शनिवार, 22 अक्तूबर 2011

माओवाद, आधुनिकतावाद और हिंसाचार-2

जिन इलाकों में माओवादी वर्चस्व है वहाँ वे सभी काम माओवादी करने लगते हैं जो जमींदार-सूदखोर और लठैत किया करते थे। यानी वे अपने विरोधी वर्ग के अवगुणों को स्वयं अपना लेते हैं। सूदखोरों, जमींदारों को जान से मारना एक जमाने में उनके लिए गुरिल्ला संघर्ष का महत्वपूर्ण अस्त्र था। वे मानते थे इससे गाँवों में जमींदारों, सूदखोरों का वर्चस्व खत्म होगा और आम किसान की सत्ता स्थापित होगी। माओवादियों की इस रणनीति के कारण अनेक जमींदार, सूदखोर इलाका छोड़कर चले गए, जो गाँवों में रह गए वे मार दिए गए या उन्होंने माओवादियों के सामने समर्पण कर दिया।
माओवादियों की आरंभ में नक्सलवादी के रूप में पहचान थी। वे गुरिल्ला पद्धति से संघर्ष में विश्वास करते थे,इसी आधार पर मुक्तांचलों का निर्माण और वर्ग शत्रु की हत्या के काम को अंजाम दिया गया। उस समय किसानों और मजदूरों को संगठनबद्ध करने के काम को गौण माना गया। व्यापक शिरकत वाले जनांदोलन की पद्धति को अनुपयुक्त कहा गया। लेकिन कालान्तर में इस पद्धति में सुधार करते हुए माओवादियों ने विभिन्न इलाकों में अलग-अलग नामों से संगठन बनाए या बनवाए और उनके बहाने आदिवासियों ग्रामीणों आदि को एकजुट करने, मीटिंग करने, रैली करने, वर्गशत्रु की हत्या करने या बेदखल करने की पद्धति पर जोर दिया गया। गुरिल्ला युद्ध की पद्धति के नाम पर हत्याएँ करने के काम को संघर्ष का सर्वोच्च रास्ता माना गया। वे मानते हैं कि इससे सामंती और सत्ता के दलालों के वर्चस्व को खत्म करने में मदद मिलती है। गाँवों में किसानों को राजनैतिक शक्ति मिलती है। असल में यह अतिवामपंथ है जो वस्तुगत परिस्थितियों को आत्मगत अधीरभाव से देखता है। कुछ समाज विज्ञानी इसे ‘अराजक आतंकी सिद्धांत’ और ‘पेटी बुर्जुआ अराजकता’ के नाम से भी पुकारते हैं। माओवादियों का मानना है कि उनके द्वारा वर्गशत्रु का सफाया करने की प्रक्रिया के गर्भ से समाज में एक नए मनुष्य का जन्म होगा। यह ऐसा मनुष्य होगा जो मौत से नहीं डरेगा और सभी किस्म के निजी स्वार्थ के विचारों से मुक्त होगा।
माओवादी राजनीति के उभार के कारण नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह के शासनकाल तक के दौरान हुए विकास की सीमाएँ बड़ी तेजी से आम लोगों के सामने उजागर हुई हैं। माओवादियों ने बुर्जुआ विकास की तमाम बातों की महानगरीय
मध्यवर्गीय सीमाओं को उजागर किया है। आज 136 जिलों में माओवादी सक्रिय हैं और इस सक्रियता का बड़ा कारण है सामाजिक आर्थिक असमानता का 63 सालों के विकास के बावजूद बने रहना।
माओवादियों ने अंधाधुंध विकास की नव्य-उदारतावादी नीतियों का देश के विभिन्न इलाकों में जनांदोलन खड़ा करके प्रतिवाद किया है। अनेक स्थानों पर उन्होंने सरकार को पीछे हटने के लिए मजबूर किया है। इस क्रम में कारपोरेट मीडिया में उनका महिमामंडन भी हुआ है और माओवादियों ने गरीबी, असमानता और विस्थापन के सवालों पर सरलीकृत फार्मूलों का जमकर दुरुपयोग किया है। इसमें गरीबी को उन्होंने अपनी हिंसा के लिए वैध अस्त्र ठहराया है।
माओवाद के खिलाफ कुछ लोग यह तर्क दे रहे हैं कि हमें उनके खिलाफ राजनैतिक जंग लड़नी चाहिए। उन्हें जनता से अलग-थलग करना चाहिए। उनके खिलाफ जनता को गोलबंद करना चाहिए। सवाल यह है कि क्या माओवादी हिंसा के समय जनता में राजनैतिक प्रचार किया जा सकता है? क्या माओवाद का विकल्प जनता को समझाया जा सकता है? राजनैतिक प्रचार के लिए शांति का माहौल प्राथमिक शर्त है और माओवादी अपने एक्शन से शांति के वातावरण को ही निशाना बनाते हैं, सामान्य वातावरण को ही निशाना बनाते हैं, वे जिस वातावरण की सृष्टि करते हैं उसमें राज्य मशीनरी के सख्त हस्तक्षेप के बिना कोई और विकल्प संभव नहीं है। राज्य की मशीनरी ही माओवादी अथवा आतंकी हिंसा का दमन कर सकती है।
दूसरी बात यह है कि जब एक बार शांति का वातावरण नष्ट हो जाता है तो उसे दुरुस्त करने में बहुत समय लगता है। माओवादी और उनके समर्थक बुद्धिजीवी माओवादियों की शांति का वातावरण नष्ट कर देने वाली हरकतों से ध्यान हटाने के लिए पुलिस दमन, आदिवासी उत्पीड़न, आदिवासियों का आर्थिक, सामाजिक पिछड़ापन, बहुराष्ट्रीय निगमों के हाथों आदिवासियों की प्राकृतिक भौतिक सम्पदा को राज्य के द्वारा बेचे जाने, आदिवासियों के विस्थापन आदि को बहाने के तौर पर इस्तेमाल करते हैं।
माओवादी राजनीति या आतंकी राजनीति का सबसे बड़ा योगदान है सामान्य राजनैतिक वातावरण का विनाश। वे जहाँ पर भी जाते हैं सामान्य वातावरण को बुनियादी तौर पर नष्ट कर देते हैं। ऐसा करके वे भय और निष्क्रियता की सृष्टि करते हैं। इसके आधार पर वे यह दावा पेश करते हैं कि उनके साथ जनता है। सच यह है कि आदिवासी बहुल इलाकों से कांग्रेस, माकपा, भाजपा आदि दलों के लोग चुनाव के जरिए विशाल बहुमत के आधार पर चुनकर आते रहे हैं। माओवादियों के प्रभाव वाले इलाकों में उनकी चुनाव बहिष्कार की अपील का कोई असर नहीं पड़ता।
मीडिया के प्रचार ने कारपोरेट पूँजी निवेश का जिस तरह पारायण किया है और इसके विध्वंसात्मक आयाम पर पर्दादारी की है, उसे गायब किया है, उससे दर्शकीय नजरिया बनाने में मदद मिली है। प्रचार के जरिए हर चीज का जवाब बाजार में खोजा जा रहा है, हमसे सिर्फ देखने और भोग करने की अपील की जा रही है। बाजार, पूँजी निवेश, परवर्ती पूँजीवाद को वस्तुगत बनाने के चक्कर में मीडिया यह भूल ही गया कि वह जनता को सूचना सम्पन्न नहीं सूचना विपन्न बना रहा है। हमसे यह छिपाया गया है कि पूँजीवाद आखिरकार किन परिस्थितियों में काम करता है।
माओवादी संगठनों के संदर्भ में बुनियादी सवाल यह है कि क्या मौजूदा हिंसाचार जायज, तार्किक, वैध, और न्यायपूर्ण है? क्या इस हिंसाचार से भारत के किसानों के जानो-माल की रक्षा हो रही है? क्या माओवादी संगठनों के प्रभाव वाले इलाकों में किसान और आम आदमी चैन की नींद सो रहा है? माओवादी संगठन अपने प्रभाव वाले इलाकों में जबरिया धन वसूली कर रहे हैं।
दूसरा सवाल यह है कि माओवादियों के पास कई हजार सशस्त्र गुरिल्ला हैं और उनकी पचासों टुकडियाँ हैं, इन सबके लिए पैसा कहाँ से आता है? गोला-बारूद से लेकर पार्टी होलटाइमरों और सशस्त्र गुरिल्लाओं के वेतन का भुगतान किन स्रोतों से होता है? कौन हैं वे देशी-विदेशी संगठन और लोग जो इतने बड़े पैमाने पर माओवादी गुरिल्लाओं को पैसा भेज रहे हैं?
माओवादियों की बात मानें तो आदिवासी अतिदरिद्र हैं और वे कम से कम माओवादियों के लिए नियमित चंदा नहीं दे सकते। माओवादियों को कभी किसी ने शहरों में भी चंदा की रसीद काटकर या कूपन देकर चंदा वसूलते नहीं देखा। ऐसी स्थिति में वे धन कहाँ से प्राप्त करते हैं? हिन्दुस्तान की गरीब जनता और खासकर आदिवासियों को यह जानने का हक है कि माओवादियों के पास धन कहाँ से आता है? और किन मदों में खर्च होता है?
माओवादियों के संदर्भ में तीसरा महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या भारत की बहुलता को माओवादियों के राज्य में कोई जगह मिलेगी? आज तक राजनैतिक, वैचारिक, सामाजिक और धार्मिक बहुलतावाद के प्रति माओवादियों का घृणास्पद और बर्बर व्यवहार रहा है ऐसा ही व्यवहार साम्प्रदायिक, फंडामेंटलिस्ट और आतंकवादी संगठन भी करते हैं।
आज भारत में ऐसे दल हैं जो क्रांति लाना चाहते हैं। सर्वहारा के अधिनायकवाद के पक्षधर हैं। लेकिन वे भारत के बहुलतावादी समाज और राजनैतिक ताने-बाने को मानते हैं और उसकी रक्षा के लिए समय-समय पर अपने दलीय स्वार्थ का भी उन्होंने त्याग किया है। उनकी लोकतंत्र और भारत के संविधान में आस्था है। भारत के दोनों कम्युनिस्ट दल इसके प्रमाण हैं।
समस्या यह है कि माओवादी बहुलतावाद के प्रति सहिष्णु क्यों नहीं हैं? यदि सहिष्णु हैं तो वह सहिष्णुता व्यवहार में नजर क्यों नहीं आती? ‘ऊपर से छह इंच छोटा कर देने से लेकर दनादन मौत के घाट उतारने तक’ का माओवादियों का राजनैतिक सफर इस बात की ओर संकेत करता है कि उनके यहाँ बहुलतावाद के लिए कोई जगह नहीं है।
क्या हम यह कल्पना कर सकते हैं कि माओवादी शासन होगा और उसमें सभी धर्मों की आजादी बरकरार रहेगी? सभी दलों की राजनैतिक स्वाधीनता बची रहेगी? सभी वर्गों में भाईचारा रहेगा? औरतों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों की राजनैतिक, धार्मिक और भाषाई स्वाधीनता बरकरार रहेगी? उनके राज्य में विभिन्न रंगत के माक्र्सवादी, राष्ट्रवादी, उदारवादी सुरक्षित और स्वतंत्रभाव से रहेंगे? और उन्हें अभी जितनी आजादी बुर्जुआ संविधान के तहत मिली हुई है उससे भी ज्यादा
स्वाधीनता और अधिकार प्राप्त होंगे?
माओवाद के संदर्भ में चैथा सवाल यह है कि क्या माओवाद प्रभावित 136 जिलों में सामाजिक, राजनैतिक शक्ति संतुलन माओवादियों के पक्ष में है? जी नहीं, माओवादी संगठन ही नहीं सभी रंगत के क्रांतिकारी संगठन मिल जाएँ तो भी सामाजिक और राजनैतिक शक्ति संतुलन उनके पक्ष में नहीं है। माकपा और वाममोर्चा लंबे समय से पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और केरल में प्रमुख राजनैतिक शक्ति हैं लेकिन सामाजिक वर्गीय शक्ति संतुलन आज भी उनके पक्ष में नहीं है जबकि उन्हें जनता में बड़ी मात्रा में जनसमर्थन प्राप्त है। इसकी तुलना में माओवादियों का किसी भी राज्य में राजनैतिक वर्चस्व नहीं है, सामाजिक वर्गीय शक्ति संतुलन उनके पक्ष में होना तो दिवा-स्वप्न है। माओवादी संगठन किसान, आदिवासी और क्रांति की कितनी ही बातें करें भारत के वैचारिक, राजनैतिक, भाषाई, धार्मिक और सांस्कृतिक बहुलतावाद को नतमस्क होकर स्वीकार करना होगा। बहुलतावाद के इन रूपों को अस्वीकार करने के कारण सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के सभी देशों में समाजवाद गिर गया और कम्युनिस्ट पार्टियों के अंदर से विभिन्न रंगत के पृथकतावादी, फासिस्ट, अंध राष्ट्रवादी, अपराधी, राज्य की संपत्ति के लुटेरे पूँजीपतियों का समूह रातो-रात पैदा हो गया था। समाजवादी व्यवस्था के पराभव के साथ ही हठात् कम्युनिस्टों के अंदर से ऐसे तत्व बाहर आए हैं जिनकी कोई कल्पना तक नहीं कर सकता। आज पूर्व समाजवादी देशों की जनता का कम्युनिस्टों पर विश्वास नहीं है। कहने का अर्थ यह है कि वैचारिक, सामाजिक और सांस्कृतिक बहुलतावाद और लोकतंत्र वास्तविकता हैं। इनको हर कीमत पर बचाया जाना चाहिए।
माओवादी राजनीति का राजनैतिक बहुलतावाद से बैर है। राजनैतिक बहुलतावाद और लोकतंत्र एक सिक्के के ही दो पहलू हैं। माओवादियों की भारत के लोकतंत्र में आस्था नहीं है ऐसे में बहुलतावाद का क्या होगा? क्या माओवाद के नाम पर भारत के लोग बहुआयामी बहुलतावाद की बलि देने को तैयार हैं?
एक अन्य सवाल उठता है कि माओवादी अंधाधुंध कत्लेआम क्यों कर रहे हैं? इस कत्लेआम का उनके प्रतिवादी संघर्षों और किसान, आदिवासियों में नव्य उदारतावाद जनित विस्थापन और भूमि अधिग्रहण के खिलाफ संघर्ष के एजेण्डे का गहरा संबंध है।

क्रमश:
जगदीश्वर चतुर्वेदी

कोई टिप्पणी नहीं:

Share |