1945 को जन्में सैयद अजीज पाशा अपने छात्र जीवन से ही राजनीति और जनांदोलनों में सक्रिय रहे हैं। 1974 से 1979 तक एआईएसएफ के महासचिव रहे तत्पश्चात सैयद अजीज पाशा आन्ध््रा प्रदेश से राज्यसभा सदस्य हैं। 27 फरवरी ए0आई0वाई0एफ0 के सचिव एवं आंध्रा प्रदेश विशेषतौर पर हैदराबाद की हाशिये पर पड़ी गरीब जनता के संघर्षो की आवाज बनकर रहे हैं। देश की वाम राजनीति से जुड़े होने के पश्चात भी वर्तमान वाम राजनीति की दशा और दिशा पर बेहद बेबाकी से अपनी राय जाहिर की। उनसे लोकसंघर्ष के लिए बातचीत की दिल्ली के युवा पत्रकार महेश राठी ने।
प्र0 लगातार मँहगाई बढ़ते जाने और सरकार की जन विरोधी नीतियों के बावजूद जनता आंदोलित नही हो रही है। मँहगाई विरोधी विपक्षी अभियान केवल राजनैतिक विरोध प्रदर्शन भर बनकर रह गया है। इस पर आप क्या सोचते हैं?
अजीज पाशा- जुल्म फिर जुल्म है, बढ़ता है तो मिट जाता है।
दरअसल पूंँजीवादी व्यवस्था बेहद चालाक है और आम आदमी के लिए इसकी कार्य प्रणाली व चालाकी को समझना बेहद कठिन काम है। यह व्यवस्था लोगो से ऐसे हरे भरे वादे करती है जिसमें आम आदमी फँसकर रह जाता है। इसके अलावा भारतीय समाज में लोकप्रिय कर्म का सिद्धान्त भी आदमी को संतोषी बनाता है। फिर भी यह पूरे राजनैतिक तंत्र की विफलता है और कहीं न कहीं जनपक्षीय वामपंथ की विफलता भी कही जाएगी कि उसका राजनैतिक संदेश भी आम आदमी तक नही पहँुच रहा है।
प्र0 एन0डी0ए0 से लेकर यू0पी0ए0 तक सभी द्वारा जन विरोधी नीतियाँ जारी रखने के बावजूद भी क्या कारण है कि देश में वामपंथ का जनाधार लगातार घटता जा रहा है?
अजीज पाशा- देखिए पिछले दो दशकों से देश की राजनीति वास्तविक नहीं बल्कि भावनात्मक मुद्दों पर ही केन्द्रित है, जिसके कारण जातिवाद और साम्प्रदायिकता के सवालों पर लोगो के धुव्रीकरण की प्रक्रिया में तेजी आई है। कभी-कभी वाम राजनीति के गलत निर्णय भी उसके जनाधार के घटने का कारण बनते हैं। मसलन कि यूपीए-1 से परमाणु करार के सवाल पर समर्थन वापसी। यदि वामपंथ ने सरकार से मँहगाई के सवाल पर समर्थन वापस लिया होता तो उसके लिए इसके नतीजे कहीं बेहतर होते।
प्र0 आपकी निगाह में वर्तमान राजनीति के एक जनपक्षीय विकल्प का क्या रास्ता होना चाहिए?
अजीज पाशा-जनवादी धर्मनिरपेक्ष शक्तियों का एक व्यापक एवं उचित प्लेटफार्म ही देश को सही विकल्प दे सकता है। इसके अलावा मँहगाई के सवाल पर जमीनी स्तर से शुरू करके संसद तक निरन्तरता वाला एक जनांदोलन होना चाहिए। साथ ही इस सरकार की नीतियों का पर्दाफाश भी होना जरूरी है। बैंको के विनिवेश और निजीकरण की मुहिम के खिलाफ भी सतत् अभियान चलाते हुए आम जन को जागरूक किए जाने की जरूरत है क्योंकि निजीकरण से देश में सर्वहारा के हितों को लगातार नुकसान पहँुच रहा है।
प्र0 अपने छात्र जीवन में आपने राष्ट्रीय छात्र आंदोलन का नेतृत्व किया है, मगर वर्तमान समय में वाम छात्र राजनीति देश के छात्रों और नौजवानों को अपनी ओर आकर्षित करने में नाकाम है। आप इसका क्या कारण सोचते हैं?
अजीज पाशा- इसमें संगठन की कमजोरियाँ भी हैं। हमारे पास छात्र नौजवानों को आकर्षित करने के लिए कोई निश्चित कार्यक्रम भी नही है। पहले छात्र संगठन हर मुद्दे पर अपनी प्रतिक्रियाँ देते थे उन सवालों पर आंदोलन चलाते थे, आज उसका सरासर अभाव है। जनता के मुद्दों पर गली कूँचों से लेकर संसद तक लड़ाई होती थी जिसमें छात्र नौजवान अगुवा लड़ाकू दस्ते के रूप में रहते थे। इसके अलावा संगठन रिचुअलिजम का भी शिकार हैं। हमें रिचुअलिस्ट मैथड को छोड़कर नई पीढ़ी के मूड और उमंगों को समझते हुए भी आगे बढ़ना होगा। ऐसा नही है कि संभावनाएँ नही हैं अर्थिक विषमताएँ बढ़ी हैं, लोगो की तकलीफंे बढ़ी हैं। मगर लोगो की जरूरतों को समझना पडे़गा। लोग आज भी कई तरह की समस्याएँ लेकर आते हैं, आज भी लेफ्ट के लिए मैदान है।
प्र0 जनवाद में संवाद की भूमिका बेहद अहम है। परन्तु वर्तमान समय में संसद में चुने हुए प्रतिनिधियों का व्यवहार संसदीय बहस को अवरुद्ध करते हुए बहस और संवाद को खत्म कर रहा है। इसे आप कहाँ तक उचित समझते हैं?
अजीज पाशा- बार-बार संसद के कार्य को अवरुद्ध करना ठीक नही है। पिछले दिनों मँहगाई के सवाल पर भी हमने प्रमुख राजनैतिक दलों से कह दिया है कि हम इस पंरपरा के खिलाफ हैं कि संसद न चलने दी जाए। हमने कहा है कि काम रोकने के बजाए संवाद के जरिए से समस्याओं को हल करने की तरफ बढ़ना चाहिए।
मोबाइल: 09891535484
लोकसंघर्ष पत्रिका में प्रकाशित
प्र0 लगातार मँहगाई बढ़ते जाने और सरकार की जन विरोधी नीतियों के बावजूद जनता आंदोलित नही हो रही है। मँहगाई विरोधी विपक्षी अभियान केवल राजनैतिक विरोध प्रदर्शन भर बनकर रह गया है। इस पर आप क्या सोचते हैं?
अजीज पाशा- जुल्म फिर जुल्म है, बढ़ता है तो मिट जाता है।
दरअसल पूंँजीवादी व्यवस्था बेहद चालाक है और आम आदमी के लिए इसकी कार्य प्रणाली व चालाकी को समझना बेहद कठिन काम है। यह व्यवस्था लोगो से ऐसे हरे भरे वादे करती है जिसमें आम आदमी फँसकर रह जाता है। इसके अलावा भारतीय समाज में लोकप्रिय कर्म का सिद्धान्त भी आदमी को संतोषी बनाता है। फिर भी यह पूरे राजनैतिक तंत्र की विफलता है और कहीं न कहीं जनपक्षीय वामपंथ की विफलता भी कही जाएगी कि उसका राजनैतिक संदेश भी आम आदमी तक नही पहँुच रहा है।
प्र0 एन0डी0ए0 से लेकर यू0पी0ए0 तक सभी द्वारा जन विरोधी नीतियाँ जारी रखने के बावजूद भी क्या कारण है कि देश में वामपंथ का जनाधार लगातार घटता जा रहा है?
अजीज पाशा- देखिए पिछले दो दशकों से देश की राजनीति वास्तविक नहीं बल्कि भावनात्मक मुद्दों पर ही केन्द्रित है, जिसके कारण जातिवाद और साम्प्रदायिकता के सवालों पर लोगो के धुव्रीकरण की प्रक्रिया में तेजी आई है। कभी-कभी वाम राजनीति के गलत निर्णय भी उसके जनाधार के घटने का कारण बनते हैं। मसलन कि यूपीए-1 से परमाणु करार के सवाल पर समर्थन वापसी। यदि वामपंथ ने सरकार से मँहगाई के सवाल पर समर्थन वापस लिया होता तो उसके लिए इसके नतीजे कहीं बेहतर होते।
प्र0 आपकी निगाह में वर्तमान राजनीति के एक जनपक्षीय विकल्प का क्या रास्ता होना चाहिए?
अजीज पाशा-जनवादी धर्मनिरपेक्ष शक्तियों का एक व्यापक एवं उचित प्लेटफार्म ही देश को सही विकल्प दे सकता है। इसके अलावा मँहगाई के सवाल पर जमीनी स्तर से शुरू करके संसद तक निरन्तरता वाला एक जनांदोलन होना चाहिए। साथ ही इस सरकार की नीतियों का पर्दाफाश भी होना जरूरी है। बैंको के विनिवेश और निजीकरण की मुहिम के खिलाफ भी सतत् अभियान चलाते हुए आम जन को जागरूक किए जाने की जरूरत है क्योंकि निजीकरण से देश में सर्वहारा के हितों को लगातार नुकसान पहँुच रहा है।
प्र0 अपने छात्र जीवन में आपने राष्ट्रीय छात्र आंदोलन का नेतृत्व किया है, मगर वर्तमान समय में वाम छात्र राजनीति देश के छात्रों और नौजवानों को अपनी ओर आकर्षित करने में नाकाम है। आप इसका क्या कारण सोचते हैं?
अजीज पाशा- इसमें संगठन की कमजोरियाँ भी हैं। हमारे पास छात्र नौजवानों को आकर्षित करने के लिए कोई निश्चित कार्यक्रम भी नही है। पहले छात्र संगठन हर मुद्दे पर अपनी प्रतिक्रियाँ देते थे उन सवालों पर आंदोलन चलाते थे, आज उसका सरासर अभाव है। जनता के मुद्दों पर गली कूँचों से लेकर संसद तक लड़ाई होती थी जिसमें छात्र नौजवान अगुवा लड़ाकू दस्ते के रूप में रहते थे। इसके अलावा संगठन रिचुअलिजम का भी शिकार हैं। हमें रिचुअलिस्ट मैथड को छोड़कर नई पीढ़ी के मूड और उमंगों को समझते हुए भी आगे बढ़ना होगा। ऐसा नही है कि संभावनाएँ नही हैं अर्थिक विषमताएँ बढ़ी हैं, लोगो की तकलीफंे बढ़ी हैं। मगर लोगो की जरूरतों को समझना पडे़गा। लोग आज भी कई तरह की समस्याएँ लेकर आते हैं, आज भी लेफ्ट के लिए मैदान है।
प्र0 जनवाद में संवाद की भूमिका बेहद अहम है। परन्तु वर्तमान समय में संसद में चुने हुए प्रतिनिधियों का व्यवहार संसदीय बहस को अवरुद्ध करते हुए बहस और संवाद को खत्म कर रहा है। इसे आप कहाँ तक उचित समझते हैं?
अजीज पाशा- बार-बार संसद के कार्य को अवरुद्ध करना ठीक नही है। पिछले दिनों मँहगाई के सवाल पर भी हमने प्रमुख राजनैतिक दलों से कह दिया है कि हम इस पंरपरा के खिलाफ हैं कि संसद न चलने दी जाए। हमने कहा है कि काम रोकने के बजाए संवाद के जरिए से समस्याओं को हल करने की तरफ बढ़ना चाहिए।
मोबाइल: 09891535484
लोकसंघर्ष पत्रिका में प्रकाशित
10 टिप्पणियां:
achha likha hai
नाइस लिखा है जी
very good effort
BY DR. RAM SHARMA
C-26, SHRADHAPURI PHASE2, KANKERKHERA, MEERUT, U.P., INDIA-250001
very good effort
BY DR. RAM SHARMA
C-26, SHRADHAPURI PHASE2, KANKERKHERA, MEERUT, U.P., INDIA-250001
HOPES
The faces of hopes,
have become dim,
greenery has disappeared,
like ghosts,
the shades have become mirage,
skyscrappers are creating tensions,
green colour is our reliever,
we hope to save this greenery
LORD GANESHA
Destroyer of men`s obstacles,
beginners of every auspicious work,
lover of modakas[ sweets],
ardent obedient to his father,
having the trunk of an elephant,
a transplantation of the head of an elephant,
driver of mouse-van,
save us from all hurdles, all obstacles
very nice jee
जवाब अच्छे हैं धन्यवाद।
poonjivadadi vyavsth yadi chalak hai to samajvadi kitna hitkar hai yah bhi janne ki ichha hai .2 ank me jaroor bat karen
क्रान्तिकारी अन्तर्वस्तु के अभाव में लाल झण्डा औए लाल सलाम बेमानी हो जाते हैं। बूर्जुआ संसदीय जनवाद और सोशल डेमोक्रेसी की अन्धी गली से बाहर निकले बगैर किसी भी सार्थक परिवर्तन की बात करना या तो पाखण्ड है या हद दर्ज़े की नासमझी।
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