मंगलवार, 7 सितंबर 2010

खिलौने दे के बहलाया गया हूँ।

आप ने माया मोह छोड़ने के सन्दर्भ में ‘नजीर‘ की यह पंक्ति शायाद सुनी होगी ‘‘सब ठाठ पड़ा रह जाएगा, जब लाद चलेगा बंजारा‘‘। अमेरिकन्स का इराक़ छोड़ते समय यही हाल हुआ। पहली सितम्बर 2010 को अमेरिकी राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा नें ‘आपरेशन इराकी फ्रीडम‘ के साथ विदेशी फौजे इस आरोप के साथ दाखि़ल हुई थी कि वहाँ परमाणु हथियार हैं। सात साल हो गए परन्तु हथियार बरामद नहीं हुए। इराक़ पर तुरन्त क़ब्जा़ फिर ठेके फिर तेल की सम्पदा पर अधिकार यह स्वप्न भी लगभग अधूरे रहे। कुछ दिन पूर्व अमेरिका विदेशी विभाग के प्रवक्ता नें यह तो बताया कि यह जंग बड़ी मंहगी पड़ी जिसमें अब तक दस खरब डालर खर्च हुआ और 4400 सैनिकों की हत्या हुई यह नहीं बताया कि एक लाख इराक़ी नागरिक भी मारे गए। एक लाख से ऊपर अमेरिकी सैनिकों की वापसी के बाद भी 50,000 सैनिक 2011 के अन्त तक इराक़ ने टिके रहेंगे। ओबामा के ताज़ा बयान से यह नहीं झलकता कि उनके दिल में इराक़ी दर्द का कुछ एहसास है। दर असल ख़ुद उनकी समस्यायें उजागर हुईं जब उन्हों ने यह कहा कि अब अमेरिकी अर्थ व्यवस्था को पटरी पर लाना है तथा बेरोज़गारों को रोज़गार देना है।
1947 में भारत छोड़ते समय ब्रिटिश सरकार नें जिस तरह अनेक ऐसी समस्यायें पैदा कर दी थीं जिससे भारतीय उपमहाद्वीप आज भी जूझ रहा है। इसी प्रकार की तरक़ीबें अमेरिकन्स नें इराक़ के लिए कर दी हैं। इनमें मुख्य तो यही है कि मार्च 10 में निर्वाचन होने के बावजूद आज तक सरकार नहीं बन सकी। अलावी गुट को 91, मालिकी गठबंधन को 89 तथा मुक़तदा सद्र के गुट को 70 सीटें मिली हैं। सरकार बनाने के लिए 163 की संख्या आवश्यक है। मसला केवल इतना है कि अमेरिका यह चाहता है कि मुक़्तदा सद्र सरकार में शामिल न हो सकें, क्यों कि युद्ध के दौरान अमेरिका के सब से बड़े विरोधी यही थे। इराक़ में एक प्रभावशाली सरल स्वभाव के धर्मगुरु हैं, जिनका नाम आयतोल्लाह सीसतानी है। मीडिया की ख़बरों के अनुसार ओबामा नें सरकार गठन के मामले में उन को सहायता देने हेतु पत्र लिखा है, वे राजनीति में नहीं पड़ते हैं। उनकी कोई प्रतिक्रिया भी अभी तक नहीं आई है।
धर्म और धर्मगुरु के नाम से बहुत से लोग चैंक पड़ते हैं, ऐसा होना स्वाभाविक है, क्यों कि धर्म अच्छाई के लिए थे परन्तु इनके द्वारा बुराइयाँ भी बहुत फैंली। धर्म-युद्ध, जिहाद, एवँ ‘होली वार‘ के नाम पर मार-काट भी बहुत हुई है। मगर सब धान बाइस पसेरी‘ में न तौलिये यदि अच्छाई मिले तो स्वीकार भी कीजिए। अनेक धर्मों एवँ फ़िरकों के लोग खु़द भी अच्छे थे तथा अच्छाई फैलाते थे, गांधी जी एवं मदर टेरेसा को आप कैसा समझते हैं? गांधी जी पक्के हिन्दु थे, पूर्ण वस्त्र धारण नहीं करते थे, जीवन सादा था परन्तु किसी समझदार व्यक्ति नें उनकी आलोचना नहीं की, सभी नें दिल से आदर किया।
बात धर्म गुरु सीसतानी की हो रही थी, कहाँ से कहाँ निकल गई। उर्दू राष्ट्रीय सहारा की एक ज़िम्मेदार शख़्सियत हैं- शकील शमसी साहब, उनके लेख बड़े अच्छे होते हैं, कुछ दिन पूर्व वह एक प्रतिनिधि-मण्डल में सम्मिलित होकर इराक़ गये थे। इराकी स्थितियों पर भी उनके कई लेख छपे हैं। अगर अप्रासांगिक न समझे तो मैं सीसतानी साहब की सादा, सरल जिन्दगी पर उनके लेख दिनांक 11 अगस्त 2010 हवाले से कुछ कहूँ- शकील सहाब लिखते हैं कि ‘‘उन के पास अपना कोई मकान नहीं है, नजफ़ की एक पतली सी गली में एक किराए के मकान में सीसतानी साहब क़याम पज़ीर हैं, घर में मामूली क़ालीन और रूई के गद्दे बिछे हुए हैं, ग़िज़ा (भोजन) निहायत सादा है एक ही अबा (चादर जैसा वस्त्र) है जिस को धो धो कर पहनते हैं।‘‘
आप को याद होगा कि भारत की आज़दी से पूर्व ही गांधी जी अपनी जनता को सादगी और सरलता का अभ्यस्त बनाना चाहते थे, स्वेदेशी आंदोलन भी इसी आर्थिक रूप से आजाद रहे। परन्तु असर कुछ भी न हुआ हम चमक-दमक में खो गए, तथा विदेशों से कर्ज़ लेते रहे।
ईराक़ को भी, यह समझिये, कि नई आज़ादी मिलने वाली है, देश हर तरह से बर्बाद हो चुका है, वहाँ की जनता बहुत कुछ परीक्षा दे चुकी है, परन्तु अग्नि परीक्षा अब आगे होने वाली है, ऐसा न हो कि पाश्चात्य देश उसे क़र्ज देकर उलझा लें, फिर तेल अपने क़ब्जे़ में रखे अतः यदि सभी सादगी से चलें, सीसतानी साहब से सबक़लें, घरेलू माल पर भरोसा करें, विदेशी सामान से बचें तो मुमकिन है कि देश पटरी पर आ जाय, यदि एैश आराम में पड़ गए, विदेशियों के सामान के सहारे हो गये तो शायद बाद में यह समझ में आये, जैसा कि कई अरब देशों की जनता को अब कुछ-कुछ आभास होना शुरु हुआ है कि-
खिलौने दे के बहलाया गया हूँ।
डा0 एस0एम0 हैदर

5 टिप्‍पणियां:

पी.सी.गोदियाल "परचेत" ने कहा…

Nice,
सुमन साहब , मैं डरता हूँ कि कभी नाईस टाइप करते वक्त "एन" छोड़ न दूं :)! वैसे आपकी हेडिंग बहुत पसंद आई और इसपर जल्दी एक कविता भी लिखूंगा ! आपका आभार !!!

डॉ० डंडा लखनवी ने कहा…

वेरी नाइस !
सद्भावी -डॉ० डंडा लखनवी

योगेन्द्र जोशी ने कहा…

एक तरफ़ सादगी की अहमियत तो दूसरी तरफ़ तड़्क-भड़्क या ग्लैमर का खिंचाव । आदमी किसे चुन्ने ? बात पहले के पक्ष में ही की जायेगी, लेकिन अपनाया जायेगा दूसरा ही । यही मनुष्य स्वभाव है । - य़ोगेन्द्र जोशी
(http://vichaarsankalan.wordpress.com)

Unknown ने कहा…

so nice !

Himanshu Mohan ने कहा…

sahamat hoon

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