आज हर जातीय के पास जातीय संगठन है | अब किसी भी जाति के लोगो के पास यह कहने का मुँह- माथा नही रह गया है की फला जाति के लोग जातिवादी है |जातिवादी संगठन बना रहे है |
कयोंकि जातिवादी संगठनों के जरिये जातिवाद करने - बढाने और समाज को बाटने का काम किसी भी जाति के लिए बाकी नही रह गया है | दिलचस्प बात यह है कि जातिवादी संगठनों के पदाधिकारी आमतौर पर उच्च या बेहतर स्तिथियों के लोग है | आधुनिक पद - पेशो पर प्रतिष्ठित लोग है | मंत्री , विधायक , उच्च अधिकारी , बड़े व्यापारी या फिर डाक्टर , इंजिनियर , लेक्चरर , प्रोफेसर , वकील आदि जैसे लोग है | अर्थात जातीय संगठनों के पदाधिकारी आमतौर पर अपने जातीय पेशो पहचानो और स्थितियों से उपर उठकर आधुनिक युग की पद -प्रतिष्ठा की जगहों पर विराजमान है | इसके विपरीत जातीय संगठनों में शामिल विभिन्न जातियों के जनसाधारण , खासकर गावं - गवई के खासी संख्या के लोग अभी भी अपने जातीय कामो - पेशो से जुड़े लोग है | यह बताने की जरूरत नही है विभिन्न जातियों की बुनियादी विशेषता उनका पुश्त दर पुश्त से चला आ रहा पेशा है |सामाजिक कामो की पुश्तैनी परम्परा है |नये या आधुनिक पेशो के आने से पुराने व पुश्तैनी पेशो में भारी टूटन व परिवर्तन आता जा रहा है | पुश्तैनी पेशो के रूप में सदियों से खड़ा होता रहा जातीय समुदाय टूटता - बिखरता जा रहा है | एकदम निम्न स्तर के कामो व पेशो को छोडकर अब हर काम धंधे व पेशो में हर जाति के लोग जाने लगे है | उसको अपने जीवन यापन का साधन बनाने लगे है |
लेकिन अभी भी हर जाति समुदाय में जातिय रिश्ता बना हुआ है | पेशो के रूप में टूटते रहने के वावजूद जातीय उपनाम या जातीय पहचान के साथ - साथ शादी - विवाह के जातीय रिश्ते अभी भी आमतौर से प्रचलित है | न केवल हिन्दुओ में बल्कि मुसलमानों में भी | अंतरजातीय विवाह का प्रचलन व मान्यता अभी समाज के अत्यंत उच्च हिस्सों में या बाम्बे जैसे शहरों में कई पीढियों से रह रहे लोगो में ही संभव हो पाया है |अत: शादी - विवाह के अनिवार्य एवं अपरिहार्य सामाजिक संबंधो के संदर्भो में जातीय संगठनों का बनना अभी भी प्रासंगिक है |
उनकी यह आवश्यकता या प्रासंगिकता , शादी - विवाह के संबंधो को सुलभ व सुगम बनाने के लिए आज भी अपेक्षित है | इसे लोग अच्छी तरह से समझ सकते है | शादिया खोजने , तय करने और फिर उसे परिपूरण करने की दिक्कतों को सभी लोग जान रहे है | अत: इस अत्यंत आवश्यक पारिवारिक - सामाजिक समस्या के समाधान के लिए ख़ास करके शादी - विवाह में पहले के पारम्परिक दहेज़ की जगह अब बढ़ते जा रहे बाजारवादी लेन - देन वाले दहेज़ को काटने - घटाने आदि के लिए भी जातीय संगठनों की अहम भूमिका हो सकती है और होनी भी चाहिए |
....... लेकिन वर्तमान दौर में बनते जातीय संगठन में इस काम के लिए तो कोई जगह ही नही है | वह काम तो उनके एजेण्डे में ही नही है | चाहे वह कोई भी जाति क्यों ना हो | इसी का परीलक्ष्ण है की एक तरफ जाति संगठन बनते - बढ़ते जा रहे आदि , दूसरी तरफ शादी - विवाह के रिश्तो की तमाम दिक्कतों के साथ नकद पैसे से लेकर आधुनिक मालो - सामानों के दान -दहेज़ आदि का चलन बढ़ता जा रहा है | हर जाति के जातीय संगठनों द्वारा अपने ही जाति के लोगो में खड़ी हो रही बाजारवादी लूट की समस्याओं को नजरन्दाज़ किया जा रहा है | .लेकिन तब वर्तमान दौर में जातीय संगठनों के बनने - बढने का माने मतलब क्या ? जातीय संगठनों के पदाधिकारियों का कहना है कि यह जाति विशेष के उत्थान व विकास के लिए है | लेकिन तब जातीय संगठनों द्वारा जातियों के बीच बुनियादी और अभी तक पड़े रह गये प्रमुख सम्बन्ध को अर्थात शादी - विवाह के सम्बन्ध और उसकी समस्याओं को महत्व क्यों नही दिया जाता ? जबाब एकदम साफ़ है | वह यह है की यह समस्या हर जाति के आम लोगो की अपेक्षाकृत निम्न और कमजोर स्तिथियों के लोगो की समस्या है , न की उच्च स्तर के और उच्च आमदनी वाले लोगो की | इसीलिए हर जाति के उच्च व बेहतर स्तिथियों के लोगो द्वारा बनाये या बनवाये जा रहे जातीय संगठनों में उस जाति के ही कमजोर स्तिथियों के लोगो की शादी - विवाह की समस्याओं के लिए कोई सक्रिय व सार्थक प्रयास भी नही है |इससे भी साबित होता है कि वर्तमान दौर में जातीय संगठनों के बनने का मुख्य कारण एकदम दुसरा है | वह जाति के समूचे लोगो के लिए नही बल्कि विभिन्न जातियों की बेहतर व उच्च स्तर के लोगो के कल्याण उत्थान व चढत - बढत के लिए आवश्यक है | उसके जरिये जातियों के आगे बढ़े हुए लोग , जाति के नाम पर जातीय विकास व कल्याण के नाम पर समूची जाति को अपने पीछे लगा लेते है | जातीय संगठनों के नेता बनकर भाषण -प्रशासन से लेकर राजनीत में अपना असर - रसूख बना व बढा लेते है | फिर उससे अपने स्वार्थो की पूर्ति करते रहते है | इसे बढावा देने का प्रमुख काम देश की हुकूमत द्वारा पिछले 30 सालो से धर्मवादी , सम्प्रदायवादी , जातिवादी तथा इलाकावादी चुनावी राजनीत के जरिये किया जाता रहा है | धर्म , सम्प्रदाय व जाति की राजनितिक पार्टियों एवं प्रचार माध्यमो द्वारा उसे पनपाया व बढाया जाता रहा है | आम लोगो के हितो को उनके धार्मिक व जातीय समूहों के हितो के नाम से प्रस्तुत व प्रचारित किया जाता रहा है | धर्म , सम्प्रदाय व जाति के सत्ता - स्वार्थी इस्तेमाल की इसी राजनीत ने हर जाति के उच्च व बेहतर स्थितियों के लोगो में , अपनी जाति के लोगो के समर्थन का इस्तेमाल कर उपर चढने , राजनेता बनने की भूख जगा दी है | यही भूख उनसे जातियों के कल्याण - उत्थान का नाम लेकर जातीय संगठन बनवा रही है | जबकि विभिन्न जातियों के कमजोर स्तिथियों के लोगो के शादी - विवाह के अलावा महगाई , बेकारी , रोजी रोटी की समस्या शिक्षा स्वास्थ आदि की बुनियादी समस्याए ही नही है | इसीलिए इन बुनियादी समस्याओं से मुक्ति और जातियों के बहुसख्यक लोगो के कल्याण - उत्थान करने की समस्या जातीय संगठनों के जरिये हल होने वाली भी नही है | इन समस्याओं को विभिन्न धर्म - जाति के जनसाधारण के व्यापक संगठन या मंच के जरिये ही हल किया सकता है |हाँ जातीय संगठन के जरिये जाति के 10 -15 % लोगो को उपर चढने का अवसर जरुर मिल सकता है |
इसलिए हर जाति की बहुसख्यक परन्तु कमजोर स्थिति के लोगो को बनते बढ़ते जातीय संगठनों को अपनी समूची जाति के कल्याण -उठान के रूप में देखना कही से भी ठीक नही है | वस्तुत: यह जन एकता का विरोधी विचार - व्यवहार है , जिसे आम जनता में विभिन्न जातीय ( धार्मिक व इलाकाई ) समूहों में फैलया जा रहा है | इसलिए विभिन्न जातियों के इसी बहुसख्यक हिस्से का दायित्व है की वह शादी - विवाह के संबंधो को सुलभ बनाने के लिए या समाज में जाति विशेष के प्रति बरते जा रहे छुआछूत व भेदभाव जैसे गैर जनतांत्रिक विचारों व व्यवहारों के विरोध के लिए या अन्य किसी न्यायोचित मांगो के लिए ही जातीय संगठनों को समर्थन दे | बड़ी सामाजिक समस्याओं व मांगो के लिए दूसरी जातियों के लोगो से भी सहयोग लें | उसे वर्तमान दौर जैसे स्वार्थपूर्ति का सत्ता - स्वार्थी राजनीत का या रजनीतिक सामाजिक गोलबंदी का हथकंडा बनाने का विरोध करे | साथ ही पिछड़े युग में अपनी जातीयता उच्चता , श्रेष्ठता के मिहिमा मण्डन का या वास्तविक या कल्पित इतिहास को उठाकर जातीय समुदायों को महिमा मण्डित करने के प्रयासों का विरोध करे | जातीय संगठनों के संदर्भ में सामाजिक जनतंत्र का यही कार्यभार या दायित्व है |
सुनील दत्ता
पत्रकार
09415370672
कयोंकि जातिवादी संगठनों के जरिये जातिवाद करने - बढाने और समाज को बाटने का काम किसी भी जाति के लिए बाकी नही रह गया है | दिलचस्प बात यह है कि जातिवादी संगठनों के पदाधिकारी आमतौर पर उच्च या बेहतर स्तिथियों के लोग है | आधुनिक पद - पेशो पर प्रतिष्ठित लोग है | मंत्री , विधायक , उच्च अधिकारी , बड़े व्यापारी या फिर डाक्टर , इंजिनियर , लेक्चरर , प्रोफेसर , वकील आदि जैसे लोग है | अर्थात जातीय संगठनों के पदाधिकारी आमतौर पर अपने जातीय पेशो पहचानो और स्थितियों से उपर उठकर आधुनिक युग की पद -प्रतिष्ठा की जगहों पर विराजमान है | इसके विपरीत जातीय संगठनों में शामिल विभिन्न जातियों के जनसाधारण , खासकर गावं - गवई के खासी संख्या के लोग अभी भी अपने जातीय कामो - पेशो से जुड़े लोग है | यह बताने की जरूरत नही है विभिन्न जातियों की बुनियादी विशेषता उनका पुश्त दर पुश्त से चला आ रहा पेशा है |सामाजिक कामो की पुश्तैनी परम्परा है |नये या आधुनिक पेशो के आने से पुराने व पुश्तैनी पेशो में भारी टूटन व परिवर्तन आता जा रहा है | पुश्तैनी पेशो के रूप में सदियों से खड़ा होता रहा जातीय समुदाय टूटता - बिखरता जा रहा है | एकदम निम्न स्तर के कामो व पेशो को छोडकर अब हर काम धंधे व पेशो में हर जाति के लोग जाने लगे है | उसको अपने जीवन यापन का साधन बनाने लगे है |
लेकिन अभी भी हर जाति समुदाय में जातिय रिश्ता बना हुआ है | पेशो के रूप में टूटते रहने के वावजूद जातीय उपनाम या जातीय पहचान के साथ - साथ शादी - विवाह के जातीय रिश्ते अभी भी आमतौर से प्रचलित है | न केवल हिन्दुओ में बल्कि मुसलमानों में भी | अंतरजातीय विवाह का प्रचलन व मान्यता अभी समाज के अत्यंत उच्च हिस्सों में या बाम्बे जैसे शहरों में कई पीढियों से रह रहे लोगो में ही संभव हो पाया है |अत: शादी - विवाह के अनिवार्य एवं अपरिहार्य सामाजिक संबंधो के संदर्भो में जातीय संगठनों का बनना अभी भी प्रासंगिक है |
उनकी यह आवश्यकता या प्रासंगिकता , शादी - विवाह के संबंधो को सुलभ व सुगम बनाने के लिए आज भी अपेक्षित है | इसे लोग अच्छी तरह से समझ सकते है | शादिया खोजने , तय करने और फिर उसे परिपूरण करने की दिक्कतों को सभी लोग जान रहे है | अत: इस अत्यंत आवश्यक पारिवारिक - सामाजिक समस्या के समाधान के लिए ख़ास करके शादी - विवाह में पहले के पारम्परिक दहेज़ की जगह अब बढ़ते जा रहे बाजारवादी लेन - देन वाले दहेज़ को काटने - घटाने आदि के लिए भी जातीय संगठनों की अहम भूमिका हो सकती है और होनी भी चाहिए |
....... लेकिन वर्तमान दौर में बनते जातीय संगठन में इस काम के लिए तो कोई जगह ही नही है | वह काम तो उनके एजेण्डे में ही नही है | चाहे वह कोई भी जाति क्यों ना हो | इसी का परीलक्ष्ण है की एक तरफ जाति संगठन बनते - बढ़ते जा रहे आदि , दूसरी तरफ शादी - विवाह के रिश्तो की तमाम दिक्कतों के साथ नकद पैसे से लेकर आधुनिक मालो - सामानों के दान -दहेज़ आदि का चलन बढ़ता जा रहा है | हर जाति के जातीय संगठनों द्वारा अपने ही जाति के लोगो में खड़ी हो रही बाजारवादी लूट की समस्याओं को नजरन्दाज़ किया जा रहा है | .लेकिन तब वर्तमान दौर में जातीय संगठनों के बनने - बढने का माने मतलब क्या ? जातीय संगठनों के पदाधिकारियों का कहना है कि यह जाति विशेष के उत्थान व विकास के लिए है | लेकिन तब जातीय संगठनों द्वारा जातियों के बीच बुनियादी और अभी तक पड़े रह गये प्रमुख सम्बन्ध को अर्थात शादी - विवाह के सम्बन्ध और उसकी समस्याओं को महत्व क्यों नही दिया जाता ? जबाब एकदम साफ़ है | वह यह है की यह समस्या हर जाति के आम लोगो की अपेक्षाकृत निम्न और कमजोर स्तिथियों के लोगो की समस्या है , न की उच्च स्तर के और उच्च आमदनी वाले लोगो की | इसीलिए हर जाति के उच्च व बेहतर स्तिथियों के लोगो द्वारा बनाये या बनवाये जा रहे जातीय संगठनों में उस जाति के ही कमजोर स्तिथियों के लोगो की शादी - विवाह की समस्याओं के लिए कोई सक्रिय व सार्थक प्रयास भी नही है |
इसलिए हर जाति की बहुसख्यक परन्तु कमजोर स्थिति के लोगो को बनते बढ़ते जातीय संगठनों को अपनी समूची जाति के कल्याण -उठान के रूप में देखना कही से भी ठीक नही है | वस्तुत: यह जन एकता का विरोधी विचार - व्यवहार है , जिसे आम जनता में विभिन्न जातीय ( धार्मिक व इलाकाई ) समूहों में फैलया जा रहा है | इसलिए विभिन्न जातियों के इसी बहुसख्यक हिस्से का दायित्व है की वह शादी - विवाह के संबंधो को सुलभ बनाने के लिए या समाज में जाति विशेष के प्रति बरते जा रहे छुआछूत व भेदभाव जैसे गैर जनतांत्रिक विचारों व व्यवहारों के विरोध के लिए या अन्य किसी न्यायोचित मांगो के लिए ही जातीय संगठनों को समर्थन दे | बड़ी सामाजिक समस्याओं व मांगो के लिए दूसरी जातियों के लोगो से भी सहयोग लें | उसे वर्तमान दौर जैसे स्वार्थपूर्ति का सत्ता - स्वार्थी राजनीत का या रजनीतिक सामाजिक गोलबंदी का हथकंडा बनाने का विरोध करे | साथ ही पिछड़े युग में अपनी जातीयता उच्चता , श्रेष्ठता के मिहिमा मण्डन का या वास्तविक या कल्पित इतिहास को उठाकर जातीय समुदायों को महिमा मण्डित करने के प्रयासों का विरोध करे | जातीय संगठनों के संदर्भ में सामाजिक जनतंत्र का यही कार्यभार या दायित्व है |
सुनील दत्ता
पत्रकार
09415370672
1 टिप्पणी:
जाति पर और जातियों के इन दिनों बनने वाले संगठनों पर अच्छा लेख। समस्याओं को दूर करने के लिए ये संगठन बनते ही कब हैं?
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