सोमवार, 9 मई 2011

1० मई को प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम की वर्षगाठ मनाया जाना चाहिए




1० मई को प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम की वर्षगाठ मनाया जाना चाहिए
........................इसे राष्ट्रीय दिवस घोषित किया जाना चाहिए ...................
. वैश्वीकरण के वर्तमान दौर में इसकी प्रासंगिकता को भी समझा जाना चाहिए


1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 10 मई 1857 से शुरू हुआ था |इसकी शुरुआत सैन्य विद्रोह के रूप में मेरठ छावनी से हुई थी |मुख्यत: अंग्रेजी राज की हड्पो नीति के विरुद्ध खड़े हुए देशी रजवाडो से लेकर ब्रिटिश राज में प्रताड़ना ,भेदभाव आदि की विरुद्ध बगावत पर उतर आये सैनिको ,बेदखली का दंश झेल रहे तालुकेदारो व् किसानो ने युद्ध को आगे बढ़ाया |
उत्तर ,पूर्व एवं मध्य भारत के खासे बड़े हिस्से में खासकर अवध ,आगरा (वर्तमान उत्तर प्रदेश )के क्षेत्र में बिहार के पश्चिमी तथा मध्य प्रदेश के खासे बड़े क्षेत्र की बड़ी आबादी को ब्रिटिश राज के विरुद्ध युद्ध में उतार दिया था |फिर इस युद्ध में पुरे क्षेत्र के हिन्दुओं -मुसलमानों ने तमाम धार्मिक ,सामाजिक एवं सास्कृतिक दूरियों के वावजूद एक अभूतपूर्व राजनीतिक एकता भी स्थापित कर दिया था |दोनों धार्मिक समुदायों को उनके धार्मिक लीडरो को ब्रिटिश राज के विरुद्ध युद्ध में एक साथ खड़ा कर दिया था सदियों से जड बने और सुप्त पड़े इस क्षेत्र को जगाकर युद्ध में उतार देने का श्रेय 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के नाम दर्ज़ हैं |हिन्दू -मुस्लिम समुदाय को तथा रियासतदारो ,जागीरदारों के समुदाय को किसानो -दस्तकारो के समुदाय को तथा खासे बड़े सैन्य समुदाय को ,अंग्रेजी राज को हटाने -मिटने के लक्ष्य से एक साथ खड़ा कर देने का श्रेय नि :संदेह 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संघर्ष को हैं |
यह युद्ध देश व्यापी नही था |बंगाल से लेकर दक्षिण भारत तथा राजस्थान व् पंजाब का खासा हिस्सा इससे अप्रभावित था |इसके बावजूद आधुनिक राष्ट्र के रूप में खड़े हो रहे हिंदुस्तान का स्वतंत्रता संघर्ष था |
इसका सबसे बड़ा सबूत तो यह है की इसने पुरे देश पर प्रभुत्व जमाए और पुरे देश का शोषण ,लुट करती- करवाती ब्रिटिश सत्ता -सरकार को उखाड़ देने का प्रयास किया था |विदेशी राज और व्यापार के साथ ,विदेशी धर्म ,संस्कृति को भी जड से उखाड़ देने का प्रयास किया था |बेशक १८५७ख़ युद्ध में शामिल हुए विभिन्न वर्गो के लोगो के हित एक जैसे नही थे |अलग -अलग और परस्पर विरोधी भी थे |परन्तु उनमे एकजुटता और समर्थन का आधार विदेशी शासन सत्ता को उखाड़ फेकने में जरुर निहित था ..

अंग्रेजी राजके विरुद्ध विद्रोह १८५७श्र पहले भी होतेराहे थे |१७५७मेन् कम्पनी राज की स्थपना के बाद १७७० में हुए सन्यासी विद्रोह से लेकर १८५६ तक चले संथाल विद्रोह के बीच विभिन्न क्षेत्रो से उठने वाले धार्मिक व् क्षेत्रीय विद्रोहों की एक पूरी श्रृखला मौजूद है |
यह कहना एकदम ठीक है कि ,१८५७ का संग्राम इन सरे विद्रोहों ,युधो कि एक अगली कड़ी थी और उनकी चरम परिणिति भी | नि :संदेहइन सरे विद्रोहों और १८५७ के
महाविद्रोहो के कारण ब्रिटिश हुकूमत तथा ब्रिटिश व्यापारी द्वारा देश के शोषण ,लुट व् प्रुभुत्व में ,देशवासियों पर ढाये जा रहे अन्याय अत्याचार में तथा नस्ली व् धार्मिक उत्पीडन आदि में निहित था |१० मई १८५७ख़ शुरू हुआ यह महाविद्रोह सबसे पहले मेरठ छावनी के सैन्य विद्रोह के रूप में प्रकट हुआ |इसका तात्कालिक कारण मेरठ छावनी के ८९ सैनिको द्वारा गायव् सूअर कि चर्बी वाले कारतूसो के इस्तेमाल करने से साफ़ तौर पर मना किया जाना था |इन सैनिको के कोर्टमार्शल के बाद मेरठ छावनी से उठे इस विद्रोह ने अलगे दिन ही अंग्रेजो से दिल्ली कि हुकमत छीनकर उसे उसके पुराने व् अंतिम मुगलिया वारिश बहादुर शाह जफर
के हाथो में दे दिया |फिर तो इस विद्रोह ने साल भर से उपर चले ,महायुद्ध का रूप ले लिया |भयानक खून -खराबे ,कत्लो -गारत ,जुलम -अत्याचार ,वफादारी -गद्दारी का एक अलग व् अभूतपूर्व इतिहास बना |निहायत संगठित और आधुनिक अस्त्र शस्त्र से लैश तथा उसके देशी हिमायतियो के भरपूर सहयोग के वावजूद अंग्रेजी फ़ौज को कई बार भारी पराजय का सामना करना पड़ा |
लेकिन अंतत: १८५७ख़ इस महा विद्रोह को पराजित होना पड़ा |।

भले ही १८५७ का विद्रोह सैन्य युद्ध में पराजित हो गया ,लेकिन उसने यहा के प्रतिकार शून्य समाज को ब्रिटिश सत्ता के मुकाबले में हमेशा के लिए खड़ा कर दिया |देशवासियों में रास्ट्र के प्रबुद्ध हिस्सों में आधुनिक युग के राष्ट्रवाद की भावनाओं को जगा दिया |राष्ट्र प्रेम व् राष्ट्रवाद के बीजो को अंकुरित कर दिया |बाद के दौर में इस राष्ट्र प्रेम के इन अंकुरित बीजो को राष्ट्रवादियो व् कार्न्तिकरियो ने ,गदर पार्टी के रूप से सीचकर राष्ट्रवाद के वृक्ष में बदल दिया |यदि राष्ट्रीयता के विकास के दृष्टि से इसे देखा जाए तो १८५७ख़ युद्ध में हमे पराजय के बदले राष्ट्रवाद का पनपता ,फैलता वृक्ष भी मिला |
लेकिन १९२० -२१ के बाद ब्रिटिश कम्पनियों के साथ हिन्दुस्तानी कम्पनियों की बदती साठ-गाठव् सहयोग ने और फिर उसी अनुसार राजनीति में ब्रिटिश हुकमत और कांग्रेस के बीच होते रहे समझोते ने १८५७ के महत्व को धूमिल कर दिया |उसे महज इतिहास का विषय बना दिया |इसके दो तथ्यगत सबूतों को आप देख व् समझ सकते है |
पहले सबूत है ,मार्च १९२९ में गाँधी जी की लिखी भूमिका के साथ प्रकाशित हुई ,सुदरलाल की पुस्तक "भारत में अंग्रेजी राज "|इस पुस्तक में १८५७ के संघर्ष तक के इतिहास को ही विषय बनाया गया है |
इस पुस्तक के अन्तिम पृष्ठ पर संदेश दिया गया है कि-"हमारी अन्तिम सफलता की कुंजी यह है कि हम किसी भी कदम पर जीवन के सर्वोच्च आदर्श ,अहिंसा से डगमगाए नही |.....स्वाभाविक तौर पर यह संदेश ,१८५७ के स्वतंत्रता समर को बीते युग कि घटना के रूप में ही समाप्त कर देने का सन्देश है |कयोकियह १८५७ के घोर हिंसात्मक युद्ध के विपरीत अहिंसा के रस्ते पर चलने कि ताकीद करता है |इसीलिए इस पुस्तक पर लगा प्रतिबन्ध भी १९३७ में अंग्रेजी राज द्वारा हटा लिया गया |गाँधी जी एवं एनी कांग्रेसी लीडरो द्वारा इसे हटाने के लिए भारी प्रयास भी किया गया | जबकि विनायक दामोदर सावरकर कि लन्दन में लिखी किताब "१८५७ का प्रथम स्वतंत्रता समर " पर उसी समय से लगा प्रतिबन्ध व् जप्ती जारी रही |उसे १९४७ के बाद ही हटाया गया |
दूसरा सबूत १८५७ में कांग्रेस की केन्द्रीय सरकार में शिक्षा मंत्री और प्रसिद्ध कांग्रेसी स्वतंत्रता सेनानी मौलाना अबुल कलाम द्वारा इतिहासकार एस .एन सेन की किताब "एट्टींन फिफ्टीन सेवन " की भूमिका में मौजूद है |उन्होंने स्पष्ट लिखा है की "१०० साल पहले के इतिहास में घटित युद्ध से राजनितिक प्रेरणा लेने का समय बीत चूका है |भारत और ब्रिटिश के बीच की राजनितिक समस्या को आपसी बात -चीतव् समझौते से सुलझा लिया गया है |......... भारत ब्रिटिश सम्बन्धो में बीते काल की कडवाहट अब नही रही |................
जाहिर सी बात है की ,यह विचार केवल श्री मौलाना आजाद के नही है ,बल्कि १९४७ में भारत -पाकिस्तान विभाजन के बाद सत्ता सरकार में छड़ी कांग्रेसी सरकार और लीग सरकार के भी है |कयोकि उन्होंने १८५७ में ब्रिटिश राज ,व्यापार ,संस्कृति आदि के विरुद्ध संघर्षो के रास्ते का पूरी तरह परित्याग कर दिया था |१८५७ ने युद्ध के बाद खड़े हुए राष्ट्रवाद के वृक्ष को १९२०-२१ के बाद से काट -छाट कर छिन्न-भिन्न कर देने का ही काम किया था | इस दौर में हिन्दुस्तानी धनाड्य तबको एवं धनाड्य कम्पनियों द्वारा ब्रिटिश कम्पनियों और ब्रिटिश राज के साथ पूंजी ,तकनीक वाणिज्य ,व्यापार के साथ के साथ होते समझौते भी संघर्षशील राष्ट्रवाद के इस वृक्ष को पूरा काटकर धराशायी कर दिया |राष्ट्रवाद के लिए हुए संघर्ष को ,राज को लुटने -पाटने के समझौते में बदल दिया गया |स्वतंत्रता के इस समझौते के अंतर्गत ब्रिटिश औधोगिक ,व्यापारिक एवं महाजनी कम्पनियों द्वारा तथा सामार्ज्यी ताकतों द्वारा इस देश का शोषण व् लुट करने और इसे अपने ऊपर निर्भर बनाते जाने का काम आगे बढ़ाया जाता रहा |वह भी इस देश की धनाड्य कम्पनियों सरकारों एवं उच्च तबको के साथ साठ -गाठ व् सहयोग से |
आज वही सहयोग १९८०-८५ के बाद की विश्वीकरण नीतियों के रूप में हमारे सामने है |
बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा पिछले २० सालो में देश के केन्द्रीय व् प्रांतीय सरकारों से हर तरह की छुट व् अधिकार लिए जाते रहे है |उनकी लुट को खुलेआम बढ़ाया जाता रहा है |
देश पर विदेशी खासकर अमेरिकी प्रभुत्व को स्पष्ट रूप से बढ़ाया जाता रहा |
इन्ही समझौतों ,सम्बन्धो नीतियों ,प्रस्तावों के फलस्वरूप देश के धनाड्य एवं उच्च वर्गो की ऊँचाइया बढती रही है |साधारण मजदूरों ,किसानो ,छोटे कारोबारियों एवं अन्य निम्न मध्यम वर्गियो की रोजी रोटी का संकट भी तेजी से बढ़ता जा रहा है |इसलिए इस देश के जनसाधारण के लिए विदेशी व्यापार ,विदेशी प्रभुत्व ,विदेशी संस्कृति के खिलाफ लड़ा1857 का युद्ध केवल इतिहास नही है |वह आज भी ढ़ते औसाम्राज्यी ताकतों के बधोगिक ,व्यापारिक ,वित्तीय लूट व् प्रभुत्व के विरोध के लिए प्रासगिक है प्रेरणादायक है |इसीलिए देश के जनसाधारण में १० मई

के रूप में १८५७ को मनाने और उससे आज के संघर्षो के लिए मार्ग दर्शन लेने की जरूरत है |.......
.......सुनील दत्ता
09415370672





2 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आज दस मई है!
आइए इसे दास मई के रूप में मनाएँ!

vijai Rajbali Mathur ने कहा…

बेहद अनुकूल सुझाव है जिस पर अमल करना राष्ट्र-भक्ति का परिचायक होगा.'क्रान्तिस्वर'पर भी इस सम्बन्ध में एक लेख है..

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