नागरिक समाज: सीमाएँ और अंतर्विरोध
अभियान के प्रति जो कुछ विवादी स्वर उभरे, वे ज्यादातर कमजोर हैं। हम उन पर चर्चा करेंगे, लेकिन पहले इस अभियान के चरित्र/प्रकृति और वर्ग-आधार को समझना मुनासिब होगा। दरअसल, अभियान के उद्देश्य, तरीके और उसमें शामिल मुख्य व्यक्तियों और उनके वक्तव्यों के बारे में जो सवाल उठाए गए हैं, वे इसीलिए कमजोर पड़ते हैं कि आंदोलन के चरित्र को सही परिप्रेक्ष्य में नहीं समझा गया है।विरोध की प्रतिक्रियाएँ फुटकर और तात्कालिक किस्म की हैं। इसी के चलते कुछ नेताओं और टिप्पणीकारों द्वारा लोकतांत्रिक प्रक्रिया और संस्थाओं की दुहाई भी प्रामाणिक नहीं बन पाई है। ‘लोकतंत्र संवर्द्धक’ और ‘लोकतंत्र विनाशक’ की अतियों के बीच संतुलन साधने के कतिपय प्रयास भी लीपा-पोती ही ज्यादा लगते हैं। जिस तरह से, जैसा कि आगे देखेंगे, भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग और जीत के दावों में दम नहीं है, उसी तरह उसके विरोधी और सामंजस्यवादी स्वरों में भी कमजोरी है।
देश की राजनीति में जब राजनैतिक विपक्ष नहीं बचता है, या बहुत कमजोर होता है, तो प्रचलित व्यवस्था से पैदा होने वाली समस्याओं और संकटों को लेकर नागरिक समाज अपनी सीमा से बढ़ कर सक्रिय व आंदोलित होता है। भारत में पिछले 20 सालों से यही स्थिति चल रही है। इस बीच सभी पार्टियों की मिली-जुली सरकारें सत्ता में आ चुकी हैं, लेकिन सभी ने मनमोहन सिंह के एजेंडे यानी नई आर्थिक नीतियों के नाम से शुरू किए गए नवउदारवाद को ही आगे बढ़ाया है। माक्र्सवादी पार्टियों से कुछ अलग हट कर उम्मीद थी, लेकिन उनके नेताओं ने
आधिकारिक तौर पर घोषित कर दिया कि पूँजीवाद ही विकास का रास्ता है। यह सही है कि यह स्थिति बनने के अंतर्राष्ट्रीय कारण और दबाव भी हैं, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर भी नागरिक समाज में उस पर एक सर्वानुमति बनती गई है।
नागरिक समाज को चिह्नित करें तो कह सकते हैं कि किसी भी देश का नागरिक समाज मोटे तौर पर मध्यवर्गीय होता है। हालाँकि एक वर्ग होने के बावजूद, वह एकरूप उपस्थिति नहीं होता उसमें आर्थिक भिन्नता के स्तरों-निम्न, मध्य और उच्च के अलावा सांस्कृतिक
धार्मिक-भाषिक-भौगोलिक आदि भिन्नता के स्तर भी विद्यमान होते हैं। नागरिक समाज की एक पहचान यह भी होती है कि वह अपनी आजीविका के लिए शारीरिक नहीं, दिमागी काम करता है। इसी नागरिक समाज के कुछ लोग राजनैतिक पार्टियों का नेतृत्व सँभालते हैं। नागरिक समाज के जो लोग सीधे राजनीति में नहीं जाते, परंतु समाज में बतौर जागरूक नागरिक की भूमिका निभाने के अभिलाषी होते हैं, उनकी दो कोटियाँ बनती हैं। पहली कोटि किसी राजनैतिक विचारधारा और पार्टी विशेष की संगति में या उससे संबद्ध संगठन संस्थाएँ चलाने वालों की होती है। इस लिहाज से देश में माक्र्सवादी पार्टियों और भाजपा से संबद्ध सबसे ज्यादा संगठन हैं। दोनों पार्टियों के समर्थकों सदस्यों की, ज्यादातर समय सत्ता में रहने वाली कांग्रेस से साँठ-गाँठ रही है। उन्हें लगता है कि वे कांग्रेस की कीमत पर अपने लक्ष्य- कम्युनिस्ट साम्यवादी क्रांति और संघी हिंदू राष्ट्रवाद - की मजबूती बढ़ा रहे हैं। जबकि ताकत कांग्रेस की ही ज्यादा बढ़ती रही है।
दूसरी कोटि राजनीति से परहेज बरतने वाले नागरिकों की होती है। आमतौर पर उन्हें ही नागरिक समाज एक्टिविस्ट कहा जाता है। ऐसे नागरिकों के भी अपने राजनैतिक रुझान होते ही हैं। इस कोटि में विभिन्न मुद्दों और समस्याओं पर नागरिक संगठन, संस्थाएँ, मंच, ट्रस्ट, सहकारी संस्थाएँ और एन0जी0ओ0 बना कर काम करने वाले नागरिक होते हैं। नवउदारवादी नीतियों से होने वाली तबाही के शिकार आदिवासी, किसान, कारीगर, असंगठित मजदूर, दुकानदार, छोटे व्यापारी समूहों के हितों की रक्षा के लिए सक्रिय अनेक जनांदोलन भी नागरिक समाज के नुमाइंदे ही चलाते हैं। हिंसक जनांदोलनों का संचालन भी उन्हीं के हाथ में होता है। अलबत्ता उनकी अपनी राजनैतिक विचारधारा और संगठन होते हैं। कुछ नागरिक समाज एक्टिविस्ट अपने काम में नाम और इनाम पाने के बाद सरकारों और राजनैतिक पार्टियों के सलाहकार भी बन जाते हैं। उनका नाम सरकार की समितियों और पैनलों में होता है। हालाँकि अराजनैतिक होने का उनका आग्रह तब भी बना रहता है।
नागरिक समाज से मुराद अक्सर पुरुष समाज से होती है, जबकि भारत सहित दुनिया में बहुत-सी स्त्रियाँ नागरिक समाज एक्टिविस्ट के रूप में सक्रिय हैं। भारत का मध्यवर्ग ज्यादातर अगड़ी सवर्ण जातियों से बना है, लिहाजा, नागरिक समाज एक्टिविस्ट भी, पुरुष और स्त्री दोनों, ज्यादातर अगड़ी सवर्ण जातियों के होते हैं। भारत में जिसे नागरिक समाज कहेंगे, उसमें विशाल निम्नवर्ग और निम्नमध्यवर्ग नहीं आता। भारत में मध्य और उच्चमध्यवर्ग को मिला कर जो नागरिक समाज बनता है, वह देश का शासक वर्ग भी होता है। शासकवर्ग के रूप में एक होने के साथ, वह ऊपर बताई गई भिन्नताओं के आधार पर कई तरह की मान्यताओं, धारणाओं और रुझानों का समुच्चय होता है। हालाँकि इससे यह सच्चाई निरस्त नहीं होती कि वह शासकवर्ग के रूप में एक होता है।
निम्नमध्यवर्ग की, जिसमें पिछड़ी और दलित जातियों तथा आदिवासियों की मध्यवर्ग की तुलना में ज्यादा संख्या होती है, बलवती लालसा होती है कि वे मध्यवर्ग के दायरे में अपनी जगह बना पाएँ। आरक्षण के चलते दलित और आदिवासियों को मध्यवर्ग में सीमित प्रवेश मिलता रहा है। लेकिन वे मध्यवर्ग के चरित्र में बदलाव नहीं ला सकते, क्योंकि वे अगड़ी सवर्ण जातियों वाले मध्य और उच्चमध्यवर्ग की जीवनशैली का अनुकरण करते हैं। इस अनुकरण में सबसे पहले श्रम और दो कदम पीछे के गरीब अतीत को हेय समझा जाता है। विशेषकर दलित, अगड़ों के अनुकरण की प्रवृत्ति और अस्मितावाद के द्वंद्व में फँसे रहते हैं। इसके चलते वे नागरिक समाज द्वारा चलाए जाने वाले अभियान या आंदोलन की तरफ कभी खिंचते हैं, कभी पीछे हटते हैं। कुल मिला कर भारत का नागरिक समाज, कई तरह की भिन्नताओं के बावजूद, शासकवर्ग के रूप में एकजुट होता हैै। यह उसका वर्ग-स्वार्थ पर आधरित वर्ग-चरित्र है।
प्रेम सिंह
क्रमश:
3 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर ||
कुल मिला कर भारत का नागरिक समाज, कई तरह की भिन्नताओं के बावजूद, शासकवर्ग के रूप में एकजुट होता है। यह उसका वर्ग-स्वार्थ पर आधरित वर्ग-चरित्र है।
मरने के बाद क्या होगा ?
कृप्या इंकार या इक़रार करने से पहले यह किताब ज़रूर पढ़ लें।
विश्लेषण ठीक है लेकिन लोग गंभीरता से नहीं ले रहे हैं यह खेद की बात है.
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