मंगलवार, 5 जुलाई 2011

भ्रष्टाचार विरोध, विभ्रम और यथार्थ भाग-2

यह अकारण नहीं है कि हजारे वर्ल्ड बैंक से लेकर एन0जी0ओ0 चलाने वालों और सरकारों के भी प्यारे हैं। उनका मानना है कि सरकारों को अपनी योजनाएँ प्रभावी रूप में लागू करने के लिए एन0जी0ओ0 कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित करना चाहिए। भारत की सरकारें आजकल यही चाहती हैं। सभी नवउदारवादी, देश को खुशहाल बनाने के सरकारों के एन0जी0ओ0 परस्त रास्ते का स्वागत और समर्थन करते हैं। सभी गांधीवादी भी करने लग जाएँ तो सरकारें और नेता खुश होंगे ही। आपको ध्यान होगा, नवउदारवाद विरोधी वयोवृद्ध गांधीवादी सिद्धराज ढड्डा को सरकार ने पद्म पुरस्कार देने की घोषणा की थी। उन्होंने वह स्वीकार नहीं किया था। वे कर ही नहीं सकते थे, क्योंकि वे नवउदारवाद विरोधी थे। किसी राजनैतिक पार्टी के सदस्य वे भी नहीं थे। देश की आजादी के तुरंत बाद वे राजस्थान सरकार में उद्योग राज्य मंत्री रहे। लेकिन जल्दी ही सर्वाेदय आंदोलन से जुड़ गए और 98 साल की उम्र पर्यंत अराजनैतिक ही रहे। कहने का आशय है कि अराजनैतिक होने से ही कोई अच्छा या बुरा नहीं हो जाता है। अलबत्ता, अराजनैतिक होना अक्सर सरकारी होना हो जाता है। यह दोनों हाथों में लड्डू होने जैसी स्थिति है। जिस राजनीति को बुरा बता कर अराजनैतिक होते हैं, उसी के साथ भी होते हैं। आगे हम देखेंगे कि प्रचलित राजनीति के परोक्ष समर्थन की यह प्रवृत्ति नई राजनीति के उद्भव में अवरोध का काम करती है।
हजारे के अनशन पर बैठने पर दिल्ली और दिल्ली के बाहर से लोग जंतर-मंतर पहुँचने लगे। जिस तरह एक के बाद एक घोटाले सामने आए और प्रधानमंत्री समेत सरकार ने लीपापोती का रवैय्या अपनाया, लोगों में उसके खिलाफ आक्रोश जमा हुआ था। मीडिया भी फुर्सत में था। जो हजारे अभी तक अपने गाँव और प्रदेश में ही ज्यादा जाने जाते थे, मीडिया की मार्फत उनकी छवि पूरे देश और विदेश तक प्रसारित हो गई। रामलीला मैदान में भ्रष्टाचार विरोधी रैली की असफलता से डरे आयोजकों को विश्वास हो गया कि इस बार चोट सही निशाने पर बैठी है। आयोजक और मीडिया दोनों जोशो-खरोश से मैदान में जम गए। इलैक्ट्रोनिक मीडिया के लगभग सभी चैनल लाइव कवरेज देने लगे और प्रिंट मीडिया के वे अखबार भी, जो भ्रष्टाचार के नए और पहले से कहीं विकराल स्रोत नवउदारवाद के पक्के झंडा बरदार हैं, भ्रष्टाचार विरोधी ‘आंदोलन’ की खबरों से लबालब भर गए। भ्रष्टाचार को खत्म कर डालने का जैसे बिगुल बज गया। लगा पूरा देश भ्रष्टाचार के विरुद्ध कमर कस कर खड़ा होने जा रहा है। एक अनशन-धरना को ‘आंदोलन’ बनते देर नहीं लगी!
दूसरे दिन शाम तक जंतर-मंतर पर हजारों का जमावड़ा हो गया। घरों पर बैठे लोग भी टी0वी0 चैनलों की मार्फत अनशन-स्थल से जुड़ गए। देश के कुछ अन्य शहरों से भी हजारे के समर्थन की खबरें आने लगीं। गाजे-बाजे निकल आए और लोग भ्रष्टाचार विरोध के मद में मस्त दिखाई दिए। ‘भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन’ की खबरों से चैनलों की टी0आर0पी0 आसमान छूने लगी। कुछ दिन पहले विश्व कप क्रिकेट की जंग में ‘इंडिया’ की जीत के जश्न की तरह, मीडिया ने भ्रष्टाचार की जंग जीतने का भारी जश्न मना डाला। वही लोग थे, वही मीडिया था। ‘आजादी की दूसरी लड़ाई’, ‘जे0पी0 के बाद सबसे बड़ा आंदोलन’, ‘भ्रष्टाचार के खिलाफ इंडिया की जंग की जीत में कुछ ही पलों का फासला’ जैसे जुमलों के हाँके के आगे सरकार पनाह माँगती नजर आई।
मीडिया की पूर्ण समर्थक भूमिका से ऐसा माहौल बना कि बहुत-से सामाजिक, नागरिक संगठनों, लेखकों, कलाकारों, बुद्धिजीवियों, युवाओं, स्वतंत्रता सेनानियों, प्रोपफेशनलों, फिल्मी सितारों, स्कूली बच्चों, सामान्य मध्यवर्गीय नागरिकों, यहाँ तक कि कई बाबाओं का समर्थन जंतर-मंतर पर हाजिर हो गया। आर0एस0एस0 के प्रवक्ता राम माधव समर्थन का लिखित पत्र लेकर हजारे की हाजिरी में हाजिर हो गए। जुटान देख कर जैसे मीडिया जोश में आता है, उसी तरह नेता भी उत्साहित होते हैं। राजनैतिक पार्टियों और नेताओं को लगा कि उन्होंने हजारे के अनशन का समर्थन नहीं किया तो मीडिया और राजनीति में पिछड़ जाएँगे। ओमप्रकाश चैटाला भी भ्रष्टाचार के खिलाफ अनशन को अपना समर्थन देने जंतर-मंतर पहुँच गए। वामपंथी और विकल्पवादी भी पीछे नहीं रहे। हमें एक बारगी डबका हुआ कि इस बहाव में कहीं नक्सलवादी भी समर्थन की चिठ्ठी न भेज दें! कांग्रेस ने शुरू में हजारे को आर0एस0एस0 का एजेंट बताया, लेकिन अगले ही दिन समर्थन का रुख स्पष्ट कर दिया। मुख्य धारा राजनीति के अंतर्गत मुख्य विपक्षी पार्टी होने के नाते भाजपा सत्तारूढ़ पार्टी के भ्रष्टाचार पर बयानबाजी और
धरना-प्रदर्शन करने में लगी थी। वह चाह रही थी कि भ्रष्टाचार बड़ा चुनावी मुद्दा बन जाए। उसका अभियान के साथ सबसे पहले जुटना स्वाभाविक था। भाजपा के समर्थन से वह सरकार न बिदक जाए, जिससे बात करने अथवा टूटने के बाद अनशन शुरू किया था, आयोजकों ने नेताओं को मंच पर बैठने से यह कह कर मना कर दिया कि ‘आंदोलन’ अराजनैतिक है। इससे समर्थकों के जोश में और भी वृद्धि हुई।
सरकारी लोकपाल विधेयक का मसौदा तैयार करने वाले मंत्री-समूह से शरद पवार के हटने पर जैसे साक्षात भ्रष्टाचार ही हट गया! ये वही शरद पवार हैं जो विश्व कप की जीत के जश्न में बतौर आई0सी0सी0 अध्यक्ष मीडिया और मध्यवर्ग को बड़े भले इंसान लग रहे थे। उस समय कोई कहने की हिम्मत दिखाता कि क्रिकेट भारत में भ्रष्टाचार का बड़ा खेल है और शरद पवार उसके एक बड़े ‘खिलाड़ी’, यही मीडिया और भारत का ‘महान’ मध्यवर्ग उसे देशद्रोही कह कर दौड़ा लेता। थोड़ा-सा और पीछे जाएँ तो देख सकते हैं कि आज भ्रष्टाचारी का कलंक ढोने वाले काॅमनवेल्थ खेलों की तैयारी समिति के अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी खेलों के दौरान मीडिया और मध्यवर्ग के हीरो थे। ‘ईमानदार’ प्रधानमंत्री और उनकी दिल्ली सरकार की मुख्यमंत्री के तो थे ही। हमने धरनों-प्रदर्शनों, परचों, पुस्तिकाओं, लेखों, प्रेस वार्ताओं, संगोष्ठियों की मार्फत देश को काॅमनवैल्थ खेलों में होने वाले भ्रष्टाचार की सच्चाई बताने की लाख कोशिश की, लेकिन न मीडिया साथ आया, न मध्यवर्ग।
टीवी देखते हुए या अखबार पढ़ते हुए अभियान पर कोई भी प्रश्नात्मक टिप्पणी करना उसी तरह भत्र्सना को आमंत्रित करना था जिस तरह राममंदिर आंदोलन और उसकी फलश्रुति बाबरी मस्जिद ध्वंस की आलोचना में कुछ बोलने पर परिवारी-पड़ोसी बंधुओं के कोप का भाजन होना होता था। हमें भी प्रियजनों द्वारा झिड़का गया और जंतर-मंतर जाने के लिए ठेला गया। लेकिन हम नहीं जा पाए। अलबत्ता गंभीर सोच में जरूर पड़ गए कि जिस देश में नागरिक समाज से लेकर राजनैतिक पार्टियों तक इतने भ्रष्टाचार विरोधी हैं, चाहे भावना के स्तर पर ही, वहाँ इतना भ्रष्टाचार कैसे हो जाता है? हमने यह भी सोचा कि 1990 के बाद से आज तक हुए सिलसिलेवार घोटालों के बावजूद भ्रष्टाचार को यौवन प्रदान करने वाले नवउदारवाद का उत्तरोत्तर समर्थन करते जाने वाले लोग अचानक भ्रष्टाचार के खिलाफ क्यों खड़े हो गए हैं? मानो भ्रष्टाचार एक ऊपरी बला है, जिसे एक सख्त कानून के सींखचे में बंद कर दिया जा सकता है। हमें यह भी लगा कि भ्रष्टाचार मिटाने के लिए स्वयं और सर्वोच्च शक्तिसंपन्न लोकपाल लाने के लिए मतवाले हुए लोगों को क्या एक क्षण के लिए भी यह लगता है कि देश में बेहैसियत और गरीब जनता के लिए मौजूदा कानून ही इतने सख्त हैं कि एक बार फँसने पर कोई साबुत बचकर नहीं निकलता?
हम कई बार कह चुके हैं कि भारतीय जीवन के प्रत्येक आयाम पर नवउदारवाद का जो शिकंजा कसा है, उसके लिए केवल राजनैतिक अभिजन जिम्मेदार नहीं हैं। भ्रष्टाचार की जाँच, रोकथाम और दंड देने के लिए बनी संस्थाएँ और कानून अगर सत्यानाश हो गए हैं तो उसकी जिम्मेदारी नागरिक समाज पर भी उतनी ही आयद होती है। नवउदारवाद को चलाए रखने के लिए एक चलन चल निकला है- मौजूदा संस्थाओं और कानूनों को प्रभावी, पारदर्शी और जवाबदेह बनाने के सतत् उद्यम की ओर से पीठ फेर कर, नई संस्था अथवा नया कानून बनाने का ऐलान कर दिया जाता है। एनजीओ भी लगातार नए कानून बनवाने के लिए दबाव बनाते रहते हैं।
हमने यह भी सोचा कि जब सोनिया गांधी की राष्ट्रीय सलाहकार समिति का एक समूह, उन्हीं सब नागरिक समाज एक्टिविस्टों के साथ मिल कर, जो संयुक्त समिति में शामिल किए गए, जन लोकपाल विधेयक के मसौदे पर बैठकें और चर्चा कर रहा है, तो फिर अचानक आमरण अनशन की नौबत क्यों आ गई? जैसा कि सोनिया गांधी ने हजारे के 19 अप्रैल के पत्र के जवाब में अपने 20 अप्रैल के पत्र में लिखा है, खुद हजारे ने उस समूह में प्रस्तावित विधेयक के केवल दो बिंदुओं पर मतभेद होने की बात स्वीकार की। तो क्या वे दो मतभेद वहीं नहीं सुलझाए जा सकते थे? या नहीं सुलझा लिए जाने चाहिए थे? राष्ट्रीय सलाहकार समिति में तो नागरिक समाज की और भी कई महत्वपूर्ण हस्तियाँ शामिल हैं, जो निश्चित ही मतभेद सुलझाने में प्रभावी भूमिका निभातीं और शायद विधेयक को और अधिक कारगर बनाया जा सकता। अगर मंशा केवल भ्रष्टाचार को रोकने के लिए एक प्रभावी लोकपाल संस्था बनाने की थी, तो वह काम समिति में ज्यादा अच्छा हो सकता था। तब शायद वह सब झमेला भी नहीं खड़ा होता, जिसमें हजारे अपने बयानों के चलते और संयुक्त समिति के दो सबसे प्रभावशाली सदस्य शांति भूषण व प्रशांत भूषण सीडी और संपत्ति के चलते फँस गए हैं।

प्रेम सिंह
क्रमश:

4 टिप्‍पणियां:

Dr. Zakir Ali Rajnish ने कहा…

बहुत ही गहरी बातें। इनपर विचार किया जाना चाहिए।

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जादुई चिकित्‍सा !
इश्‍क के जितने थे कीड़े बिलबिला कर आ गये...।

vijai Rajbali Mathur ने कहा…

काश लोग इन सच्चाइयों पर गौर करें.

shyam gupta ने कहा…

विभ्रम पूर्ण आलेख.....लेखक कहना क्या चाहता है उसे स्वयं स्पष्ट नहीं है....

रविकर ने कहा…

तारनहार
जरूर बचाएगा ||

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