भारत का सर्वोच्च न्यायालय
सिविल/मौलिक क्षेत्राधिकार
मुकदमा सं0 (सिविल) नं0 250 सन 2007
नन्दिनी सुन्दर एवं अन्य बनाम छत्तीसग़ढ राज्य
सलवा जूडूम अथवा कोया कमान्डोज़ अथवा एस0पी0ओ0 की नियुक्ति अवैध घोषित
सिविल/मौलिक क्षेत्राधिकार
मुकदमा सं0 (सिविल) नं0 250 सन 2007
नन्दिनी सुन्दर एवं अन्य बनाम छत्तीसग़ढ राज्य
सलवा जूडूम अथवा कोया कमान्डोज़ अथवा एस0पी0ओ0 की नियुक्ति अवैध घोषित
1.हम भारत के लोगों ने भारत को एक सम्प्रभु प्रजातांत्रिक गणराज्य के रूप में गठित किया है ताकि हम संविधान के उद्देश्य, इसके मूल्यों एवं परिसीमाओं को दृष्टिगत करते हुए अपने मामलों का निपटारा सुचारु रूप से कर सकें। हम यह आशा करते हैं कि जनतन्त्रात्मक सहभागिता के लाभ हमें पूर्ण रूप से प्राप्त हों ताकि हम राष्ट्रों के समूह में अपने उचित स्थान को प्राप्त कर सकें जो हमारी विरासत एवं सामूहिक प्रतिभा के अनुरूप हो। परिणाम स्वरूप, हमें अनुशासन एवं संवैधानिकता की कठिनाइयों को सहन करना है, जिसका मूल तत्व शक्ति का उत्तरदायित्व है जिसके द्वारा जनता की शक्तियों को, जो राज्य के किसी भी अंग एवं उसके प्रतिनिधियों में निहित है, का प्रयोग संवैधानिक मूल्यों एवं उसके दृष्टिकोण को विकसित करने के लिए किया जा सकता है। प्रस्तुत मुकदमा उस विशाल रिक्त स्थान का एक ज्वलंत उदाहरण है जो प्रजातंत्र में शक्ति के सैद्घांतिक उपयोग एवं वास्तविकता के मध्य विद्यमान है। इस मुकदमे में प्रतिवादी छत्तीसग़ढ राज्य यह दावा करता है कि उसे संवैधानिक शक्तियाँ प्राप्त हैं जिसके द्वारा वह मानवीय अधिकारों का गम्भीर हनन उसी प्रकार कर सकता है जिस प्रकार से माओवादी एवं नक्सलवादी उग्रवादी कर रहे हैं। छत्तीसग़ राज्य यह भी दावा करता है कि उसे हजारों (अधिकतर) निरक्षर अथवा आंशिक रूप से साक्षर आदिवासी नवयुवकों को बन्दूकों से लैस करने का अधिकार प्राप्त है। इन नवयुवकों को जिन्हें कोई प्रशिक्षण नहीं दिया जाता, छत्तीसग़ढ राज्य के द्वारा अस्थाई पुलिस अधिकारियों के रूप में नियुक्त किया जाता है, साथ ही साथ यह स्पष्ट नहीं है कि इन नवयुवकों को जिन्हें कथित रूप से माओवादी उग्रवादियों से लड़ने के लिए नियुक्त किया जाता है, कौन नियंत्रित करेगा?
2.जैसे कि हम इस मामले की सुनवाई कर रहे हैं, हमें अनायास जोसेफ कानरैड के उपन्यास ॔ह्रदय का अंधकार॔ की याद आ जाती है जिसमें लिखा है कि अंधकार तीन स्तरों पर होता है 1. जंगल का अंधकार जो कि जीवन एवं उच्च शक्ति के संघर्ष का प्रतिनिधित्व करता है। 2. संसाधनों पर औपनिवेशिक विस्तार का अंधकार। 3. वह अंधकार जिसका प्रतिनिधित्व अमानवीयता एवं बुराई के द्वारा किया जाता है जिसके प्रति मानव का झुकाव व्यक्तिगत रूप से हो जाता है यदि उसमें सर्वोच्च एवं अनियंत्रित शक्ति निहित होती है। कानरेड के उपन्यास में अफ्रीका के संसाधनों से सम्पन्न एवं समृद्धिशाली उष्णकटिबंधीय जंगलों का चित्रण किया गया है जहाँ कि यूरोपियन शक्तियाँ अपनी साम्राज्यवादी एवं पूँजीवादी नीतियों के माध्यम से हाथियों की निर्मम हत्या करके उनके दातों का कारोबार करती हैं। जोसेफ कानरैड ने मानव की उस भयानक मनः स्थिति का वर्णन भी किया है जिसके द्वारा वे शक्तियों का प्रयोग तर्क विहीन रूप में करते हैं। ऐसी शक्तियों को मानवता एवं न्याय से कोई सरोकार नहीं होता है। इस उपन्यास का मुख्य चरित्र ॔कट्र्ज’ जो कि एक जालिम व्यक्ति है उसकी मृत्यु इन शब्दों के साथ होती है, भयानक! भयावह!,’’ कानरैड ने 1890 एवं 1910 के मध्य के कांगों देश की वास्तविक परिस्थितियों का वर्णन किया है जो कि उनके व्यक्तिगत अनुभव पर आधारित हैं। उन्होंने यह भी लिखा है कि मानव चेतना के इतिहास को कलंकित करने वाली यह सबसे खराब लूट थी।’’
3.जैसा कि हमने छत्तीसगढ़ राज्य की वास्तविक स्थिति के बारे में सुना है एवं जो औचित्य प्रतिवादियों के द्वारा दिया जा रहा है, उससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि प्रतिवादी उन तरीकों को अपनाने का प्रयास कर रहे हैं जैसा की जोसेफ कानरैड ने अपने उपन्यास में सजीव रूप से चित्रित किया है। छत्तीसग़ढ राज्य द्वारा कबाइली नवयुवकों को अंधाधुंध रूप में हथियार प्रदान करना एवं बिना प्रशिक्षण दिए हुए उनसे पुलिस का कार्य सम्पादित कराना संवैधानिक मूल्यों को गंभीर रूप से नष्ट करना है एवं इससे राष्ट्रीय हित को कठोर नुकसान पहुँचने की संभावना है। विशेष रूप से राष्ट्र के विभिन्न समूहों के मध्य भाईचारा, एकता एवं गौरव की भावना के विकास में यह बाधक साबित होगी। मानवीय तजुर्बे से यह बात स्पष्ट है कि शक्ति जब अनियंत्रित हो जाती है तो वह अपने सिद्घांत स्वयं बनाती है एवं अपने तरीकों को सही साबित करने का प्रयास करती है, जिसके फलस्वरूप लोगों में अन्ततोगत्वा अमानवीय भावना का विकास होता है। साम्राज्यवादी शक्तियाँ पृथ्वी के प्राकृतिक संसाधनों को लूटकर अपनी प्यास को बुझाती हैं। विगत दो विश्व युद्ध एवं आधुनिक संविधानवाद यह तर्क प्रस्तुत करते हैं कि शक्ति का प्रयोग करने वाले अर्थात राज्य को किसी के भी प्रति, चाहें उसमें अपने ही नागरिक क्यों न हों, हिंसा करने का अधिकार प्राप्त होना चाहिए एवं उनके ऊपर कानून की अथवा मानवाधिकार की कोई बंदिश नहीं होनी चाहिए। इस मुकदमे की सुनवाई के दौरान छत्तीसग़ राज्य के जिलों में घटनाओं एवं परिस्थितियों का ऐसा धुँधला चित्र उजागर हुआ है जिसके फलस्वरूप हम इस नतीजे पर पहुँचने के लिए बाध्य हो गए हैं कि प्रतिवादी हमें संवैधानिक क्रिया कलापों के ऐसे मार्ग पर मोड़ने का प्रयास कर रहे हैं जिसके द्वारा हमें भी जोसेफ कानरैड की भाँति अन्त में यह कहना पड़ेगा कि, भयावह! भयावह!
4. लोग संगठित रूप में, राज्य की शक्ति के खिलाफ अथवा अपने साथी मानवों के खिलाफ अकारण हथियार नहीं उठाते हैं। बचाव की प्रवृत्ति के कारण एवं जैसा कि टामस हाब्स ने कहा है कि कानून विहीनता के कारण जो कि हमारी सामूहिक अन्तरात्मा में निहित है, हम सदैव व्यवस्था की खोज में रहते हैं। फिर भी यदि यह व्यवस्था, अमानुषिकता, कमजोरों, गरीबों एवं दलितों के प्रति अन्याय के साथ आती है तो लोगों में विद्रोह की भावना का जन्म होता है। यह बात सर्वविदित है कि छत्तीसग़ राज्य का विशाल क्षेत्र माओवादी गतिविधियों से प्रभावित है। यह बात भी सार्वभौमिक रूप से जानी जाती है कि छत्तीसग़ढ राज्य में रहने वाले अधिकतर लोगों ने, माओवादी विद्रोही गतिविधियों के कारण एवं राज्य के द्वारा इसके विरोध में की गई दमनात्मक कार्यवाही के कारण, काफी कष्ट उठाए हैं। छत्तीसग़ढ राज्य में परिस्थिति नि:संदेह रूप से काफी दयनीय है। जो और भी ज्यादा हमारे लिए आश्चर्यजनक चीज है वह यह है कि प्रतिवादियों के द्वारा बारबार कहा जा रहा है कि राज्य के लिए अब यही विकल्प शेष है कि अब वह शक्ति के माध्यम से इन राज्य विरोधी ताकतों को कुचल दे। ऐसी सामाजिक व्यवस्था स्थापित करे जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को शक की निगाह से देखा जाए एवं प्रत्येक व्यक्ति जो मानवाधिकार की वकालत करे उसे भी शक की नजरों से देखा जाए एवं माओवादी समझा जाए। इस अंधकारमय एवं दुष्ट संसार में जैसा कि प्रतिवादियों ने इस मुकदमे में वकालत करने की कोशिश की है, इतिहासकार रामचन्द्र गुहा, प्रसिद्ध शिक्षा शास्त्री नंदिनी सुन्दर, समाजसेवी स्वामी अग्निदेश, एवं भूतपूर्व कूटनीतिज्ञ इं0 एस0 शर्मा, इन सभी को माओवादी अथवा माओवादियों का हितैषी समझा गया। हमें यहाँ यह अवश्य कहना है कि हम छत्तीसग़ राज्य की संवैधानिक सीमाओं के प्रति उदासीनता के कारण अत्यधिक आश्चर्यचकित हैं। साथ ही साथ हमें इस बात पर भी आश्चर्य है कि छत्तीसग़ राज्य के समर्थक जो यह दावा करते हैं कि जो भी व्यक्ति राज्य के विभिन्न हिस्सों में व्याप्त अमानवीय दशाओं के प्रति आवाज बुलंद करता है उसको भी माओवादी या उसका हमदर्द समझा जाना चाहिए। साथ ही साथ वे यह भी दावा करते हैं कि राज्य की छत्तीसग़ की जनता के प्रति दमनात्मक हिंसा की नीति संवैधानिक व्यवस्था को बरकरार रखने के लिए आवश्यक है परन्तु इसके लिए संवैधानिक व्यवस्था के अन्तर्गत संवैधानिक सहमति की आवश्यकता है।
5. समस्या यह है जैसा कि हमें दृष्टिगोचर है एवं बहुत से अन्य बुद्धिजीवियों को दृष्टिगोचर होगी कि छत्तीसग़ की जनता के मानवाधिकारों का हनन सुव्यवस्थित ंग से बड़े पैमाने पर, एक तरफ माओवादी एवं नक्सलवादियों के द्वारा किया जा रहा है तथा दूसरी ओर राज्य एवं उसके कुछ गुर्गों के द्वारा भी किया जा रहा है। समस्या यह नहीं है कि कुछ विवेकशील एवं बुद्धिमान लोग छत्तीसग़ की मौजूदा परिस्थितियों पर सवालिया निशान उठा रहे हैं। समस्या हमारी अनैतिक राजनैतिक अर्थ व्यवस्था में है जिस पर की राज्य अपनी मुहर लगाता है एवं जिसके परिणाम स्वरूप क्रांतिकारी राजनीति का जन्म हो रहा है। अभी वर्तमान में एक पुस्तक छपी है जिसका शीर्षक है वैश्वीकरण का अंधकारमय पहलू’’। इस पुस्तक में यह कहा गया है कि संसदीय राजनीति के छः दशकों के उपरान्त भारत वर्ष में नक्सलवादी एवं माओवादी क्रांतिकारी राजनीति का अस्तित्व एक स्पष्ट विरोधाभास है। भारत ने इक्कीसवीं शताब्दी में दशकों से चली आ रही नेहरूवादी समाजवाद का परित्याग करके एक स्वतंत्र एवं वैश्वीकरण की ओर उन्मुख अर्थव्यवस्था में प्रवेश किया है इसके फलस्वरूप आर्थिक विकास तो हुआ है परन्तु गरीबी की दर में भी वृद्धि हुई है। अतएव एक ही प्रकार की समस्या बारम्बार वजूद में आ रही है। जिसका सम्बन्ध विशेष रूप से जमीन से है एवं जिसके कारण विरोध प्रदर्शन की राजनीति, आन्दोलन राजनीति एवं सशत्र विद्रोह जन्म ले रहा है। क्या सरकारें अथवा राजनैतिक दल भारत की उस सामाजिक आर्थिक संरचना को समझने में समर्थ हैं, क्योंकि ये दल केवल सुरक्षात्मक तरीकों में फँसे हुए हैं जिससे कि समस्याओं के समाधान के बजाए उसमें ब़ोत्तरी हो रही है।
6.भारत के कई हिस्सों में उग्र आन्दोलन की राजनीति एवं सशस्त्र विद्रोह का सीधा सम्बन्ध देश की सामाजिक, आर्थिक परिस्थितियों में व्याप्त असमानताओं एवं भ्रष्ट सामाजिक एवं राजनैतिक व्यवस्था से है। वास्तव में भारतीय गणराज्य को इस
सम्बन्ध में बारम्बार चेताया भी गया है। हाल की एक रिपोर्ट जिसका शीर्षक उग्रवाद से प्रभावित क्षेत्रों में विकास एवं चुनौतियाँ हैं’’ में भारत के योजना आयोग द्वारा गठित विशेषज्ञ समिति द्वारा निम्नलिखित महत्वपूर्ण टिप्पणियाँ की गई हैं:
विकास का जो सिद्घांत स्वतंत्रता के समय से अपनाया गया है उससे समाज के दलित वर्गों में असंतोष ब़ा है। विकास का यह सिद्घांत योजना निर्माण कर्ताओं के द्वारा सदैव इन वर्गों पर थोपा गया है। जिसके फलस्वरूप समाज के इन वर्गों को अपूर्णीय क्षति हुई है। इस विकास का लाभ समाज के चंद पूँजीपतियों को असामान्य रूप से प्राप्त हुआ है। अजय कुमार मेहरा ने अपनी पुस्तक वैश्वीकरण की ओर उन्मुख भारत में माओवाद’’ में लिखा है यह विकास इन वर्गों की मूलभूत आवश्यकताओं के प्रति संवेदन शून्य रहा तथा दलित एवं निर्धन वर्ग के लोग विस्थापित एवं मजबूर हो गए। आदिवासी वर्ग के लोगों का सामाजिक ताना बाना नष्ट हो गया, उनकी सांस्कृतिक पहचान धूमिल पड़ गई एवं उनके संसाधनों का शोषण किया गया। इस विकास के कारण नौकरशाही में भ्रष्टाचार को ब़ावा मिला। ठेकेदारों, बिचौलियों एवं समाज के लालची वर्ग ने उनके संसाधनों का बुरी तरह से दोहन किया एवं उनके सम्मान को गम्भीर रूप से आहत किया।
क्रमश:
अनुवादक : मो0 एहरार
2.जैसे कि हम इस मामले की सुनवाई कर रहे हैं, हमें अनायास जोसेफ कानरैड के उपन्यास ॔ह्रदय का अंधकार॔ की याद आ जाती है जिसमें लिखा है कि अंधकार तीन स्तरों पर होता है 1. जंगल का अंधकार जो कि जीवन एवं उच्च शक्ति के संघर्ष का प्रतिनिधित्व करता है। 2. संसाधनों पर औपनिवेशिक विस्तार का अंधकार। 3. वह अंधकार जिसका प्रतिनिधित्व अमानवीयता एवं बुराई के द्वारा किया जाता है जिसके प्रति मानव का झुकाव व्यक्तिगत रूप से हो जाता है यदि उसमें सर्वोच्च एवं अनियंत्रित शक्ति निहित होती है। कानरेड के उपन्यास में अफ्रीका के संसाधनों से सम्पन्न एवं समृद्धिशाली उष्णकटिबंधीय जंगलों का चित्रण किया गया है जहाँ कि यूरोपियन शक्तियाँ अपनी साम्राज्यवादी एवं पूँजीवादी नीतियों के माध्यम से हाथियों की निर्मम हत्या करके उनके दातों का कारोबार करती हैं। जोसेफ कानरैड ने मानव की उस भयानक मनः स्थिति का वर्णन भी किया है जिसके द्वारा वे शक्तियों का प्रयोग तर्क विहीन रूप में करते हैं। ऐसी शक्तियों को मानवता एवं न्याय से कोई सरोकार नहीं होता है। इस उपन्यास का मुख्य चरित्र ॔कट्र्ज’ जो कि एक जालिम व्यक्ति है उसकी मृत्यु इन शब्दों के साथ होती है, भयानक! भयावह!,’’ कानरैड ने 1890 एवं 1910 के मध्य के कांगों देश की वास्तविक परिस्थितियों का वर्णन किया है जो कि उनके व्यक्तिगत अनुभव पर आधारित हैं। उन्होंने यह भी लिखा है कि मानव चेतना के इतिहास को कलंकित करने वाली यह सबसे खराब लूट थी।’’
3.जैसा कि हमने छत्तीसगढ़ राज्य की वास्तविक स्थिति के बारे में सुना है एवं जो औचित्य प्रतिवादियों के द्वारा दिया जा रहा है, उससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि प्रतिवादी उन तरीकों को अपनाने का प्रयास कर रहे हैं जैसा की जोसेफ कानरैड ने अपने उपन्यास में सजीव रूप से चित्रित किया है। छत्तीसग़ढ राज्य द्वारा कबाइली नवयुवकों को अंधाधुंध रूप में हथियार प्रदान करना एवं बिना प्रशिक्षण दिए हुए उनसे पुलिस का कार्य सम्पादित कराना संवैधानिक मूल्यों को गंभीर रूप से नष्ट करना है एवं इससे राष्ट्रीय हित को कठोर नुकसान पहुँचने की संभावना है। विशेष रूप से राष्ट्र के विभिन्न समूहों के मध्य भाईचारा, एकता एवं गौरव की भावना के विकास में यह बाधक साबित होगी। मानवीय तजुर्बे से यह बात स्पष्ट है कि शक्ति जब अनियंत्रित हो जाती है तो वह अपने सिद्घांत स्वयं बनाती है एवं अपने तरीकों को सही साबित करने का प्रयास करती है, जिसके फलस्वरूप लोगों में अन्ततोगत्वा अमानवीय भावना का विकास होता है। साम्राज्यवादी शक्तियाँ पृथ्वी के प्राकृतिक संसाधनों को लूटकर अपनी प्यास को बुझाती हैं। विगत दो विश्व युद्ध एवं आधुनिक संविधानवाद यह तर्क प्रस्तुत करते हैं कि शक्ति का प्रयोग करने वाले अर्थात राज्य को किसी के भी प्रति, चाहें उसमें अपने ही नागरिक क्यों न हों, हिंसा करने का अधिकार प्राप्त होना चाहिए एवं उनके ऊपर कानून की अथवा मानवाधिकार की कोई बंदिश नहीं होनी चाहिए। इस मुकदमे की सुनवाई के दौरान छत्तीसग़ राज्य के जिलों में घटनाओं एवं परिस्थितियों का ऐसा धुँधला चित्र उजागर हुआ है जिसके फलस्वरूप हम इस नतीजे पर पहुँचने के लिए बाध्य हो गए हैं कि प्रतिवादी हमें संवैधानिक क्रिया कलापों के ऐसे मार्ग पर मोड़ने का प्रयास कर रहे हैं जिसके द्वारा हमें भी जोसेफ कानरैड की भाँति अन्त में यह कहना पड़ेगा कि, भयावह! भयावह!
4. लोग संगठित रूप में, राज्य की शक्ति के खिलाफ अथवा अपने साथी मानवों के खिलाफ अकारण हथियार नहीं उठाते हैं। बचाव की प्रवृत्ति के कारण एवं जैसा कि टामस हाब्स ने कहा है कि कानून विहीनता के कारण जो कि हमारी सामूहिक अन्तरात्मा में निहित है, हम सदैव व्यवस्था की खोज में रहते हैं। फिर भी यदि यह व्यवस्था, अमानुषिकता, कमजोरों, गरीबों एवं दलितों के प्रति अन्याय के साथ आती है तो लोगों में विद्रोह की भावना का जन्म होता है। यह बात सर्वविदित है कि छत्तीसग़ राज्य का विशाल क्षेत्र माओवादी गतिविधियों से प्रभावित है। यह बात भी सार्वभौमिक रूप से जानी जाती है कि छत्तीसग़ढ राज्य में रहने वाले अधिकतर लोगों ने, माओवादी विद्रोही गतिविधियों के कारण एवं राज्य के द्वारा इसके विरोध में की गई दमनात्मक कार्यवाही के कारण, काफी कष्ट उठाए हैं। छत्तीसग़ढ राज्य में परिस्थिति नि:संदेह रूप से काफी दयनीय है। जो और भी ज्यादा हमारे लिए आश्चर्यजनक चीज है वह यह है कि प्रतिवादियों के द्वारा बारबार कहा जा रहा है कि राज्य के लिए अब यही विकल्प शेष है कि अब वह शक्ति के माध्यम से इन राज्य विरोधी ताकतों को कुचल दे। ऐसी सामाजिक व्यवस्था स्थापित करे जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को शक की निगाह से देखा जाए एवं प्रत्येक व्यक्ति जो मानवाधिकार की वकालत करे उसे भी शक की नजरों से देखा जाए एवं माओवादी समझा जाए। इस अंधकारमय एवं दुष्ट संसार में जैसा कि प्रतिवादियों ने इस मुकदमे में वकालत करने की कोशिश की है, इतिहासकार रामचन्द्र गुहा, प्रसिद्ध शिक्षा शास्त्री नंदिनी सुन्दर, समाजसेवी स्वामी अग्निदेश, एवं भूतपूर्व कूटनीतिज्ञ इं0 एस0 शर्मा, इन सभी को माओवादी अथवा माओवादियों का हितैषी समझा गया। हमें यहाँ यह अवश्य कहना है कि हम छत्तीसग़ राज्य की संवैधानिक सीमाओं के प्रति उदासीनता के कारण अत्यधिक आश्चर्यचकित हैं। साथ ही साथ हमें इस बात पर भी आश्चर्य है कि छत्तीसग़ राज्य के समर्थक जो यह दावा करते हैं कि जो भी व्यक्ति राज्य के विभिन्न हिस्सों में व्याप्त अमानवीय दशाओं के प्रति आवाज बुलंद करता है उसको भी माओवादी या उसका हमदर्द समझा जाना चाहिए। साथ ही साथ वे यह भी दावा करते हैं कि राज्य की छत्तीसग़ की जनता के प्रति दमनात्मक हिंसा की नीति संवैधानिक व्यवस्था को बरकरार रखने के लिए आवश्यक है परन्तु इसके लिए संवैधानिक व्यवस्था के अन्तर्गत संवैधानिक सहमति की आवश्यकता है।
5. समस्या यह है जैसा कि हमें दृष्टिगोचर है एवं बहुत से अन्य बुद्धिजीवियों को दृष्टिगोचर होगी कि छत्तीसग़ की जनता के मानवाधिकारों का हनन सुव्यवस्थित ंग से बड़े पैमाने पर, एक तरफ माओवादी एवं नक्सलवादियों के द्वारा किया जा रहा है तथा दूसरी ओर राज्य एवं उसके कुछ गुर्गों के द्वारा भी किया जा रहा है। समस्या यह नहीं है कि कुछ विवेकशील एवं बुद्धिमान लोग छत्तीसग़ की मौजूदा परिस्थितियों पर सवालिया निशान उठा रहे हैं। समस्या हमारी अनैतिक राजनैतिक अर्थ व्यवस्था में है जिस पर की राज्य अपनी मुहर लगाता है एवं जिसके परिणाम स्वरूप क्रांतिकारी राजनीति का जन्म हो रहा है। अभी वर्तमान में एक पुस्तक छपी है जिसका शीर्षक है वैश्वीकरण का अंधकारमय पहलू’’। इस पुस्तक में यह कहा गया है कि संसदीय राजनीति के छः दशकों के उपरान्त भारत वर्ष में नक्सलवादी एवं माओवादी क्रांतिकारी राजनीति का अस्तित्व एक स्पष्ट विरोधाभास है। भारत ने इक्कीसवीं शताब्दी में दशकों से चली आ रही नेहरूवादी समाजवाद का परित्याग करके एक स्वतंत्र एवं वैश्वीकरण की ओर उन्मुख अर्थव्यवस्था में प्रवेश किया है इसके फलस्वरूप आर्थिक विकास तो हुआ है परन्तु गरीबी की दर में भी वृद्धि हुई है। अतएव एक ही प्रकार की समस्या बारम्बार वजूद में आ रही है। जिसका सम्बन्ध विशेष रूप से जमीन से है एवं जिसके कारण विरोध प्रदर्शन की राजनीति, आन्दोलन राजनीति एवं सशत्र विद्रोह जन्म ले रहा है। क्या सरकारें अथवा राजनैतिक दल भारत की उस सामाजिक आर्थिक संरचना को समझने में समर्थ हैं, क्योंकि ये दल केवल सुरक्षात्मक तरीकों में फँसे हुए हैं जिससे कि समस्याओं के समाधान के बजाए उसमें ब़ोत्तरी हो रही है।
6.भारत के कई हिस्सों में उग्र आन्दोलन की राजनीति एवं सशस्त्र विद्रोह का सीधा सम्बन्ध देश की सामाजिक, आर्थिक परिस्थितियों में व्याप्त असमानताओं एवं भ्रष्ट सामाजिक एवं राजनैतिक व्यवस्था से है। वास्तव में भारतीय गणराज्य को इस
सम्बन्ध में बारम्बार चेताया भी गया है। हाल की एक रिपोर्ट जिसका शीर्षक उग्रवाद से प्रभावित क्षेत्रों में विकास एवं चुनौतियाँ हैं’’ में भारत के योजना आयोग द्वारा गठित विशेषज्ञ समिति द्वारा निम्नलिखित महत्वपूर्ण टिप्पणियाँ की गई हैं:
विकास का जो सिद्घांत स्वतंत्रता के समय से अपनाया गया है उससे समाज के दलित वर्गों में असंतोष ब़ा है। विकास का यह सिद्घांत योजना निर्माण कर्ताओं के द्वारा सदैव इन वर्गों पर थोपा गया है। जिसके फलस्वरूप समाज के इन वर्गों को अपूर्णीय क्षति हुई है। इस विकास का लाभ समाज के चंद पूँजीपतियों को असामान्य रूप से प्राप्त हुआ है। अजय कुमार मेहरा ने अपनी पुस्तक वैश्वीकरण की ओर उन्मुख भारत में माओवाद’’ में लिखा है यह विकास इन वर्गों की मूलभूत आवश्यकताओं के प्रति संवेदन शून्य रहा तथा दलित एवं निर्धन वर्ग के लोग विस्थापित एवं मजबूर हो गए। आदिवासी वर्ग के लोगों का सामाजिक ताना बाना नष्ट हो गया, उनकी सांस्कृतिक पहचान धूमिल पड़ गई एवं उनके संसाधनों का शोषण किया गया। इस विकास के कारण नौकरशाही में भ्रष्टाचार को ब़ावा मिला। ठेकेदारों, बिचौलियों एवं समाज के लालची वर्ग ने उनके संसाधनों का बुरी तरह से दोहन किया एवं उनके सम्मान को गम्भीर रूप से आहत किया।
क्रमश:
अनुवादक : मो0 एहरार
5 टिप्पणियां:
इस निर्णय के यहाँ आने की प्रतीक्षा थी। आप का आभार।
NICE.
--
Happy Dushara.
VIJAYA-DASHMI KEE SHUBHKAMNAYEN.
--
MOBILE SE TIPPANI DE RAHA HU.
Net nahi chal raha hai.
दूरगामी परिणामों वाला फ़ैसला । आभार सर इसे यहां पहुंचाने के लिए
आप का आभार।
जरूरी मुकदमा , जरूरी फैसला ।
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