अयोध्या के विवादित पुरास्थल का उत्खनन आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इण्डिया (ए0एस0आई0) द्वारा 2002-2003 में किया गया। यह उत्खनन लगभग पाँच महीनें में सम्पन्न हो गया।
उत्खनन के लगभग समाप्ति के दिनों में 10 जून से 15 जून 2003 तक तथा दूसरी बार ए0एस0आई0 की अन्तिम रिपोर्ट जमा हो जाने के बाद 27 सितम्बर से 29 सितम्बर 2003 तक धनेश्वर मण्डल, रिटायर्ड प्रोफेसर डिपार्टमेन्ट आफ ऐनशियंट हिस्ट्री, कल्चर एण्ड आर्कियोलाजी, यूनिवर्सिटी आफ इलाहाबाद ने अयोध्या जाकर मामले का बारीकी से अध्ययन एवं स्थलीय निरीक्षण किया तथा तथ्यों को एक पक्ष की तरफ़ से शपथ-पत्र के रूप में 5 दिसम्बर 2005 को न्यायालय के समक्ष दाखिल किया।
ध्यान देने योग्य बात यह है कि ए0एस0आई0 की दो जिल्दों की मोटी-मोटी अंतिम उत्खनन रिपोर्ट केवल पन्द्रह दिनों में ही प्रकाशित हो गई।
प्रोफेसर मण्डल के बयान की एक पुस्तिका ‘एक पुरातत्ववेत्ता का हलफनामा-जनता के दरबार में’ के शीर्षक से, मई 2006 में पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस (प्रा0) लि0 रानी झाँसी रोड, नई दिल्ली से प्रकाशित हुई। इसी के आधार पर संक्षेप में कुछ तथ्य एवं अंश प्रस्तुत हैं-सबसे पहले यह बताते चलंे कि प्रो0 मंडल की टिप्पणियाँ तीन स्रोतों से उपलब्ध सूचनाओं पर आधारित हैं प्रथम-उत्खनित स्थान का व्यक्तिगत सर्वेक्षण, द्वितीय-ए0एस0आई0 द्वारा प्रस्तुत दो जिल्दों की रिपोर्ट, तृतीय-उत्खनन से सम्बंधित डे-टू-डे रजिस्टर।
प्रो0 मंडल ने अपने बयान में ए0एस0आई0 की कार्य-विधि एवं रिपोर्ट पर अत्यन्त गंभीर आपत्तियाँ उठाई हैं, इस सम्बन्ध में यह अंश देखिए:-
‘‘उत्खनन में मान्यता प्राप्त पुरातत्विक विधियों का समुचित उपयोग नहीं हुआ है। इस सम्बंध में उल्लेखनीय है कि स्तरीकरण, पुरातात्विक, उत्खनन की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विधि है। इस विधि के अनुसार स्तर अथवा परत को आधार बनाकर उत्खनन किया जाता है न कि गहरान ;क्म्च्ज्भ्द्ध को। गहरान आधारित उत्खनन वस्तुतः पुरातत्विक उत्खनन नहीं अपितु पुरातत्व की दृष्टि से उसका विनाश है’’
वे यह भी लिखते हैं-
‘‘स्तरीकरण एवं कालक्रम से मैं सहमत नहीं हूँ।’’ उनके अनुसार इन दोनों में पहले का महत्व अधिक है, क्योंकि दूसरा, पहले पर निर्भर है। एक अध्याय का उल्लेख करके बताया कि उसमें ‘‘स्तरीकरण से सम्बंधित तथ्यों का नितांत अभाव है। पूरा का पूरा अध्याय कालक्रम के ब्योरे से भरा है, वह भी प्रमाणित तथ्यों पर आधारित नहीं।’’
यह उत्खनन क्षैतिज है, इसमें 5-5 मीटर की 90 ‘‘ट्रेंच’’ खोदी गईं। ट्रेंच जी-7 के बारे में प्रोफेसर साहब लिखते हैं कि यह ‘‘पुरास्थल की पूरी कहानी कहता है। यह एक खुली किताब है। इसका हर परत किताब के पन्नों की तरह है। जो पढ़ सके पढ़ ले।’’
ए0एस0आई0 की रिपोर्ट ने 18 परतों के जमाव को पुरातत्विक जमाव माना है परन्तु प्रो0 मंडल इसे दो कोटि में विभाजित करके दूसरे जमाव को प्राकृतिक जमाव मानते हैं, और इसे भी दो भागों बसावटी एवं गैर बसावटी में विभाजित करते हैं, फिर बताते हैं कि लम्बे अर्से तक जगह वीरान रही, फिर बाढ़ से कुछ परतंे बनीं तत्पश्चात आबादी हुई। जगह को ऊँचा करते रहने के भी प्रमाण मिले। श्री बी0बी0 लाल द्वारा खुदाई के हवाले से बताते हैं कि यह क्षेत्र बाढ़ प्रभावित रहा है जिसकी सुरक्षा में ‘फोर्टीफिकेशन वाल’ का भी अवशेष मिला था। प्रो0 मंडल का यह कहना है-‘‘संभावना है कि बाढ़ प्रकोप से सुरक्षा प्रदान करने हेतु ही इस स्थल को बार-बार ऊँचा करने की आवश्यकता पड़ी। इस घटनाक्रम में एक समय ऐसा भी आया कि बाढ़ के कारण यहाँ के लोगो को बाध्य होकर एक लम्बे समय के लिए यह स्थान ही त्याग देना पड़ा।’’
- विजय प्रताप सिंह (एडवोकेट)
उत्खनन के लगभग समाप्ति के दिनों में 10 जून से 15 जून 2003 तक तथा दूसरी बार ए0एस0आई0 की अन्तिम रिपोर्ट जमा हो जाने के बाद 27 सितम्बर से 29 सितम्बर 2003 तक धनेश्वर मण्डल, रिटायर्ड प्रोफेसर डिपार्टमेन्ट आफ ऐनशियंट हिस्ट्री, कल्चर एण्ड आर्कियोलाजी, यूनिवर्सिटी आफ इलाहाबाद ने अयोध्या जाकर मामले का बारीकी से अध्ययन एवं स्थलीय निरीक्षण किया तथा तथ्यों को एक पक्ष की तरफ़ से शपथ-पत्र के रूप में 5 दिसम्बर 2005 को न्यायालय के समक्ष दाखिल किया।
ध्यान देने योग्य बात यह है कि ए0एस0आई0 की दो जिल्दों की मोटी-मोटी अंतिम उत्खनन रिपोर्ट केवल पन्द्रह दिनों में ही प्रकाशित हो गई।
प्रोफेसर मण्डल के बयान की एक पुस्तिका ‘एक पुरातत्ववेत्ता का हलफनामा-जनता के दरबार में’ के शीर्षक से, मई 2006 में पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस (प्रा0) लि0 रानी झाँसी रोड, नई दिल्ली से प्रकाशित हुई। इसी के आधार पर संक्षेप में कुछ तथ्य एवं अंश प्रस्तुत हैं-सबसे पहले यह बताते चलंे कि प्रो0 मंडल की टिप्पणियाँ तीन स्रोतों से उपलब्ध सूचनाओं पर आधारित हैं प्रथम-उत्खनित स्थान का व्यक्तिगत सर्वेक्षण, द्वितीय-ए0एस0आई0 द्वारा प्रस्तुत दो जिल्दों की रिपोर्ट, तृतीय-उत्खनन से सम्बंधित डे-टू-डे रजिस्टर।
प्रो0 मंडल ने अपने बयान में ए0एस0आई0 की कार्य-विधि एवं रिपोर्ट पर अत्यन्त गंभीर आपत्तियाँ उठाई हैं, इस सम्बन्ध में यह अंश देखिए:-
‘‘उत्खनन में मान्यता प्राप्त पुरातत्विक विधियों का समुचित उपयोग नहीं हुआ है। इस सम्बंध में उल्लेखनीय है कि स्तरीकरण, पुरातात्विक, उत्खनन की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विधि है। इस विधि के अनुसार स्तर अथवा परत को आधार बनाकर उत्खनन किया जाता है न कि गहरान ;क्म्च्ज्भ्द्ध को। गहरान आधारित उत्खनन वस्तुतः पुरातत्विक उत्खनन नहीं अपितु पुरातत्व की दृष्टि से उसका विनाश है’’
वे यह भी लिखते हैं-
‘‘स्तरीकरण एवं कालक्रम से मैं सहमत नहीं हूँ।’’ उनके अनुसार इन दोनों में पहले का महत्व अधिक है, क्योंकि दूसरा, पहले पर निर्भर है। एक अध्याय का उल्लेख करके बताया कि उसमें ‘‘स्तरीकरण से सम्बंधित तथ्यों का नितांत अभाव है। पूरा का पूरा अध्याय कालक्रम के ब्योरे से भरा है, वह भी प्रमाणित तथ्यों पर आधारित नहीं।’’
यह उत्खनन क्षैतिज है, इसमें 5-5 मीटर की 90 ‘‘ट्रेंच’’ खोदी गईं। ट्रेंच जी-7 के बारे में प्रोफेसर साहब लिखते हैं कि यह ‘‘पुरास्थल की पूरी कहानी कहता है। यह एक खुली किताब है। इसका हर परत किताब के पन्नों की तरह है। जो पढ़ सके पढ़ ले।’’
ए0एस0आई0 की रिपोर्ट ने 18 परतों के जमाव को पुरातत्विक जमाव माना है परन्तु प्रो0 मंडल इसे दो कोटि में विभाजित करके दूसरे जमाव को प्राकृतिक जमाव मानते हैं, और इसे भी दो भागों बसावटी एवं गैर बसावटी में विभाजित करते हैं, फिर बताते हैं कि लम्बे अर्से तक जगह वीरान रही, फिर बाढ़ से कुछ परतंे बनीं तत्पश्चात आबादी हुई। जगह को ऊँचा करते रहने के भी प्रमाण मिले। श्री बी0बी0 लाल द्वारा खुदाई के हवाले से बताते हैं कि यह क्षेत्र बाढ़ प्रभावित रहा है जिसकी सुरक्षा में ‘फोर्टीफिकेशन वाल’ का भी अवशेष मिला था। प्रो0 मंडल का यह कहना है-‘‘संभावना है कि बाढ़ प्रकोप से सुरक्षा प्रदान करने हेतु ही इस स्थल को बार-बार ऊँचा करने की आवश्यकता पड़ी। इस घटनाक्रम में एक समय ऐसा भी आया कि बाढ़ के कारण यहाँ के लोगो को बाध्य होकर एक लम्बे समय के लिए यह स्थान ही त्याग देना पड़ा।’’
- विजय प्रताप सिंह (एडवोकेट)
1 टिप्पणी:
एक वेवकूफ़ी की रिपोर्ट जिससे कुछ भी सिद्ध नहीं होता...
एक टिप्पणी भेजें