समकालीन शब्दों की सूची में एक महत्वपूर्ण शब्द है “भ्रष्टाचार’ और देश के तंत्र में भी यह उतने ही महत्वपूर्ण तौर पर चल फिर रहा है। भ्रष्ट, आचरण के संधि से बने इस शब्द से वह आशय नहीं निकल पाता जो यह देश के सभी संस्थानों में अपने प्रवृत्ति और गतिविधि के आधार पर देता है। शायद पूँजीवादी सत्ता की यह आखिरी उम्मीद होती है जहाँ वह अपनी सारी खामियों को भ्रष्टाचार के तहत घोल देती है। यह प्रचार आजकल जोरों पर है, देश के प्रथम नागरिक से लेकर देश का बड़ा, मध्यम वर्ग इसी प्रचार में अपनी सहभागिता निभा रहा है। अगर भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकपाल बिल लाने के लिए अन्ना के आंदोलन को देश का सबसे बड़ा समर्थन मिला तो इस बिना पर यह कहा जा सकता है कि पँूजीवाद को बचाने का यह सबसे बड़ा प्रचार अभियान भी था। जहाँ प्रचार का माध्यम सिर्फ तकनीकी मीडिया नहीं बल्कि समाज के लोग बने। देश के आखिरी पंक्ति का आदमी अनपढ़ होने के बावजूद अपनी चेतना और परिस्थिति के मुताबिक माओवादियों के साथ इस व्यवस्था के खिलाफ दशक पहले ही लड़ाई के लिए खड़ा हो गया है. लिहाजा लड़ाइयाँ दो स्तरों की हैं जहाँ भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान इस व्यव्स्था को सही ठहराते हुए जड़ के बजाए सूखी हुई पत्तियों को पकड़ रहा है। जबकि दूसरी तरफ जड़ें पहले ही पकड़ी जा चुकी हैं। पूरे देश का मध्यम वर्ग जो रोज-बरोज महँगी होती चीजों से जूझ रहा है, भ्रष्टाचार में लिप्त उसे एक ऐसा वर्ग दिख रहा है जो काले धन और घोटालों के बदौलत मौज कर रहा है।
दरअसल उसे इस वर्गीय श्रेष्ठता या रौब जो छोटे से उच्च वर्ग में मौज मस्ती के साथ विराजमान है, से कोफ्त है और वह इन सबके निचोड़ के रूप में महज भ्रष्टाचार को ही देख पा रहा है। उसे लग रहा है कि इस जन लोकपाल बिल के आ जाने से भ्रष्टाचार मिट सा जाएगा। वह इसलिए इस अभियान में शामिल हो रहा है क्योंकि अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में वह इसे भुगत रहा है। वह शायद इसलिए भी सामने आ रहा है कि इस आंदोलन को गैर राजनैतिक रूप में पेश करने का प्रयास किया गया। इस लिहाज से यह एक महत्वपूर्ण बात देखी जा सकती है कि आज भारतीय जन मानस राजनीति से कितना परहेज सा करने लगा है। वह अब अपने जुमलों में ही महज राजनीति को गाली नहीं देता बल्कि गैर राजनीति के समर्थन में उतर रहा है। अफसोस की बात यह भी है कि इस आंदोलन के कई अगुवा और खुद अन्ना हजारे भी इसे गैर राजनैतिक ही मानते है और अंततः मोदी और नीतीश के समर्थन में खड़े हो जाते हैं। अलबत्ता यह जरूर है कि यहाँ कुछ भी गैर राजनैतिक नहीं हो रहा। यह एक ऐसा मंच बन गया है जिसे भ्रष्टों द्वारा भ्रष्टाचारियों के विरुद्ध अभियान कहा जा सकता है। खुद अपने विरुद्ध खड़े हो जाना और अपने को बचा लेना, कुछ व्यक्तिगत ईमानदारों को छोड़ दिया जाए तो आलम यही है, आंदोलन में एन.जी.ओ., ए.बी.वी.पी. और कार्पोरेट से मिले समर्थन इस बात को ही पुख्ता करते हैं। ‘‘मनमोहन सिंह अगर वोट चाहिए तो जन लोकपाल बिल लाइए’’ यहाँ कांग्रेस के अगले चुनाव की तैयारी भी है, नए और कुटिल तरीके से बेशक अब लोकपाल बिल का आना तय हो चुका है, भले ही बनाई गई कमेटी पर सवाल उठ रहे हैं।
लोगों का अराजनैतिक होना महज इस व्यवस्था की राजनीति से ही अराजनैतिक होना है, ऐसी संसदीय राजनीति, जिसकी बुराइयाँ करने से भी लोग ऊब चुके हैं, ऐसे में विकल्पों के चुनाव के तौर पर यह बड़ी संभावना बनती है कि वे कुछ नया तलाशें. इस रूप में जिस अराजनीति के तहत वे देश में नैतिक जिम्मेदारी को अपनाते हुए विकल्प की तलाश कर रहे हैं वह गैर संसदीय राजनीति है न कि गैर राजनैतिक सरकार को इस वैकल्पिक चुनाव का भय है और वह केवल अन्ना नहीं हो सकते, यदि लोग अन्ना या अन्ना जैसे लोगों के साथ आते हैं तो बेशक यह किसी भी रूप में तंत्र और देश की सरकार के साथ ही आना होगा, जबकि भ्रष्टाचार का मसला कुछ कानूनों से नहीं इस तंत्र से जुड़ा हुआ है, अन्ना इस तंत्र के अंदर की एक लड़ाई लड़ रहे हैं, जिसकी जीत अंततः एक झाँसे के तहत कुछ दिन के लिए तंत्र में एक नई आस्था ही पैदा करेगी, इसके अलावा सत्ता को सबसे बड़ा खतरा उनसे है जो इस तंत्र में यकीन ही नहीं करते, जिन्होंने भ्रष्टाचार और निजी पूँजी के गठजोड़ की जड़ को पकड़ा है और देश के सबसे बड़े खतरे के रूप में राज्य उन्हें देख रही है, जिन्हें शायद भ्रष्टाचार के तहत ढाँचे के पूरे पुर्जे खोलने व लोगों के सामने रखने में मदद मिले, एक बड़ा युवा वर्ग जो देश के प्रति नैतिक भक्ति रखता है और विश्वविद्यालयों में पढ़ता है वह जंतर-मंतर को तहरीर चैक बनाने की बात इसलिए कर रहा है कि हाल के दिनों में अरब जगत के आंदोलनों और वहाँ की जन भागीदारी ने जो बदलाव दिखाए हैं यही उसमें एक मानसिकता को निर्मित कर रहा है।
देश के अंदर पिछले वर्षों में घटे शायद वे बहुत कम भ्रष्टाचार और घोटाले रहे होगें जो अभी हाल में सामने आए, एक के बाद एक लगातार प्रधानमंत्री के उस मीडिया सम्बोधन के बाद अचानक घोटालों का आना बंद भी हो गया, यह बात थोड़ा शक पैदा करती है, जो घोटाले पूर्व में उजागर हुए थे उनमें मीडिया ने महत्वपूर्ण भागीदारी निभाई थी, दोनों तरफ से पहले करने-कराने में फिर सामने लाने में, यहाँ कानूनी प्रक्रिया को लेकर देश के सामने एक महत्वपूर्ण सवाल है कि बिल लाने या संवैधानिक होने से यदि समस्याएँ निपट जाती तो शायद देश को अब तक समाजवादी हो जाना था, गैरबराबरी मिट जानी थी, लोगों को धर्मनिरपेक्ष हो जाना था पर ऐसा नहीं हो सका, आने वाले वर्षों मंे कुछ लोग ऐसा होने की उम्मीद रख सकते हैं, जबकि इस संविधान के साथ संसदीय लोकतंत्र और संविधान निर्माण की वह सदी बीत गई, जब नरेन्द्र मोदी अपने असली रूप में निखरे, अंबानी और देश के कई कार्पोरेट इस सदी में ही दुनिया के अमीरों की सूची में आए, किसानों ने ज्यादा आत्महत्या करना इसी सदी में शुरु किया, यह सब समानता आधारित संविधान बनने के 50 वर्षों के बाद हुआ, लिहाजा कानून की किताब उलटवासी हो गई, बस्तर के आदिवासी और आडवानी के साथ इस देश के न्यायालय तक का सुलूक अलग-अलग रहा, शायद यह बिल पास हो जाए तो मध्यम वर्ग की नौकरी करने वाला और महँगाई की मार से पेट न भर पाने के कारण भ्रष्टाचार करने वाला अब सजा के लिए भी तैयार रहे, उसकी जिंदगी जीने की शर्त के रूप में भ्रष्टाचार जुड़ा है, उसका स्वरूप छोटा और बड़ा हो सकता है, ऊपरी स्तर पर गलतियाँ पकड़ी जानी मुश्किल हैं, यदि ऐसा हो भी गया तो उसे सामने लाना शायद और मुश्किल है इस भ्रष्टता का मामला तंत्र से बनता है, पूँजी केन्द्रीयता, तमाम अपराधियों को मिली सजाओं के बाद भी घोटालों को नहीं रोक सकती, उच्च स्तर से निम्न स्तर तक, क्योंकि उच्च स्तर वाले को अपनी उच्चता बनाए रखने के लिए यह जरूरी है और निम्न स्तर वाले को अपनी जिंदगी व जीवन शैली के लिए, भ्रष्टाचार देश में नहीं बल्कि उसके तंत्र में होता है जो उसे चला रहा होता है, लोकपाल बिल इसी तंत्र में आएगा, काजल की कोठरी में एक सफेद कपड़े की तरह।
-चन्द्रिका
मो0:- 09890987458
दरअसल उसे इस वर्गीय श्रेष्ठता या रौब जो छोटे से उच्च वर्ग में मौज मस्ती के साथ विराजमान है, से कोफ्त है और वह इन सबके निचोड़ के रूप में महज भ्रष्टाचार को ही देख पा रहा है। उसे लग रहा है कि इस जन लोकपाल बिल के आ जाने से भ्रष्टाचार मिट सा जाएगा। वह इसलिए इस अभियान में शामिल हो रहा है क्योंकि अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में वह इसे भुगत रहा है। वह शायद इसलिए भी सामने आ रहा है कि इस आंदोलन को गैर राजनैतिक रूप में पेश करने का प्रयास किया गया। इस लिहाज से यह एक महत्वपूर्ण बात देखी जा सकती है कि आज भारतीय जन मानस राजनीति से कितना परहेज सा करने लगा है। वह अब अपने जुमलों में ही महज राजनीति को गाली नहीं देता बल्कि गैर राजनीति के समर्थन में उतर रहा है। अफसोस की बात यह भी है कि इस आंदोलन के कई अगुवा और खुद अन्ना हजारे भी इसे गैर राजनैतिक ही मानते है और अंततः मोदी और नीतीश के समर्थन में खड़े हो जाते हैं। अलबत्ता यह जरूर है कि यहाँ कुछ भी गैर राजनैतिक नहीं हो रहा। यह एक ऐसा मंच बन गया है जिसे भ्रष्टों द्वारा भ्रष्टाचारियों के विरुद्ध अभियान कहा जा सकता है। खुद अपने विरुद्ध खड़े हो जाना और अपने को बचा लेना, कुछ व्यक्तिगत ईमानदारों को छोड़ दिया जाए तो आलम यही है, आंदोलन में एन.जी.ओ., ए.बी.वी.पी. और कार्पोरेट से मिले समर्थन इस बात को ही पुख्ता करते हैं। ‘‘मनमोहन सिंह अगर वोट चाहिए तो जन लोकपाल बिल लाइए’’ यहाँ कांग्रेस के अगले चुनाव की तैयारी भी है, नए और कुटिल तरीके से बेशक अब लोकपाल बिल का आना तय हो चुका है, भले ही बनाई गई कमेटी पर सवाल उठ रहे हैं।
लोगों का अराजनैतिक होना महज इस व्यवस्था की राजनीति से ही अराजनैतिक होना है, ऐसी संसदीय राजनीति, जिसकी बुराइयाँ करने से भी लोग ऊब चुके हैं, ऐसे में विकल्पों के चुनाव के तौर पर यह बड़ी संभावना बनती है कि वे कुछ नया तलाशें. इस रूप में जिस अराजनीति के तहत वे देश में नैतिक जिम्मेदारी को अपनाते हुए विकल्प की तलाश कर रहे हैं वह गैर संसदीय राजनीति है न कि गैर राजनैतिक सरकार को इस वैकल्पिक चुनाव का भय है और वह केवल अन्ना नहीं हो सकते, यदि लोग अन्ना या अन्ना जैसे लोगों के साथ आते हैं तो बेशक यह किसी भी रूप में तंत्र और देश की सरकार के साथ ही आना होगा, जबकि भ्रष्टाचार का मसला कुछ कानूनों से नहीं इस तंत्र से जुड़ा हुआ है, अन्ना इस तंत्र के अंदर की एक लड़ाई लड़ रहे हैं, जिसकी जीत अंततः एक झाँसे के तहत कुछ दिन के लिए तंत्र में एक नई आस्था ही पैदा करेगी, इसके अलावा सत्ता को सबसे बड़ा खतरा उनसे है जो इस तंत्र में यकीन ही नहीं करते, जिन्होंने भ्रष्टाचार और निजी पूँजी के गठजोड़ की जड़ को पकड़ा है और देश के सबसे बड़े खतरे के रूप में राज्य उन्हें देख रही है, जिन्हें शायद भ्रष्टाचार के तहत ढाँचे के पूरे पुर्जे खोलने व लोगों के सामने रखने में मदद मिले, एक बड़ा युवा वर्ग जो देश के प्रति नैतिक भक्ति रखता है और विश्वविद्यालयों में पढ़ता है वह जंतर-मंतर को तहरीर चैक बनाने की बात इसलिए कर रहा है कि हाल के दिनों में अरब जगत के आंदोलनों और वहाँ की जन भागीदारी ने जो बदलाव दिखाए हैं यही उसमें एक मानसिकता को निर्मित कर रहा है।
देश के अंदर पिछले वर्षों में घटे शायद वे बहुत कम भ्रष्टाचार और घोटाले रहे होगें जो अभी हाल में सामने आए, एक के बाद एक लगातार प्रधानमंत्री के उस मीडिया सम्बोधन के बाद अचानक घोटालों का आना बंद भी हो गया, यह बात थोड़ा शक पैदा करती है, जो घोटाले पूर्व में उजागर हुए थे उनमें मीडिया ने महत्वपूर्ण भागीदारी निभाई थी, दोनों तरफ से पहले करने-कराने में फिर सामने लाने में, यहाँ कानूनी प्रक्रिया को लेकर देश के सामने एक महत्वपूर्ण सवाल है कि बिल लाने या संवैधानिक होने से यदि समस्याएँ निपट जाती तो शायद देश को अब तक समाजवादी हो जाना था, गैरबराबरी मिट जानी थी, लोगों को धर्मनिरपेक्ष हो जाना था पर ऐसा नहीं हो सका, आने वाले वर्षों मंे कुछ लोग ऐसा होने की उम्मीद रख सकते हैं, जबकि इस संविधान के साथ संसदीय लोकतंत्र और संविधान निर्माण की वह सदी बीत गई, जब नरेन्द्र मोदी अपने असली रूप में निखरे, अंबानी और देश के कई कार्पोरेट इस सदी में ही दुनिया के अमीरों की सूची में आए, किसानों ने ज्यादा आत्महत्या करना इसी सदी में शुरु किया, यह सब समानता आधारित संविधान बनने के 50 वर्षों के बाद हुआ, लिहाजा कानून की किताब उलटवासी हो गई, बस्तर के आदिवासी और आडवानी के साथ इस देश के न्यायालय तक का सुलूक अलग-अलग रहा, शायद यह बिल पास हो जाए तो मध्यम वर्ग की नौकरी करने वाला और महँगाई की मार से पेट न भर पाने के कारण भ्रष्टाचार करने वाला अब सजा के लिए भी तैयार रहे, उसकी जिंदगी जीने की शर्त के रूप में भ्रष्टाचार जुड़ा है, उसका स्वरूप छोटा और बड़ा हो सकता है, ऊपरी स्तर पर गलतियाँ पकड़ी जानी मुश्किल हैं, यदि ऐसा हो भी गया तो उसे सामने लाना शायद और मुश्किल है इस भ्रष्टता का मामला तंत्र से बनता है, पूँजी केन्द्रीयता, तमाम अपराधियों को मिली सजाओं के बाद भी घोटालों को नहीं रोक सकती, उच्च स्तर से निम्न स्तर तक, क्योंकि उच्च स्तर वाले को अपनी उच्चता बनाए रखने के लिए यह जरूरी है और निम्न स्तर वाले को अपनी जिंदगी व जीवन शैली के लिए, भ्रष्टाचार देश में नहीं बल्कि उसके तंत्र में होता है जो उसे चला रहा होता है, लोकपाल बिल इसी तंत्र में आएगा, काजल की कोठरी में एक सफेद कपड़े की तरह।
-चन्द्रिका
मो0:- 09890987458
3 टिप्पणियां:
जब राजनीति बदनाम हो जाती है तो अराजनैतिक संघर्ष, संगठन आदि नामों से राजनीति चलाई जाती है। पूंजीवाद की मजबूरी है।
लेख एकदम सटीक है.नासमझ इसे भी नहीं समझ पायेंगे.
लोकपाल बिल इसी तंत्र में आएगा, काजल की कोठरी में एक सफेद कपड़े की तरह।---- बहुत अच्छा विश्लेशण।
एक टिप्पणी भेजें