शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

कर दिया चुप वाक़्याते-दह्र नें, भी कभी हम में भी गोयाई बहुत।

एक रिर्पोट देख कर सांसदों के बारे में मुझे अपनी पहले की धारण को लगता है परिवर्तित करना पड़ेगा। पहले हम ही क्या, सभी यह विचार करते होंगे कि सांसद बड़ा बवाली, बहुत उत्तेजक, हंगामें बाज़ नारेबाज़, कुर्सियाँ, माइक भंजक, फ़ाइले फाड़ने वाला, राष्ट्रपति को अभिभाषण न पढ़ने देने वाला, काग़ज के गोले फेकने वाला, ‘वेल‘ मे जाकर अक्खाड़े बाज़ी करने वाला होता है। अब मालूम हुआ कि इनमें से 35 फ़ीसदी शन्ति स्वभाव के हैं। बेचारे कुछ बोलते ही नहीं, न कबूतर बाज़ हैं, न ही प्रश्न पूछने के लिए रक़म पैदा करते हैं। वोट देने के लिए ‘बिकते‘ हैं या नहीं? यह नहीं कह सकता। सरकार बनाने या गिराने के मौक़ों पर यह ‘चांस‘ मिलता है।
स्वतंत्र संस्था पी0आर0एस0 लेजिस्लेटिव रिर्सच नें हाल ही में ख़त्म हुए मानसून सत्र की समीक्षा की, इसके मुताबिक, दोनो सदनों में ‘शान्त‘ बैठे रहने वाले सदस्यों की संख्या औसतन 35 फ़ीसदी है। मुद्दे उठाना, सवाल पूछना तो दूर की बात हैं, किसी चर्चा-परिचर्चा में भी यह हिस्सा नहीं लेते एक मतदाता यह सोचकर इन्हें भेजता है कि सांसद जी वहाँ जाकर क्षेत्रीय समस्याओं का समाधान कराएँगे, मगर यहाँ आकर बस यह मूक-दर्शक बन जाते हैं, अगर बोलते भी हैं तो अपने वेतन-भत्ते बढ़वाने के मुद्दे पर। लगता है कि इन पर ‘परमानन्द माधवम‘ की कृपा भी नहीं होती, जिस से ‘मूकम् करोति वाचालम‘ वाली स्थिति वैदा हो जाती।
अब मैं एक बात और सोचता हूँ, इस आदत में अच्छे पहलू भी हैं- पुरानी मसल है कि "TALK IS SILVER BUT SILENCE IS GOLD" इस हिसाब से तो यह ‘सेाने‘ वाले हुए। रिर्पोट ने यह नहीं बताया कि यह ‘सोने‘ के कितने माहिर हैं।
यहाँ पर ‘हाली‘ का एक शेर याद आ गया, इसमें ‘वाक़याते दह्र‘ का अर्थ ‘दुनिया की घटनायें‘, और ‘गोयाई‘ का अर्थ है बोलने की आदत-
कर दिया चुप वाक़्याते-दह्र नें,
भी कभी हम में भी गोयाई बहुत।
अब देखना ये पड़ेगा कि यह सांसद चुप क्यों रहते हैं? क्या पहले कभी बोलते भी थे? या जब से चुने गये तब से अब तक इनकी यही स्थिति बनी रही? इस मामले में एक मध्य मार्ग भी है, वह यह कि जो ज़्यादा बोलते है, कम बोलें जो नहीं बोलते हैं, वह कुछ बोलें ज़रुर। हिन्दी कवि नें यही सीख दी है-
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।
डा. एस.एम. हैदर
लो क सं घ र्ष !

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