बुधवार, 6 अप्रैल 2011

हिन्दुत्व का ‘असीम’ आतंक भाग 3

निश्चित ही असीमानन्द की अदालत के सामने की गई अपराधस्वीकृति ने न केवल मालेगाँव 2006, समझौता एक्स्प्रेस बम धमाके तथा अजमेर एवम् मक्का मस्जिद बम धमाके में अब तक चली जाँच को नए सिरे से खोलने का रास्ता सुगम किया है बल्कि ऐसे अन्य आतंकी हमलों की जाँच पर भी नई रौशनी डाली है, जिनके कोई सुराग अभी नहीं ढूँढे जा सके थे। प्रश्न उठता है कि क्या अब असली कातिलों तक, आतंकी घटनाओं के असली मास्टरमाइंड हिन्दुत्ववादी संगठनों के बड़े लीडरों तक जाँच की आँच पहुँच सकेगी। हमें नहीं भूलना चाहिए कि हेमन्त करकरे की अगुआई में जब मालेगाँव 2008 के बम धमाके में जाँच ने गति पकड़ी थी तब यह तथ्य भी उजागर हुआ था कि विश्व हिन्दू परिषद के लीडर भाई तोगडि़या ने भी कर्नल पुरोहित के साथ कई बैठकें की थीं।
सबसे पहले यह जरूरी होगा कि इन घटनाओं को अंजाम देने के नाम पर जिन मुस्लिम युवकों को पुलिस ने फर्जी थ्योरी बना कर जेल में डाल रखा है, उन्हंे तत्काल रिहा किया जाए और ऐसे सभी मुस्लिम युवक जिन्हें आतंकवाद के नाम पर फर्जी मुकदमों में फँसाया गया था, उनसे यह सरकार माफी माँगे। पिछले दिनों आस्टेªलिया सरकार ने भारतीय मूल के डाॅक्टर हनीफ को बिनाकारण बन्द किए जाने पर न केवल माफी माँगी थी बल्कि उन्हें मुआवजा भी दिया गया था।
दूसरे असीमानन्द के कबूलनामे ने पुलिस एवम् जाँच एजेंसियों के साम्प्रदायिक स्वरूप को भी बुरी तरह उजागर किया है। जरूरत है कि ऐसे सभी अधिकारियों जिन्होंने तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर फर्जी मुकदमे कायम करने में बढ़-चढ़ कर भूमिका अदा कीं, उन पर कार्रवाई हो।
तीसरे, इस कबूलनामे से यह भी स्पष्ट होता है कि जनतंत्र का प्रहरी बताए जाने-वाले मीडिया ने भी बेहद पक्षपाती रवैय्या अख्तियार किया था। मीडिया का कोई भी बड़ा सम्पादक या पत्रकार इन आरोपों से बच नहीं सकता कि उसने आतंकी घटनाओं के मामले में पुलिस एवम् प्रशासन का प्रवक्ता बनने तक अपनी भूमिका को सीमित किया था और ‘इस्लामिक आतंकवाद’ के नाम पर समूचे समुदाय का आतंकवादीकरण करने में जनद्रोही भूमिका निभाई थी।
चौथे, यह कोई पहला मौका नहीं है कि संघ परिवार का हिंसक, साम्प्रदायिक एवम् विनाशक राजनीति का चेहरा उजागर हुआ है। समझौता एक्स्प्रेस में उसके कार्यकर्ताओं की सहभागिता से बौखलाए संघ के सुप्रीमो से यह पूछा जाना चाहिए कि ऐसी आपराधिक कार्रवाइयों को अंजाम देकर न केवल उसने आतंकवाद विरोधी कार्रवाई को कमजोर किया है बल्कि पाकिस्तान के अतिवादी तबकों को-जो खुद आतंकी कार्रवाइयों में शामिल रहते हैं -नई वैधता प्रदान की है।
पाँचवे, असीमानन्द का कबूलनामा जहाँ संघ की जनद्रोही राजनीति के खिलाफ प्रशासनिक नकेल का रास्ता सुगम करता है, वहीं यह सेक्युलर ताकतों के सामने खड़ी विराट चुनौती को भी रेखांकित करता है। संघ एवम् उसके विश्वदृष्टिकोण के खिलाफ संघर्ष को राजनैतिक तौर पर जीतने की जरूरत है और उसके लिए व्यापक जनान्दोलन ही एकमात्र रास्ता है।
जानकारों के मुताबिक 1948 में महात्मा गांधी की हत्या में ‘परिवारजनों’ की संलिप्तता के आरोपों के बाद संघ को जिस संकट से गुजरना पड़ा था, उससे गम्भीर यह संकट है। अपनी सदस्यता सूची न रखने वाले संघ ने उस वक्त तो यह सफाई देकर बचने की कोशिश की थी कि नाथूराम गोड्से हमारा कार्यकर्ता नहीं था (यह अलग बात है कि फ्रण्टलाइन को दिए अपने साक्षात्कार में नाथूराम के छोटे भाई गोपाल गोड्से ने यह स्पष्ट किया था कि अन्त तक वह तथा नाथूराम दोनों संघ से जुड़े रहे थे) मगर अबकी बार जबकि परभणी, जालना, नांदेड़, मालेगाँव, तेनकासी, कानपुर, अजमेर, मक्का मस्जिद ’ हैदराबाद, समझौता एक्सप्रेस आदि तमाम आतंकी हमलों में संघ के कार्यकर्ताओं की सहभागिता के जो तथ्य सामने आ रहे हैं, उससे संघ के लिए बहुत मुश्किल साबित हो रहा है।
आतंकी/अपराधी घटनाओं में अपने कार्यकर्ताओं की संलिप्तता को लेकर संघ द्वारा दी जा रही सफाई निश्चित ही किसी के गले नहीं उतर रही है। वह उसके लिए बड़ा संकट है।
वैसे फौरी तौर पर उसके लिए सबसे बड़ी चुनौती उसके अपने कार्यकर्ता सुनील जोशी की संघ के लोगों द्वारा की गई हत्या है। मालूम हो कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं का आतंकी माॅड्यूल बनाने वाले और भोपाल से लेकर अजमेर, मक्का मस्जिद, समझौता एक्स्प्रेस आदि स्थानों पर बम विस्फोट कराने वाले सुनील जोशी की हत्या दिसम्बर 2007 में हुई थी, जिस पर से परदा अभी उठ रहा है। पिछले दिनों सुनील जोशी की हत्या के सबूत मिटाने में भूमिका निभाने वाले देवास के पार्षद रामचरण पटेल को भी गिरफ्तार किया गया है, और भी कइयों के सलाखों के पीछे जाने की सम्भावना है। संघ के कार्यकर्ता दबी जुबान से ही यह पूछने की हिम्मत कर रहे हैं कि इन्द्रेश कुमार को बचाने के लिए संघ की पूरी मशीनरी जुट जाती है, मगर सुनील जोशी की हत्या की जाँच भी नहीं की जाती।
ध्यान रहे कि सुनील जोशी की हत्या में संघ के उसके कार्यकर्ता ही नहीं बल्कि मध्यप्रदेश पुलिस महकमे के कई
अधिकारी भी फँस सकते हैं, जिन्होंने कहीं से संकेत पाकर फाइल बन्द करा दी थी।

- सुभाष गाताडे
समाप्त

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