक सज्जन जानते हैं, पैगम्बर मोहम्मद साहब को अपने निवास मक्का को 53 वर्ष की आयु में छोड़ना पड़ा, तथा उम्र के आखिरी १० वर्ष तक मदीना में अकर रहे, यहीं से इस्लामी कलेंडर- 'हिजरी' सन् का आरम्भ हुआ। इस सन् के नौवे माह का नाम 'रमजान' है, जिसके पूरे मास 29 या 30 दिन तक रोजा, सुबह अजान से पूर्व से लेकर सुरस्त तक रखा जाता है। इस दरमियाँ अच्छे काम करने तथा बुरे काम न करने के निर्देश दिए गए हैं, जिसमें खाना, पीना, धुम्रपान सहित अनेक कार्यों को न करने को कहा गया है। व्रत और फास्ट भी यही है, परन्तु अंतर भी है।
पवित्र कुरान के सूरा 'बकरह' आयत 183 में रोजे का उद्देश्य 'मुत्तकी' हो जाना बताया गया है, जिसका अर्थ 'एहतियात' या 'परहेज' करने वाले के हैं। अंग्रेजी में इसे काशन (कौतिओन्स) कह सकते हैं। हिंदी में अनेक शब्द हैं- सावधान, चौकस, सचेत या सतर्क। इसके द्वारा मनसा, वाचा, कर्मणा का अच्छा रूप अपना कर व्यक्तित्व एवं सामाजिक आचरण में परिवर्तन अपेक्षित है। ये चाह गया है कि रोजेदार को शारीरिक एवं मानसिक लाभ तो मिले ही, मुख्य रूप से उसमें अध्यात्मिक एवं नैतिक बदलाव आ जाए। केवल खाना पीना जीवन का लक्ष्य न बने।
जब मरीज, डॉक्टर से 'परहेज' के बारे में पूछता है तो वह कुछ बातों के लिए मन करता है, यह अधूरी व्याख्या है। इस शब्द में नकारात्मक सहित सकारात्मक पहलु भी शामिल हैं। हमको इन्द्रियों को काबू में करना है और मन, आँख , कान, मूंह, हाथ पैर से गलत काम नहीं करना है। गुस्सा, द्वेष दूसरों की बुरे करने से बचना है। मुंह द्वारा परहेज यह है कि हराम माल पेट में न जाने पाए। यदि इस पर अमल हो जाए तो चोरी, रिश्वत, भ्रष्टाचार की समस्या हल हो जाए। पैगम्बर साहब का कहना है कि यदि यह सब बातें नहीं होती हैं तो केवल भूख प्यास से कोई लाभ नहीं। रोजा नहीं मन जायेगा। मोहम्मद साहब की एक 'हदीस' का उल्लेख कर दूं, कहते हैं कि मुसलमान वह है जिसकी जबान और हाथ से किसी को कोई कष्ट न पहुंचे। इसका परिधि असीमित है। केवल मुसलमान के लिए नहीं, यह बात पूरी सृष्टि के लिए कही गयी है। रोजेदारों से अपेक्षा नहीं है कि केवल रमजान के माह भर अच्छे बने रहिये बाकी ग्यारह महीने छुट्टा घूमिये। दर असल यह एक प्रशिक्षण मॉस है- कि जो भूल गए हों, याद आ जाए ताकि आगे आप परिवार, समाज सहित सदाचरण करते रहिये। उसके अंतर्गत परोपकार एवं दान (फ़ित्र आदि) पर बहुत जोर दिया गया है।
यहाँ तक तो बातें ठीक हो गयीं। मैं ने वाही लिखा जो इस्लामी किताबों में लिखा है। परन्तु असल चीज मुसलमान का अमल या आचरण है , जिसको देख कर फैसला किया जाता है। हम अपने प्रति इतना खुश फ़हमी में हैं कि हमारी हिम्मत नहीं, कि अपनी सूरत आईने में देखें। हम सभी को नहीं कहते हैं, अनेकानेक बहुत अच्छे हैं परन्तु अनेकानेक ऐसे भी हैं, जिन्होंने ने धर्म को आडम्बर में बदल दिया है। धर्म रुपी शरीर की आत्मा कहीं पलायन कर गयी है। जो चारित्रिक पतन हुआ है- उसकी कौन कौन सी बातें लिखी जाएँ ? आप उन बातों को गुप्त नहीं रख सकते, सभी देख रहे हैं, सभी जान रहे हैं। प्रत्यक्ष कि प्रमाणम।
बात रोजे की हो रही है, देखिये कि इस्लाम ने इन्द्रियों पर काबू की बात की है परन्तु हम आप कैसे दिख रहे हैं- गुस्से से भरे हुए हैं, हम रोजा रख रहे हैं किसी पर एहसान तो नहीं कर रहे हैं- मगर भूख के कारण हमारा आचरण आक्रामक हो जाता है। 'इबादत' बड़ी अच्छी चीज है मगर इसका भी दिखावा कर रहे हैं, दूसरों पर हावी होना चाहते हैं, घमंड से भर गए हैं- न हँसते है न मुस्कराते हैं।
इस्लाम चाहता है, आप परिश्रमी, पराक्रमी बने, रोजा आप को मुसीबत झेलने का आदि बनाये, आप का यह हाल है कि आराम फरमा रहे हैं, जो काम करते थे वह भी छोड़ दिया।
मस्जिदों में लाउड स्पीकर लगवा कर देर देर तक सहर में आवाजें बुलंद करके दूर दूर तक के लोगों को कष्ट देते हैं। अनेक फिरको के आलिमो ने इसे गलत कहा है और एक बयान देवबंद से भी आया है कि ऐसा नहीं करना चाहिए।
अब जरा इफ्तार पार्टियों पर नजर डालिए- रोजेदार पीछे हैं, झूठे रोजेदार या रोजा न रखने वाले मिथ्याचारी आगे-आगे हैं। यह भी स्टेटस सिम्बल बन गयी। इसके बहाने अपने स्वार्थ सिद्ध किये जा रहे हैं। अमीर पार्टी दे रहे हैं, अमीर ही खँ रहे हैं। गरीब का कोई पूछने वाला नहीं। मैंने शिया- सुन्नी मस्जिदों के अन्दर बहार देखा है, अन्दर इफ्तार हो रहा है। अपने-अपने पेट भरने की उचल कूद चल रही है। गरीब बैठा हुआ ललचाई नज़रों से देख रहा है- गरेबान में झांकिए, क्या अल्लाह रसूल के यही पैगाम था ?
दीन सबन को लखत है, दीनहिं लखै न कोय
जो 'रहीम' दीनहि लखै, दीनबंधु सम होय।
जो 'रहीम' दीनहि लखै, दीनबंधु सम होय।
इस्लाम खानपान को नियंत्रित एवं संयमित करना चाहता, मुसलमान इस सादगी को वैभव में बदल रहा है।
डॉक्टर एस.एम हैदर
5 टिप्पणियां:
सार्थक प्रस्तूति, सुंदर विवेचन!
दीन सबन को लखत है, दीनहिं लखै न कोय
जो 'रहीम' दीनहि लखै, दीनबंधु सम होय।
yah bahut badi baat hai ki inka paalan niyam aur dhairya ke saath kiya jata hai ,sundar post rahi .aur aham jaankaari liye .
बहुत ही बेहतरीन सन्देश दिया है आपने, लेकिन क्या लोग बदलेंगे? असल में आज लोगो की आदत यह हो गई है, कि अच्छी बातों को पढ़ते हैं, उनकी तारीफ भी करते हैं, यहाँ तक कि लोगो को वह बातें बताते भी हैं. लेकिन जो नहीं करते हैं, वोह है अमल. और अगर अमल नहीं तो कितना भी अच्छा पढ़ लो, सुन लो कोई फायदा ही नहीं है.
बहुत ही बेहतरीन सन्देश दिया है आपने, लेकिन क्या लोग बदलेंगे? असल में आज लोगो की आदत यह हो गई है, कि अच्छी बातों को पढ़ते हैं, उनकी तारीफ भी करते हैं, यहाँ तक कि लोगो को वह बातें बताते भी हैं. लेकिन जो नहीं करते हैं, वोह है अमल. और अगर अमल नहीं तो कितना भी अच्छा पढ़ लो, सुन लो कोई फायदा ही नहीं है.
सामयिक और सशक्त पोस्ट...
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'शब्द सृजन की ओर' में 'साहित्य की अनुपम दीप शिखा : अमृता प्रीतम" (आज जन्म-तिथि पर)
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