रविवार, 19 जून 2011

नील -आन्दोलन और किसानो के लिए सबक

इस देश में नील की खेती की शुरुवात फ्रांसीसियो ने की थी लेकिन अंग्रेजो ने उसे आगे बढाया |1778 में कैरेल ब्लूम नामक अंग्रेज ने ईस्ट इंडिया कम्पनी के गवर्नर जनरल से बड़े पैमाने पर नील की खेती करने का अनुरोध किया |इसे कम्पनी के लिए बड़े मुनाफे का साधन बताया | ब्रिटेन में औद्योगिक क्रांति के बाद ,कपड़ो में डालने के लिए नील की मांग फ़्रांस ,इटली ,आस्ट्रेलिया ,मिस्र व ईरान आदि देशो में भी बढ रही थी |इसीलिए कम्पनी सरकार ने नील की खेती को बढावा दिया| बंगाल और बिहा इसकी खेती के प्रमुख क्षेत्र बने |इसके अलावा उड़ीसा ,बनारस ,इलाहाबाद ,गाजीपुर आदि जगहों पर नील उत्पादन को बढावा दिया गया |नील की खेती के अंग्रेज मालिको को लोग निलहे साहब कहकर सम्बोधित करते थे |प्रारंभ में निलहे साहब किसानो से नील की खेती करवाते थे |फिर ईस्ट इंडिया कम्पनी को बेच देते थे |कम्पनी उसे ब्रिटेन तथा अन्य देशो को निर्यात करके भारी लाभ कमाती थी |निलहे साहब किसानो को निहायत अन्याय पूर्ण अनुबंधो के साथ नील की खेती करने के लिए हर तरह की जोर जबरदस्ती को मजबूर कर देते थे |नील की खेती के लिए बीज आदि को किसानो को महगे कर्ज़ के रूप में देकर उनसे अत्यंत सस्ते मूल्य पर नील खरीद लेते थे |खेती का सारा खर्च भी किसानो से ही वसूलते थे |फलत: किसान कभी भी उनके कर्ज़ से मुक्त नही हो पाता था |समूचे नील उत्पादन को सौप देने के बावजूद कर्जो की पूरी अदायगी नही कर पाता था| बकाया कर्ज़ व ब्याज की राशि को निलहे साहबो द्वारा अगली बार की खेती के लिए ,दिए जाने वाले कर्जो में से काट लिया जाता था |फलस्वरूप किसानो पर कर्ज़ की रकम बढती जाती थी |व्यवहारत:उसे चुकता न कर पाने के कारण भी वह पुश्त दर पुश्त निलहे साहबो के साथ गुलाम की तरह बंधा रहता था |निलहे साहबो द्वारा इतिहास में कुख्यात भयंकर शोषण अत्याचार को बर्दाश्त करने के लिए मजबूर बना रहता था |कम्पनी की पुलिस -प्रशासन से लेकर निलहे साहबो के अपने लठैतो का दल -बल किसानो को नील की खेती के शोषण ,लूट ,अन्याय- अत्याचार को सहने के लिए मजबूर किये रहता था |१८३३ में ब्रिटेन की सरकार ने ईस्ट इंडिया कम्पनी की इजारेदारी खत्म कर दी |अब हर अंग्रेज को अधिकार दे दिया गया कि वह भारत में आ कर इस व्यवसाय के लिए बस सकता था |इसके फलस्वरूप अंग्रेजो ने बड़ी - बड़ी जमीदारिया खरीदकर उसमे नील की खेती शुरू कर दी |इन जमीदारियो में "बंगाल इडिगो कम्पनी " की जमीदारी सबसे बड़ी थी |उसने बंगाल के नदिया जिले के ५९४ गावो की जमीदारी हथिया ली थी |नील की इस बढती व्यावसायिक खेती ने उसमे लगे किसानो के भरण -पोषण व जीवन को अत्यंत कष्ट कर बना दिया था | नील किसानो की दुर्दशा को उस समय के बंगाली समाचार -पत्रों में बारम्बार उठाया गया |बंगाल के संभ्रांत व प्रबुद्ध हिस्से इन किसानो के ऊपर किये जा रहे भयंकर शोषण व अत्याचार को घटाने के लिए शासन -प्रशासन से अपील पर अपील करते रहे |1850 में रवीन्द्रनाथ टैगोर के पिता श्री देवेन्द्रनाथ टैगोर द्वारा स्थापित "तत्वबोधिनी "पत्रिका ने प्रकाशित किया -----" जो किसान जमीन में धान या दूसरा अन्न बोकर आसानी से सारे साल परिवार का पेट पाल सकता था |उसे निलहे साहब के नी बोने से कर्ज़ के मजबूत जाल के अलावा कुछ नही मिल पाता था |अत्यधिक शक्तिशाली निलहे साहबो की अनुमति के खिलाफ जाना दीन-दरिद्र प्रजा के लिए सम्भव नही है |......
बढ़ते शोषण अत्याचार के विरुद्ध नील की खेती करने वाले किसान १८५० के बाद से ही आंदोलित व संगठित हुए |वे नदिया जिले में वे पहले संगठित हुए |वंहा के कई गावो के किसानो ने नील की खेती न करने की शपथ ली |दो वर्ष (1858-60 )के भीतर ही नील की खेती न करने की शपथ का सिलसिला बंगाल के अन्य जिलो और गावो में भी फ़ैल गया |निलहे साहबो ने इसके विरोध में किसानो पर अत्याचार और जुल्म करना शुरू कर दिया |नील की खेती न करने को ढृढ़ निश्चयी आन्दोलन रुका नही |किसानो के अलावा बंगाली समाज के सुशिक्षित हिस्से का एक धडा भी नील किसानो की दुर्दशा और विरोध को लेखो ,नाटको ,गीतों के माध्यम से पूरे बंगाल के शहरी व ग्रामीण क्षेत्रो में फैलाने में लगा हुआ था |फलस्वरूप नील की खेती का विरोध नील मालिको और कम्पनी शासन के विरुद्ध विद्रोह का रूप लेने लगा था |
कम्पनी
सरकार ने भी मामले कि नजाकत को देखते हुए नील कमीशन नियुक्त कर दिया |

कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में नील किसानो पर होने वाले भारी शोषण ,अत्याचार को कबूलते हुए उनकी सुरक्षा के लिए कुछ सुझाव भी दिया |1860 में कमीशन ने अपनी रिपोर्ट दी| सुरक्षा के सुझाव के साथ भी बंगाल के किसान नील की खेती करने के लिए बिलकुल तैयार नही हुए |लिहाज़ा बंगाल में नील की खेती समाप्त हो गयी |किसानो के इस अहिंसात्मक ,परन्तु जोरदार आन्दोलन के साथ -साथ बंगाल से नील की खेती खत्म होने का एक दूसरा प्रमुख कारण यह भी था कि अब एनिलिन डाई से कृतिम नील बनाया जाने लगा था |इसके बावजूद नील की खेती पूरी तरह से खत्म नही हुई | बिहार में वह खेती अगले पचास सालो तक चलती रही |नील की खेती कम्पनी शासन के अंतर्गत शुरू हुई पहली बड़ी व्यावसायिक खेती थी |केवल औद्योगिक आवश्यकता के लिए की जाने वाली खेती थी |धनाढ्य व ताकतवर नील मालिको और गरीब तथा शक्तिहीन नील किसानो के बीच एक अनुबंध खेती थी |किसान के गाव -घर में उसका कोई इस्तेमाल नही था |जबकि इस खेती से नील मालिको ,नील कम्पनियों और ईस्ट इंडिया कम्पनी को लाभ ही लाभ था |ब्रिटिश राज द्वारा बनाये व लागू किये गये सारे कानूनों का लाभ भी मिल मालिको को मिलता था ,लेकिन किसानो को उन्ही कानूनों के तहत दंड का भागीदार होना पड़ता था |आन्दोलन के सिवाय उनके पास खेती और जीवन के बचाव का दूसरा कोई रास्ता नही रह गया था |आज १५० वर्ष बाद ,स्थितिया चाहे जितनी बदल गयी हो , लेकिन नील की खेती की वे चारित्रिक विशेषताए ज्यो -कि त्यों बनी हुई है और पहले से कंही ज्यादा व्यापक हो गयी है |बढ़ते बाजारवादी ,वैश्वीकरण के साथ पिछले २० सालो में तो कम्पनियों के द्वारा अपने बीजो के साथ ठेके पर खेती व अनुबंध खेती को खुलेआम बढावा दिया जा रहा है |फिर उसका नतीजा भी नील की खेती जैसा ही आ रहा है |कृषि के उत्पादन व्यापार में लगी देशी -विदेशी कम्पनिया व्यावसायिक व गैर व्यावसायिक फसलो से लाभ कमा रही है |परन्तु किसान कर्जो में फंसते जा रहे है |तबसे आज तक में फर्क है तो यह कि वह देश के बाजारवादी ,वैश्वीकरण का प्रारम्भिक दौर था | |इसे विदेशी ब्रिटिश राज द्वारा लागू किया जा रहा था |किसानो के नग्न शोषण के साथ ,पुलिस बलों ,लठैतो ,गुंडों के जरिये किसानो का भारी दमन भी होता रहा था |आज हम वैश्वीकरण के चरम विकास के दौर में है |हर तरह की खेती का व्यवसायी करण और अंतर्राष्ट्रीयकरण हो गया है |विदेशी कम्पनियों के साथ देश की धनाढ्य कम्पनिया ,देश की जनतांत्रिक कंही जाने वाली सत्ता -सरकारे ,आधुनिक खेती के साधनों और बाजारों के जरिये किसानो के शोषण ,लूट को बढाती जा रही है |तब से आज तक के दौर में एक फर्क और भी है ,वह यह कि उस समय के बंगाल के प्रबुद्ध संभ्रांत वर्ग का खास हिस्सा नील किसानो के समर्थन में खड़ा हो गया था |किन्तु आज का बौद्धिक व उच्च हिस्सा आमतौर पर किसानो के साथ खड़ा होने वाला नही है |उनकी बढती समस्याओं को उठाने वाला भी नही है |नील किसानो के पास भी संगठित होने और आंदोलित होने के लिए कोई रास्ता नही बचा था |आज के किसानो के पास भी खेती का ,जमीन का मालिकाना ले रही धनाढ्य कम्पनियों और सहायता -सहयोग दे रही सत्ता - सरकारों का विरोध करने और उसके लिए संगठित आन्दोलन चलाने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नही है |
फिर भी मुझे उम्मीद के रूप में दुष्यंत कुमार का एक शेर याद आ रहा है-

कुछ भी बन बस कायर मत बन ।
ठोकर मार पटक मत माथा
तेरी राह रोकते पाहन
कुछ भी बन बस कायर मत बन


-सुनील दत्ता
पत्रकार
09415370672

2 टिप्‍पणियां:

DR. ANWER JAMAL ने कहा…

Nice post.

पाताल लोक में कैसे पहुंचेगी हिंदी ब्लॉगिंग ? - Dr. Anwer Jamal

shyam gupta ने कहा…

----आपने महात्मा गांधी का फोटो तो लगाया है पर उनका कोइ ज़िक्र नहीं है...जहां तक मुझे ज्ञात है ...बिहार व यूपी में नील की खेती और उत्प्रीडन १९ वीं शताब्दी में भी चलता रहा..नील के अँगरेज़ जमीदारों को निलहे गोरे कहा जाता था......जब गांधीजी ने इस के विरुद्ध आंदोलन किया तब यह प्रथा पूरी तरह से समाप्त हुई .... आज भी यूपी के कुछ गांव में 'नील की कोठियां' बनी हुई हैं....

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