मंगलवार, 12 जुलाई 2011

भ्रष्टाचार विरोध, विभ्रम और यथार्थ भाग-9

आइए फिर बहस पर लौटें। वह सवाल जो सबसे पहले बहस में पूछा जाना चाहिए था अभी तक उठाया ही नहीं गया है। कारों पर लगाए जाने वाले पोस्टरों और स्टीकरों पर लिखा गया था: ‘मनमोहन सिंह वोट चाहिए तो लोकपाल विधेयक लाओ’। 7 मार्च को हजारे के प्रधानमंत्राी से मिलने की सूचना तो हमें बाद में मिली। पहले ही दिन काॅलोनी में खड़ी एक कार पर चिपका आई0ए0सी0 का पोस्टर और स्टीकर पढ़ कर हमें पता चल गया कि यह भ्रष्टाचार मिटाने के लिए नहीं, नवउदारवाद का रास्ता प्रशस्त करने का अभियान है। मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी के लिए इससे सस्ता सौदा नहीं हो सकता था-जन लोकपाल कानून के बदले वोट की गारंटी। सत्ता की नजर बड़ी टेढ़ी होती है। वह अपना फायदा तो पहले देखती ही है, किसी भी लेन-देन में दूसरे पक्ष को बदनाम कर सारा श्रेय खुद लेने की स्वाभाविक नीयत से परिचालित होती है। संयुक्त समिति के सदस्यों और खुद हजारे को जो सामना करना पड़ रहा है, वह दरअसल सत्ता की नीयत का ही नतीजा है। लोकपाल कानून आना है तो पूरा श्रेय सरकार को क्यों न मिले?
पोस्टर बताता है कि आयोजकों ने सत्ता के समर्थन की अपनी नीयत छिपाई नहीं थी। भले ही अभियान के समर्थक जान नहीं पाए हों। आयोजकों को छिपाने की और समर्थकों को जानने की शायद जरूरत भी नहीं थी। माने हुए को क्या जानना? जितने भी लोग जंतर-मंतर पर थे, और देश के दूसरे हिस्सों में अभियान का समर्थन कर रहे थे, उनका बहुलांश नवउदारवादी रास्ते को आर्थिक महाशक्ति बनने का रास्ता मानता है। उनके सामने बार-बार यह सच्चाई आती है कि वह भ्रष्टाचार का रास्ता है। लेकिन वे उसे छोड़ने को तैयार नहीं हैं। फिर भी वे चाहते हैं, भ्रष्टाचार न हो। यह नागरिक समाज भ्रष्टाचार विरोध का अभियान चला कर अपनी आत्मा के दाग देता है। वह आप अपनी पीठ ठोंकता है कि एक सीमा के बाद वह भ्रष्टाचार के खिलाफ उठ खड़ा होता है। वह मनमोहन सिंह को ईमानदार बता कर अपने ईमानदार होने की तस्दीक करता है। जैसे देश को भ्रष्टाचार का घूरा बना देने वाले मनमोहन सिंह ईमानदार माने जाते हैं, उसी तरह उसमें खुशी-खुशी रहने वाला नागरिक समाज अपने को ईमानदार मानता है। विभ्रम की यह स्थिति यथार्थ को अलक्षित किए रखने के बखूबी काम आती है।
ऐसे नागरिक समाज के भ्रष्टाचार के खिलाफ उठ खड़ा होने का अर्थ, जाहिर है, अपने ही खिलोफ उठ खड़ा होना। आजादी के संघर्ष में अनेक भारतवासियों द्वारा अपनी शिक्षा, संपत्ति, घर, यहाँ तक कि प्राण त्याग देना परीकथाएँ नहीं हैं। कोई समाज जब कड़े निर्णय लेता है तो कोई बड़ा परिवर्तन घटित होता है। नवउदारवाद का पथ प्रशस्त करने के लिए मनमोहन सिंह के ‘कड़े निर्णयों’ का साझीदार मध्यवर्ग क्या सबकी खुशहाली का पथ प्रशस्त करने के लिए कड़े निर्णय ले सकता है? उस दिशा में सोचने को तैयार हो सकता है?


प्रेम सिंह
क्रमश:

1 टिप्पणी:

vijai Rajbali Mathur ने कहा…

अन्ना/मनमोहन मिलीभगत का सुन्दर विवेचन

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